Thursday, November 18, 2010

गांधी को गोली लगते जिन्होंने देखा था



“वह भी एक दिन था।” वे क्षण भर रुके। फिर थोड़ी दूर चलकर बताया," गांधीजी को जब गोली लगी तो मैं इस स्थान (10 से 12 फुट की दूरी) पर था।” यह बात के.डी. मदान कह रहे थे। सहसा इसपर आपको यकीन न हो। पर उन्हें सुनने के बाद वह पूरा दृश्य सभी के सामने नाचने लगता है। ऐसा ही उस समय हुआ जब गांधी स्मृति केंद्र के मैदान पर बुजुर्ग के.डी.मदान आंखों देखा हाल सुना रहे थे।

मदान उन दो लोगों में हैं, जिन्होंने गांधी को करीब से गोली लगते देखा था और संयोग से हमारी जानकारी में हैं। उन दिनों मदान वहां ऑल इंडिया रेडियो की तरफ से गांधी के भाषण को रिकार्ड करने रोजाना जाते थे। उन्होंने कहा कि 30 जनवरी की वह एक सामान्य शाम थी। गांधीजी प्रार्थना स्थल पर अपनी जगह पहुंचने ही वाले थे कि एक तेज आवाज आई। मुझे लगा कि कोई पटाखा छूटा है। कुछ और सोच पाता कि दूसरी आवाज सुनाई दी। थोड़ा आगे पहुंचा, तबतक तीसरी बार आवाज आई। वहां मैंने पाया कि जमीन पर गिरे गांधीजी को एक व्यक्ति उठा रहा है, जबकि गोली चलाने वाले को वहां मौजूद कुछेक लोग पकड़े हुए हैं। हालांकि, वह व्यक्ति पूरी तरह शांत और स्थिर था।" दरअसल घटना के 62 साल बाद मदान उस काली शाम की दुखद स्मृति सुना रहे थे।

संयोग देखें, यह कहानी वे उसी मैदान में सुना रहे थे, जहां गांधी की हत्या हुई थी। हालांकि, तब यह स्थान बिड़ला हाउस के रूप में जाना जाता था। पर अब इसकी पहचान गांधी स्मृति केंद्र के रूप में ज्यादा है। परिसर में प्रवेश करते ही उन्हें रह-रहकर पुरानी बातें याद आती रहीं। यह सहज था, क्योंकि उन यादों को ताजा करने के लिए पुराने अवशेष अब भी वहां ज्यों के त्यों पड़े हैं। मदान ने परिसर में घूमते हुए बताया कि उस दिन गांधी किस रास्ते मनु और आभा के साथ प्रार्थना स्थल पर आ रहे थे ? किस स्थान व कितने करीब से उन्हें गोली मारी गई ? और स्वयं वे कितने फासले पर थे। प्रार्थना सभा से जुड़ी कई महत्वपूर्ण बातें भी उन्होंने बताईं। तब ऐसा लग रहा था जैसे हम कोई वृतचित्र देख रहे हों। वैसे, परिसर में गांधी के पद-चिन्ह बने हैं। कई स्थानों पर पट्टियां भी लगी हैं, जिसपर जानकारियां दर्ज हैं। इससे मालूम होता है कि गांधी फलाने कमरे में आने वालों से मुलाकात करते थे और फलाने रास्ते से प्रार्थना स्थल तक जाते थे।

इस छायादार परिसर में और भी सूचनाएं करीने से दर्ज हैं। लोग उसे पढ़कर सच जान सकते हैं। पर मदान करीब 45 मिनट तक 30 जनवरी की शाम का आंखों देखा हाल सुनाते रहे, जो वहां मौजूद लोगों के जेहन में गहरे उतरा। एकबारगी ऐसा लगा कि कोई अनुभव से पका पत्रकार उस घटना का सीधा प्रसारण कर रहा है। यह अवसर 'गांधी दर्शन' के संपादक अनुपम मिश्र और गांधी स्मृति केंद्र की निदेशक मणिमाला के अथक प्रयास से ही संभव हुआ। अनुपम मिश्र ने ही उस शाम के प्रत्यक्ष गवाह मदान को ढूंढा। इसी क्रम में जब उन्हें मालूम हुआ कि इस घटना को और करीब देखने वाल कोई दूसरा व्यक्ति भी है तो पता-ठिकाना लेकर पत्रकार-लेखक देवदत्त के पास पहुंचे। फिर एक कार्यक्रम की कल्पना की गई, ताकि मदान व देवदत्त के स्मृति-खंड को सुना जा सके। जो लोग इस अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे और स्मृति-खंड को सुनने आए उनमें वीजी वर्गीस, गोपाल कृष्ण गांधी, तारा बेन, केएन. गोविंदाचार्य आदि शामिल थे।

वे दोनों पत्रकारिता की दुनिया से जुड़े रहे हैं। दोनों हमेशा उस दुखद स्मृति-खंड को सार्वजनिक करने से बचते रहे। आज जब पिद्दी खबरों व संस्मरणों पर भी अपनी पीठ थपथपाने का रिवाज बढ़ता जा रहा है तो यह उम्मीद देवदत्त और मदान जैसे कुछेक पत्रकारों से ही कर सकते हैं, जिन्होंने गांधी को देख-सुनकर अपनी समझ बढ़ाई है। बहरहाल, मदान ने बताया कि उन दिनों वे 24 के थे और ‘ऑल इंडिया रेडियो’ में बतौर कार्यक्रम अधिकारी नियुक्त थे। वे प्रार्थना सभा से ठीक पहले गांधीजी के कहे को रिकार्ड करने बिड़ला हाउस जाते थे। क्योंकि, रात 8.30 बजे गांधीजी का वही भाषण ऑल इंडिया रेडियो से प्रसारित किए जाता था।
उन्होंने कहा, “मैं 19 सितंबर, 1947 से 30 जनवरी, 1948 तक करीब-करीब रोजाना प्रार्थना सभा में उपस्थित था। इस बीच कुल चार दिन ही ऐसे थे, जब प्रार्थना-सभा नहीं हुई। क्योंकि, एक दिन गांधीजी कुरुक्षेत्र में लगे शरणार्थी शिविर का दौरा करने गए थे, जबकि तीन दिन वे किसी अन्य जगहों की यात्रा पर थे। संभवत: बंगाल गए थे। ”
अपनी स्मृति को साझा करते हुए मदान ने कहा कि प्रार्थना सभा का समय शाम पांच बजे निश्चित था। गांधीजी अधिक से अधिक पांच मिनट की देरी से अपने स्थान पर पहुंच जाते थे। पर घटना वाली शाम वे करीब 15 मिनट की देरी से वहां पहुंचे। कहा जाता है कि गांधीजी को शाम 5.17 बजे गोली लगी थी। पर मेरी घड़ी तब शाम के 5.16 का समय बता रही थी। इस तरह क्रमवार मदान की कभी न मिट पाने वाली इस स्मृति-खंड को सुनकर एक अजीब सा सूनापन महसूस हो रहा था।

अब वे 86 के हो चुके हैं। पर आवाज साफ और उच्चारण स्पष्ट हैं। मदान ने कहा कि तब सूचना पहुंचाने का कोई सीधा माध्यम नहीं था। इसके बावजूद घटना की सूचना इतनी तेजी से फैली कि शाम के छह बजते-बजते करीब बीस हजार से अधिक लोग गेट के बाहर इकट्ठा हो गए थे। यहां पहुंचने वालों में लार्ड माउंटबेटन पहले महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। इसके बाद नेहरू, सरदार पटेल व अन्य लोग आए। मदान को इस बात का अब भी मलाल है कि वे उस व्यक्ति को नहीं ढूंढ़ पाए, जिसने घटनास्थल से गांधीजी के शरीर को उठाया था। लेकिन, उस मोमबत्ती के मद्धिम आलोक को वे आज भी नहीं भूले, जिसे तत्काल किसी ने उसी स्थान पर जला दिया था, जहां गांधीजी को गोली लगी थी और वे गिर पड़े थे। स्मृति को सुनाते हुए कई बार मदान के भीतर छुपा पत्रकार भी जगता नजर आया। ऐसा एक मौका वह था, जब उन्होंने कहा कि घटना हमारे सामने हुई थी, पर कोई सच कहने-मानने को तैयार नहीं था। बीबीसी ने 5.35 बजे सबसे पहले इस खबर को प्रसारित किया। हालांकि, ऑल इंडिया रेडियो ने कुछ देर बाद घटनास्थल से ही नेहरू के शोकाकुल भाषण का सीधा प्रसारण किया। गांधी स्मृति केंद्र के एक प्रवेश द्वार की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, “यहीं से नेहरू ने अपना भाषण दिया था। उनके आंसू बह रहे थे, पर वे लगातार बोलते रहे। उस शाम यहां इकट्ठा हुए सभी लोग शोक में गहरे डूबे थे। सबकुछ मौन में डूबा था। वह नजारा अलग था। ”

हालांकि, पत्रकार-लेखक देवदत्त थोड़ी देर से आए, उन्होंने मदान की पूरी बातें नहीं सुनीं। पर जो थोड़ा-बहुत कहा उससे बात और साफ हुई। सवाल-जवाब का दौरान आया तो तथ्य बताते हुए कहा कि उन्होंने घटना को दो-तीन फुट की दूरी से देखा था। साथ ही यह भी कहा कि जो लोग गांधीजी पर गोली चलाने वाले को पकड़ रहे थे, वे कोई प्रशिक्षित नहीं लग रहे थे। जनसत्ता में छपे अपने पुराने स्मृति-खंड में वे कह चुके हैं कि गोली लगने के बाद गांधी को “हे राम” कहते उन्होंने नहीं सुना था। वही सवाल यहां के.डी.मदान से हुआ।
उन्होंने कहा, “हालांकि, मैंने गांधी को ‘हे राम’ कहते नहीं सुना। पर यह लीजेंड है और इसे लीजेंड ही रहने दिया जाय। ”
मदान ने कहा कि प्रार्थना स्थल पर कोई पुलिसकर्मी तैनात नहीं रहता था और गोली चलाने वाले को पकड़ने वाले आस-पास खड़े लोग ही थे। दरअसल इन दोनों बुजूर्गों ने जो कहा उनमें कई समानताएं थीं।

इन बातों से अलग होकर यहां मौजूद लोगों को देवदत्त ने अपनी दूसरी चिंताओं से भी वाकिफ कराया। उन्होंने कहा, “इस व्यवस्था ने गांधी को रीति-रिवाज का तरीका भर बना दिया है। वे गांधी का इस्तेमाल अपनी जरूरत भर करते हैं। हालांकि, हजारों लोगों के जहन में गांधी जीवित हैं। इसमें युवा ज्यादा है, वे गांधी को नजदीक से जानना-समझना चाहते हैं। ”

कार्यक्रम की इसी श्रृंखला में सन् 1937 में गांधीजी पर बनी 90 मिनट की एक डाक्युमेंट्री फिल्म का अंग्रेजी संस्करण दिखाया गया। इसे तैयार करने का श्रेय ए.के.चेट्टिआर को है। हालांकि, मूल रूप से यह फिल्म तमिल भाषा में बनाई गई थी। बाद में उसे तेलगु और फिर हिन्दी में डब किया गया। अनुपम मिश्र ने कहा, “सन् 1940 में अंग्रेज सरकार ने इस फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया था और इसकी कॉपियों को नष्ट करने के प्रयास हुए थे। खैर, फिल्म का अंग्रेजी संस्करण मुश्किल से मिला है।” नवंबर की भरी दोपहरी में मदान और देवदत्त को गांधी स्मृति केंद्र में सुनना एक अदभुत अनुभव था। गांधी स्मृति में दाखिल होते ही महसूस हुआ कि इस आंगन में न जाने कितनी पुरानी सदियों का मौन जमा है। मदान और देवदत्त उसी मौन की वजह बता रहे थे।

ब्रजेश झा
09350975445

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