Saturday, July 14, 2007

सिनेमाई गीत --संचार का बेजोड़ माध्यम

यह बात मुझे कबूल है कि गाने संचार में महति भूमिका अदा करते है। उसपर से सिनेमाई गाने हों तो
उसके क्या कहनें! हिन्दी सिनेमाई गीतों पर बात छिड़ी नहीं कि तबीयत रूमानी हो जाती है।
ऐसा हो भी क्यों नहीं ; आखिर यह इजहारे-तहरीर का मामला है। यहां चुनिन्दा लोगों के जो भी खयालात हों, आम राय यही है कि सिनेमाई गाने श्रमहारक का काम करती है। साथ ही यह अभिव्यक्ति का बड़ा माध्यम है। अत: इसमें ठहराव मुमकिन नहीं है। शायद मुनासिब भी नहीं ।
ऐसे में पिछले कुछेक सालों से कमरतोड़ गाने आ रहे हैं। मुलाहिजा फरमाइये---
कजरारे कजरारे तेरे कारे कारे नैना ( बंटी और बबली), बीड़ी जलाईले जिगर से पीया (ओकारा) ।
ताज्जुब की बात यह है कि जितना शोर-शराबा गीतों में है गीतकार उतना ही संजीदा है।
वैसे तो गीतकार भेजे में शोर होने की बात पहले ही कह चुका है। लेकिन, ऐसे रफ्तारमय गीत लिखना उनके स्वभाव का हिस्सा नहीं है। यकीनन, यह मांग आधारित है।आगे इन्हीं गीतों में इस्तेमाल हुए लफ्जों के बदलाव पर बातचीत हो तो फिर बात बने।
इन गीतों के आने तक हिन्दी सिनेमाई गाने अपने पचहत्तर साल का सफर पूरा कर चुका है।
इस दरमियान वक्त तेज रफ्तार से बदलता रहा और उसके तेवर भी। ऐसे में सिनेमाई गीत अपनी भाषा व मुहावरों को गढ़ने-बदलने का आदी और अभ्यस्त होता गया। ढेरों प्रयोग हुए। समय, परिवेश व नाजुक रिश्ते की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति के। शब्दों को गढ़ने और सुनने के । और हां- ये सफल भी रहे। "कजरारे कजरारे" गायकी के कई अंदाजों के साथ भाषा के स्तर पर पंचमेल खिचड़ी का रूप लिए सामने आई और दमभर चली। यानी प्रयोग का एक मुकम्मल रूप हमारे -आपके नजीर आया। बात कुछ ऐसी है कि हिन्दुस्तानी सिनेमा में गीत को जितना तवज्जह मिला, उतना संसार के किसी भी अन्य फिल्मीद्योग में नहीं मिल पाया। फिल्में आती हैं , चली जाती हैं। सितारे भी पीछे रह जाते हैं। रह जाते हैं तो बस कुछ अच्छे भले गीत, जो ' दुनिया ये तुफान मेल' व
' अफसाना लिख रही हूं तेरे इंतजार का' की तरह युगों तक बजते रहेंगे।
और साथ- साथ संचार का एक रूमानी माध्यम बने रहेंगे।
ब्रजेश झा
09350975445

Friday, July 13, 2007

भगैत (भगत) आप जानते हैं.......



कोसी का इलाका यदि बाढ़ और बालू से अभिशप्त है तो यकीन मानिए यहां कुछऐसा भी है, जिसे देख और सुनकर आप मस्ती के आलम में झूम सकते हैं। तो चलिए, आपको ले चलते हैं कोसी के उन गावों में जहां आप रंग-बिरंगे,चटकीले, मस्ताने या फिर गोसाईं जैसै गीतों का लुत्फ उठा सकें...।फणीश्वर नाथ रेणु ने तो अपनी कृतियों ऐसे लोकगीतों को खूब उकेरा है।

रेणुके शब्दों में "ऐसे कईगीतों को सुनते समय "देहातीत" सुख का परस सा पायाहै और देह यंत्र मे "रामुरा झिं झिं" बजने लगता है .......।"

"विदापत-नाच" हो या फिर "भगैत" (भगत), आज भी यहां मौजूद है। विदापत-नाचतो अब केवल सहरसा जिले में सिमट गया है लेकिन "भगैत" (भगत) आज भी कोसीके तकरीबन सभी जिलों में खूब गाया और बांचा जाता है। दरअसल भगैत (भगत) एकऐसा लोकगीत है, जिसमें गीत के संग-संग डॉयलॉग भी चलता रहता है। कहानी केफार्म में गायक अपने दल के साथ भगैत (भगत) गाता है। इसे सुनने के लिएझुंड के झुंड लोग उस जगह जमा होते हैं जहां भगैत होता है। 10 से 11 लोगोंकी एक टीम होती है जो भगैत गाते हैं। टीम के प्रमुख को "मूलगैन" कहतेहैं। अर्थात मूल गायक...। मूलगैन कहानी प्रारंभ करता है और फिर समां बंधजाता है। हारमोनियम और ढ़ोलक वातावरण में रस का संचार करते हैं। दाताधर्मराज, कालीदास, राजा चैयां और गुरू ज्योति, भगैत के मुख्य पात्र होतेहैं। ये पात्र तो हिन्दू के लिए होते हैं। मुसलमानों के लिए "मीरा साहेब" प्रमुख पात्र माने जाते हैं। मुस्लिम के लिए होने वाले भगैत को "मीरन"कहा जाता है।

यहां बोली जाने वाली ठेठ मैथिली में भगैत और मीरन गाया जाता है। गौर करनेलायक बात यह है कि इस कथा-गीत में अंधविश्वास सर-चढ़कर बोलता है। मसलनमूलगैन पर भगवान आ जाते हैं। वह जो कुछ बोल रहा है, वह ईश्वर-वाणी समझीजाती इस कार्यक्रम बलि-प्रथा और मदिरा की खूब मांग होती है।48 घंटे तक अनवरत चलने वाले इस कार्यक्रम का आयोजन अक्सर गांव के बड़ेभू-पति हीं करते हैं। क्योंकि इसके आयोजन में अच्छा-खासा खर्च होता है।अक्सर फसल कटने के बाद हीं ऐसे आयोजन होते हैं। क्योंकि उस वक्त किसान केपास अनाज और पैसे कुछ आ ही जाते हैं। हाल ही मैं पूर्णिया जिला के धमदाहामें "भगत-महासम्मेलन" का आयोजन हुआ था। कोसी के अलावा अन्य जिलों से भीकलाकार इस सम्मेलन में पहुंचे थे। किन्तु जिस उत्साह से कोसी में भगैत कोमंच मिलता आया है,वह अन्य जगहों में नहीं दिखता है। किसानों के बीच इसकेलोकप्रिय होने का मुख्य कारण यह है कि यहां के गावों में अंधविश्वास काबोलबाला आज भी काफी है।

वैसे जो भी हो, भगैत एक कला के रूप में अलग हीं दुनिया में बसता है। यहांके लोग-बाग में यह रच-बस गया है।

मूलगैन (मूल गायक-टीम लीडर) कहता है न-

" हे हो... घोड़ा हंसराज आवे छै............

गांव में मचते तबाही हो...............

कहॅ मिली क गुरू ज्योति क जय....."


हिन्दी अनुवाद-

( सुनो सभी, घोड़ा हंसराज आने वाला है,गांव में मचेगी अब तबाही,सब मिलकर कहो गुरू ज्योति की जय )

साभार- अनुभव www.anubahw.blogspot.com

Tuesday, July 3, 2007

यूं बना एक बेहतरीन गाना--


गुलजार ने सिनेमाई गीतों को नए प्रतिमान दिए। इनके लिखे पहले गीत के पूरे होने की रोचक कहानी कुछ यूं है-

'मोरा गोरा रंग लई ले' इस गीत का जन्म वहां से शुरू हुआ जब बिमल-दा और
सचिन-दा ने सिचुएशन समझाई। कल्याणी (नूतन) जो मन-ही-मन विकास (अशोक कुमार)
को चाहने लगी है, एक रात चूल्हा-चौका समेटकर गुनगनाती हुई बाहर निकल आई।
" ऐसा करेक्टर घर से बाहर जाकर नहीं गा सकता" , विमल-दा ने वहीं रोक दिया।
"बाहर नहीं जाएगी तो बाप के सामने कैसे गाएगी?" सचिन-दा ने पूछा।
"बाप से हमेशा वैष्णव कविता सुना करती है, सुना क्यों नहीं सकती?" बिमल-दा ने दलील दी।
"यह कविता-पाठ नहीं है, दादा, गाना है।"
"तो कविता लिखो। वह कविता गाएगी"।
"गाना घर में घुट जाएगा।"
"तो आंगन में ले जाओ। लेकिन बाहर नहीं जाएगी।"
" बाहर नहीं जाएगी तो हम गाना भी नहीं बनाएगा।",सचिन-दा ने भी चेतावनी दे दी।
कुछ इस तरह से सिचुएशन समझाई गई मुझे। मैंने पूरी कहानी सुनी, देबू से।
देबू और सरन दोनों दादा के असिस्टेंट थे। सरन से वे वैष्णव कविताएं सुनीं जो कल्याणी बाप से सुना
करती थी। बिमल-दा ने समझाया कि रात का वक्त़ है, बाहर जाते डरती है, चांदनी रात में कोई देख न
ले। आंगन से आगे नहीं जा पाती। सचिन-दा ने घर बुलाया और समझाया : चांदनी रात में डरती है, कोई देख न ले। बाहर तो चली आई, लेकिन मुड़-मुड़के आंगन की तरफ देखती है। दरअसल, बिमल-दा और सचिन-दा दोनों को मिलाकर ही कल्याणी की सही हालत समझ में आती है।सचिन-दा ने अगले दिन बुलाकर मुझे धुन सुनाई : ललल ला ललल लला ला
गीत के पहले-पहले बोल यही थे। पंचम (आर.डी.बर्मन) ने थोड़ा-सा संशोधन किया :
ददद दा ददा ददा दा
सचिन-दा ने फिर गुनगुनाकर ठीक किया :
ललल ला ददा दा लला ला
गीत की पहली सूरत समझ में आई। कुछ ललल ला और कुछ ददद दा-
मैं सुर-ताल से बहरा भौंचक्का-सा दोनों को देखता रहा। जी चाहा, मैं अपने बोल दे दूं :
तता ता ततता तता ता
सचिन-दा कुछ देर हार्मोनियम पर धुन बजाते रहे और आहिस्ता-आहिस्ता मैंने कुछ गुनगुनाने की कोशिश की। टूटे-टूटे से शब्द आने लगे : दो-चार... दो-चार... दुई-चार पग पे अंगन-
दुई-चार पग... बैरी कंगना छनक ना-
गलत-सलत सतरों के कुछ बोल बन गए:
बैरी कंगना छनक ना
मोहे कोसों दूर लागे
दुई-चार पग पे अंगना-
सचिन-दा ने अपनी धुन पर गाकर परखे, और यूं धुन की बहर हाथ आ गई। चला आया। गुनगुनाता रहा। कल्याणी के मूड को सोचता रहा। कल्याणी के ख्याल क्या होंगे ? कैसा महसूस किया होगा ? हां, एक बात ज़िक्र के काबिल है। एक ख़्याल आया, चांद से मिन्नत करके कहेगी:
मैं पिया को देख आऊं
जरा मुंह फिराई ले चांद
फ़ौरन ख़्याल आया, शैलेन्द्र यही ख़्याल बहुत अच्छी तरह एक गीत में कह चुके हैं :
दम-भर को जो मुंह फेरे-ओचंदा-
मैं उनसे प्यार कर लूंगी
बातें हजार कर लूंगी-
कल्याणी अभी तक चांद को देख रही थी। चांद बार-बार बदली हटाकर झांक रहा था, मुस्करा रहा था।
जैसे कह रहा हो, कहं जा रही हो ? कैसे जाओगी ? मैं रोशनी कर दूंगा। सब देख लेंगे। कल्याणी चिढ़ गई। चिढ़के गाली दे दी :
तोहे राहू लागे बैरी
मुसकाए जी जलाई के

चिढ़के गुस्से में वहीं बैठ गई। सोचा, वापस लौट जाऊं। लेकिन मोह, बांह से पकड़कर खींच रहा था। और लाज, पांव पकड़कर रोक रही थी। कुछ समझ में नहीं आया,क्या करे ? किधर जाए ? अपने ही आपसे पूछने लगी:
कहां से चला है मनवा
मोहे बावरी बनाई के
गुमसुम कल्याणी बैठी रही। बैठी रही, सोचती रही, काश, आज रोशनी न होती। इतनी चांदनी न होती। या मैं ही इतनी गोरी न होती कि चांदनी में छलक-छलक जाती। अगर सांवली होती तो कैसे रात में ढंकी-छुपी अपने पिया के पास चली जाती। लौट आई बेचारी कल्याणी, वापस घर लौट आई। यही गुनगुनाते :
मोरा गोरा रंग लई ले
मोहे श्याम रंग दई दे


- गुलज़ार

मुगलकालीन बाजार पर दीक्षितकालीन छौंक--


यह है मुगलकालीन बाजार पर दीक्षितकालीन छौंक--
लालकिले से दो-तीन फर्लांग दूर एक मुगलकालीन इलाका है। नाम है-चांदनी चौक।
पुरानी दिल्ली का यह तंग इलाका चंद पेचिदां गलियों से घिरा एक बड़ा बाजार है, जिससे हम
हिन्दुस्तानियों के रिश्ते बड़े रूहानी हैं। यूं तो सन् 1646 में जब मुगल बादशाह शाहजहां अपनी
राजधानी आगरा से दिल्ली ले आया तो चांदनी चौक का बसना हुआ। उस वक्त से यह लगातार
आबाद होता गया। और इसकी ख्याती विदेशों तक फैल गई। उस वक्त एक ख्याती प्राप्त बाजार जैसा
हो सकता था, संभवत: यह वैसा ही था। पूरा इलाका अपेक्षाकृत धनी और प्रभावशाली व्यापारियों
का ठिकाना था। कई प्रसिद्ध दुकानें थीं, जिसका वजूद आज भी है। उस वक्त आबादी दो लाख से
भी कम थी। आज नजारे बदल गए हैं। शहर फैल चुका है। आबादी पचास गुना से भी ज्यादा है।
बहुत मुमकिन है कि अब आप यहां बिना कंधे से कंधा टकराए एकाधा गज की दूरी भी तय कर
सकें। भूलभूलैया वाली कई छोटी-बड़ी गलियां जो दिक्कत पैदा करेंगी, सो अलग।
खैर! इसके बावजूद देश की जनता से चांदनी चौक के जो पुराने ताल्लुकात कायम हुए थे वो अब
भी बने हुए हैं। क्योंकि, इसका रंग खुद में ख़ालिस भी है और खुशनुमा भी। इस बाजार में लगने वाली
भीड़ के बारे में मत पूछिए ! यहां गाड़ी के बजाय पैदल दूरी तय करना आसान काम है। मौका-बेमौका
होने को बेताब नोंक–झोंक यहां की रोजमर्रा में शामिल है। शायद इसलिए, बल्लीमारान में रहते हुए
मिर्जा गालिब ने कभी कहा था कि,
‘‘रोकलो, गर गलत चले कोई,
बख़्श दो, गर खता करे कोई’’
आज बल्लीमारा की ये गलियां बड़ी मशहूर हैं। नए उग आए बाजारों के मुकाबले चांदनी चौक बाजार अपनी दयानतदारी पर बड़ी तारीफ बटोरता है। क्योंकि, नई आधुनिकता से लबरेज माहौल में भी यह बाजार हमारी सारी जरूरतों को पूरा करते हुए खांटी देशीपन का आभास कराता है। पश्चिम के तौर-तरीकों की नकल यहां मायने नहीं रखती है। वैसे भी यहां के देशी ठाठ वाले जायकेदार व्यंजनों के क्या कहने हैं ! शायद इस वास्ते लोग अपने अनमनेपन के बावजूद यहां आते हैं।
यह कहना उचित नहीं होगा कि यहां कोई बदलाव हुआ ही नहीं। समय और जरूरत के हिसाब से यह बाजार अपनी शक्ल बदलता रहा है। पुरानी चीजें नए रूप में आती गई हैं। लेकिन, पूरी आबादी को साथ लेकर। जीवन से जुड़े रोजगार को दाव पर रखकर शाहजहांनाबाद के हुक्मरानों ने यहां कोई बदलाव नहीं किए थे। पर, आज हालात बदल रहे हैं। अब तो देश की गणतांत्रिक सरकार भी ऐसे फैसले करने लगी है, जिससे लाखों लोगों का वजूद ही खतरे में पड़ जाता है। इस बाजार के आस-पास रिक्शा, ठेला चलाने वाले मजदूर फिलहाल ऐसी ही कठिनाई से जूझ रहे है, किसी हो जाने वाले अंतिम फैसले के इंतजार में।

ब्रजेश झा