Thursday, November 18, 2010

गांधी को गोली लगते जिन्होंने देखा था



“वह भी एक दिन था।” वे क्षण भर रुके। फिर थोड़ी दूर चलकर बताया," गांधीजी को जब गोली लगी तो मैं इस स्थान (10 से 12 फुट की दूरी) पर था।” यह बात के.डी. मदान कह रहे थे। सहसा इसपर आपको यकीन न हो। पर उन्हें सुनने के बाद वह पूरा दृश्य सभी के सामने नाचने लगता है। ऐसा ही उस समय हुआ जब गांधी स्मृति केंद्र के मैदान पर बुजुर्ग के.डी.मदान आंखों देखा हाल सुना रहे थे।

मदान उन दो लोगों में हैं, जिन्होंने गांधी को करीब से गोली लगते देखा था और संयोग से हमारी जानकारी में हैं। उन दिनों मदान वहां ऑल इंडिया रेडियो की तरफ से गांधी के भाषण को रिकार्ड करने रोजाना जाते थे। उन्होंने कहा कि 30 जनवरी की वह एक सामान्य शाम थी। गांधीजी प्रार्थना स्थल पर अपनी जगह पहुंचने ही वाले थे कि एक तेज आवाज आई। मुझे लगा कि कोई पटाखा छूटा है। कुछ और सोच पाता कि दूसरी आवाज सुनाई दी। थोड़ा आगे पहुंचा, तबतक तीसरी बार आवाज आई। वहां मैंने पाया कि जमीन पर गिरे गांधीजी को एक व्यक्ति उठा रहा है, जबकि गोली चलाने वाले को वहां मौजूद कुछेक लोग पकड़े हुए हैं। हालांकि, वह व्यक्ति पूरी तरह शांत और स्थिर था।" दरअसल घटना के 62 साल बाद मदान उस काली शाम की दुखद स्मृति सुना रहे थे।

संयोग देखें, यह कहानी वे उसी मैदान में सुना रहे थे, जहां गांधी की हत्या हुई थी। हालांकि, तब यह स्थान बिड़ला हाउस के रूप में जाना जाता था। पर अब इसकी पहचान गांधी स्मृति केंद्र के रूप में ज्यादा है। परिसर में प्रवेश करते ही उन्हें रह-रहकर पुरानी बातें याद आती रहीं। यह सहज था, क्योंकि उन यादों को ताजा करने के लिए पुराने अवशेष अब भी वहां ज्यों के त्यों पड़े हैं। मदान ने परिसर में घूमते हुए बताया कि उस दिन गांधी किस रास्ते मनु और आभा के साथ प्रार्थना स्थल पर आ रहे थे ? किस स्थान व कितने करीब से उन्हें गोली मारी गई ? और स्वयं वे कितने फासले पर थे। प्रार्थना सभा से जुड़ी कई महत्वपूर्ण बातें भी उन्होंने बताईं। तब ऐसा लग रहा था जैसे हम कोई वृतचित्र देख रहे हों। वैसे, परिसर में गांधी के पद-चिन्ह बने हैं। कई स्थानों पर पट्टियां भी लगी हैं, जिसपर जानकारियां दर्ज हैं। इससे मालूम होता है कि गांधी फलाने कमरे में आने वालों से मुलाकात करते थे और फलाने रास्ते से प्रार्थना स्थल तक जाते थे।

इस छायादार परिसर में और भी सूचनाएं करीने से दर्ज हैं। लोग उसे पढ़कर सच जान सकते हैं। पर मदान करीब 45 मिनट तक 30 जनवरी की शाम का आंखों देखा हाल सुनाते रहे, जो वहां मौजूद लोगों के जेहन में गहरे उतरा। एकबारगी ऐसा लगा कि कोई अनुभव से पका पत्रकार उस घटना का सीधा प्रसारण कर रहा है। यह अवसर 'गांधी दर्शन' के संपादक अनुपम मिश्र और गांधी स्मृति केंद्र की निदेशक मणिमाला के अथक प्रयास से ही संभव हुआ। अनुपम मिश्र ने ही उस शाम के प्रत्यक्ष गवाह मदान को ढूंढा। इसी क्रम में जब उन्हें मालूम हुआ कि इस घटना को और करीब देखने वाल कोई दूसरा व्यक्ति भी है तो पता-ठिकाना लेकर पत्रकार-लेखक देवदत्त के पास पहुंचे। फिर एक कार्यक्रम की कल्पना की गई, ताकि मदान व देवदत्त के स्मृति-खंड को सुना जा सके। जो लोग इस अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे और स्मृति-खंड को सुनने आए उनमें वीजी वर्गीस, गोपाल कृष्ण गांधी, तारा बेन, केएन. गोविंदाचार्य आदि शामिल थे।

वे दोनों पत्रकारिता की दुनिया से जुड़े रहे हैं। दोनों हमेशा उस दुखद स्मृति-खंड को सार्वजनिक करने से बचते रहे। आज जब पिद्दी खबरों व संस्मरणों पर भी अपनी पीठ थपथपाने का रिवाज बढ़ता जा रहा है तो यह उम्मीद देवदत्त और मदान जैसे कुछेक पत्रकारों से ही कर सकते हैं, जिन्होंने गांधी को देख-सुनकर अपनी समझ बढ़ाई है। बहरहाल, मदान ने बताया कि उन दिनों वे 24 के थे और ‘ऑल इंडिया रेडियो’ में बतौर कार्यक्रम अधिकारी नियुक्त थे। वे प्रार्थना सभा से ठीक पहले गांधीजी के कहे को रिकार्ड करने बिड़ला हाउस जाते थे। क्योंकि, रात 8.30 बजे गांधीजी का वही भाषण ऑल इंडिया रेडियो से प्रसारित किए जाता था।
उन्होंने कहा, “मैं 19 सितंबर, 1947 से 30 जनवरी, 1948 तक करीब-करीब रोजाना प्रार्थना सभा में उपस्थित था। इस बीच कुल चार दिन ही ऐसे थे, जब प्रार्थना-सभा नहीं हुई। क्योंकि, एक दिन गांधीजी कुरुक्षेत्र में लगे शरणार्थी शिविर का दौरा करने गए थे, जबकि तीन दिन वे किसी अन्य जगहों की यात्रा पर थे। संभवत: बंगाल गए थे। ”
अपनी स्मृति को साझा करते हुए मदान ने कहा कि प्रार्थना सभा का समय शाम पांच बजे निश्चित था। गांधीजी अधिक से अधिक पांच मिनट की देरी से अपने स्थान पर पहुंच जाते थे। पर घटना वाली शाम वे करीब 15 मिनट की देरी से वहां पहुंचे। कहा जाता है कि गांधीजी को शाम 5.17 बजे गोली लगी थी। पर मेरी घड़ी तब शाम के 5.16 का समय बता रही थी। इस तरह क्रमवार मदान की कभी न मिट पाने वाली इस स्मृति-खंड को सुनकर एक अजीब सा सूनापन महसूस हो रहा था।

अब वे 86 के हो चुके हैं। पर आवाज साफ और उच्चारण स्पष्ट हैं। मदान ने कहा कि तब सूचना पहुंचाने का कोई सीधा माध्यम नहीं था। इसके बावजूद घटना की सूचना इतनी तेजी से फैली कि शाम के छह बजते-बजते करीब बीस हजार से अधिक लोग गेट के बाहर इकट्ठा हो गए थे। यहां पहुंचने वालों में लार्ड माउंटबेटन पहले महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। इसके बाद नेहरू, सरदार पटेल व अन्य लोग आए। मदान को इस बात का अब भी मलाल है कि वे उस व्यक्ति को नहीं ढूंढ़ पाए, जिसने घटनास्थल से गांधीजी के शरीर को उठाया था। लेकिन, उस मोमबत्ती के मद्धिम आलोक को वे आज भी नहीं भूले, जिसे तत्काल किसी ने उसी स्थान पर जला दिया था, जहां गांधीजी को गोली लगी थी और वे गिर पड़े थे। स्मृति को सुनाते हुए कई बार मदान के भीतर छुपा पत्रकार भी जगता नजर आया। ऐसा एक मौका वह था, जब उन्होंने कहा कि घटना हमारे सामने हुई थी, पर कोई सच कहने-मानने को तैयार नहीं था। बीबीसी ने 5.35 बजे सबसे पहले इस खबर को प्रसारित किया। हालांकि, ऑल इंडिया रेडियो ने कुछ देर बाद घटनास्थल से ही नेहरू के शोकाकुल भाषण का सीधा प्रसारण किया। गांधी स्मृति केंद्र के एक प्रवेश द्वार की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, “यहीं से नेहरू ने अपना भाषण दिया था। उनके आंसू बह रहे थे, पर वे लगातार बोलते रहे। उस शाम यहां इकट्ठा हुए सभी लोग शोक में गहरे डूबे थे। सबकुछ मौन में डूबा था। वह नजारा अलग था। ”

हालांकि, पत्रकार-लेखक देवदत्त थोड़ी देर से आए, उन्होंने मदान की पूरी बातें नहीं सुनीं। पर जो थोड़ा-बहुत कहा उससे बात और साफ हुई। सवाल-जवाब का दौरान आया तो तथ्य बताते हुए कहा कि उन्होंने घटना को दो-तीन फुट की दूरी से देखा था। साथ ही यह भी कहा कि जो लोग गांधीजी पर गोली चलाने वाले को पकड़ रहे थे, वे कोई प्रशिक्षित नहीं लग रहे थे। जनसत्ता में छपे अपने पुराने स्मृति-खंड में वे कह चुके हैं कि गोली लगने के बाद गांधी को “हे राम” कहते उन्होंने नहीं सुना था। वही सवाल यहां के.डी.मदान से हुआ।
उन्होंने कहा, “हालांकि, मैंने गांधी को ‘हे राम’ कहते नहीं सुना। पर यह लीजेंड है और इसे लीजेंड ही रहने दिया जाय। ”
मदान ने कहा कि प्रार्थना स्थल पर कोई पुलिसकर्मी तैनात नहीं रहता था और गोली चलाने वाले को पकड़ने वाले आस-पास खड़े लोग ही थे। दरअसल इन दोनों बुजूर्गों ने जो कहा उनमें कई समानताएं थीं।

इन बातों से अलग होकर यहां मौजूद लोगों को देवदत्त ने अपनी दूसरी चिंताओं से भी वाकिफ कराया। उन्होंने कहा, “इस व्यवस्था ने गांधी को रीति-रिवाज का तरीका भर बना दिया है। वे गांधी का इस्तेमाल अपनी जरूरत भर करते हैं। हालांकि, हजारों लोगों के जहन में गांधी जीवित हैं। इसमें युवा ज्यादा है, वे गांधी को नजदीक से जानना-समझना चाहते हैं। ”

कार्यक्रम की इसी श्रृंखला में सन् 1937 में गांधीजी पर बनी 90 मिनट की एक डाक्युमेंट्री फिल्म का अंग्रेजी संस्करण दिखाया गया। इसे तैयार करने का श्रेय ए.के.चेट्टिआर को है। हालांकि, मूल रूप से यह फिल्म तमिल भाषा में बनाई गई थी। बाद में उसे तेलगु और फिर हिन्दी में डब किया गया। अनुपम मिश्र ने कहा, “सन् 1940 में अंग्रेज सरकार ने इस फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया था और इसकी कॉपियों को नष्ट करने के प्रयास हुए थे। खैर, फिल्म का अंग्रेजी संस्करण मुश्किल से मिला है।” नवंबर की भरी दोपहरी में मदान और देवदत्त को गांधी स्मृति केंद्र में सुनना एक अदभुत अनुभव था। गांधी स्मृति में दाखिल होते ही महसूस हुआ कि इस आंगन में न जाने कितनी पुरानी सदियों का मौन जमा है। मदान और देवदत्त उसी मौन की वजह बता रहे थे।

ब्रजेश झा
09350975445

Wednesday, November 3, 2010

जरा ठहर कर देखें



फ्लिकर वेबसाइट पर तफरीह के दौरान एक खूबसूरत तस्वीर दिखी। वहां से सभार। आप भी देखें

Tuesday, August 3, 2010

चल पड़ी पीपली लाइव' की हवा


फिल्म 'पीपली लाइव' तो 13 अगस्त को बड़े पर्दे नजर आएगी। पर इसका असर दिखने लगा है। इसे दुनियाभर में पहचान मिल रही है। अब देखिए, दक्षिण अफ्रीका में आयोजित 31वें डरबन अंतरराष्ट्रीय फिल्म उत्सव में इसे सर्वश्रेष्ठ पहले फीचर फिल्म का खिताब दिया गया। फिल्म का निर्देशन अनुशा रिज्वी ने किया है। उनके निर्देशन में बनी यह पहली फिल्म है।

दरअसल, यह फिल्म देश में हो रही किसानों की आत्महत्या और उसपर होने वाली मीडियावाजी व राजनीति पर तीखा व्यंग्य है। यह पुरस्कार मिलने के बाद हर कोई बहुत उत्साहित है। निर्णायक मंडल ने फिल्म की काफी तारीफ की है। उनका कहना है कि 'पीपली लाइव' एक महत्वाकांक्षी और वास्तविक फिल्म है। यह गंभीर राजनीतिक मुद्दों को विनोदपूर्ण तरीके से उठाती है।

फिल्म की कहानी दो गरीब किसानों के इर्द-गिर्द घूमती है। वे दोनों पीपली नामक गांव में रहते हैं और कर्ज में डूबे हूए हैं।
इससे उनकी जमीन भी हाथ से निकलने वाली होती है, तभी एक नेता उन्हें सरकारी सहायता लेने के वास्ते आत्महत्या का सुझाव देता है। खबर तत्काल फैल जाती है। उक्त किसान मीडिया के लिए भी खास हो जाता है। यकीनन, फिल्म आपको बज्र देहाती दुनिया की सैर कराएगा।

सरकार से बड़ा काम तो पंत ने किया


कैलाशचंद्र पंत को देखकर मालूम होता है कि द्विवेदी युगीन परंपरा अभी जीवित है। जहां लोग अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव से चिंतित भर हैं, वहीं पंत ने राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार का जिम्मा उठाया। उन्होंने कई प्रयोग किए और नई राह का निर्माण भी किया है। वे अब जीवन के 75वें साल में प्रवेश कर गए हैं। पर, उम्र उनपर हावी नहीं। कुछ नया करने की ललक उनमें बच्चों जैसी है। सामाजिक गतिविधियों में उनकी सक्रियता नौजवानों के लिए एक नजीर है। पंत की यही विशिष्टता उन्हें अपने समकालीनों से अलग करती है।

वे पहले व्याख्याता थे। फिर प्राचार्य हुए। बाद में उदयपुर जाकर प्रकाशन का भी काम देखा। लेकिन, उनका मन रमा पत्रकारिता और समाजिक गतिविधियों में आकर। गत चार दशकों से पंत हिन्दी की दुनिया से जुड़े हुए हैं। पहले दैनिक अखबारों से जुड़े, फिर साप्ताहिक और मासिक पत्रिका का जिम्मा संभाला। अब द्वैमासिक पत्रिका ‘अक्षर’ का संपादन कर रहे हैं। इस पत्रकारीय सफर के साथ राष्ट्रभाषा हिन्दी के लिए जो काम उन्होंने किया, वह एक अनूठी लगन व परिश्रम का ही परिणाम है। भोपाल का हिन्दी भवन राष्ट्रभाषा प्रेम को लेकर उनकी निष्ठा व संगठन कौशल का प्रतीक माना जा सकता है।

वैसे तो यह रिवाज चल पड़ा है कि अब इन कामों के लिए लोग सरकार का मुंह ताकते हैं, पर पंत ने अलग रास्ता चुना। उन्होंने लोगों को जोड़ा और चुनौती मानकर कई बड़े काम किए। भोपाल में हिन्दी भवन का विस्तार किया, इसी शहर में किसान भवन का निर्माण कराया इस सूची में कई दूसरे कार्य भी शामिल हैं। वे लगातार राष्ट्रभाषा और संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय रहे, लेकिन कभी सरकारी सहयोग मांगना जरूरी नहीं समझा।

वे कहते हैं, “हम अपनी भाषा और संस्कृति से जुड़कर ही अपने संस्कारों से जुड़े रह सकते हैं। हम अंग्रेजियत और अंग्रेजों को कोसते तो हैं, पर उनका अनुकरण भी करते हैं। यह समय आत्महीनता से मुक्त होने का है।” मालवा के महू में जन्मे कैलाशचंद्र पंत को चाहने वाले आज देश के सुदूर इलाकों में फैले हुए हैं। शायद यही वजह है कि जब वे 75 वर्ष के हुए तो उनके अमृत महोत्सव वर्ष मनाने की चर्चा चल पड़ी। गत 26 अप्रैल को महू में उनके 75वें जन्मदिन पर इसकी शुरुआत हो चुकी है। इस श्रृंखला का दूसरा समारोह गत 24 जुलाई को गांधी शांति प्रतिष्ठान में मनाया गया।

Monday, August 2, 2010

अब भी है उस बैठक का इंतजार


लुप्त होती संभावनाओं के इस दौर में उम्मीद बाकी है। ऐसे कई दरवाजे अभी खुले हैं, जिस रास्ते चलकर गांधी के भारत का निर्माण हो सकता है। जल, जंगल और जमीन पर सामुदायिक हकदारी की बात उठाने वाले जब पिछले दिनों दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में इकट्ठा हुए तो एकबारगी ऐसा महसूस हुआ। यहां वे लोग एक निर्णयात्मक संवाद के लिए आए थे। उनका मकसद नए कंपनी युग से निपटने के लिए एक माकूल औजार की खौज करना था, ताकि प्राकृतिक संपदाओं पर सामुदायिक हकदारी बरकरार रखी जा सके। यह वही स्थान है जहां से सरकारी नीति को चुनौती मिलती रहती है।
गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्ष राधा भट्ट के बुलावे पर देशभर से बैठक में आए लोगों ने माना कि जल, जंगल और जमीन से जुड़ा सवाल गहरा है। क्योंकि, जमीन के नीचे के संसाधनों के हक को लेकर प्रश्न हो रहे हैं। पानी व खनिज पदार्थों से जुड़े सवाल उठ रहे है। लोगों ने कहा कि पहले वन सामुदायिक संपत्ति थी। इसके सारे हक-हकूक सामुदायिक ही थे। अब यह सरकारी हकदारी में पहुंच गए हैं। अमीर तबका जल, जंगल औऱ जमीन के सारे सुख भोग रहा है। हर तरफ निजीकरण का दौर चल पड़ा है। ऐसी स्थिति में जनता बेचैन है। वह नेतृत्व का इंतजार कर रही है। इन्हीं बातों की ओट में गत 17 और 18 जुलाई को विचार मंथन होता रहा।
राधा भट्ट चाहती हैं लड़ाई मिलकर लड़ी जाय। उनकी कही बातों से यह स्पष्ट हुआ। बैठक में देशभर से आए अन्य लोगों ने भी अलग-अलग तरीके से यही राय रखी। गुजरात से आए लोक संघर्ष समिति के चुन्नी भाई वैद्य ने तो यहां तक कहा कि हमारी बैठक में ज्यादा रुचि नहीं है। कोई काम की बात हो तब बात बड़े। उन्होंने कहा, “ लोग तैयार हैं। वे नेतृत्व का इंतजार कर रहे हैं। देखना यह है कि हमारी तैयारी कितनी है। वक्त जाया करना ठीक नहीं है। हमें निर्णय करना चाहिए।
बातचीत के दौरान लोगों ने कहा कि जमीन समाज की है। भूमि सुधार दरअसल भूमि समस्या को जिंदा रखने का तरीका है। अत: खेत का ग्रामीणीकरण व सामाजिकरण होना चाहिए।
यह बैठक की सीमा ही थी कि तमाम समस्याओं के सामने आने व लोगों की ललकार के बावजूद आगे की लड़ाई का कोई कारगर तरीका नहीं खोज जा सका। निश्चय ही ऐसी कोशिशों के सफल न होने से सरकार का मन बढ़ता रहा है। ताज्जुब की बात है एक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन की जरूरत तो देश भर में लोग महसूस कर रहे हैं। जनता उन लोगों की तरफ देख रही है, जिनसे उन्हें उम्मीद है। पर यह तय नहीं हो पा रहा है कि बिखरी शक्तियों को कैसे एक सूत्र में पिरोया जाए। गांधी शांति प्रतिष्ठान में दो दिनों तक यह कोशिश होती रही।

Sunday, August 1, 2010

एक खास दिन



लोगों ने कुछ संदेश भेजे। अपना भी दिल बोला। यह ढूंढा अब यहां लगा रहा हूं।
ब्रजेश

Friday, July 23, 2010

एक खूबसूरत तस्वीर


बस देखते रहें।
नंदिता रमण की वेबसाइट पर मिली।

Wednesday, July 7, 2010

इंतजार वाली फिल्म


ज़ैग़म इमाम के पहले उपन्यास दोजख का विमोचन हो रहा था। इक संपादक लंबी छोड़ रहे थे। अपनी समझ से जानकारी दे रहे थे कि इस मुल्क का मुसलमान आखिर क्या सोचता है। तभी महमूद वहां से उठ चले। सीपी के एक हॉस्पोदां में दानिस के साथ किसी शीतल पेय की चुस्की ले रहे थे। यह मैंने तब देखा जब उनके ही मित्र रविकांत के साथ वहां पहुंचा। सभा से उठ आने की वजह पर उन्होंने रविकांत से कहा, “अब हमें ही सुनना पड़ रहा है कि इस मुल्क का मुसलमान क्या सोचता है।” तब किसी तीसरे ने कहा, “बताइये महसूद क्या सोचते हैं, उन्हें ही नहीं मालूम पर न्यूज चैनल के संपादक को मालूम है।”

खैर, बात आई गई। उसी शाम एक फिल्म की चर्चा हो रही थी, जो कुछ ही दिन पहले पूरी हुई थी। फिल्म के नाम को लेकर जो कुछ चल रहा था, उन बातों को वे अपने मित्र रविकांत से बांट रहे थे। हम तो सुनने वाले थे। लगता है वह फिल्म 13 जुलाई को आ रही है। ऐसे में यदि ठीक-ठीक याद है तो महमूद ने इस बात का जिक्र किया कि फिल्म के शुरुआती कुछेक मिनटों के दृश्य ऐसे हैं जो थोड़े विचित्र लगेंगे। इकबारगी मालूम होगा कि पता नहीं फिल्म कहां ले जा रही है, यहीं एक उत्सुक्ता पैदा लेती है। यकीनन, देश के भीतर और भीतर धंस्ते जाने की कथा रोचक होगी।

Friday, July 2, 2010

मुश्किलें नारियल से कहीं आगे है


इस देश में धर्म का महत्व है, पर जाति उसपर हावी है। उसका महत्व बहुत ज्यादा है। इस देश के किसी भी गांव में तफरीह के दौरान आप किसी का परिचय पूछेंगे तो वह जाति को कहीं अधिक महत्व देता मालूम पड़ेगा। राजनीतिक वैज्ञानिक रजनी कोठारी इस बाबत विस्तार से कह चुके हैं। इस पंक्ति का लेखक भी महसूस कर रहा है कि लोग जाति के रास्ते समाज से जुड़ने का सरल रास्ता अख्तियार करते रहे हैं। उसके लिए धर्म तो बाद की चीज है।

इस देश में जो राजनेता जाति को नहीं जोड़ पाए, और उसकी राजनीति नहीं कर पाए, वे धर्म की राजनीति करने लगे। आप देख लें बसपा प्रमुख मायावती को या फिर शिबू सोरेन। उन्हें राजनीति के लिए धर्म की जरूरत नहीं है। पर हां, लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव को धर्मनिरपेक्ष बने रहना है, क्योंकि उनमें विचार और जाति के स्तर पर अपनी जाति को जोड़े रखना मुमकिन नहीं हो पा रहा है। भाजपा जिस हिंदुत्व के रास्ते चलने का दवा करती है, वह बड़ी चीज है। हिंदुत्व के उस शिखर तक पहुंचना भाजपा नेताओं के बूते की बात नहीं है। इससे भ्रम पैदा हो रहा है। यहां तो हिंदू के लिए सूफी आंदोलन का उतना ही महत्व है, जितना कि शैव और वैष्णव आंदोलन का है। उन्हें हाजी-अली से भी उतना ही लगाव है जितना महालक्ष्मी मंदिर से। तो यह तय है कि इस देश को वैसा हिन्दू राष्ट्र नहीं बनाया जा सकता जैसा कुछेक लोग चाहते है।

खैर, जिन्हें बिहार का पिछला विधानसभा चुनाव याद है, उन्हें स्मरण होगा कि तब चुनाव प्रचार के समय कहा जा रहा था कि जदयू-भाजपा गठबंधन को वोट न दें। यदि वे जीतते हैं तो सूबे में अल्पसंख्यकों का रहना मुश्किल हो जाएगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक चुनाव प्रचार के दौरान इस ओर संकेत कर रहे थे। पांच साल बीत गए। अब अगला चुनाव होने वाला है। स्थिति जो बनी वह सबके सामने है। यकीनन, वहां जो कुछेक विकास के काम शुरू हुए, उस दौरान नारियल भी फोड़े गए। पर कोई बवेला नहीं मचा। दरअसल मुश्किलें तो कहीं और पैदा हो रही हैं।

Thursday, July 1, 2010

नारियल पर बात निकली है तो -


चंद रोज पहले दीवान के नामदार लेखक (विनीत कुमार) ने दिल्ली मेट्रो रेलवे के बाबत एक पोस्ट जारी किया। वह नई लाइन की शुरुआत पर तिलक लगाने व नारियर फोड़ने से संबंधित पोस्ट था। उन्होंने हद तक गहरे सवाल उठाए। हम उनके लेखनी की कद्र करते हैं। पर क्या है कि कुछ अपने मन में भी है। सोचता हूं कह दूं।

हमारी शुरुआती पढ़ाई भागलपूर के जिस स्कूल (सीएमएस हाई स्कूल) में हुई वहां कोई पूजा वगैरह नहीं होती थी। अब भी शायद यही आलम है। स्कूल में सरस्वती की मूर्ति भी परिसर से बाहर एक कोने में बैठाई जाती थी। यह उस प्रदेश की बात है, जहां सरस्वती पूजा का छात्रों के लिए खासा महत्व है। इसके बावजूद स्कूल में कभी ऐसे सवाल नहीं उठे कि आखिर सरस्वती की मूर्ति परिसर के बाहर क्यों बिठाई जाती है ? सूबे में ऐसे बहुतेरे स्कूल हैं जहां सरस्वती पूजा नहीं होती है। पर यह सवाल कोई महत्व नहीं रखता कि क्यों नहीं होती या फिर क्यों होती है? दरअसल चर्च के उन अर्ध सरकारी स्कूलों में यह रिवाज बन गया है और इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता है। अतः इससे जुड़े सभी सवाल गैर जरूरी हैं। पर, नारियल फोड़ने पर सवाल होंगे तो वहां भी बाल मन में सवाल उठ सकते हैं। वह स्थिति यकीनन अभी से बुरी होगी।

मैं जिस स्कूल की चर्चा कर रहा था ठीक उसी विद्यालय के सामने एक चौंक (चौराहा) है। नाम है आदमपुर चौंक। वहां जामने से मस्जिद नूमा आकार खड़ा है। एक दफा कुछ लोगों ने वहां शिवजी के प्रतीक को बैठा दिया। गौर करें.इस पर कोई हंगामा नहीं हुआ, जिन लोगों ने ऐसा किया था वे हंसी के पात्र हो गए। अब वह स्थान पूर्ववत है। वहां कई नारियल फोड़े गए थे, पर कोई असर नहीं हुआ।

खैर, इसे भी रहने दें। इस मुल्क में करोड़ों आंगन हैं जहां तुलसी के पौधे लगे हैं। इनमें कई लोग पौधे को प्रणाम कर बाहर निकलते हैं और कई यूं ही। पर इन लोगों में सांप्रदायिक तत्व ढूंढ़ना गैरवाजिब ही होगा। देश की धर्मनिरपेक्षता इतनी कमजोर नहीं है। थोड़ा पहले कह रहा हूं पर जरूरी है- यदि इस देश में राम मंदिर बल से बनाने की कोशिश हुई तो उसका वही हाल होगा जो आदमपुर के उक्त स्थान को हो गया है। क्योंकि आस्था थोपी नहीं जा सकती, वह तो पैदा लेती है। वहां हिंसा का कोई मोल नहीं होता है। वहां तो सिर्फ और सिर्फ सूर, कबीर तुलसी व जायसी की भक्ति का बोलबाला है। देश में सांप्रदायिक हिंसा का जो इतिहास है, उसकी वजहें दूसरी हैं। हां एक सच यह है कि कुछ लोग उस आस्था तक को चोट पहुंचाने में लगे हैं। इससे गंभीर समस्या पैदा हो सकती है।



इस देश में ऊपर से लादे गए धर्मनिरपेक्षता शब्द से पहले भी लोग मजे में रहते थे। तब कोई ट्रेन जलाई गई हो, अहमदाबाद हुआ हो यह जानकार बताएंगे। पर यह सच है तब भी गांव के इस देश में मस्जिद भी थे और मंदिर भी। कई-कई स्थानों पर चर्च भी। दूसरे भी थे। आज भी हैं, पर सबों के मन में एक अटकाव है। ऐसे माहौल में सतर्क लेखन की जरूरत है।

अगला भाग अगले दिन

शुक्रिया

Saturday, June 19, 2010

बहसतलब-दो के बाबत



एक आम आदमी

कुछ अटकाव के बावजूद बहसतलब-दो कायदे का रहा। बड़ी सहजता से नाटक की दुनिया से जुड़ीं त्रिपुरारी शर्मा ने इसे समझाया भी। सवाल हुए तो बड़े उदात्त भाव से कहा, “बहस कहां हो रही है, मेरे लिए यह सवाल महत्व का नहीं है। महत्व की बात तो इतनी भर है कि आम आदमी के लिए बहस जारी है।” दरअसल यही वह बिंदु है जो बहसतलब में जान डालती है। उसके मतलब को बताती है। साथ ही उसे आगाह भी करती है।

बहरहाल, इस विमर्श के दौरान नामवर सिंह ने अपने नाम के साथ न्याय नहीं किया। ऐसा लगा कि जल्दी में आए हुए हैं। कथाकार राजेंद्र यादव के एक सवाल का जवाब देने की बारी आई तो थोड़े उलझते मालूम हुए। लगा कोई पुरानी कसर निकाल रहे हैं। राजेंद्र यादव शायद भांप गए और चुप ही रहे। आम आदमी का बहसतलब एकबारगी दो खास लोगों के अखाड़े में तबदील होता मालूम हुआ। दुर्भाग्य से अविनाश भी यही चाह रहे थे। यादव को बारंबार माइक थमा रहे थे कि वे कुछ बोलें। पर रंग गाढ़ा करने में विफल रहे। वैसे भी उक्त लोग बड़े हैं तो बात बड़प्पन में आई-गई।

अरविंद मोहन ने बताया कि आम आदमी का मीडिया किन हालातों से निपट रहा है। उन्होंने सच्चाई मानी। कई बातें इशारों में कह गए। शायद बहसतलब का संचालन कर रहे विनीत कुमार उसे पकड़ने से चूक गए। कह बैठे कि अरविंद मोहन डिफेंसिव खेल गए। यकीनन, अनुराग यहां आम लोगों से दो-चार हुए। और खूब कहा। पर सवाल करने वालों को संतुष्ट नहीं कर पाए। अजय ब्रह्मात्‍मज पूरी तरह आम आदमी की तरफ खड़े नजर आए।

कुल मिलाकर त्रिपुरारी शर्मा की बातें बहसतलब की उपलब्धियां रहीं। वहां न कोई आक्रामकता थी, न दंभ। न ही अपने खास होने का बोध। दरअसल आज दौर में वही तो है आम आदमी।

Monday, June 14, 2010

‘राजनीति’ में राजनीति


फिल्म राजनीति चार जून को परदे पर आई तो इससे जुड़े विवाद एकबारगी थम गए। फिल्म देखकर लौटे सिने प्रेमियों के मुताबिक राजनीति में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का अक्स दिखलाई नहीं पड़ता। हालांकि, कांग्रेसी कार्यकर्ता कुछ ऐसा ही दावा कर रहे थे। वे शोर मचाते हुए उच्च अदालत तक पहुंच गए। वहां कहा कि फिल्म में कटरीना कैफ का किरदार सोनिया गांधी पर केंद्रित है। इससे उनके अध्यक्ष की छवि धूमिल होती है। इस विवाद से फिल्म की खूब चर्चा हुई। फिल्म को सफल बनाने में इस विवाद का खासा योगदान रहा। वैसे फिल्म के परदे पर आने से पहले निर्माता-निर्देशक प्रकाश झा इस बात का खंडन कर चुके थे।

खैर, झा वैसे फिल्मकार हैं जो अपनी कृति से सार्थक बहस पैदा करते रहे हैं। पर, उनकी हालिया फिल्म ‘राजनीति’ विवादों में रही। इसने किसी नई बहस को पैदा नहीं किया। कहा जाता है कि झा की इस फिल्म पर कांग्रेसी शुरू से ही निगाह गड़ाए बैठे थे। फिल्म सेंसर बोर्ड के पास गई तो इससे पहले ही कांग्रेस पार्टी की तीन सदस्यों वाली एक समिति ने इसे देखा। कुछ दृश्यों को हटाने व संवादों के साथ बीप के इस्तेमान की बात कही थी। इसके बाद मजबूरन कुछेक फेर-बदल प्रकाश झा को करने पड़े।

दरअसल, सत्ता का भान कराने का कांग्रेसियों में पुराना रिवाज है। यहां उन्होंने यही किया। पर, सिनेमा के शिल्प को नहीं समझ पाए और सही जगह पहुंचने से रह गए। काट-छांट के बावजूद झा उनसे आगे ही रहे। पृथ्वीप्रताप (अर्जुन रामपाल) की विधवा के रूप में इंदु (कटरीना कैफ) का जनता के बीच जाकर भावनात्मक भाषण देना सतर्क निगाह को पुरानी याद दिलाता है। जानकारों का मानना है, “यही तो राजनीति है, आप आपना काम कर जाएं। दूसरों को देर बाद मामूल पड़े। न पड़े तो और भी अच्छा।”

बहरहाल, भारतीय राजनीति में दलीय मतभेदों व टकराव की शिनाख्त करने वाली कम फिल्में हैं जिन्हें लंबे समय तक याद रखा जा सके। ऐसी फिल्में तो और भी कम हैं जो परिवार के भीतर पॉलिटीकल पॉवर हासिल करने के मकसद में जुटे लोगों की पहचान कराती है। यह नहीं कहा जा सकता कि झा की ‘राजनीति’ ने इस कमी को पूरा कर दिया है। पर इसे देखते हुए मालूम पड़ता है कि यह फिल्म वर्तमान भारतीय राजनीति के विषय में और अधिक समझ पैदा करने के लिए बनाई गई है। पर, यहां कई ऐसे गड़बड़झाले हैं जो दर्शकों को उलझाते है। आगे चलकर फिल्म हिंसक ज्यादा हो जाती है। चुनाव प्रचार के दौरान मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार पृथ्वी प्रताप के घर में विस्फोट इसका प्रमाण है।

गत दो दशकों से राजनीतिक घटनाएं तेजी से घटी हैं। इसने बौद्धिक लेखन को प्रेरित किया। कई सामग्रियां प्रकाश में आई हैं। पर सिनेमा मौन ही रहा। हालांकि अपवाद हैं। 21वीं शताब्दी में स्थितियां कुछ ऐसी बदलीं कि पहले की अपेक्षा भारतीय राजनीति में युवकों की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई। वे शीर्ष पद की दौर में शामिल हो गए हैं। झा इसे विभिन्न कोणों से परदे पर उतारते हैं। यह जोखिम था। पर झा ने उसे उठाया है।

आंधी और हु-तू-तू जैसी राजनीतिक फिल्म बना चुके गुलजार एक जगह कहते हैं- “अपने पोलिटिकल पीरियड पर कमेंट करना आसान नहीं होता है। पर मैंने यह रिस्क उठाया है। आंधी को लेकर मुझे काफी दिक्कतें उठानी पड़ीं। हालांकि, आज राजनीतिक हस्तक्षेप पहले से कम हुए हैं। पर, आज राजनीतिक गिरोहों द्वारा हस्तक्षेप हो रहा है।” झा की फिल्म प्रदर्शित होने से पहले जो विवाद गहराया, उससे गुलजार सौ फीसद सही साबित होते हैं। आखिरकार प्रकाश झा भी तो फिल्म ‘राजनीति’ के माध्यम से अपने पोलिटिकल पीरियड पर कमेंट कर रहे हैं। लेकिन, फिल्म को कमर्शियली सफल करने के लिए जिस तामझाम की जरूरत होती है ‘राजनीति’ में वे सारी चीजें हैं। इसमें सच कई जगहों पर छुप सा गया है। शायद झा भी यही चाहते थे, क्योंकि उन्हें अंदेशा था कि सीधी बात होगी तो बवेला मचाएंगे। वैसे राजनीति भी साफ और सीधी कहां रह गई है!

भारत में क्षेत्रों की राजनीति पेचीदा है, पर उसका महत्व और भी बढ़ा है। इसे परदे पर अच्छी तरह उतारना सरल नहीं था। पर फिल्म को देखते समय ऐसा लगता है कि निर्देशक तामझाम के बीच कुछ वाजिब सवालों को उठाने और उसे गति देने में सफल रहा है। फिल्म का एक दलित नेता कहता है- “जीवन कुमार हमारी जात के भले हों, बीच के कैसे हो गए।” यह चुनाव के दौरान ऊपर से थोपे गए उम्मीदवार के खिलाफ बगावत है। हालांकि, शीर्ष नेतृत्व ने एक चाल चली, उक्त दलित नेता के पिता को ही उम्मीदवार घोषित करवा देता है। राजनीति के ये दाव-पेंच फिल्म को कहीं-कहीं रोचक बनाए रखते हैं। पर शुरुआती घंटे के बाद ही कसाव बिखर जाता है। निर्देशक उस बिंदु की तलाश में घटनाक्रम को अंजाम देता चलता है, जहां पॉवरफुल शख्स का अक्स डाला जा सके। दरअसल यह फिल्म कम राजनीति ज्यादा है। प्रकाश झा यहां गिरोहबाजों को चकमा देने में सफल रहे हैं।


ब्रजेश कुमार
o9350975445

Saturday, May 29, 2010

अजीब विरोधाभास


कीर्ति चौधरी की एक कविता पढ़ें। फिर याद करें, राष्ट्रमंडल खेल के बाबत किए जा रहे विकास कार्यों को। यकीनन, अजीब विरोधाभास पाएंगे।

प्रगति

अभी कुछ ही दिन तो बीते
इधर से निकले
कैसा सुनसान था !...

और अब ये नए रास्ते हर ओर
छज्जों, बालकनियों से उठता हुआ शोर
लॉन पर खेलती
चमकदार आंखों वाली बच्ची
अजनबी चेहरे
फिजा में भी
जिंदगी के बोल जैसे घुले-मिले।
अभी कुछ ही दिन तो बीते
इधर से निकले।
इतने में ही कोई बस्ती बस गई,
लगता है।

आज कीर्ति चौधरी होतीं तो इस विकास पर क्या कहतीं।

Saturday, May 1, 2010

मेरे राम


तुमसे इक प्रश्न पुछूं
मेरे राम
तुमने स्वयं क्यों नहीं दी
अग्निपरीक्षा
.......
तुम्हारी चलाई इस परंपरा में
आज भी कितनी औरतों को
देनी पड़ रही हैं अग्निपरीक्षाएं
.....
इतिहास दुहरा रहा है स्वयं को
अंतहीन-सीमाहीन
तुम्हें कैसे मांफ कर दूं
मेरे राम

अरसा पहले इस कविता को कहीं पढ़ा था। इस तस्वीर को देख फिर याद आ गई।
सो तस्वीर और कविता साथ-साथ।

Monday, March 29, 2010

आम आदमी का नहीं यह शहर


सरकार को खूबसूरत दिल्ली दिखाना है। इस बहाने हक की लड़ाई लड़ने वालों को महानगर से हटाया जा रह है। कई दिन हुए जंतर-मंतर का वजूद खत्म कर दिया गया। सरकार के खिलाफ अब यहां कोई चौबीस घंटे आवाज नहीं उठा सकता। ऐसा लगता है कि यहां से मुखर होता असहमति का स्वर मनमोहन सरकार को अब अच्छा नहीं लगता है। यह लोकतंत्र के लिए घातक है।

पुराने लोग बताते हैं कि यह दृश्य आपातकाल की उन परिस्थितियों से मिलता है, जब संजय गांधी को दिल्ली जहां कहीं गंदी दिखी, उसे उजाड़ दिया गया। खेल की आड़ में जंतर-मंतर साफ करा दिया गया। लोग कह रहे हैं, “आखिर यह कैसा लोकतंत्र है, जहां सरकार अहिंसक प्रतिरोध से भी डरती है। यकीनन यह घोषित आपातकाल नहीं है, पर एक बदतर लोकतंत्र है। ”

गत 20-25 वर्षों से जंतर-मंतर राजधानी में अभिव्यक्ति का बड़ा केंद्र रहा है। यह लंदन के उस हाइड पार्क जैसा मशहूर हो रहा था, जहां आम आदमी सरकार के किसी फैसले के खिलाफ मुखर विरोध करता है। लंदन में अभिव्यक्ति का वह केंद्र अब भी सुरक्षित है। दिल्ली में यह केंद्र गत साठ वर्षों में अपनी जगह बदलता रहा है।

सन् 1951 में दिल्ली से लगे क्षेत्रों के किसानों ने संसद भवन को चारों तरफ से घेर लिया था। संसद के गेट नंबर एक को जाम कर दिया। वे लोग भूमि अधिग्रहण का विरोध कर रहे थे। तब से प्रदर्शन का स्थल पटेल चौक कर दिया गया। अगले 15 सालों तक यही चौक अभिव्यक्ति का बड़ा केंद्र रहा।

पर, 7 नवंबर, 1966 को गोवध विरोधी रैली के दौरान हुई गोलीबारी के बाद वोट क्लब ने यह स्थान ले लिया। लोग बताते हैं कि उस दिन अटल बिहारी वाजपेयी ने जैसे ही अपना भाषण शुरू किया, उसी समय पहले आंसू गैस के गोले छोड़े गए। फिर गोली चली। खैर, इस घटना के बाद सन् 1986 तक वोट क्लब ही जमावड़ा स्थल रहा। जब वहां किसानों ने अभूतपूर्व प्रदर्शन किया तो इस जगह को भी हटा दिया गया। इसके बाद से ही जंतर-मंतर आबाद था। वैसे, रामलीला व लालकिला मैदान का भी अपना इतिहास है।

देश के तजुर्बेदार लोग कहते हैं लोकतंत्र मजबूत हो रहा है। इसकी जड़ें गहरी हो रही हैं। पर, उस लोकतंत्र का भविष्य क्या होगा, जहां असहमति के स्वर को मुखर होने से रोका जा रहा है। अब रात होते ही जंतर-मंतर पर पुलिस को देख कुत्ते भी शोर मचाने लगते हैं। आखिर उन्हें खाना देने वालों को इन लोगों ने भगाया है। अपराध तो बड़ा है।
09350975445

Wednesday, March 17, 2010

नजर पैदा कर



इस तस्वीर को देखकर इक बात याद आ गई। वह यह- शौके दीदार अगर है, तो नजर पैदा कर...

Tuesday, March 16, 2010

एक खत शांति के लिए



इंटरनेट पर तफरीह के दौरान यह खत मिला। बढ़िया लगा। सो यहां चस्पा कर रहा हूं।

Monday, March 8, 2010

महिला दिवस पर रजिया सुल्तान


चांदनी चौक के नजदीक तुर्कमान गेट से एक पतला रास्ता बुलबुली खान की तरफ जाता है। यही वह इलाका है जहां रजिया सुल्तान यानी इतिहास की पहली महिला सुल्तान को दफनाया गया था। आज इस कब्रगाह की हालत देखेंगे तो महिला दिवस का डंका बजाने वालों की हकीकत समझ में आएगी।

देखिए, देश के सबसे बड़े ओहदे पर महिला है। सरकार के भी कान खींच-खींचकर फिलहाल उसे एक महिला ही चला रही है। उसपर से दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का रुतबा देख लें। इनके राज में इल्तुतमिश की बेटी और एक जमाने की क्रांतिकारी महिला की कब्र उपेक्षित है। वह एक गौरवशाली इतिहास लिए लेटी है। अपनी कब्र पर एक छत को तरसती हुई।

हालांकि, रजिया सुल्तान का मकबरा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अंतर्गत आता है। इस विभाग का यहां एक पत्थर भी लगा है। यह सुल्तान के बारे में थोड़ी जानकारी भी देता है। पर, इस स्थान को लेकर वह इससे ज्यादा गंभीर नहीं। दरअसल दिवस तो दिखावा है..., हकीकत अब भी बुलबुली खान इलाके में है। जब जी करें देख आएं।



ये हैं रजिया सुल्तान के द्वारा चलाए गए सिक्के

श्रुति अवस्थी से पूरा हाल जानने के लिए प्रथम प्रवक्ता के धरोहर स्तंभ को पढ़ें

Wednesday, March 3, 2010

जीवन में होली

हर कहीं छुपा है होली का रंग। अब, शौके दीदार अगर है तो नजर पैदा कर


इस नजर से देखें


कला में होली का बिंब


एक जरूरी परिपाटी होली की


साथ का त्योहार

Tuesday, March 2, 2010

भांग- एक रंग कई चेहरे


यहां भी है भांग


देशी पदार्थ को गटक करने की नई रिवायत


इधर भी देखें


जड़ की तरफ लौटें


भांग का सही ठिकाना


इस तरल पदार्थ का मुरीद समाज का हर वर्ग है। होली का त्योहार हो तो फिर क्या कहने हैं। तस्वीर सही बताती है। बज्र देहात के चौपाल से ड्राइंग रूम तक भांग का सफर-

तस्वीर अंतरजाल से ली गई हैं। साभार

Monday, January 4, 2010

वादी में पहली बर्फबारी


ये दिन क्या आए
लगे फूल खिलने
बसंती-बसंती
हुए सारे सपने

Friday, January 1, 2010

आखिर भाजपा में क्यों जाऊं ? गोविंदाचार्य


दलीय राजनीति से परे हो गए के.एन. गोविंदाचार्य जवाबी सवाल पूछ रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी में मैं क्यों जाऊं ? इसमें उनका जहां सवाल है वहीं जवाब भी है। सवाल यह कि भाजपा जिसे उन्होंने सोच-समझकर नौ साल पहले छोड़ दिया, वहां अब क्यों जाना चाहिए ? जाहिर है कि वे महसूस कर रहे हैं कि मुद्दों और मूल्यों से भटकी भाजपा को पटरी पर नहीं लाया जा सकता।

वैसे तो पिछले एक दशक में न जाने कितनी बार लोगों की जिज्ञासा जगी और वे यह पूछते पाए गए कि क्या गोविंदाचार्य भाजपा में आ रहे हैं ? इससे इतना तो साफ होता है कि गोविंदाचार्य के बिना भाजपा अधूरी लगती है। इसके बावजूद न भाजपा ने पहल की और न ही गोविंदाचार्य ने वहां जाने की इच्छा जताई।

भाजपा के नए अध्यक्ष नितिन गडकरी ने ही इस बार नई तान छेड़ी। एक दिन उन्होंने बयान देकर चौंकाया कि वे गोविंदाचार्य, उमा भारती और कल्याण सिंह को पार्टी में लाने की कोशिश करेंगे। यही नई बात पाई गई। उनसे पहले किसी अध्यक्ष ने खुलेआम इस तरह का बयान नहीं दिया था। हालांकि कई अध्यक्ष इसका मंसूबा पालते रहे थे। प्रमोद महाजन ने तो अपने आखिरी दिनों में इसकी कोशिश भी शुरू कर दी थी। वे अध्यक्ष बन जाते तो इसे अंजाम देने की कोशिश करते। नितिन गडकरी ने उनके नक्शे कदम पर एक पग बढ़ाया। लेकिन जब उनकी पहली प्रेस-कांफ्रेंस में पत्रकारों ने पूछा तो उन्हें जवाब देते नहीं बना। जो कहा उनके सीमित शब्दकोष का ऐसा कथन था जो अपने आपमें भाजपा की अंदरूनी तलवार बाजी का जायजा बन गई। वे पीछे हटते नजर आए। कहा कि उन लोगों की ओर से जब कोई प्रस्ताव आएगा तो विचार करेंगे। यह बड़बोलापन ही है। वे जानते हैं कि इनमें से कोई भी अर्जी लेकर भाजपा के दरवाजे पर नहीं जाने वाला है। वैसे, यह भी तो हो सकता है कि वे सिर मुड़ाते ओले पड़ने से बचना चाहते हों।

नितिन गडकरी के पहले बयान से दो तरह की प्रतिक्रिया हुई है। भाजपा के मित्रों और शुभचिंतकों में उम्मीद जगी कि गोविंदाचार्य के आ जाने से उसका सुधार होगा। इसका एक बड़ा कारण भी है। भाजपा जिन दिनों सत्ता में थी, तब गोविंदाचार्य पार्टी के महामंत्री थे। संगठन की कमान उनके हाथ में थी। वे संगठन की सरकार पर सर्वोच्चता का प्रश्न हर सही मंच पर उठाते थे। साथ ही वे सवाल भी उठाते थे जो वाजपेयी सरकार के एजेंडे से निकल गए थे, लेकिन भाजपा जिनसे वादा खिलाफी नहीं कर सकती थी। इसी तकरार ने वह हालत पैदा की जब गोविंदाचार्य को भाजपा से निकलने के लिए खुद उपाय खोजने पडे़। जिसे वे अपना `अध्ययन अवकाश´ कहते हैं।

तब से उन्होंने लंबा फासला तय कर लिया है। इसीलिए वे गडकरी के बयान को एक झटके में खारिज कर दे रहे हैं। वे कहते हैं, “गडकरी के पहले बयान में कोई गंभीरता नहीं है।” इसे लोग अलग-अलग तरीके से देख रहे हैं। भाजपा अभी पूरी तरह बदलाव के लिए तैयार नहीं है। वह आत्मनिरीक्षण से कतरा रही है। दूसरी प्रतिक्रिया भाजपा में हुई है। जो गोविंदाचार्य को मानने वाले हैं वे उनसे कह रहे हैं कि अगर भाजपा सिर के बल चलकर आए और आपको पार्टी में लाने की कोशिश करे तो आप मंजूर मत करिएगा। जाहिर है यहां संकट भाजपा का है। ऐसी पार्टी बड़े फैसले कैसे ले सकती है ? गोविंदाचार्य को भाजपा में लाना अवश्य ही एक निर्णायक कदम होगा। जो इस भाजपा के बूते का नहीं है।

भाजपा की अंदरूनी राजनीति का एक नमूना `इंडियन एक्सप्रेस´ में दिखा। जब उसके संवाददाता सुमन झा ने एक रिपोर्ट इस तरह लिखी कि गोविंदाचार्य अपनी पहल पर इन्हीं दिनों लालकृष्ण आडवाणी से मिले। इसे पढ़ते हुए पाठक यह समझता है कि गोविंदाचार्य को भाजपा में लाने का समर्थन अब लालकृष्ण आडवाणी भी कर रहे हैं। यह खबर राजनीतिक जोड़तोड और खबरारोपण का उदाहरण है।

सच यह है कि अक्टूबर महीने में गोविंदाचार्य लालकृष्ण आडवाणी से मिलने गए थे, वह इसलिए कि उन्हें वह दस्तावेज दे सकें जो उन्होंने बनाया है। वहां इस पर ही थोड़ी बहुत बातचीत हुई। लेकिन `इंडियन एक्सप्रेस´ ने जो खबर छापी उसमें यह बात छिपा दी गई कि यह मुलाकात करीब दो महीने पहले की है। गोविंदाचार्य ने भाजपा से निकलने के बाद लालकृष्ण आडवाणी से कभी मिलने की कोशिश नहीं की। एक बार फोन पर जरूर यह कहा कि भाजपा को आप विसर्जित कर दीजिए। इस मुलाकात में उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी को सलाह दी कि अपनी खैर चाहते हैं तो भाजपा से निकलने का रास्ता खोजिए।

इसी तरह एक बार गोविंदाचार्य ने अटल बिहारी वाजपेयी से भेंट की थी। तारीख है 25 नवंबर 2003। तब उन्हें यह बताना था कि राजनीति की दलदल से निकलने का मेरे पास साहस भी है और हिकमत भी। वाजपेयी व्यंग्य में अक्सर कहा करते थे कि लोग कहते तो हैं कि राजनीति छोड़ देंगे, लेकिन कोई छोड़ता नहीं। इसका ही जीता जागता उदाहरण बनकर गोविंदाचार्य उनसे मिलने पहुंचे थे। तब भाजपा से निकले हुए उन्हें तीन साल हो गए थे। वे अब राष्ट्रवादी नजरिए का एक दस्तावेज बना चुके हैं। यह दस्तावेज राष्ट्रीय समस्याओं को समझने और समझाने का एक प्रयास है। जो व्यक्ति ऐसे तमाम प्रयासों में लगा हुआ हो उसे भाजपा में कोई आकर्षण दिखेगा ? क्या इसकी उम्मीद की जा सकती है ?