Friday, September 14, 2007

लुप्त होता हुनर


भागलपुर शहर का एक खास इलाका है। नाम है चंपानगर। यहां कभी 'चंपा' नदी हुआ करती थी। और इसके पास बसे लोग बुनकर थे। मालूम नहीं कब यह नदी नाले का रूप पा गई। और ताज्जुब है, कहलाने भी लगी। दूसरी तरफ इसके आस-पास बसे लोग जो कभी बुनकर थे अब मजदूर हो गए हैं। यह बदलाव है जो साफ नजर आता है। हाल में भागलपुर का यही इलाका अखबारों-टीवी चैनलों पर छाया हुआ था। वजह इक चोर को रक्षस की तरह पीटना था। खैर, इस पर बात अलग से।
अरसा नहीं गुजरा जब भागलपुरी रेशम अपने समृद्धि के दौर में था। पारंपरिक ढंग से रेशमी वस्त्रा तैयार करने की वजह से इसकी अलग पहचान थी। लोग यहां के बुनकरों और रंगरेजों के हुनर की दाद दिया करते थे। तब सामाजिक-आर्थिक संरचनाएं भी ऐसी थीं कि कई बड़े-मझोले बुनकरों के बीच छोटे-मोटे बुनकरों का भी वजूद कायम था। पर, आज इलाके की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में घूमते वक्त बहुत कुछ सपनों सा मालूम पड़ता है। भूमंडलीकरण के दबाव और सरकारी उपेक्षा की वजह से भागलपुरी रेशम उद्योग की वर्तमान हालत बिल्कुल खस्ता है। बुजुर्ग बतलाते हैं, 'यह मुमकिन नहीं लगता कि अब यहां की पुरानी रौनकें लौट आएं'।
यहां के हजारों बुनकर परिवार वर्षों से 'तसर' और 'लिलन' जैसे धागों से रेशमी कपड़ों की बुनाई करते आ रहे हैं। पहले तो इसकी ख्याति विदेशों तक थी। ढेरों कपड़ा यहां से निर्यात किया जाता था। पर, अब वह बात नहीं रही। रेशमी कपड़ा अब भी तैयार किया जाता है। लेकिन, कुछ असामयिक घटनाओं ने अनिश्चितताओं के ऐसे माहौल को जन्म दिया कि हजारों बुनकरों को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए पलायन करना पड़ा। फिलहाल इस उद्योग से कुछ लोग ही जुड़े रह गए हैं, जो अपने पुश्तैनी व्यवसाय को बचाने की कोशिश में लगे हैं। अंसारी साहब कहते हैं, 'यहां रेशमी कारोबार से जुड़ी थोड़ी चीजें ही बाकी रह गई हैं। अब तो इस विरासती कारोबार की हिफाजत अपने बच्चों के लिए भी कर पाना मुश्किल हो गया है।'
आजकल यहां आजाद भारत के बुनकरों की चौथी पीढ़ी अपनी शरुआती पढ़ाई को छोड़ इस काम में लग चुकी है। यह बाल मजदूरी की एक अलग दास्तान है। बाकी जो उम्रदराज लोग हैं, उनके मन में 1986 और 1989 में लगातार घटित दो विषाक्त घटनाओं की गहरी यादें जमी हुई हैं। जिसने रेशम उद्योग को जड़ तक हिला दिया है। अंसारी साहब मायूस होकर कहते हैं, 'ये दो वाकयात ऐसे हुए जिसने शहर से लेकर देहात तक फैले बुनकरों-रंगरेजों को तबाह कर डाला। वरना, यह कारोबार थोड़ा आगा-पीछा के बावजूद कायदे से चल रहा होता।'
यहां बिजली-बिल के करोड़ों रुपये बकाया राशि के भुगतान को लेकर सन् 1986 में काफी हंगामे हुए थे। प्रशासन द्वारा बुनकरों पर अप्रत्याशित ढंग से दबाव बनाए जाने से हालात बिगड़ गए। अंतत: क्रिया-प्रतिक्रया में दो बुनकर आशीष कुमार, जहांगीर अंसारी और भागलपुर के तत्कालीन डीएसपी मेहरा की हत्या हो गई। इसके बाद तो लगातार हंगामे होते रहे और रेशम उद्योग जलता रहा। इस घटना ने सलीका पंसद और मेहनती समझे जाने वाले बुनकरों की छवि को अचानक खराब कर दिया।
अत्यधिक ब्याज अदा करने को तैयार होने के बावजूद इन्हें सूद पर रुपये नहीं मिल पाते थे। दूसरी तरपफ डीएसपी मेहरा की हत्या से जुड़े मुकदमे में दर्जनों बुनकर केस लड़ते-लड़ते तबाह हो गए। आज उनमें देवदत्त वैद्य, एर्नामुल अंसारी जैसे कई बुनकर नेताओं की तो मृत्यु भी हो चुकी है। ठीक उसी वक्त इस उद्योग से जुड़कर बड़ों का हाथ बटा रही युवा पीढ़ी पर घटना का गहरा असर हुआ। वे लोग जीवन-यापन के लिए विकल्प तलाशने लगे। बिजली आपूर्ति और बकाया राशि को लेकर हंगामे तो खूब हुए, लेकिन स्थितियां अब तक 'ढाक के तीन पात' वाली बनी हुई हैं। ऊपर से सरकारी सुविधाएं भी धीरे-धीरे बंद होती चली गईं। इन हालातों के बीच 1989 का जिले भर में फैला सांप्रदायिक दंगा-रेशम उद्योग को पूरी तरह उजाड़ गया। दूर-दराज वाले कई गांवों में तो यह उद्योग लुप्त ही हो गया।
यद्यपि यह राममंदिर आंदोलन से पूर्व बनते-बिगड़ते राजनैतिक और धार्मिक गठजोड़ का दुष्परिणाम था, जो धीरे-धीरे साफ होता गया। लेकिन, गाज भागलपुर रेशम उद्योग पर गिरी। तब रेशम उद्योग मात्रा 35-40 वर्ष पीछे लौट कर ही नहीं रह गया बल्कि, अपनी दिशा भी बदलने लगा। रेशम बाजार की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई। 'मोमीन बुनकर विकास संगठन' से जुड़े बुनकरों का कहना है कि दंगे के बाद बाहर से व्यापारियों का आना पूरी तरह बंद हो गया। जबकि ये लोग पहले हमारी देहरी तक आकर माल ले जाया करते थे। तब हमें बिचौलिए के झमेले में नहीं पड़ना होता था। पर अब हवा बदल गई है। यह सांप्रदायिक दंगा भागलपुर की स्मृति का ऐसा पक्ष है जो एक दु:स्वप्न की तरह बुनकरों का पीछा कर रहा है। कम अंतराल पर हुई इन दो घटनाओं से कई साधारण गरीब बुनकर घृणा, भय और आतंक का अनुभव करते हुए यहां से पलायन कर चुके हैं। आज वे लोग अपने व्यवसाय और जड़ों से उखड़कर देश के विभिन्न हिस्सों में अपनी अधूरी पहचान के साथ जी रहे हैं। जबकि, भागलपुरी रेशम उद्योग पूरी ढलान पर है।
मशीनीकरण का भी इस लघु उद्योग पर प्रतिकूल असर पड़ा है। पहले एक हैंडलूम के सहारे चार-पांच सदस्यों वाले परिवार का भरण-पोषण बड़ी सहजता से हो जाता था। रेशमी धागों के गट्ठरों की धुलाई, लेहरी, टानी, बुनाई, रंगाई और छपाई तक की प्रक्रिया से जुड़े कामों में जुलाहे से लेकर रंगरेज तक व्यस्त रहते थे। लेकिन, नई अर्थनीति और पावरलूम की अंधी दौड़ ने गरीब बुनकरों की स्थिति को दयनीय बना दिया है। वे लोग हैंडलूम के बूते पावर लूम का विकल्प तैयार नहीं कर सकते और न ही बाजार में टिक सकते हैं। इसलिए बड़े लूम हाउसों में मजदूरी करना इन बुनकरों की नियति बन गई है। ऐसे रेशम उद्योग के बेहतर भविष्य की कल्पना कोई कैसे कर सकता है, जहां का बुनकर समाज गरीब होता जा रहा है और व्यापारी दिनों दिन अमीर। बिजली आपूर्ति की वर्तमान स्थिति इस फासले को और चौड़ा करने में लगी है।
पिछले कुछ दशकों से इस रेशम उद्योग में असामाजिक तत्वों का हस्तक्षेप भी बढ़ा है। ये लोग गैरकानूनी ढंग से इस व्यवसाय में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। बेशक, हम पारंपारिक 'टसर' और 'लिलन' के व्यापार को बिखरता पाते हों किन्तु, इसकी आड़ में रेशम धागे की कालाबाजारी का अपना संपन्न संसार है। ये लोग अपने स्वार्थ के वास्ते हमेशा दिमागी हरकत करते रहते हैं। इससे उद्योग की साख को बड़ा धाक्का पहुंचा है। न जाने कितने बुनकरों-व्यापारियों ने रंगदारी के भयवश पुरखों द्वारा प्रदत्त रेशम उद्योग से खुद को अलग कर लिया है। यहां किसी भी सरकारी संरक्षण के अभाव में कई छोटी-बड़ी मिलें बंद हो चुकी हैं। 'सिल्क स्पंस मिल-बहादुरपुर' इन्हीं में से एक है। विदेशी कंपनियां फैल रही हैं वहीं देशी उद्योग लुप्त हो रहा है। सोचता हूं कि ऐसे में भागलपुर सिल्क उद्योग' को लेकर क्या राय बन सकती है।
ब्रजेश झा
09350975445

Thursday, September 13, 2007

सिनेमाई गीतों का लोकराग


बात कुछ यूं है कि पचहत्तर साल के सफर में फिल्मी गानों ने अपना अंदाजे-बयां कई बार बदला। वैसे, यह अब भी जारी है। यहां एक साथ संपूर्ण चर्चा तो मुमकिन नहीं किन्तु, हम एक धार में तो गोता लगा ही सकते हैं।
क्या है न कि लोकगीतों व खान-पान से हमारी संस्कृति का खूब पता चलता है। हमारी रुचि और आदतें यहीं से बनती और संवरती हैं। इससे अलग होना बड़ा कठिन है। हरी-मिर्ची और चोखा के साथ भात-दाल खाने वाले ठेठ पूरबिया को मराठवाड़ा घूमते वक्त कई-कई दिन बड़ा-पाव पर गुजारना पड़े तो उसकी हालत का अंदाजा लगाइए। फिर भी, अपने गांव-कस्बे से दूर, बहुत दूर बड़ा-पाव खाते वक्त गीतकार अनजान के गीत ''पिपरा के पतवा सरीखे मोर मनवा कि जियरा में उठत हिलोर'' की धीमी आवाज कहीं दूर से कानों को छूती है तो तबीयत रूमानी हो जाती है। कदम अनायास उस ओर मुड़ जाते हैं। मन गुनगुना उठता है ''पुरबा के झोंकवा में आयो रे संदेशवा की चलो आज देशवा की ओर।''
खैर! सिनेमाई गीतों द्वारा जगाई इसी रूमानियत के बूते मराठवाड़ा में अगले कुछ दिन रस भरे हो जाते हैं। तब धीरे-धीरे बड़ा-पाव भी स्वाद के स्तर पर हमारी रुचि का हो जाता है। ठीक यही हाल पंजाब की गलियों में तफरीह करते और 'मक्के दी रोटी और सरसों दा साग' खाते किसी दूर प्रदेश के ठेठ आंचलिकता पंसद लोगों की भी होगी। किन्तु इस बहुसांस्कृतिक देश में जहां भी जाएं कुछ अरुचि के बाद नई रुचि जन्म ले लेगी। सिनेमाई गीतों ने नई रुचि पैदा करने और विभिन्न लोक संस्कृतियों से अवगत कराने का बड़ा काम किया है। इस बहुभाषीय देश में सभी की रूमानियत परवान चढ़ सके, इसका पूरा खयाल सिनेमाई गीतकारों- संगीतकारों ने रखा है। जब हिन्दी सिनेमा आवाज की दुनिया में दाखिल हुआ तो लोकगीतों को पहली मर्तबा राग-भोपाली, भैरवी, पीलु और पहाड़ी आदि में पिरोया जाने लगा। त्योहारों के गीत परदे पर उतारे जाने लगे:-
'अरे जा रे हट नटखट न छेड़ मेरा घुंघट...
पलट के दूंगी आज तोहे गारी रे...
मुझे समझो न तुम भोली-भाली रे...।'
आशा और महेन्द्र कपूर की आवाज में गाया गया यह गीत राग-पहाड़ी पर आधारित है। पारम्परिक त्योहारों-ऋओं पर ऐसे हजारों लोकगीत हैं। इसके अलावा दैनिक जीवन में लगे लोगों के मनोभावों को अभिव्यक्त करने के लिए भी आंचलिक गीतों का सहारा लिया गया। इसकी एक बानगी-
'उड़े जब-जब जुल्फें तेरी
क्वारियों का दिल मचले दिल मेरिये।'
यकीनन, इस गीत से पंजाब की गलियों में खिलते रोमानियत के फूल की खुशबू आती है। इन सभी गानों में इतनी मिठास है कि कई बार रिवाइन्ड करके लोग इसे सुनते हैं। तीन-चार मिनट के इन लोकगीतों में इतनी कसक और नोस्तालजिया है कि पूछिए मत! हमारे सामने सीधे गांव और वतन की तस्वीर उभर आती है। इसे बार-बार सुनने-देखने की तबीयत होती है। इसके बूते लोग दिन-महीने-साल गुजार देते हैं। लोकधुनों पर आधारित सरल संगीतमय गीतों की सफलता में तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों ने भी अपनी तरफ से महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उसी जमाने से लोग गांव छोड़कर शहरों में बसने लगे। बड़े शहरों-महानगरों और बन पड़ा तो विदेश की ओर पलायन करने लगे। लेकिन, वे गांव की संस्कृति से अलग होकर भी वहां की स्मृतियों को जेहन से मिटा नहीं पाए। अपनी लोकधुनें कान पर पड़ी नहीं कि छोड़ आई उन गलियों की स्मृतियां लौट आती हैं। लोग गाने लगते हैं-'मेरे देश में पवन चले पूरबाई'
भई आखिर बात ही कुछ ऐसी है, बसंत आया नहीं कि सब कुछ पीला दिखने लगता है। एक अजीब खुमारी छा जाती है जो चारो तरफ पंजाब की गलियों में गूंजने लगती हैं।
'पीली पीली सरसों फूली
पीली उडे पतंग
पीली पीली उड़ी चुनरिया
पीली पगड़ी के संग
आई झूम के बसंत।'
लोकगीत नई अनुभूतियों के साथ खुद को बदलता जाता है। अब तो देहाती धुनों-बोलों में शहरी नवीनता मिलने लगी है। 'बंटी और बबली' के गाने इसके गवाह हैं। यहां ठेठ देहाती शब्दों के बीच अंग्रेजी के शब्दों का भी इस्तेमाल हुआ है। 'कजरारे-कजरारे मोरे कारे-कारे नैना'... पर्शनल से सवाल करते हैं। यहां पर्शनल क्या है? और मोरे, कजरारे, कारे वगैरह। ये तो अंचल की खुशबू देते हैं।
तो क्या है न कि बंबई नगरिया देश के सुदूर हिस्सों से आए लोगों की जमात ने इस नगरी में बिलकुल भेलपुरीनुमा हिन्दी यानी, बंबइया हिन्दी को धानी बनाया। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि जिस जगह की अपनी कोई मातृभाषा नहीं है उसने लोकगीतों-संगीतों की नवीन रचना के वास्ते उपयुक्त जगह और माहौल प्रदान किया। संगीतकार नौशाद का मानना है कि गीतकार डीएन मधोक लोकगीत को हिन्दी सिनेमा में स्थान देने वाले शुरूआती लोगों में बड़े महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। सन् 1940 में बनी 'प्रेमनगर' के लिए उन्होंने लोकगीतों पर आधारित गाने लिखे जैसे-'मत बोले बहार की बतियां'। पर नए शोध से यह मालूम हुआ कि 1931-33 से ही कई अनजान गीतकार लोकगीतों पर आधारित गाने फिल्मों के लिए लिख रहे थे जैसे 'सांची कहो मोसे बतियां, कहां रहे सारी रतियां' ; फरेबीजाल-1931ई। तब से लेकर आज तक अनेक गीतकारों-संगीतकारों ने लोक-संगीत को फिल्मों में दिखाने-सुनाने में जबरदस्त रुचि दिखाई। याद कीजिए 'गंगा-जमुना' का गीत-'तोरा मन बड़ा पापी सांवरिया।' 'मोरा गोरा अंग लईले' ;बंदिनी, 'जिया ले गयो री मोरा सांवरिया' ;अनपढ़। 'इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मोरा' ;पाकीजा, 'चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजरे वाली मुनिया' ;तीसरी कसम। हिन्दी सिनेमा में ऐसे हजारों गीत हैं। ये गीत कानों में पड़ें तो क्यों न तबीयत रूमानी हो जाए। ।

Tuesday, September 11, 2007

ब्लुलाइन का ताप

हिमांशु शेखर दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारी सीख रहे है,कई जगहों पर छप रहे हैं. जनसत्ता पल्टें ध्यान आ जाएगा-
विशेष उनका लिखा पढ़कर आंदाजा लगा लें---

दिल्ली में चलने वाली ब्लूलाइन बसों के अंदर की दुनिया अपने-आप में खास है। देश की राजधानी में चलने का गुरूर सवारी और सवार दोनों में नजर आता है। बाकी, कंडेक्टर-ड्राइवर के क्या कहने हैं! लोगों ने इसे दूसरा नाम दिया है वह है,किलर बस; आपको थोड़ा ताज्जुब हुआ होगा। किन्तु, मेरा ख्याल है कि चार-पांच दफा जो कोई इससे सफर करेगा वह ब्लूलाइन को इसी नाम से जानेगा। खैर! आए दिन बसों की चपेट में आकर लोग जान गंवाते रहते हैं। पर यह भी तय है कि इन बसों के बगैर दिल्लीवासियों का दिन भारी हो जाता है। हाल ही में जब कुछ दिन के लिए ब्लूलाइन बसें सड़क पर नहीं आईं तो डीटीसी की बसों में दिल्ली के कामकाजी लोग समा नहीं पाए। जेबकतरों के भी दम निकल गए। उस दरम्यान बसों की जानलेवा भीड़ ने किलर बसों की प्रासंगिकता को दर्शाया।
ब्लूलाइन बसों में सुबह और शाम के वक्त इतनी भीड़ होती है कि सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है। फिर भी कुछ घटनाएं ऐसी होती है जिनसे मन गुदगुदा जाता है। कईयों के तो गंभीर संकेत निकलकर सामने आते हैं। परिवहन व्यवस्था चरमराई नहीं कि बसें संसद की शक्ल अख्तियार कर लेती हैं। फिर क्या है? व्यवस्था पर लंबी चौड़ी बहस शुरू हो जाती है। बस के अंदर बाहर का ताप एक साथ बढ़ने लगता है। कोई कहता है मेट्रो से समस्या का समाधान हो जाएगा। कोई यह मानता है कि दिल्ली की आबादी इतनी तेजी से बढ़ रही है कि ससुरी मेट्रो का भी दिवाला निकल जाएगा। जितने लोग उतनी बातें। भाई, यह बहस का एक रूप है। सौहार्दपूर्ण बहस कब रौद्र रूप धारण कर ले यह कहा नहीं जा सकता है। बैठने या खड़ा होने भर से झगड़ा शुरू हो जाता है। ठीक अपने संसद की तरह। कुछ दिन पहले पहाड़गंज थाने से रूट संख्या-309 की सवारी कर रहा था। शाम का वक्त था और भीड़ की पूछिए मत! बस जैसे ही अजमेरी गेट से आगे बढ़ी कि दो लोगों में बहस शुरू हो गई। हाथापाई तक बात पहुंची हुई थी। कई नए विशेषणों (गाली) का ईजाद हुआ। उसके बाद बीच-बचाव हुआ। सब कुछ खड़े-खड़े सम्पन्न हो गया। कुछ लोग दांत दिखला रहे थे, जबकि महिलाएं परेशान थीं। यहां सीट पर बैठते वक्त कालेजिया युवक ने एक बुजुर्ग को थोड़ा सा खिसकने को कहा। वो उबल पड़े। झगड़े पर उतारू हो गए। सज्जन सा दिख रहा वह युवक बुजुर्ग के गुस्से का शिकार होते-होते बचा। इन नजारों को देखने के बाद प्रधानमंत्री की वह बात याद आती है, 'लोग सड़कों पर चलने के दौरान धैर्य बनाए रखें।' बसों पर भी यही बात लागू होती है। यह बात अलग है कि प्रधानमंत्री की सलाह को संसद से सड़क तक कम ही लोग गंभीरता से लेते हैं। दरअसल, कहीं का गुस्सा कहीं उतारने की बुरी प्रथा हमारे समाज में तेजी से बढ़ रही है। इस पर अंकुश लगाए बगैर सामाजिक सुरक्षा की बात करना सरासर बेईमानी है।
अंत में एक हल्का पर गंभीर प्रसंग रूट संख्या-355 के बस की। तपती दोपहरी में दो युवक सफर कर रहे थे। एक के हाथ में शीतल पेय का आधा लीटर वाला बोतल था। वह अपने साथी को बतला रहा था, 'ट्रेन से घर जाते वक्त जब उसे प्यास लगती है तो वह पानी की बोतल खरीदने के बजाए शीतल पेय का बोतल खरीदता है।' वजह बेहद रोचक है उसने कहा 'दोनों के दाम में आठ रूपए का फर्क है और रूतबे में आसमान-जमीन का।' यह कैसा दुर्भाग्य है कि लोगों को पेयजल नहीं मिल रहा है और वे कीटनाशकों से युक्त पेय को पीकर खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। यकीन मानिए राजधानी की ब्लूलाइन बसें चलती-फिरती सामाजिक पाठशाला से कम नहीं हैं।

ब्रजेश झा

Monday, September 10, 2007

क्या कहने हैं

दोस्तो-
नई उमराव-जान बहुत चर्चा रही है शायद इस वास्ते कुछ बातें याद आ गईं —
"इन आंखों की मस्‍ती के दीवाने हजारों हैं"
इस गीत को शहरयार ने उमराव-जान (1982) के लिए लिखकर
बड़ा नाम कमाया था किन्तु, इक और पंक्ति याद आ रही है–
"मस्ताना निगाहों के दीवाने हजारों हैं"
फिल्म - गरीबी ( रणजीत मुवीटोन, मुम्बई) 1949 ।
गीतकार- शेवन रिजवी ।
यानी सब कुछ नया नहीं है।
आगे फिल्‍मी गानों की कुछ ऐसी पंक्‍तियां जिसे गीत के तौर पर कई बार दुहराया-तिहराया गया–
1 चनेजोर गरम बाबू मैं लाया मजेदार,
चनाजोर गरम…………॥
फिल्‍म– बंधन ( बाम्‍बे टाकीज, मुम्‍बई ) 1940 ।
गीतकार– प्रदीप ।

2 जोर गरम बाबू मुलायम मजेदार,
चनाजोर गरम……॥
फिल्‍म– छोर छोरी ,1955।
गीतकार– केदार शर्मा ।

3 चानाजोर गरम बाबू…………
फिल्‍म- क्रान्‍ति ।
गीतकार- आनंद बख्‍शी।
इन पंक्तियों में जरा सा बदलाव कर के बड़े हुनर का परिचय दिया गया है।
ऐसे और भी उदाहरण हैं जिस पर काम जारी है।
धन्यवाद
ब्रजेश झा
09350975445

Monday, September 3, 2007

पनियां आ रहलो हैं.

पश्चिम चंपारण के सिकटा में रहने वाले लोग जमीन से ऊपर हैं। आखिर जमीन पर पांव रखें भी तो कैसे! वहां तो पानी फैला है। यही हाल उत्तरी बिहार के ज्यादातर ग्रामीण इलाकों का है जो लोग जमीन से ऊपर सतह की तलाश कर सके वो बच गए, बाकी बह गए। जानवरों की स्थिति और भी बुरी रही। अब मृत्यु के तरल दूत से इन्हें कौन बचाए.....। सरकार मूकदर्शक बनी हुई है। मुख्यमंत्री मारीशस से तफरीह करके आए हैं। हवा में हवाई सर्वेक्षण करते हुए मनभावन टिप्पणियां कर रहे हैं। कहते है--आग लगने पर कुआं खोदा जा रहा है। अब इनसे कौन पूछे कि भई! कुआं पहले क्यों नहीं खोदवा लिया गया था। आखिर लोग तो आपके ही हैं।
खैर! हमारी ट्रेन मोकामा से भागलपुर की ओर तेजी से बढ़ रही है। पानी पटरी के दोनों तरफ फैला है। दूर तक यही स्थिति है। कई गांव अधडूबे दिख रहे हैं। हम सहयात्री खजूर के पेड़ को देखकर पानी की गहराई का अंदाजा लगा रहे हैं। ट्रेन पूरा एक घंटा देरी के बावजूद अपनी रफ्तार पकड़े हुए है। कौन ससुरा कहेगा कि ट्रेन देरी से चल रही है, यहां घंटा भर लेट भी राइट-टाइम है। दरअसल, ऐसी ही सरकारी प्रवृत्तियां बाढ़ को अपने भयावह स्थिति तक पहुंचने में सहयोग देती है। उत्तर बिहार के ज्यादातर शहर टापू बन गए हैं। और देहाती इलाके डूबे हुए हैं।
इन इलाकों में राज्य प्रशासन की गाड़ियां चक्कर लगा रही हैं। लोग सुरक्षित स्थानों की ओर भाग रहे हैं। बेचारे कहां जाएं। क्या करें! बाढ़ का पानी घर में घुस आया है। कोई चाक-चौबंद व्यवस्था नहीं है। ऊपर से लगातार हो रही बारिश से निपटने का कोई बंदोबस्त भी नहीं है।
ऐसी ही विनाशलीला का भयावह रूप खगड़िया, बेगूसराय के ग्रामीण इलाकों में है। ऐसा लगातार सुनने को मिल रहा है। सहयात्रियों के बीच गरमागरम बहस जारी है। स्थानीय लोग बतलाते हैं कि यदि प्रशासन भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखकर तैयार होता तो बाढ़ ग्रस्त इलाकों में मौत का ग्राफ इतना ऊपर नहीं जाता। संचार माध्यम से ऐसी जानकारी मिल रही है कि राज्य के 17 जिलों में एक करोड़ से अधिक आबादी बाढ़ की चपेट में है। साढ़े सात लाख हेक्टेयर खेत में लगी फसल बर्बाद हुई है। और 57 लोगों की मृत्यु हो चुकी है।
विक्रमशीला ट्रेन भागलपुर पहुंचने वाली है। बाढ़ का पानी अब भी दिखाई दे रहा है। घर पहुंचने की जल्दी है। देखूं! गांव की क्या स्थिति है? अपना देश आजादी के 60 वर्ष पूरा कर चुका है। स्थितियां पहले साल जैसी हैं। ताज्जुब की बात है बाढ़ से बचने के लिए जहां कहीं थोड़े बहुत उपाय किए गए हैं, वहां तो और भी भयानक बाढ़ आई है। इस वर्ष देश के 20 राज्यों में 1200 लोग बाढ़ की वजह से मर चुके हैं। तीन करोड़ से अधिक लोग विस्थापित हुए हैं। सत्तार हजार के करीब पशु बह गए हैं। और करोड़ों की सम्पत्ति तबाह हो गई है। आए दिन आंकड़ों के साथ ऐसी खबरें खबारों में पढ़ रहा हूं। माथा खरब हो गया है।गांव में रतजगा चल रहा है। घर की छप्पड़ पर दिन गुजर रहा है। हाय रे विकास...। दूर से आवाजें आ रहीं हैं—भा..ग-भा..ग। पनियां आ रहलो है. आ..गैलो है। भाग..भा..ग ...।

ब्रजेश झा