Monday, January 4, 2010

वादी में पहली बर्फबारी


ये दिन क्या आए
लगे फूल खिलने
बसंती-बसंती
हुए सारे सपने

Friday, January 1, 2010

आखिर भाजपा में क्यों जाऊं ? गोविंदाचार्य


दलीय राजनीति से परे हो गए के.एन. गोविंदाचार्य जवाबी सवाल पूछ रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी में मैं क्यों जाऊं ? इसमें उनका जहां सवाल है वहीं जवाब भी है। सवाल यह कि भाजपा जिसे उन्होंने सोच-समझकर नौ साल पहले छोड़ दिया, वहां अब क्यों जाना चाहिए ? जाहिर है कि वे महसूस कर रहे हैं कि मुद्दों और मूल्यों से भटकी भाजपा को पटरी पर नहीं लाया जा सकता।

वैसे तो पिछले एक दशक में न जाने कितनी बार लोगों की जिज्ञासा जगी और वे यह पूछते पाए गए कि क्या गोविंदाचार्य भाजपा में आ रहे हैं ? इससे इतना तो साफ होता है कि गोविंदाचार्य के बिना भाजपा अधूरी लगती है। इसके बावजूद न भाजपा ने पहल की और न ही गोविंदाचार्य ने वहां जाने की इच्छा जताई।

भाजपा के नए अध्यक्ष नितिन गडकरी ने ही इस बार नई तान छेड़ी। एक दिन उन्होंने बयान देकर चौंकाया कि वे गोविंदाचार्य, उमा भारती और कल्याण सिंह को पार्टी में लाने की कोशिश करेंगे। यही नई बात पाई गई। उनसे पहले किसी अध्यक्ष ने खुलेआम इस तरह का बयान नहीं दिया था। हालांकि कई अध्यक्ष इसका मंसूबा पालते रहे थे। प्रमोद महाजन ने तो अपने आखिरी दिनों में इसकी कोशिश भी शुरू कर दी थी। वे अध्यक्ष बन जाते तो इसे अंजाम देने की कोशिश करते। नितिन गडकरी ने उनके नक्शे कदम पर एक पग बढ़ाया। लेकिन जब उनकी पहली प्रेस-कांफ्रेंस में पत्रकारों ने पूछा तो उन्हें जवाब देते नहीं बना। जो कहा उनके सीमित शब्दकोष का ऐसा कथन था जो अपने आपमें भाजपा की अंदरूनी तलवार बाजी का जायजा बन गई। वे पीछे हटते नजर आए। कहा कि उन लोगों की ओर से जब कोई प्रस्ताव आएगा तो विचार करेंगे। यह बड़बोलापन ही है। वे जानते हैं कि इनमें से कोई भी अर्जी लेकर भाजपा के दरवाजे पर नहीं जाने वाला है। वैसे, यह भी तो हो सकता है कि वे सिर मुड़ाते ओले पड़ने से बचना चाहते हों।

नितिन गडकरी के पहले बयान से दो तरह की प्रतिक्रिया हुई है। भाजपा के मित्रों और शुभचिंतकों में उम्मीद जगी कि गोविंदाचार्य के आ जाने से उसका सुधार होगा। इसका एक बड़ा कारण भी है। भाजपा जिन दिनों सत्ता में थी, तब गोविंदाचार्य पार्टी के महामंत्री थे। संगठन की कमान उनके हाथ में थी। वे संगठन की सरकार पर सर्वोच्चता का प्रश्न हर सही मंच पर उठाते थे। साथ ही वे सवाल भी उठाते थे जो वाजपेयी सरकार के एजेंडे से निकल गए थे, लेकिन भाजपा जिनसे वादा खिलाफी नहीं कर सकती थी। इसी तकरार ने वह हालत पैदा की जब गोविंदाचार्य को भाजपा से निकलने के लिए खुद उपाय खोजने पडे़। जिसे वे अपना `अध्ययन अवकाश´ कहते हैं।

तब से उन्होंने लंबा फासला तय कर लिया है। इसीलिए वे गडकरी के बयान को एक झटके में खारिज कर दे रहे हैं। वे कहते हैं, “गडकरी के पहले बयान में कोई गंभीरता नहीं है।” इसे लोग अलग-अलग तरीके से देख रहे हैं। भाजपा अभी पूरी तरह बदलाव के लिए तैयार नहीं है। वह आत्मनिरीक्षण से कतरा रही है। दूसरी प्रतिक्रिया भाजपा में हुई है। जो गोविंदाचार्य को मानने वाले हैं वे उनसे कह रहे हैं कि अगर भाजपा सिर के बल चलकर आए और आपको पार्टी में लाने की कोशिश करे तो आप मंजूर मत करिएगा। जाहिर है यहां संकट भाजपा का है। ऐसी पार्टी बड़े फैसले कैसे ले सकती है ? गोविंदाचार्य को भाजपा में लाना अवश्य ही एक निर्णायक कदम होगा। जो इस भाजपा के बूते का नहीं है।

भाजपा की अंदरूनी राजनीति का एक नमूना `इंडियन एक्सप्रेस´ में दिखा। जब उसके संवाददाता सुमन झा ने एक रिपोर्ट इस तरह लिखी कि गोविंदाचार्य अपनी पहल पर इन्हीं दिनों लालकृष्ण आडवाणी से मिले। इसे पढ़ते हुए पाठक यह समझता है कि गोविंदाचार्य को भाजपा में लाने का समर्थन अब लालकृष्ण आडवाणी भी कर रहे हैं। यह खबर राजनीतिक जोड़तोड और खबरारोपण का उदाहरण है।

सच यह है कि अक्टूबर महीने में गोविंदाचार्य लालकृष्ण आडवाणी से मिलने गए थे, वह इसलिए कि उन्हें वह दस्तावेज दे सकें जो उन्होंने बनाया है। वहां इस पर ही थोड़ी बहुत बातचीत हुई। लेकिन `इंडियन एक्सप्रेस´ ने जो खबर छापी उसमें यह बात छिपा दी गई कि यह मुलाकात करीब दो महीने पहले की है। गोविंदाचार्य ने भाजपा से निकलने के बाद लालकृष्ण आडवाणी से कभी मिलने की कोशिश नहीं की। एक बार फोन पर जरूर यह कहा कि भाजपा को आप विसर्जित कर दीजिए। इस मुलाकात में उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी को सलाह दी कि अपनी खैर चाहते हैं तो भाजपा से निकलने का रास्ता खोजिए।

इसी तरह एक बार गोविंदाचार्य ने अटल बिहारी वाजपेयी से भेंट की थी। तारीख है 25 नवंबर 2003। तब उन्हें यह बताना था कि राजनीति की दलदल से निकलने का मेरे पास साहस भी है और हिकमत भी। वाजपेयी व्यंग्य में अक्सर कहा करते थे कि लोग कहते तो हैं कि राजनीति छोड़ देंगे, लेकिन कोई छोड़ता नहीं। इसका ही जीता जागता उदाहरण बनकर गोविंदाचार्य उनसे मिलने पहुंचे थे। तब भाजपा से निकले हुए उन्हें तीन साल हो गए थे। वे अब राष्ट्रवादी नजरिए का एक दस्तावेज बना चुके हैं। यह दस्तावेज राष्ट्रीय समस्याओं को समझने और समझाने का एक प्रयास है। जो व्यक्ति ऐसे तमाम प्रयासों में लगा हुआ हो उसे भाजपा में कोई आकर्षण दिखेगा ? क्या इसकी उम्मीद की जा सकती है ?