Monday, August 2, 2010

अब भी है उस बैठक का इंतजार


लुप्त होती संभावनाओं के इस दौर में उम्मीद बाकी है। ऐसे कई दरवाजे अभी खुले हैं, जिस रास्ते चलकर गांधी के भारत का निर्माण हो सकता है। जल, जंगल और जमीन पर सामुदायिक हकदारी की बात उठाने वाले जब पिछले दिनों दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में इकट्ठा हुए तो एकबारगी ऐसा महसूस हुआ। यहां वे लोग एक निर्णयात्मक संवाद के लिए आए थे। उनका मकसद नए कंपनी युग से निपटने के लिए एक माकूल औजार की खौज करना था, ताकि प्राकृतिक संपदाओं पर सामुदायिक हकदारी बरकरार रखी जा सके। यह वही स्थान है जहां से सरकारी नीति को चुनौती मिलती रहती है।
गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्ष राधा भट्ट के बुलावे पर देशभर से बैठक में आए लोगों ने माना कि जल, जंगल और जमीन से जुड़ा सवाल गहरा है। क्योंकि, जमीन के नीचे के संसाधनों के हक को लेकर प्रश्न हो रहे हैं। पानी व खनिज पदार्थों से जुड़े सवाल उठ रहे है। लोगों ने कहा कि पहले वन सामुदायिक संपत्ति थी। इसके सारे हक-हकूक सामुदायिक ही थे। अब यह सरकारी हकदारी में पहुंच गए हैं। अमीर तबका जल, जंगल औऱ जमीन के सारे सुख भोग रहा है। हर तरफ निजीकरण का दौर चल पड़ा है। ऐसी स्थिति में जनता बेचैन है। वह नेतृत्व का इंतजार कर रही है। इन्हीं बातों की ओट में गत 17 और 18 जुलाई को विचार मंथन होता रहा।
राधा भट्ट चाहती हैं लड़ाई मिलकर लड़ी जाय। उनकी कही बातों से यह स्पष्ट हुआ। बैठक में देशभर से आए अन्य लोगों ने भी अलग-अलग तरीके से यही राय रखी। गुजरात से आए लोक संघर्ष समिति के चुन्नी भाई वैद्य ने तो यहां तक कहा कि हमारी बैठक में ज्यादा रुचि नहीं है। कोई काम की बात हो तब बात बड़े। उन्होंने कहा, “ लोग तैयार हैं। वे नेतृत्व का इंतजार कर रहे हैं। देखना यह है कि हमारी तैयारी कितनी है। वक्त जाया करना ठीक नहीं है। हमें निर्णय करना चाहिए।
बातचीत के दौरान लोगों ने कहा कि जमीन समाज की है। भूमि सुधार दरअसल भूमि समस्या को जिंदा रखने का तरीका है। अत: खेत का ग्रामीणीकरण व सामाजिकरण होना चाहिए।
यह बैठक की सीमा ही थी कि तमाम समस्याओं के सामने आने व लोगों की ललकार के बावजूद आगे की लड़ाई का कोई कारगर तरीका नहीं खोज जा सका। निश्चय ही ऐसी कोशिशों के सफल न होने से सरकार का मन बढ़ता रहा है। ताज्जुब की बात है एक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन की जरूरत तो देश भर में लोग महसूस कर रहे हैं। जनता उन लोगों की तरफ देख रही है, जिनसे उन्हें उम्मीद है। पर यह तय नहीं हो पा रहा है कि बिखरी शक्तियों को कैसे एक सूत्र में पिरोया जाए। गांधी शांति प्रतिष्ठान में दो दिनों तक यह कोशिश होती रही।

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