Sunday, November 6, 2011

अब कश्मीरियत समस्या का समाधान नहीं- दिलीप पडगांवकर

हालांकि, कश्मीर मसले पर पहले भी भारत सरकार ने कई वार्ताकार नियुक्त किए, लेकिन यह पहली समिति है, जिसने बीते 11 महीने में राज्य के सभी जिलों के हर समुदायों के प्रतिनिधियों से मिलकर उनकी समस्याओं को समझने में लगाया। इसने 12 बार राज्य का गहन दौरा किया। हर बार एक रिपोर्ट अपने अनुभव के आधार पर गृह मंत्रालय को सौंपी। उन दिनों खासकर कुछ अंग्रेजी अखबारों ने उसके बारे में खबरें इस तरह छापीं जिससे लगा कि उनके पास रिपोर्ट की कॉपी हो। वार्ताकारों के मुताबिक उन खबरों में कोई सच्चाई नहीं होती थी।

अब 13वीं और आखिरी रिपोर्ट गृह मंत्री पी.चिदंबरम को वार्ताकारों ने सौंप दी है, तब समिति के अध्यक्ष दिलीप पडगांवकर ने रामबहादुर राय और ब्रजेश कुमार से खुली बातचीत की। इस बातचीत में उन्होंने रिपोर्ट के वे अंश बताए जिससे उसके बारे में एक परिप्रेक्ष्य सामने आता है। पूरी बातचीत यहां पढ़ सकते हैं-



















दिलीप पडगांवकर


सवाल- वार्ताकार की समिति क्यों बनी ?
जवाब- 2010 में कश्मीर के हालात काफी बिगड़ गए थे। उसी वर्ष गर्मी के मौसम में पत्थरबाजी पर सुरक्षाकर्मियों की कार्रवाई में करीब 120 बच्चे मारे गए थे। इसके बाद दिन-प्रति-दिन स्थितियां बिगड़ती गईं। सितंबर, 2010 में सभी पार्टियों का एक प्रतिनिधिमंडल जम्मू-कश्मीर गया। वहां उसने सभी लोगों से बातचीत की, जिसमें अलगाववादी नेता भी शामिल थे। दिल्ली लौटकर प्रतिनिधिमंडल ने सरकार को एक रिपोर्ट दी, जिसमें कई सुझाव भी दिए गए। उस रिपोर्ट में एक सुझाव यह भी था कि भारत सरकार को एक ऐसी समिति बनानी चाहिए जो जम्मू-कश्मीर जाकर सभी क्षेत्र और वर्ग के लोगों से मिले। और फिर यह रिपोर्ट दे कि आखिर वे लोग क्या चाहते हैं। इसके बाद 13 अक्टूबर, 2010 को सरकार ने तीन सदस्यों की एक समिति बनाई। इसमें पूर्व सूचना आयुक्त एम.एम अंसारी, शिक्षाविद राधा कुमार और मैं शामिल किया गया। साथ ही मुझे इस समिति का अध्यक्ष बना दिया गया। इसके बाद जो काम हमें सौंपा गया वह यह था कि हमलोग प्रत्येक महीने जम्मू कश्मीर जाएं। वहां विभिन्न लोगों से मिलकर यह जानने की कोशिश करें कि इस राज्य की समस्या का राजनीतिक समाधान क्या हो सकता है।
हमलोगों ने अपना काम तत्काल शुरू किया। बीते 11 महीने में हमलोग 12 बार जम्मू कश्मीर गए। राज्य के सभी 22 जिलों का दौरा किया। वहां लोगों से मिले। 700 से अधिक प्रतिनिधिमंडल हमसे मिलने आए जो समाज के हर वर्ग से थे। इसमें छात्र, शिक्षक, धार्मिक नेता, मानवाधिकार संगठन और गैर सरकारी संस्था से जुड़े लोग थे। हां, राजनीतिक पार्टियां भी थीं। इस दौरान हमने तीन गोलमेज सम्मेल भी किए। दो श्रीनगर में और एक जम्मू में। पहले सम्मेलन में राज्य के तीनों क्षेत्रों (जम्मू, कश्मीर और लद्दाख) से महिलाएं आईं। सम्मेलन में उन लोगों ने अपना पक्ष रखा। दूसरे में मूलत: शिक्षाविद व बुद्धिजीवी थे। तीसरा सम्मेलन हमलोगों ने जम्मू में किया था। इसमें कला-संस्कृति से जुड़े लोग राज्य के तीनों क्षेत्रों से आए थे। आखिर में हमलोगों ने तीन नागरिक सभाएं भी की थीं। इस दौरान लोगों ने दिल की बातें बताईं। फिर इसी बातचीत को हमलोगों ने अपनी रिपोर्ट का प्राथमिक स्रोत भी बनाया।

सवाल- जब आप यह जिम्मेदारी ले रहे थे तो क्या उस समय आपके मन में कोई हिचक थी?
जवाब- हम तीनों में दो लोगों का कश्मीर से पुराना ताल्लुक रहा है। राधा कुमार पिछले 15-16 सालों से कश्मीर मामले पर काम कर रही हैं। वह कई बार वहां जा चुकी हैं। स्थानीय लोग उन्हें निजी तौर पर जानते हैं। और मैं कश्मीर मसले पर 2002 में राम जेठमलानी की अध्यक्षता में बनी समिति का सदस्य था। तब हमलोग श्रीनगर, जम्मू और दिल्ली में कई लोगों से मिले थे। इसके अलावा हम दो लोगों की कश्मीर मामले में गहरी रुचि भी रही है। पर हां, जब समिति बनी तो मन में एक तरह का शक था। वह यह कि पिछले 63 सालों में कई बड़े अनुभवी लोगों ने इस मसले को हल करने की कोशिश की है। इसके बावजूद वे सफल नहीं हो सके। ऐसे में हम आगे कैसे बढ़े और इस पेंचीदे सवालों का कैसे सामना करें, यह बात मन में जरूर थी। लेकिन, दो दौरे के बाद हमें कई चीजें महसूस हुईं। और फिर उसी के आधार पर हमलोग आगे बढ़े।

सवाल- जिस काम को आपकी समिति ने पूरा किया है, क्या ऐसे कामों के लिए पहले भी कोई समिति बनी थी?
जवाब- इससे पहले दो वार्ताकार नियुक्त किए गए थे, जिसमें एक के.सी.पंत साहब थे। दूसरे एन.एन.वोहरा साहब। लेकिन, उनके काम और हमारे काम में फर्क यह रहा कि उनकी बातचीत बहुत कम लोगों से हुई। ज्यादातर बातचीत या मुलाकातें तो सर्किट हाउस या फिर गेस्ट हाउसों में हुईं। जबकि, हमलोग ने सभी जिला मुख्यालयों और कई गांवों में जाकर लोगों से मुलाकात की है। मैं समझता हूं कि पिछले 60 सालों में ऐसी कोई समिति या टीम नहीं है, जिसने इतना सधन दौरा किया और इतने लोगों से बातचीत की हो।

सवाल-इस दौरान आपका अनुभव क्या रहा?
जवाब- अनुभव यह रहा कि राज्य के सभी इलाकों में लोग पीड़ित हैं और उसकी वजह अलग-अलग है। उन लोगों ने बातचीत के दौरान जो बताया और मेमोरेंडम दिए, उनमें से सत्तर प्रतिशत मानवाधिकार और सरकार के बारे में थे। उन लोगों ने कई बातें कहीं। एक तो उन्होंने यह बताया कि ऐसे कई कैदी हैं जो पिछले आठ-नौ सालों से जेल में बंद हैं, लेकिन उनके मामले की अदालती सुनवाई अबतक नहीं हुई है। प्रांतीय सशस्त्र बल (पीएसी) की तैनाती के बाद दिन-ब-दिन लोगों के हालात बिगड़ रहे हैं। दूसरी बात यह बताई कि नौकरी एक बड़ा सवाल है। युवकों को नौकरियां नहीं मिल रही हैं। इससे वे आतंकवादियों के साथ जा रहे हैं।
इसके बाद जब हमने उनसे राजनीतिक अभिलाषा की बात की तो पाया कि वह एक-दूसरे से काफी भिन्न है। कश्मीर घाटी के लोग अलग तरह की उम्मीद रखते हैं। जबकि, जम्मू और लद्दाख के लोग दो भिन्न तरीके से सोचते हैं। इतना ही नहीं, इन तीनों क्षेत्रों के अंदर भी लोगों की सोच अलग-अलग है। मसलन कारगिल के लोगों की राजनीतिक अभिलाषा लेह के लोगों से बिलकुल भिन्न है। ठीक उसी तरह जम्मू के पांच मुस्लिम बहुसंख्य जिलों के लोगों की राजनीतिक अभिलाषा जम्मू शहर के लोगों से भिन्न है। अब जब इतनी विविधताएं हैं और लोगों की अलग-अलग उम्मीदें हैं तो फिर इनको कैसे एक साथ संबोधित किया जाए, यह सबसे बड़ा सवाल हमारे सामने था। मैं समझता हूं कि इन सवालों से गुजरने के बाद हमने जो सुझाव अपनी रिपोर्ट में दिए हैं, उससे शायद कोई रास्ता निकले।

सवाल- आपकी नजर में कश्मीर समस्या क्या है?
जवाब- मेरी नजर में तो इसके तीन पहलू हैं। पहला तो यह कि केंद्र और राज्य का संबंध। हमलोग जानते हैं कि विलय-पत्र पर जब महाराजा हरिसिंह ने हस्ताक्षर किए थे तो उस समय भारत सरकार के पास केवल तीन विषय थे विदेश नीति, रक्षा और कम्युनिकेशन। इसके अलावा सारे विषय राज्य के अधीन थे, लेकिन उसके बाद संविधान में अनुच्छेद 370 के महत्व को धीरे-धीरे कम करने की कोशिश हुई, जिसने जम्मू कश्मीर को एक अलग पहचान दी थी। भारत सरकार के कई कानून और संविधान के अनुच्छेद वहां लागू किए गए। इससे कश्मीर घाटी के लोग नाखुश थे। लेकिन, लद्दाख और जम्मू के बहुत सारे लोग खुश हुए, क्योंकि वे लोग भारत के साथ अधिक से अधिक जुड़ना चाहते थे।
समस्या का दूसरा पहलू राज्य के आंतरिक क्षेत्रों से जुड़ा है। जैसे कि लद्दाख और जम्मू के लोग घाटी के लोगों से काफी नफरत करते हैं। वे आरोप लगाते हैं कि उनके साथ विभेदकारी व्यवहार किया गया है। यदि वे एक लाख लोग मिलकर एक विधायक को चुनते हैं तो घाटी में 83 हजार लोग एक विधायक को चुनते हैं। इसका अर्थ यह है कि घाटी के राजनेताओं को हमेशा सात सीटें अधिक मिलती हैं। हालांकि, आबादी कमोबेश एक ही है। दूसरी बात यह है कि वे लोग बताते हैं कि जम्मू कश्मीर लोक सेवा में ज्यादातर घाटी के ही लोग हैं। लद्दाख और जम्मू क्षेत्र के लोगों की संख्या काफी कम है। इतना ही नहीं, विकास निधि के नाम पर जो बजट आता है वह भी घाटी के नाम पर ही होता है। लद्दाख और जम्मू के हिस्से में तो इस बजट का नाम-मात्र ही आता है। सो इन बातों को लेकर लद्दाख और जम्मू में घाटी के खिलाफ सेंटिमेंट्स हैं। यह वहां की आंतरिक संरचना है, जिसपर पिछले 50 सालों में कई बार चर्चा हो चुकी है। बार-बार यह कहा जाता रहा है कि जबतक अधिकारों का इन तीनों क्षेत्रों में विकेंद्रीकरण नहीं किया जाएगा, तबतक स्थितियां नहीं बदलने वाली हैं।
इसका तीसरा पहलू पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) से जुड़ा है। लाइन ऑफ कंट्रोल (एलओसी) ने बहुत सारे समुदायों को बांट दिया है। दोनों तरफ पहाड़ियां है। गुर्जर समुदाय के लोग हैं। गिलगिट को ही लें, वहां कई परिवारों के रिस्तेदार व पुरखे गिलगिट बलचिस्तान से हैं। यहां अचरज की बात यह है कि जब हम पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) की बात करते हैं, जिसे वे लोग आजाद कश्मीर कहते हैं तो वहां कश्मीरी बोलने वालों या एथनिक कश्मीरियों की आबादी एक प्रतिशत से भी कम है। हमें इस जनसांख्यकीय संरचना पर भी गौर करना चाहिए। क्योंकि, 1994 की बात है। संसद की एक रिजोल्युसन है जो कहती थी कि एक ही सवाल है वह यह कि पीओके को भारत में शामिल किया जाना चाहिए। इस तरह मेरी नजर में कश्मीर समस्या के तीन पहलू हैं। पहला केंद्र-राज्य संबंध। दूसरा आंतरिक शक्ति संरचना। और तीसरा पहलू जम्मू कश्मीर व पीओके से संबंधित है।

सवाल- क्या कोई बाहरी शक्ति भी समस्या का कारण है?
जवाब- हां, सबसे बड़ा कारण तो पाकिस्तान ही है। वह शुरू से ही जम्मू कश्मीर पर कब्जा करना चाहता है। इसके लिए उसने तीन बार युद्ध भी किए। इतना ही नहीं, पिछले करीब 20 सालों से आतंकवादियों को पनाह देकर और प्रशिक्षित कर हमारे कश्मीर में जो कुछ किया है उससे सभी वाकिफ हैं। निश्चय ही कश्मीर समस्या का यह एक महत्वपूर्ण पहलू है और वह इसलिए है क्योंकि, पाकिस्तान ने इसे अपने अस्तित्व का मुद्दा बना रखा है।

सवाल- यह धारणा बनी है कि संवैधानिक व्यवस्था के अंदर ही सार्थक स्वायत्तता की सिफारिश आप लोगों ने की है?
जवाब- नहीं, हमलोगों ने ऐसी कोई सिफारिश नहीं की है। मैं तो यह कहूंगा कि पूरे रिपोर्ट में हमलोगों ने कहीं भी स्वायत्तता शब्द का भी इस्तेमाल नहीं किया है।


सवाल- कश्मीर जहां भारत का अभिन्न अंग है वहीं अनुच्छेद 370 के तहत उसे विशेष दर्जा भी प्राप्त है। रिपोर्ट में इसके बारे में क्या है?
जवाब- जब रिपोर्ट प्रकाशित होगी तो आपको पता चलेगा। पर, मैं अनुच्छेद 370 के बारे में जरूर कह सकता हूं। गृहमंत्री पी.चिदंबरम ने जम्मू कश्मीर के बारे में कहा था कि यह एक यूनीक स्टेट है। एक तरफ तो यह भारत का अटूट अंग है, वहीं दूसरी तरफ इसे एक विशेष राज्य का दर्जा भी प्राप्त है, जो अनुच्छेद 370 से मिला है। इसके अलावा जम्मू कश्मीर का भी एक संविधान है जो राज्य को भारत का अभिन्न अंग घोषित करता है। तो
जम्मू कश्मीर की ये दोनों पहचान है। वहां के लोगों की भी दो पहचान है। एक यह कि वे भारत के नागरिक हैं। और दूसरे वे स्टेट सब्जेक्ट्स भी हैं। देश में कहीं भी ऐसी दोहरी पहचान वाले लोग नहीं हैं। अब इनकी दोहरी पहचान को समझना बहुत जरूरी है। साथ ही इसे कैसे निभाया जाए, इसकी चर्चा हमने रिपोर्ट में की है।


सवाल- कश्मीर में काफी विविधताएं हैं। देश में लोगों को इसकी जानकारी काफी कम है। वे समझते हैं कि जम्मू कश्मीर एक मुस्लिम बहुल राज्य है। पर ये विविधताएं भी संरक्षित हों और लोगों की राजनीतिक और आर्थिक महत्वाकांक्षाएं भी पूरी हों, इसके लिए आपने रिपोर्ट में क्या रुख अपनाया है?
जवाब- पिछले 60 सालों से हम लगातार एक ही गलती करते आ रहे हैं और वह यह कि हमने पूरे जम्मू कश्मीर के मसले को सिर्फ और सिर्फ कश्मीर घाटी की आंखों से देखा है। मैं यह मानता हूं कि घाटी में सबसे ज्यादा हिंसाएं हुईं। वहां काफी लोग मारे गए, लेकिन यह भी सच है कि गुलाम नबी आजाद को छोड़ राज्य के सभी मुख्यमंत्री घाटी से रहे। अलगाववादी संगठनों का घाटी से ही रिश्ता रहा। इसलिए मीडिया और अन्य लोगों का ध्यान कश्मीर घाटी पर ही केंद्रित रहा। इससे लद्दाख और जम्मू क्षेत्र लगातार उपेक्षित होता गया। ऐसे में जब हम विविधता की बात करते हैं तो वह अनेक प्रकार की है। एक तो भाषाई है। राज्य में कम से कम आठ भाषाएं व बोलियां बोली जाती हैं। सांस्कृतिक विविधताएं वहां आपको काफी दिखेंगी। एक महत्वपूर्ण बात और है। यह बात जो कही जाती है कि जम्मू कश्मीर एक मुस्लिम बहुल राज्य है, एक नजर में तो यह सही है पर इसका मतलब यह नहीं कि इनके बीच फर्क नहीं है। पहला फर्क तो यही है कि सिया-सुन्नी दोनों यहां रहते हैं। राज्य में जो सुन्नी मुसलमान नियंत्रण रेखा (एलओसी) के नजदीक रहते हैं वे फकरवाल, गुर्जर, पहाड़ी आदि हैं। वे लोग अपनी भाषा-संस्कृति में कश्मीर घाटी से पूरी तरह अलग हैं। यहां डोगरा लोग हैं। इनका सम्पन्न साहित्य है। संस्कृति काफी समृद्ध है। और इनमें हिन्दू-मुसलमान का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि ये दोनों डोगरा हैं और स्वयं को राजपूत कहते हैं। साथ ही इसपर गर्व करते हैं। यह जानकारी देश के लोगों को नहीं है। बाहर के लोगों की तो बात ही छोड़ दें। रिपोर्ट में हमने इस बात को इसलिए प्रमुखता से उठाया है, क्योंकि मैं मानता हूं कि प्रत्येक समुदाय को यह हक मिलना चाहिए कि वह अपनी सांस्कृतिक विरासत को जिंदा रख सके।

सवाल- तो क्या कश्मीरियत इनको जोड़ती है?
जवाब- हां, हमने कश्मीरियत पर भी काफी ध्यान दिया है। एक जमाने में इसका बड़ा मतलब था। और वह यह था कि अगल-अलग धर्म को मानने वाले इकट्ठा रह सकते हैं। विभिन्न संस्कृतियों में जीने-रहने वाले समुदाय एक साथ रह सकते हैं। पर मैं समझता हूं कि कश्मीरियत का यह स्वरूप अब काफी कम हो गया है। वह कुछेक क्षेत्रों में सीमित होकर रह गया है। यह सब इसलिए हुआ, क्योंकि कश्मीर वादी का जो इस्लाम था जिसे हम सूफी इस्लाम कहते हैं, वह पिछले बीसेक सालों में प्रतिक्रियावादी हो गया है। वहाबी और सलाफियों की संख्या काफी बढ़ गई है। इससे वादी का जो सूफियाना रंग था वह धीरे-धीरे धुल गया। अत: मैं अब यह नहीं समझता कि किसी भी राजनीतिक समाधान के लिए कश्मीरियत कोई आधार बन सकता है।


सवाल- इन यात्राओं के दौरान आपने वहां के प्रशासन को कैसा पाया और वहां की अर्थव्यवस्था कैसी है? क्या वहां भी भ्रष्टाचार है? इससे निपटने के आपने क्या उपाय सुझाए हैं?
जवाब- वहां सरकार काफी कमजोर है। हम सब जानते हैं कि जम्मू कश्मीर के विकास के लिए 90 प्रतिशत राशि भारत सरकार उपलब्ध कराती है, पर वे खर्च भी नहीं कर पाते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि विकास राशि के सदुपयोग के लिए जैसा प्रशासन और तंत्र चाहिए वह राज्य में नहीं है। अब बात रही भ्रष्टाचार की। यह तो सभी जगहों पर है, लेकिन जम्मू कश्मीर का भ्रष्टाचार काफी गहरा व अलग है। वहां डल झील के निकट हमने जो घर देखे, वैसा घर भारत में कहीं और देखने को नहीं मिला। सवाल उठता है कि आखिर यह पैसा आया कहां से! क्योंकि वहां न तो कोई उद्योग है। कोई कल-कारखाने भी नहीं हैं। हां, कार्पेट इंडस्ट्री जरूर है। सूखा मेवा है। थोड़ा राजमा और चावल है। फर्निचर है, लेकिन बाकी सभी चीजें तो बाहर से ही लानी पड़ती हैं। ऐसी स्थिति में भी वहां इतनी क्रय क्षमता कहां से आती है। वहां के दुकानों और मॉल्स में सामान भरे पड़े हैं। इसका एक ही मतलब हो सकता है कि वहां भ्रष्टाचार बहुत ज्यादा है। हम देखते हैं कि केरल में भी लोगों की क्रय शक्ति बहुत है तो इसका अर्थ समझ में आता है। वहां के लोग खाड़ी देशों में काम करने जाते हैं और वहां से पैसा आता है। लेकिन ऐसी स्थित जम्मू कश्मीर में नहीं है। इसके बावजदू वहां लोगों की क्रय शक्ति कैसे बढ़ रही है। इससे साफ है कि सरकार कमजोर है व भ्रष्टचार चरम पर है। इससे घाटी में एक तरह का द्वेश पैदा हुआ है। वहां लोगों के बीच गहरा असंतोष है। वे मानते हैं कि भारत सरकार कुछ नहीं कर पा रही है। उनका कहना है कि भारत सरकार पैसा तो देती है पर इस बात पर ध्यान नहीं देती कि उसका फायदा नीचे तक पहुंचा या नहीं। यही वजह है कि भारत के खिलाफ वहां भावनाएं भड़क रही हैं।
देश के दूसरे हिस्सों में आर्थिक विकास को तेज करने के लिए भारत सरकार ने जो पहल किए हैं, वह मॉडल जम्मू कश्मीर में कैसे लागू किया जाए, इस पर ध्यान देने की जरूरत है। वहां निवेश को कैसे बढ़ावा मिले, इसपर नीति बनाने पर बल देना होगा। तभी रोजगार के अवसर पैदा होंगे। मेरा ख्याल यह है कि जम्मू कश्मीर और दिल्ली के बीच एक नई आर्थिक नीति बने ताकि इन हालातों से निपटा जा सके।

सवाल- उन समूहों से बात क्यों नहीं की जो अलगाववादी माने जाते हैं।
जवाब- मैंने जम्मू कश्मीर के अपने पहले दौरे में ही कहा था कि हमलोग अलगाववादियों से मिलना चाहेंगे। उनसे बातचीत करना चाहेंगे। वे हमें बताएं कि कब और कहां मिलना है। किन शर्तों पर मिलना है आदि-आदि। पर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। हालांकि, इन बातों को हमलोगों ने बार-बार दोहराया। फिर हमें कहा गया कि आप उन्हें एक औपचारिक पत्र लिखें। एक-एक को वह पत्र भेजा गया, पर उनमें से किसी एक का भी जवाब नहीं आया। अब जब लोग कहते हैं कि आप उनसे नहीं मिले तो मेरा कहना है कि आप उनसे सवाल करिए कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। हमारी तरफ से जो कोशिश होनी चाहिए थी वह हमने की। पर उनका कोई जवाब नहीं आया। और मैं यह भी जानता हूं कि उन लोगों ने क्यों बातचीत नहीं की। इसलिए मैंने कहा कि आप बताएं कि कब बातचीत करनी है, मैं तैयार रहूंगा।

सवाल- उन लोगों ने क्यों नहीं बातचीत की?
जवाब- मेरे ख्याल में वे लोग बातचीत के लिए इसलिए आगे नहीं आए, क्योंकि वे जो भी करते हैं उसके लिए उन्हें पाकिस्तान से हरी झंडी मिलती है। इससे अलग जो लोग भारत सरकार से बातचीत करने को तैयार हुए थे उनकी हत्या कर दी गई। पिछले वर्ष गनी भट्ट ने भी साफ-साफ कहा था कि हमने भारतीय सेना के ऊपर हत्या के आरोप लगाए थे, पर यह सही नहीं है। वहां के लोगों ने इनकी हत्या की थी। तब भट्ट साहब के भाई की ही हत्या कर दी गई थी। मीर वाइज के पिता की हत्या की गई थी। लोन ब्रदर्स के पिता की भी हत्या हुई थी। क्योंकि ये तीनों चाहते थे कि भारत सरकार से बातचीत की जाए। तो यहां एक तरफ डर भी है। अत: वे तब तक कुछ नहीं कहना चाहेंगे जबतक पाकिस्तान से उन्हें बातचीत के लिए संकेत नहीं मिल जाते।

सवाल-इस रिपोर्ट में समस्याओं के हल हैं या आप लोग जिन लोगों से मिले उनकी भावनाओं का प्रकटीकरण है?
जवाब-रिपोर्ट से सभी अध्यायों में वहां की परिस्थिति का विश्लेषण है। फिर कहा है कि वहां के लोग क्या-क्या चाहते हैं। इसमें बात हमने अपने सुझाव दिए हैं। मैं पत्रकार हूं इसलिए कहता हूं कि उसमें एक हिस्सा रिपोर्टिंग का है, जबकि दूसरा विश्लेषण का।

सवाल-रिपोर्ट में कितने अध्याय हैं?
जवाब- रिपोर्ट में कुल छह अध्याय हैं। छह एनेक्सचर हैं। रिपोर्ट पूरी तरह कसी(कॉम्पैक्ट) हुई है।

सवाल-आपने कहा कि रिपोर्ट में स्वायत्तता का कहीं जिक्र नहीं किया है तो मीडिया में जो चर्चा हो रही है, वह क्या है?
जवाब- उसमें कोई सच्चाई नहीं है। फिलहाल रिपोर्ट में क्या है, यह सिर्फ चार लोग ही जानते हैं। मैं, मेरे दोनों साथी और गृह मंत्री पी.चिदंबरम। यहां मैं एक बार फिर कहूंगा कि रिपोर्ट में स्वायत्तता शब्द भी आपको नजर नहीं आएगा।

सवाल- यह धारणा बनी है कि आपने तीन रिजनल काउंसिल की बात की है। स्वायत्तता न सही, पर क्या आपने इसकी सिफारिश की है?
जवाब-देखिए रिजनल काउंसिल की बात हमने नहीं उठाई है। 1950 से ही इसपर चर्चा होती रही है। शेख अब्दुल्ला साहब ने पहली बार जवाहरलाल नेहरू के सामने इस बारे में कुछ कहा था। इसके बाद इस मसले पर तीन बार चर्चा हुई। उसपर रिपोर्ट हुई। हालांकि, उसपर कोई फैसला नहीं लिया गया। इन बातों से अलग इस मुद्दे पर सबसे गहरा काम बलराज पूरी ने किया है। हम जम्मू में उनसे कई बार मिल चुके हैं और मैं इतना कह सकता हूं कि उनका हमारी रिपोर्ट पर गहरा प्रभाव है।


सवाल- इस रिपोर्ट को थोड़े से शब्दों में आप कैसे समझाएंगे?
जवाब- मैं यह कहूंगा कि जम्मू कश्मीर का बहुत कठिन मसला है। इसे हल करने के लिए इज्जत, इंसाफ और इंसानियत के आधार पर आगे बढ़कर हम कोई योजना बना सकते हैं। जम्मू कश्मीर के तीनों क्षेत्रों यानी जम्मू, लद्दाख और कश्मीर घाटी को और वहां रहने वाले विभिन्न समुदाय के लोगों को ये तीनों चीजें मिलनी चाहिए। हमने इसका बारीक विश्लेषण रिपोर्ट में किया है।
आप पाएंगे कि वहां सबसे गंभीर समस्या कश्मीरी पंडितों की है। मैं कठोर शब्दों का इस्तेमाल नहीं करना चाहता, पर जिस तरह भारत सरकार और भारतीय मीडिया द्वारा उन्हें नजरअंदाज किया गया, वह बेहद दुखद है। वे लोग घाटी से भाग दिए गए। जम्मू की झुग्गियों में उनकी नई पीढ़ी आ गई, जिसे कश्मीर के बारे में कुछ पता तक नहीं है। वे बुरी स्थिति में हैं, लेकिन किसी पार्टी ने संसद में एक बार भी उनकी समस्याओं पर सवाल नहीं उठाए, क्योंकि वे संख्या में थोड़े लोग हैं। राजनेताओं के वोट बैंक नहीं हैं। इतना ही नहीं, वहां जब 109 बच्चों की हत्या हुई तब भी उसकी चर्चा नहीं हुई, जबकि आरुषि मर्डर केस की खूब चर्चा हुई। अब वे लोग पूछते हैं, कहते हैं कि आपकी हमारी समस्या को लेकर कोई इमानदार रुचि तो है ही नहीं। बस एक राजनीतिक फुटबॉल बनकर रह गया है जम्मू कश्मीर।

सवाल-पाक अधिकृत कश्मीर के बारे में क्या कहा है?
जवाब-हमने कहा है कि वहां जो रास्ते बंद हैं उन्हें खोलना चाहिए। व्यापार बढ़ना चाहिए। परिवारों की आवा-जाही आसान कर देनी चाहिए। साथ ही धीरे-धीरे स्थानीय स्तर पर उन मसलों पर भी चर्चा होनी चाहिए जो दोनों तरफ अमूमन एक से हैं।


सवाल- आपकी सलाह क्या होगी, सरकार इस रिपोर्ट को कब सार्वजनिक करे?
जवाब- हमने कहा है कि जल्द से जल्द रिपोर्ट को पब्लिक डोमेन में लाना चाहिए। मुझे बताया गया है कि अगले दो-एक दिनों में गृह मंत्री इस मसले पर प्रधानमंत्री से बातचीत करेंगे। इसके बाद सर्वदलीय समिति दुबारा बुलाई जाएगी। उनसे रिपोर्ट पर चर्चा होगी। उनके विचार लिए जाएंगे। और फिर उसे ध्यान में रखते हुए आगे की प्रक्रिया होगी। हमारा काम 12 अक्टूबर, 2011 को समाप्त हो गया है। पर हमें बताया गया है कि सूचना प्राप्त करने के लिए हमारी जरूरत पड़ सकती है। ऐसे स्थिति में जब-जब सरकार चाहेगी, हम मौजूद होंगे।

सवाल-आपने एक बार कहा था कि हमारी रिपोर्ट से कोई खुश नहीं होगा। अब जब आपने रिपोर्ट सौंप दी है तो गृह मंत्री की क्या प्रतिक्रिया है?
जवाब- नहीं, मैंने यह कभी भी नहीं कहा। मैंने सिर्फ इतना कहा कि रिपोर्ट को लागू करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए। और मैं देख रहा हूं कि अभी वह राजनीतिक इच्छाशक्ति है। इसकी वजह जरूर अलग-अलग हैं। पर वह इच्छाशक्ति है। गृहमंत्री से हमारी कई बार बातचीत हो चुकी है। हम प्रधानमंत्री से भी मिल चुके हैं। यूपीए की अध्यक्ष से भी हमारी बात हुई है। तीनों से आश्वासन दिया है कि रिपोर्ट को जल्द से जल्द आगे ले जाएंगे।

Friday, October 21, 2011

उम्मीद में किया सरहद पार


“कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीड़। जो पर पीड़ ना जाने, सो काफिर बे पीर।।” दीवार पर लिखी इस पंक्ति को दिखाते हुए गोविंद राम कहते हैं, “हमारा धर्म पाकिस्तान में नहीं बचा है। हां, जो बचा पाए, उसे लेकर यहां आ गए हैं।” तब बगल में बैठी आरती ने तपाक से कहा, “वहां घर से बाहर निकलने पर लोग परेशान हो जाते थे, जबकि हमारी पढ़ने की बड़ी इच्छा जगती है। इसलिए यहां आए हैं। बड़े कहते हैं कि अक्षर ज्ञान होगा, तभी अक्ल आएगी।” आरती 13 वर्ष की है, पर सवालों का जवाब सयानी व समझदार लड़की की तरह देती है। उसकी मां सोनाली कहती है, “यह हमारी बड़ी लड़की है।” गहरी नींद में सोई दूसरी बच्ची की तरफ इशारा करते हुए कहती है, “यह दामिनी है। हमारी सबसे छोटी लड़की। तीन बच्चे और हैं। वे लोग टीवी देख रहे हैं।” यही है गोविंद राम बागड़ी का परिवार। हालांकि, बूढ़े मां-बाप वहीं पाकिस्तान में ही हैं। उन्हें छोड़कर पूरा परिवार भारत आया है। भरे मन से गोविंद कहता है, “उन्होंने तो अपनी जिंदगी करीब-करीब जी ली। हमने भी आधी काट ली, पर इन बच्चों की जिंदगी को खराब क्यों होने दें?”

दरअसल, गोविंद राम समेत कुल 19 हिन्दू परिवार के 114 सदस्य पाकिस्तान के सिंध प्रांत से दिल्ली आए हैं। सबकी परेशानी वही एक है, जिसे गोविंद राम ने अभी-अभी बताया है। फिलहाल डेरा बाबा धुणी दास आश्रम इनका ठिकाना है। इसे वे अपना पनाहगार मान रहे हैं। यह आश्रम दिल्ली के मजनू का टीला में स्थित है। अर्जुन दास बागड़ी जत्था में शामिल एक दूसरे परिवार का मुखिया है। उसने बातचीत में कहा, “हमलोग पिछले चार-पांच सालों से वीजा लेने की कोशिश कर रहे थे, पर नहीं मिल पाता था।“ फिर धीरे से कान में कहा, “भाई, वहां अमेरिका का वीजा मिलना आसान है, पर भारत का नहीं।” बातचीत में विश्वास का माहौल बना तो वे लोग खुले। बताया कि हम जैसे लोगों को वीजा मिलने में बड़ी कठिनाई आती है। वैसे तो धार्मिक यात्रा के नाम पर जत्थे को वीजा मिलना थोड़ा आसान है, पर किसी अकेले परिवार को मिलना बहुत मुश्किल है। आखिरकार हारकर हमलोगों ने भी यही रास्ता चुना। बड़ी मेहनत के बाद दिल्ली और हरिद्वार शहर का धार्मिक समारोह में शिरकत के लिए 35 दिनों का वीजा मिला था। पर उसकी तारीख गत आठ अक्टूबर को ही समाप्त हो गई है। कानूनन वे अब भारत में रहने के अधिकारी नहीं हैं, लेकिन पूछने साफ-साफ कह-बोल रहे हैं, “अब हमलोग उस दुनिया में नहीं लौटना चाहते जहां न तो हमारा धर्म सुरक्षित है और न ही हमारे बच्चे।”

जत्था में शामिल गुरमुख के परिवार में 21 सदस्य हैं। उसके माता-पिता भी साथ हैं। बातचीत के दौरान उसने बताया, “चार सितंबर को हमलोग ने बॉर्डर पार किया था।” उसकी पूरी कहानी सुनने के बाद जो बात समझ में आई, वह इस तरह है- सितंबर की पहली तारीख को सुबह-सबेरे घर-बार छोड़कर वे लोग जत्थे में शामिल हो गए थे। तब यह जत्था एक ऐसे सफर पर था जिसका परिणाम किसी को मालूम न था। जत्था में कुल 600 लोग थे। आखिरकार चार सितंबर को जत्था बाघा बार्डर पार किया। इसके बाद वे लोग कई भागों में बंट गए। जिन्हें नागपुर का वीजा मिला था, वे नागपुर की तरफ चले गए। कुछ लोग इंदौर और भोपाल गए। कुछ लोगों के पास जयपुर का वीजा था। वे वहीं रह गए। यानी कुल नौ शहरों की तरफ इन लोगों ने रुख किया। इनमें 114 लोग दिल्ली आए। वे अब भी यहीं हैं। इनमें 48 बच्चे ऐसे हैं जिनकी उम्र सात वर्ष या उससे कम है। एक बालक ऐसा भी है जो जत्था में शामिल अपने परिवार का अकेला सदस्य है। उसकी उम्र 13 साल है। पूछने पर गुरमुख ने बताया कि इसके नाम का वीजा मिल गया तो मां-बाप ने यह कहकर भेज दिया कि वे पीछे से आ रहे हैं। अब यह हर पहर उनकी राह देखता रहता है। जत्था में शामिल एक किशोर का नाम कन्हैया लाल है और उम्र 16 साल। वह अपने पांच भाई-बहनों व मां-बाप के साथ वीजा पाने में तो सफल रहा, पर किस्मत उसके साथ दूसरा ही खेल खेल रही है। वह कैंसर से पीड़ित है और फिलहाल दिल्ली के एक अस्पताल में भर्ती है। मां-बाप बेहाल हैं। अब वे कन्हैया की देख-भाल करें या अपने अन्य पांच बच्चों को संभालें। खैर, यहां ऐसी और भी कहानियां हैं, पर इतना जानना जरूरी है कि सभी विस्थापित हिन्दू परिवार पाकिस्तान के सिंध प्रांत के हैदराबाद, मठियारी, हाला आदि स्थानों से यहां आए हैं।

इस लंबे सफर में उनकी जेब भी खाली हो गई है। हालांकि, खबर सुनकर मदद के लिए कई लोग आगे आए। खाने का सामान, बर्तन और बिस्तर उपलब्ध कराया है। इससे किसी तरह वे लोग अपना गुजर-बसर कर रहे हैं। सहयोग के लिए ईश्वरदास मौजूद हैं। उनके पास पुराना अनुभव है। वे 1987 में पाकिस्तान से भारत आए थे। लंबे संघर्ष के बाद भारत में रहने की अनुमति पाई। अब वे राजस्थान के श्रीगंगानगर में रहते हैं। पूछने पर ईश्वरदास कहते हैं, “अब कोई क्या करे, मेरी नजरों के सामने इतिहास दोहरा रहा है। आज में 71 वर्ष का हूं। 24 साल पहले अपने बच्चों की हिफाजत के लिए यहां आया था। आज ये लोग आए हैं।” फिर आगे बताते हैं, “वहां के हालात बड़े खराब हैं। जबरन मजहबी तालीम दी जाती है। बच्चे उठा लिए जाते हैं। आप इनसे ही पूछो, बताएंगे।” साथ खड़े अर्जुन बागड़ी ने कहा कि वहां धर्म परिवर्तन कराया जा रहा है। अंतिम संस्कार भी नहीं करने देते हैं। हमारी लड़कियों के साथ भी अच्छा व्यवहार नहीं करते। शिकायत करने के बावजूद स्थानीय अधिकारी हमारी बात नहीं सुनते हैं। गोविंद राम ने कहा कि हाला में स्कूल और कॉलेज दोनों है। बच्चे पढ़ने जाना चाहते हैं। पर हम उन्हें स्कूल भेजने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं।

खैर, वीजा की तारीख खत्म हो जाने के बाद इन लोगों का यहां रहना अवैध है, पर वे लोग चाहते हैं कि भारत सरकार मानवीय आधार पर उन्हें यहां रहने की अनुमति दे। इस बाबत वे कागजी प्रक्रिया में लगे हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर तिमारपुर थाने तक अपनी अर्जी पहुंचा आए हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तक संपर्क साध पूरी जानकारी दे दी है। अब जवाब का इंतजार कर रहे हैं। यूनाइटेड नेशंस हाई कमिश्नर फॉर रिफ्यूजी (यूएनएचसीआऱ) के अनुसार वे लोग जो अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय सीमा पार करते हैं वे रिफ्यूजी यानी शरणार्थी कहलाते हैं। तो क्या पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए इन हिन्दू परिवारों को शरणार्थी की संज्ञा दी जाएगी। हालांकि यह मामला यूएन बॉडी से जुड़ा है। पर वे लोग कहते हैं, “लोग तो हजार बातें करेंगे जी। हम भारत सरकार से इतना चाहते हैं कि वह हमें यहां कमाने-खाने की इजाजत दे ताकि हमारे इन बच्चों का भविष्य बन सके।” ह्युमन राइट लॉ नेटवर्क (एचआरएलएन) की 2007 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत सरकार ने 2005 से 2006 के बीच 13,000 पाकिस्तानी हिन्दू को भारतीय नागरिकता दी थी। गौरतलब है कि वर्ल्ड रिफ्यूजी सर्वे-2007 के अनुसार भारत में उस समय तक 4,35,000 शरणार्थी निवास कर रहे थे।

Thursday, October 20, 2011

वे आजाद थे और आजाद रहे


“माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर । कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ॥” वह चिनमय मिशन ऑडिटोरियम था, जहां कबीर की ये वाणी गूंज रही थी। लोग बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद की शोक सभा में एकत्र हुए थे। तारीख आठ अक्टूबर थी। इस मौके पर लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने उन दिनों को याद किया जब उनकी पहली बार आजाद से मुलाकात हुई थी। उन्होंने कहा कि आजाद जी ने ताउम्र मुल्यों की राजनीति की। वहां कई और महत्वपूर्ण लोग थे। गृहमंत्री पी.चिदंबरम और दूसरे कई कांग्रेसी नेता भी उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने आए। भागलपुर से लोकसभा सांसद शाहनवाज हुसैन भी थे। दरअसल, यही वह संसदीय क्षेत्र है जहां से आजाद ने राजनीति शुरू की थी। चुनकर संसद पहुंचे। पर 1989 में जब भागलपुर की जनता ने उन्हें नकार दिया तो आजाद ने सक्रिय राजनीति से ही संन्यास ले लिया। भारतीय राजनीति में ऐसे उदाहरण कम हैं।

बहरहाल, आजाद का निधन 4 अक्टूबर को दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में हो गया था। वे पिछले कुछ समय से बीमार थे और एम्स में भर्ती थे। वे पहली बार 1957 में भागलपुर संसदीय क्षेत्र से चुनकर सांसद पहुंचे थे। हालांकि, 1977 में कांग्रेस के खिलाफ हवा चली तो वे हार गए। पर भागलपुर की जनता ने 1980 में उन्हें पुन: अपना प्रतिनिधि चुना। वे फरवरी 1988 से लेकर जनवरी 1989 तक लगभग ग्यारह महीने बिहार के मुख्यमंत्री पद पर भी रहे। हालांकि, उनकी राजनीतिक सक्रियता अपने प्रदेश से अधिक केन्द्रीय स्तर पर देखी जाती थी। उनकी पहचान एक ओजस्वी वक्ता के साथ-साथ किसी के भी मुंह पर खरी-खरी सुना देने की थी। इसके कई किस्से भागलपुर में मशहूर हैं।

इन सब बातों के बावजूद 1989 के भागलपुर दंगे ने वहां की जनता और आजाद के बीच एक लकीन खींच दी। इससे आजाद काफी आहत हुए। उन्होंने राजनीति से ही संन्यास ले लिया। हालांकि, भागलपुर की जनता अंत तक उनकी राह देखती रही। उनका स्थान और दर्जा किसी दूसरे को नहीं दिया। पर वे नहीं आए। वे आजाद थे और आजाद रहे।

Friday, October 7, 2011

2जी घोटाले पर डॉ.सुब्रह्मण्यम स्वामी से बातचीत

फिलहाल देश में भ्रष्टाचार को रोकने के लिख सैद्धांतिक बहस चल रही है। आंदोलन हो रहे हैं। इस माहौल में डॉ.सुब्रह्मण्यम स्वामी मौजूदा कानून से ही भ्रष्टाचारियों को कैसे सजा दिलवाई जा सकती है, इसका उदाहरण पेश कर रहे हैं। एक बातचीत में उन्होंने कुछ प्रसंगों को बताया और समझाया है। आप भी पढ़ें-



सवाल- नियंत्रण और महालेखा परीक्षक (सीएजी) और लोक लेखा समिति (पीएसी) की रिपोर्ट से भी पहले 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले को आपने उठाया। इसकी शुरुआत कैसे हुई?
जवाब- बात 10 जनवरी, 2008 की है। उस दिन रात 9.30 बजे भारत सरकार के दो अधिकारी मुझसे मिलने मेरे घर आए। हालांकि, उन दोनों को मैं पहले से जानता था, सो हमने उनसे मुलाकात की। उन्होंने बताया कि वे बड़े दुखी और परेशान हैं। इसके बाद पूरी जानकारी दी। कहा कि “आज दोपहर 2.45 बजे एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई, जिसमें कहा गया कि शाम 3.30 से 4.30 बजे के बीच जो डिमांड ड्राफ्ट लाएगा उसे 2जी स्पेक्ट्रम का लाइसेंस दिया जाएगा। इसके बाद वहां अफरा-तफरी मच गई, जबकि चंद चुने हुए लोगों को पहले से ही इसकी खबर थी। वे डिमांड ड्राफ्ट लेकर मंत्री के कमरे में तैयार बैठे थे। ऐसा मेरे जीवन में पहली बार हुआ है और हमलोग शर्म महसूस कर रहे हैं।” उनकी बातों को सुनने के बाद मेरी समझ में आया कि क्या कुछ हुआ होगा।
मैं जानता हूं कि भ्रष्टाचार का बहुआयामी असर होता है। इसलिए हमनें सही जानकारी इकट्ठा की। इससे मालूम हुआ कि 2001 में स्पेक्ट्रम का जो मूल्य तय हुआ था, वह 2008 में लगभग दस गुणा ज्यादा हो सकता है। ऐसी स्थिति में साफ था कि राजस्व को बढ़ा नुकसान हुआ है और इसमें बड़ी रिश्वतखोरी हुई है। तब मैंने 2जी मामले को उठाने का मन बनाया। एक और बात भी है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय में जब मैं पढ़ा रहा था तो वहां कई लोग बार-बार पूछ रहे थे कि भारत में यह सब क्या हो रहा है, क्या वहां कोई आवाज उठाने वाला भी नहीं है? आखिर भारत को क्या हो गया है? यह सब सुनने के बाद इस घोटाले को उजागर करने की मेरी इच्छाशक्ति प्रबल हो गई। मैंने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी। स्पेक्ट्रम आवंटन में जो घोटाला हुआ, उनसब का हवाला देते हुए ए.राजा के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति मांगी। यह बात नवंबर, 2009 की है।

सवाल- अब जबकि सीएजी और पीएसी ने भी आपके आरोपों की पुष्टि कर दी है और कोर्ट भी कुछ मामलों की निगरानी कर रहा है तो इस समय आपने एक अलग मोर्चा गृह मंत्री पी.चिदंबरम के खिलाफ खोल दिया है। हालांकि, इसका जिक्र पीएसी की रिपोर्ट में भी संकेतों में है। पहले इस पर कोई विश्वास नहीं कर रहा था कि पी.चिदंबरम का भी इस घोटाले में हाथ हो सकता है, पर नए तथ्य इसकी पुष्टि कर रहे हैं। आपने जिन दस्तावेजों को आधार बनाया है, वे क्या हैं और उससे कौन-कौन सी बातें निकलती हैं?
जवाब- हालांकि, पीएसी की रिपोर्ट जून, 2011 के अंत में आई थी, लेकिन मैंने इससे पहले ही 13 मई को कोर्ट में एक याचिका दायर की थी, जिसमें कहा था कि पी.चिदंबरम के खिलाफ जांच हो। पीएसी रिपोर्ट से जो भी दस्तावेजी तथ्य बाहर आए, वे मेरे पास पहले से मौजूद थे। उसी के आधार पर मैं आगे बढ़ा। इसके बाद जब पीएसी के रिपोर्ट में भी पी.चिदंबरम का नाम आया तो इससे मुझे बड़ा बल मिला। डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने जो रिपोर्ट लिखी है उसमें यह स्पष्ट है “वित्त मंत्री का दायित्व बनता है कि वे देश की तिजोरी की रक्षा करें, पर ऐसा लग रहा है कि वित्त मंत्री ने लापरवाही की है। अत: इसपर जरूर विचार होना चाहिए।” मेरे लिए यह भी एक आधार बना। हालांकि, बीच के दो महीने मैं विदेश में रहा, लेकिन वापस लौटने के बाद उसी कानूनी प्रक्रिया को आगे बढ़ा रहा हूं।

सवाल- इसमें अबतक अदालत में आपको कितनी सफलता मिली है?
सवाल- अभी बहस चल रही है। केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के वकील ने केवल तकनीकी पक्ष रखा है। हालांकि मेरी तरफ से पेश किए गए हालिया साक्ष्य का उन्होंने खंडन नहीं किया है। इतना भर कहा है कि अब उन्हें चार्जसीट फाइल करनी है। इसलिए डॉ.स्वामी को इस कोर्ट में यह अधिकार नहीं है कि वे सीबीआई जांच की मांग करें।
मेरी समझ से उनका तर्क कमजोर है। वह इसलिए क्योंकि गुजरात के मामले में 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला सुनाया है, उसमें कहा गया है कि चार्जशीट दाखिल करने के बाद भी सीबीआई जांच की मांग कर सकते हैं। ऐसे में उनका तर्क अधिक समय तक टिक नहीं सकता है। हालांकि, दूसरी तरफ पी.चिदंबरम के वकील भी कह रहे हैं कि लक्ष्मण रेखा पार नहीं करनी चाहिए। कोर्ट ने इसका भी कड़ा जवाब दिया है। इससे साफ है कि उनके पास कोई तर्क नहीं है। वे अबतक मेरे किसी भी सवालों का जवाब देने में सफल नहीं हुए हैं। केवल यही कह रहे हैं कि यह कोर्ट सीबीआई जांच के आदेश नहीं दे सकती है।

सवाल- सूचना के अधिकार कानून (आरटीआई) से जो नए तथ्य सामने आए हैं, क्या उन तथ्यों को आपने कोर्ट में पहले ही पेश कर दिया है ?

जवाब- मुझे नहीं मालूम कि कोई व्यक्ति आरटीआई से इन बातों की जानकारी प्राप्त करने में जुटा है। उक्त व्यक्ति ने अखबारों को जानकारी दी होगी, पर ऐसा लगता है कि किसी अखबार वालों ने इन दस्तावेजों का सही तरीके से उपयोग नहीं किया। आखिर ऐसा क्यों हुआ, यह भी सोचने वाली बात है। मेरे पास जो दस्तावेज आए उनका आरटीआई से कोई सरोकार नहीं है।

सवाल- अखबारों में आया है कि आरबीआई के गवर्नर और उस समय के वित्त सचिव डी सुब्बाराव जो ए.राजा और पी.चिदंबरम के साथ बैठक में मौजूद थे, सीबीआई उनसे भी पूछताछ करेगी। इससे आपको अदालत में कितना बल मिला?
जवाब- अखबारों में तो कई बातें नहीं आई हैं। पी.चिदंबरम के वकील ने जाने-अनजाने कोर्ट में कहा कि डॉ.स्वामी ने जो तथ्य दिए हैं, उसकी अवश्य सीबीआई छानबीन करेगी और वस्तु-स्थिति से अवगत कराने वाली एक अतिरिक्त रिपोर्ट पेश करेगी। अब उनकी बातें मेरी समझ में नहीं आती हैं, क्योंकि मेरी भी तो यही मांग है। लेकिन वे यह भी कह रहे हैं कि यह कोर्ट सीबीआई को फिर से जांच के आदेश नहीं दे सकती है।
मेरी समझ से उन लोगों को कोई रास्त नहीं दिख रहा है। हमने इतने तथ्य पेश किए हैं कि किसी के लिए भी यह कहना मुश्किल होगा कि आप ए.राजा को तो जेल भेज सकते हैं, पर पी.चिदंबरम के खिलाफ सीबीआई जांच नहीं हो सकती।

सवाल- तो क्या आप कह रहे हैं कि पी.चिदंबरम के खिलाफ सीबीआई चार्जशीट दाखिल करेगी और उन्हें इस्तीफा देना पड़ेगा?
जवाब- पहले तो उनके खिलाफ एफआईआए दर्ज होगा। फिर जांच शुरू होगी। तब सवाल उठेगा कि ऐसी स्थिति में वे मंत्री पद पर कैसे बने रह सकते हैं। इसके बाद उन्हें इस्तीफा देना होगा। मैं समझता हूं कि उन्हें जांच के आदेश मात्र से ही इस्तीफा देना होगा।

सवाल- ए.राजा से इस्तीफा लेकर उन्हें जेल में डालकर सरकार और उनकी जांच एजेंसी सीबीआई ने जो जांच की दिशा तय की, उसे पी.चिदंबरम का नाम आने के बाद बदलने को तैयार नहीं है। क्या आपको लगता है कि कोर्ट के आदेश से उसे बदलना होगा?
सवाल- आज सीबीआई एक प्रतिद्वंदी के रूप में सामने आ रही है। क्योंकि मैंने कहा है कि इस मामले में उसने ठीक से काम नहीं किया है और जान-बूझकर पी.चिदंबरम को बचाने की कोशिश की है। अब वह अपने बचाव के लिए सफाई देने में लगी है। कह रही है कि उसने ऐसी कोई गलती नहीं की है, क्योंकि इसमें कोई खास तथ्य ही नहीं है। इसके बावजूद यदि कोर्ट आदेश देती है तो सीबीआई को उसे मानना होगा। मैं समझता हूं कि आज की परिस्थिति में सीबीआई यह दिखाना चाहेगी कि आपने विरोध किया, पर कोर्ट ने हमें आदेश दिया।

मैंने कोर्ट में उस साक्ष्य को पेश किया है जिसमें ए.राजा ने कहा है कि वह स्वान और यूनीटेक को स्पेक्ट्रम नहीं बेचना चाहते थे। पी.चिदंबरम के दबाव में उन्होंने ऐसा करना पड़ा।
-डॉ.स्वामी

सवाल- पी.चिदंबरम का बचाव सोनिया गांधी समेत पूरी कांग्रेस पार्टी कर रही है। प्रधानमंत्री भी उनके पक्ष में खड़े हैं। तब न्यायपालिका की क्या भूमिका होगी?
जवाब- सरकार और उसके कामकाज के बारे में जो लोग अच्छी तरह जानते हैं वे यह समझते हैं कि प्रधानमंत्री ने पी.चिदंबरम का पक्ष नहीं लिया है। उन्होंने यह नहीं कहा है कि चिदंबरम निर्दोष हैं। हां, यह कहा है कि मेरा उनपर विश्वास है। अगर वे यह कह दें कि चिदंबरम दोषी हैं तो मामला कल ही खत्म हो जाएगा।

सवाल- राजनीतिक पार्टियां खासकर भारतीय जनता पार्टी ने पी.चिदंबरम के साथ प्रधानमंत्री को भी घेरना शुरू कर दिया है। वहीं आपका कहना है कि प्रधानमंत्री के खिलाफ कोई सबूत नहीं है। क्या यह आपकी रणनीति का हिस्सा है?
जवाब- दोनों है। दरअसल, प्रधानमंत्री को बार-बार घसीटने की जो बात होती है, सोनिया गांधी भी यही चाहती हैं। क्योंकि, वह अपने पुत्र राहुल गांधी को अब प्रधानमंत्री पद पर बैठाना चाहती हैं। मुझे इस बात की जानकारी है कि सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री के बीच टेलीफोन पर एक बातचीत हुई है। उस बातचीत में सोनिया गांधी ने साफ-साफ शब्दों में प्रधानमंत्री से कहा है कि वे दिसंबर में पद से इस्तीफा देकर राहुल गांधी का नाम प्रस्तावित करें। हालांकि, प्रधानमंत्री ने इसका कोई ठोस जवाब नहीं दिया। उन्होंने सोनिया गांधी की बातें जरूर सुनीं। दरअसल, आज इस इटालियन परिवार में एक घबराहट है। वे लोग चाहते हैं कि मनमोहन सिंह की जगह अब राहुल को पद पर आ जाना चाहिए और यदि ऐसा नहीं हुआ तो चीजें हाथ से बाहर चली जाएंगी। उन्हें यह संदेह भी है कि डॉ. मनमोहन सिंह मन से उनके साथ नहीं हैं। यहां तक बात आ गई कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने ही जान-बूझकर सारी सूचनाएं लिक की हैं, जबकि इसे गुप्त रखा जाना चाहिए था।
एक और बात है कि आखिर प्रधानमंत्री का इसमें दोष क्या है? क्या यह कि वे भीष्म पितामह की तरह सब कुछ देखते रहे। इसमें दो राय नहीं कि वे दोषी हैं। यह सरकार चली जाए और उसके साथ मनमोहन सिंह भी जाएं तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। या फिर उनकी बारी सबसे आखिर में आए। मैं सिर्फ इतना कहुंगा कि उनकी बारी जब आएगी तो कोई आपराधिक मामला नहीं बनेगा। वह नागरिक अपराध (सिविल क्राइम) का मामला होगा। इसका मतलब यह कि उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को ठीक तरीके से नहीं निभाया।

Wednesday, October 5, 2011

विवादों में घिरा ज्ञान केंद्र




























“मुझे संदेह है कि नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति हो गई है ? इस सवाल के जवाब में विदेश राज्य मंत्री ई अहमद ने कहा- नहीं।“ यह सवाल-जवाब राज्यसभा की 25 अगस्त, 2011 की कार्यवाही का हिस्सा है। क्या है कि “सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना।” नालंदा अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय (एनआईयू) का सपना देखने वालों को पाश की यह पंक्ति रह-रहकर याद आ रही है। वे सवाल कर रहे हैं कि डॉ. गोपा सब्बरवाल कौन है? वे यह भी जानना चाहते हैं कि शांति, ध्यान और सादगी की परंपरा वाला प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय अब किस नई बुनियाद पर खड़ा हो रहा है?
ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके सपनों का यह ज्ञान केंद्र फिलहाल सवालों से घिरा है।

इस महत्वाकांक्षी विश्वविद्यालय के पहले उप-कुलपति के बतौर डॉ.गोपा सब्बरवाल की नियुक्ति विवाद का मुख्य कारण है। पिछले दिनों पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने जब इस विश्वविद्यालय से स्वयं को पूरी तरह अलग कर लिया तो मामला और तूल पकड़ा। परियोजना को लेकर संदेह गहरा हुआ है। इस दौरान छानबीन के बाद जो दस्तावेज प्रथम प्रवक्ता के पास आए हैं वे दूसरी कहानी कह रहे हैं। इसके अनुसार विदेश मंत्रालय की तरफ से 9 सितंबर, 2010 को एक पत्र डॉ. गोपा सब्बरवाल को भेजा गया था। वह पत्र संख्या- s/321/10/2009(p) है। इस पत्र के अनुसार एनआईयू के मेंटर ग्रुप यानी सलाहकार मंडल की तरफ से डॉ.गोपा सब्बरवाल को नालंदा विश्वविद्यालय का उप-कुलपति नियुक्त किया गया है। साथ ही उनकी पगार 5,06,513 रुपए प्रति माह तय की गई है। दिल्ली के जोर बाग स्थित उनके घर पर जो सरकारी टेलीफोन लगा है वह भी एनआईयू के उप-कुलपति के नाम है। अब यह नियुक्ति कई सवाल खड़े कर रही है। क्योंकि भारत का राजपत्र इस बात की तसदीक करता है कि 25 नवंबर, 2010 से ‘नालंदा विश्वविद्यालय अधिनियम, 2010’ लागू होता है, लेकिन विदेश मंत्रालय के पत्र से पता चलता है कि डॉ.सब्बरवाल की नियुक्ति इसके 24 दिन पहले ही कर दी गई थी। आखिर यह सब कैसे हुआ लोग जानना चाहते हैं।


इतना ही नहीं नालंदा विश्वविद्यालय अधिनियम, 2010 (15.1)के अनुसार विश्वविद्यालय के उप-कुलपति की नियुक्ति का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति या इनके द्वारा नियुक्त विजिटर के पास है, लेकिन एनआईयू की सलाहकार मंडल ने इस भूमिका को किस आधार पर निभाया। यह भी समझ से परे है। इतना ही नहीं, अधिनियम में यह भी कहा गया है कि विश्वविद्यालय अपना मुख्यालय बिहार के नालंदा में ही खोलेगा। पर, दिल्ली स्थित आरके पुरम में आईबीसी बिल्डिंग में 22 जनवरी,2011 से नालंदा विश्वविद्यालय का कार्यालय चल रहा है। इसे विश्वविद्यालय ने 2,47,500 रुपए मासिक किराए पर लिया है। सूचना के अधिकार कानून से मिली जानकारी इन बातों की तसदीक करते हैं। हालांकि कुछ ऐसी सूचनाएं भी दी गई हैं जिससे साफ होता है कि वे तथ्य को छुपाने की कोशिश में है। एक सवाल के जवाब में कहा गया है कि मेंटर ग्रुप के लिए अपनी रिपोर्ट पेश करने के वास्ते कोई समय-सीमा तय नहीं की गई थी। वहीं दूसरे कागजात इसकी पुष्टि करते हैं कि इसके लिए नौ महीने का समय तय किया गया था। हालांकि ‘प्रथम प्रवक्ता’ यह पहले भी अपने पाठकों को इस बताता रहा है।

गौरतलब है कि पहली बार एनआईयू की कल्पना 1996 में जॉर्ज फर्नांडीस ने की थी। तब नालंदा अवशेष के निकट एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि वे इस महान संस्था को पुनर्जीवित करने का जिम्मा लेते हैं। पर वे इसमें सफल नहीं हो पाए। इसके बाद मार्च, 2006 में तात्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी बिहार यात्रा के दौरान नालंदा में एक अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के होने की वकालत की। उन्होंने कहा कि यहां विज्ञान, तकनीक, अर्थशास्त्र और आध्यात्म से जुड़े दर्शन पर प्राचीन और आधुनिक संदर्भ में विस्तृत अध्ययन का केंद्र बनाया जाए। तब विदेशों से भी नालंदा के पुनरुत्थान के वास्ते सहयोग को लेकर जोरदार पहल की बात चल रही थी। इसके लिए सिंगापुर और जापान समेत कई देश आगे आकर सहयोग देने को तैयार थे। बिहार सरकार भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही थी। फरवरी, 2006 में तिब्बती धर्म गुरु दलाई लामा की अगुवाई में दिल्ली में भी एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। इन सब के बीच एनआईयू की कल्पना को साकार करने के लिए भारत सरकार ने मई, 2007 में नोबल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री प्रोफेसर अमर्त्य सेन की अध्यक्षता में एक मेंटर ग्रुप का गठन किया। इस ग्रुप से कहा गया था कि वह उच्च कोटि के अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए तमाम पहलुओं पर विचार कर एक प्रारूप पेश करे। इसके लिए उसे नौ महीने का समय दिया गया था, पर वह लगातार टलता रहा। दो साल बाद भी उक्त रिपोर्ट को पेश नहीं किया जा सका था।

हालांकि, 13-15 जुलाई, 2007 को मेंटर ग्रुप की पहली बैठक सिंगापुर में हुई। इस बैठक में सहयोग के लिए मेंटर ग्रुप ने एक 19 सदस्यीय सलाहकार समिति का गठन किया। इसमें केवल दो भारतीय शामिल किए गए, जिसमें एक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पुत्री व दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर उपिंदर सिंह थीं और दूसरी उनकी अभिन्न सहेली प्रोफेसर नयनजोत लाहिरी। नयनजोत लाहिरी भी दिल्ली विश्वविद्यालय में ही प्रोफेसर हैं। बाद में कायदे-कानून को बगल कर जिस गोपा सब्बरवाल को नालंदा अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय का उप-कुलपति बनाया गया है वह भी दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्रीराम कॉलेज में समाजशास्त्र की रीडर रही हैं। कहा जाता है कि इन तीनों के बीच पुरानी और गहरी जान-पहचान है। तो क्या यह संबंधों का तोहफा है? और यह सहेलियों का विश्वविद्यालय बनने जा रहा है ? लोग यही सवाल पूछ रहे हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अनुसार भी किसी विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर प्रोफेसर की ही नियुक्ति हो सकती है। डॉ.सब्बरवाल तो प्रोफेसर से नीचे रीडर ही हैं। इतना ही नहीं एनआईयू से संबंधित अधिनियम को राष्ट्रपति की मंजूरी 21 सितंबर, 2010 को मिली थी, लेकिन इससे पहले ही 9 सितंबर, 2010 को उनकी कुलपति पद पर नियुक्ति हो गई। आखिर यह कैसे संभव हुआ। यही नहीं, कहा तो यह भी जाता है कि बतौर कुलपति डॉ. सब्बरवाल ने एसोसियेट प्रोफेसर अंजना शर्मा को एनआईयू का विशेष कार्य पदाधिकारी (ओएसडी) नियुक्त करवाया है। उनकी पगार 3,29,936 रुपए प्रति माह है।
उप-कुलपति समेत विश्वविद्यालय में नियुक्त अन्य कमर्चारियों का विवरण

इन सवालों से घिरी डॉ.सब्बरवाल ने एक बयान में कहा है कि प्रोफेसर अमर्त्य सेन की अध्यक्षता वाली सलाहकार मंडल ने मुझे योग्य पाकर ही इस पद के लिए चुना है। वैसे इस पद के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा निर्धारित योग्यता जैसी कोई शर्त एनआईयू पर लागू नहीं होती, क्योंकि एक साल पहले केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए एक अलग कानून के तहत इस विश्वविद्यालय का गठन हुआ है। अपने बयान में उन्होंने यह भी कहा है कि डॉक्टर कलाम प्रोफेसर अमर्त्य सेन के अनुरोध के बावजूद एनआईयू का प्रथम विजिटर पद स्वीकारने को तैयार नहीं हुए थे। खबर है कि फिलहाल डॉक्टर सब्बरवाल अक्टूबर के तीसरे सप्ताह अमेरिका जाने की तैयारी कर रही हैं। उनकी योजना अमेरिका में ‘पारिस्थितिकी स्कूल’ के बाबत जानकारी एकत्र करने की है, जिसका उपयोग वह एनआईयू के लिए करेंगी। 22 सितंबर को अमेरिका के न्यूयार्क शहर में एशिया सोसाइटी के एक कार्यक्रम में प्रोफेसर अमर्त्य सेन का 45 मिनट का भाषण हुआ। इस दौरान वे उप-कुलपति की नियुक्ति पर कुछ भी कहने से बचते रहे। हालांकि, बिहार सरकार की खूब तारीफ की। गौरतलब है कि इस महत्वाकांक्षी विश्वविद्यालय के लिए बिहार की नीतीश सरकार ने 446 एकड़ जमीन उपलब्ध कराई हैं।

खैर, एनआईयू में नियुक्ति को लेकर ही नहीं, बल्कि पुनर्स्थापना को लेकर भी सैद्धांतिक भेद दिख रहे हैं। सोसाइटी फॉर एशिया इंटिग्रेशन (एसएआई) का कहना है कि प्रस्तावित बिल में नालंदा विश्वविद्यालय का उद्देश्य प्राचीन नालंदा विरासत को पुनर्स्थापित करना दर्ज है, लेकिन जो स्कूल स्थापित किया जा रहा है उसकी नालंदा परंपरा से अनभिज्ञता साफ दिख रही है। नालंदा रसायनशास्त्र, चिकित्सा, खगोल विज्ञान, धातु विज्ञान, गणित जैसे गैर धार्मिक वैज्ञानिक विषयों का शोध केंद्र भी था। परंतु मेंटर ग्रुप की अनुशंसा में विज्ञान से जुड़े किसी विषय पर अध्ययन का कोई प्रावधान ही नहीं है। मेंटर ग्रुप के अध्यक्ष को कटघरे में लेते हुए एसएआई के अध्यक्ष कहते हैं कि नालंदा परंपरा की खोज के लिए उस व्यक्ति को चुना गया जिनकी धारा, समझ और जीवनशैली बिल्कुल उलट है। नालंदा में शिक्षकों की नियुक्ति के लिए सार्वजनिक वाद-विवाद की प्रथा थी। यह परंपरा प्रजातांत्रिक और पारदर्शी थी। यहां सब उलट-पुलटा दिखाई पड़ रहा है। बतौर उप-कुलपति डॉ.सब्बरवाल की नियुक्ति ही इसका बड़ा प्रमाण है।

एनआईयू के गठन को लेकर मेंटर ग्रुप की लेट-लतीफी से परेशान होकर इसके निर्माण में सहयोग देने को आगे आए कई देश अब पीछे हटते दिख रहे हैं। शुरू-शुरू में सिंगापुर और जापान इस परियोजना को लेकर काफी उत्साही था। वे एशिया महाद्वीप की एकता के व्यापक लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए बौद्ध विरासत और साक्षा एशियाई परंपरा को मजबूत करना चाहते थे। पर ऐसा लगता है कि मेंटर ग्रुप की कार्यशैली ने इन सब चीजों पर पानी फेर दिया है।

बॉक्स-
इन स्थानों पर हुई मेंटर ग्रुप की बैठक। साथ ही खर्च हुए रुपए का विवरण

पहली बैठक- सिंगापुर (13-15 जुलाई, 2007)- 30,92,548.00 रुपए
दूसरी बैठक- टोक्यो (14-16 दिसंबर, 2007) 38,88,243.00 रुपए
तीसरी बैठक- न्यूयार्क (2-3 मई, 2008) 56,05,010.00 रुपए
चौथी बैठक- नई दिल्ली (12-13 अगस्त, 2008) 16,04,190.00 रुपए
अंतिम बैठक- गया (28-29 फरवरी, 2009) 29,23,012.00 रुपए

Friday, September 16, 2011

एक तस्वीर



20 महीने के नन्हें बच्चे को दूध पिलाती गाय। यह तस्वीर कंबोडिया की है।

Friday, September 9, 2011

‘वंदे मातरम्’ एक अवतारी गीत


अन्ना हजारे के आंदोलन से यह भी निकला है कि पीढ़ी चाहे कोई भी हो, ‘वंदे मातरम्’ हमारे जीवन में गहरे बैठा है। इसका किसी को प्रमाण चाहिए तो वह राजधानी दिल्ली के नजारे को देख ले। पिछले दिनों यहां अदभुत नजारा था। जो गीत समारोहों में सिमट गया था वह नया प्रतीक बनकर फिर से उभरा है। कभी यह लोकमानस में राष्ट्रवाद का द्योतक था।

इस गीत का इतिहास निराला है। यह प्रारंभ में वंदना गीत था। बंकिमचंद्र ने इसे 1870 में रचा। उस समय उनके लिए यह रचना एकांत साधना थी। उसके ग्यारह साल बाद ‘आनंद मठ’ में उन्होंने इसे छपवाया। उपन्यास के छपते ही इसे अनूठी रचना मानी गई। वंदे मातरम् की छवि युद्धघोष की बनी, लेकिन वंदे मातरम् को वे ही जानते थे जिन्होंने आनंद मठ पढ़ा था। सालों बाद बंग-भंग के विरोध में जो स्वदेशी की लहर पैदा हुई उसपर वंदे मातरम् तैरने लगा। उस आंदोलन में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने वंदे मातरम् को लोकप्रिय बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई। 1905 में रक्षाबंधन के दिन निकले जुलूस का उन्होंने नेतृत्व किया। उससे पहले 1896 में वे कलकत्ता कांग्रेस में वंदे मातरम् गा चुके थे। 1905 से 1908 का समय वंदे मातरम् से गूंजता रहा। कैसे कोई गीत लोकमानस में प्रवेश करता है यह कहानी ही वंदे मातरम् के विकास की यात्रा है। यह वह गीत है जो पुस्तक में कैद होकर नहीं रह सका। उसी दौर में यह राष्ट्रीयता को समझाने का जरिया बना। राष्ट्रवादियों ने अंग्रेजी सत्ता से लड़ने का इसे अस्त्र माना। वही दौर है जब अरविंद घोष ने अपनी कल्पना शक्ति का चमत्कार दिखाया और इसके रचयिता बंकिमचंद्र चटर्जी को ‘राष्ट्रवाद का ऋषि’ घोषित किया।

उसी समय में बनारस कांग्रेस हुई। उसके अधिवेशन में वंदे मातरम् को सरला देवी ने गाया। जो रवीन्द्रनाथ टैगोर परिवार की थी। इस तरह एक गीत राष्ट्रवादियों के लिए नारा बनकर उभरा। उस समय के राष्ट्रवादी नेता इसे देश-भक्ति के नए धर्म का मंत्र समझते और बताते थे। अरविंद घोष उसी दौर में वंदे मातरम् पत्रिका का संपादन भी करते थे। जिसे राजद्रोह के आरोप में अंग्रेजों ने जब्त कर लिया। वही समय है जब वंदे मातरम् ने दक्षिण की यात्रा की। तमिल के महान कवि सुब्रह्मण्यम भारती ने 1905 में ही इसे अपनी भाषा में अनुदित किया। उसके बाद तो अनुवादों का क्रम चल पड़ा। मराठी, मलयालम, तेलगू आदि भाषाओं में वंदे मातरम् राष्ट्रीयता का वाहक बनकर पहुंचा। 1915 में मोहनदास करमचंद गांधी जब महात्मा नहीं बने थे तब मद्रास की एक सभा में वंदे मातरम् सुनकर बोले कि ‘आपने जो सुंदर गीत गाया उसे सुनकर हम सब एकदम उछल पड़े। यह हम आप पर है कि कवि ने मातृभूमि के बारे में जो कहा है उसे साकार करने की कोशिश करें।’

आजादी की लड़ाई में जहां वंदे मातरम् भारत भक्ति का माध्यम बना। वहीं एक समय ऐसा आया जब उसमें मूर्ति पूजा के तत्व लोग देखने लगे। उसपर पहला विवाद जिन्ना ने उठाया। जिसे मुस्लिम लीग ने अपने विरोध का मुद्दा बना लिया। आजादी की लड़ाई में मुस्लिम लीग ने वंदे मातरम् का प्रबल विरोध किया। कांग्रेस ने उसे मुस्लिम समाज की भावना से जोड़कर देखा। जिसके कारण जवाहरलाल नेहरू समिति की सिफारिश पर कांग्रेस ने 1937 में इसके कुछ अंशों को निकाल दिया। उस काट-छांट के बाद कांग्रेस ने इसे राष्ट्रगान के रूप में अपनाया। तब से ही वंदे मातरम् पर राजनीतिक विवाद की छाया बनी हुई है। वह उसके साथ चलती रहती है। लेकिन कांग्रेस ने जिन्ना को मुस्लिम समाज का अकेला प्रतिनिधि माना जबकि उसी समय रिजाउल करीम ने 1930 में ‘वंदे मातरम् और आनंद मठ’ की समीक्षा में लिखा कि ‘यह गूंगा को जबान और कलेजे के कमजोर लोगों को साहस देता है।’
उन्होंने यह भी लिखा कि बंकिमचंद्र ने इस गीत से देशवासियों को चिरकालिक उपहार दिया। उस विवाद को परे रखते हुए संविधान सभा ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की पहल पर जन-गण-मन के साथ इसे भी राष्ट्रगीत का दर्जा दिया।

मानना होगा कि तमाम विवादों के बावजूद वंदे मातरम् में अवतारी क्षमता है। यह अन्ना हजारे के आंदोलन में प्रकट हुई। अन्ना हजारे ने भी विवादों की परवाह नहीं की और वंदे मातरम् को प्रेरणा का नया स्रोत बना दिया। यह प्रकट हुआ कि वंदे मातरम् राष्ट्रीय संस्कृति की गीत रूप में धरोहर है। कोई भी गीत एक सांस्कृतिक कला तथ्य होता है। उसपर राजनीतिक विवाद नजरिए के कारण पैदा किया जाता है। जो उसे स्वदेशी, राष्ट्रीयता और देशभक्ति का प्रतीक मानते हैं उनके लिए वंदे मातरम् मंत्र है। मंत्र वही होता है जिसे समय-समय पर सिद्ध करना पड़ता है। जवाहरलाल नेहरू और जिन्ना को इसमें सांप्रदायिकता दिखी। यह उनकी अपनी राजनीतिक भूमिका थी।


ऐसा भी नहीं है कि अन्ना हजारे ने बहुत दिनों बाद वंदे मातरम् को जन-जन की जुबान पर ला दिया हो। 1997 में ए.आर. रहमान इसे अपने सुरताल में बांधा। 2002 में बीबीसी विश्व सेवा के 25 हजार श्रोताओं ने इसे भारत के दो सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों में से एक माना। अन्ना हजारे के आंदोलन ने वंदे मातरम् को एक नया अर्थ दिया है। जाहिर है कि वंदे मातरम् का अर्थ हमेशा इस पर निर्भर करता रहा है कि किस समय और किस उद्देश्य से इसका उपयोग किया जा रहा है। अन्ना की आंधी में यह देश में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के नए संकल्प का शंखनाद हो गया है। इस गीत के अतीत की गौरवशाली स्मृतियां अब हमारे वर्तमान को गढ़ने जा रही है।
(वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय)

Thursday, September 8, 2011

कैद में मोहम्मद साहब के पद चिन्ह


मोहम्मद साहब के पद चिन्ह>

आज हम जहां सैर पर हैं, वह फिरोजशाह के बेटे फतेहशाह की कब्रगाह है। यह इसलिए भी पाक मानी जाती है, क्योंकि यहां मक्का से मंगवाए गए वे पत्थर लगे हैं जिसपर मोहम्मद साहब चला करते थे। 13वीं शताब्दी में फिरोजशाह ने अपने आध्यात्मिक सलाहकार मखदूम जेहान गश्त से इस पत्थर को मक्का से मंगवाया था। वह इसे अपनी कब्र पर लगवाना चाहता था, लेकिन संयोग था कि फिरोजशाह से पहले उसके बेटे फतेहशाह की मृत्यु हो गई। और वह पवित्र पत्थर उसी की कब्र पर लगा दी गई।

खैर, आज इस जगह पर चित्रगुप्त मार्ग और ऑरिजनल रोड से पहुंचा जा सकता है। यह पहाड़गंज से आगे कुतुबमार्ग पर सदर बाजार की तंग गलियों में है और ‘कदम शरीफ’ के नाम से मशहूर है जो कई दरवाजों से घिरी इमारत है। यहां एक मस्जिद भी है। फिरोजशाह ने तो यहां एक मदरसा भी बनवाया था जो अब अस्तित्व में नहीं है। प्रचलित है कि इस इमारत को फिरोजशाह ने अपनी कब्रगाह के तौर पर बनवाया था ताकि उसे यहां दफनाय जा सके। इमारत के एक छोर पर एक गुंबद युक्त छोटी इमारत का निर्माण कराया गया था। इसके मध्य में एक आयताकार कब्र बनाई गई थी जो फिरोजशाह के लिए थी।

इतिहासकारों का कहना है कि फिरोजशाह बड़ा ही धार्मिक व्यक्ति था। उसने संत मखदूम जेहान को मक्का भेजा था ताकि वहां से हजरत मोहम्मद का लबादा लाया जा सके। पर मखदूम इस काम में असफल रहे। उन्होंने फिरोजशाह को बताया कि हजरत मोहम्मद की ऐसी बहुत सी चीजें हैं जिसे खलीफा अपने-आप से अगल नहीं करना चाहते हैं। इसके बाद फिरोजशाह ने ढेर सारे तोहफे के साथ उन्हें फिर मक्का भेजा। इससे प्रभावित होकर खलीफा ने मोहम्मद के पैरों के निशान वाले पत्थर फिरोजशाह को भिजवाए। इस पत्थर को फिरोजशाह अपनी कब्र पर लगाना चहाता था। पर यह हो न सका। दरअसल, फिरोजशाह के बेटे फतेहशाह ने अपने पिता से वादा लिया था कि उसकी कब्र पर उक्त पत्थर लगाए जाएंगे। दुर्भाग्य से जब ऐसा हुआ तो फतेहशाह को वहीं दफनाया गया जिसे फिरोजशाह ने अपने लिए बनवाया था और उसकी कब्र पर उन पत्थरों को लगा दिया गया। इसके बाद वह दरगाह कदम शरीफ कहलाया।

पहले दारा सिकोह और फिर जयसिंह की सेना में रहा एक इतालवी लेखक निकोलो मोन्युकी ने अपनी किताब ‘स्टोरिया दी मुगल’ में लिखा है कि कदम शरीफ को हजरत मोहम्मद के पदचिन्ह को रखने के लिए बनवाया गया था। और वह 17वीं शताब्दी में मस्लमानों द्वारा दर्शन किए आने वाले सबसे प्रमुख तीर्थस्थलों में था। पुस्तक में यह भी कहा गया है कि मुगल बादशाह औरंगजेब ने इस जगह को अपने धार्मिक उद्देश्य के लिए भी इस्तेमाल किया था।


फतेहशाह की कब्रगाह>

मुसलमानों की यह पवित्र दरगाह महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर है, लेकिन आज बदहाली के कगार पर है। हालांकि यह पुरातत्व विभाग के अधीन नहीं। एक मुस्लिम परिवार इसकी देख-रेख करता है। अंदर प्रवेश करने पर पूरी जमीन कबूतरों की गंदगी से भरी पड़ी दिखती है। फतेहशाह की कब्र पर भी धूल जमे हुए हैं। यहां पवित्र पत्थर कोई अता-पता नहीं है। वहां रहने वाले जहीर से पूछा तो उसने कहा, “1947 के दंगों में दंगाइयों ने इस पत्थर को निकाल दिया था। तभी से वह हमारे पास है।” कहने पर वह उस पवित्र पत्थर को दिखाता भी है। हालांकि आसपास के लोग अलग राय रखते हैं। वे कहते हैं कि सरकारी विभागों की अनदेखी के कारण इन लोगों ने यहां कब्जा जमा रखा है। गौर करें कि यह इमारत उसी फिरोजशाह ने बनवाई थी जिसने दिल्ली को न सिर्फ खूबसूरत बनाया, बल्कि जब कोई पुरातत्व विभाग नाम की चीज नहीं थी तब भी कुतुबमीनार जैसी ऐतिहासिक इमारतों का जीर्णोद्धार करवाया था। आज सबकुछ है। इसके बावजूद यह पवित्र इमारत उपेक्षित है। गंदगी में सनी हुई।

(श्रुति अवस्थी की खास रपट)

Tuesday, September 6, 2011

हारा मन फुदकन में खोजे चेतन


अन्ना हजारे ने जो कार्यक्रम चलाया, उसमें जनता की बहुत भागीदारी रही। विशेषकर नया मध्यवर्ग शहरों में मुखरित हुआ। और वह सक्रिय है। अभी जो कुछ हुआ है उसपर कई तरह की प्रतिक्रियाएं आई हैं। इसे आंदोलन माना जा रहा है। निजी तौर पर अभी मैं इसे कोई आंदोलन नहीं मानता हूं। हां, इसे एक कैंपेन जरूर कहूंगा। जो अन्ना हजारे के व्यक्तिगत अनुभव, उनकी सोच और सामाजिक जिम्मेदारी के आधार पर शुरू हुआ। आज देश के हजारों-लाखों लोगों के मन में बस एक ही सवाल है जो मूलत: भ्रष्टाचार से जुड़ा है। निश्चय ही इस सवाल को सार्वजनिक बनाने में अन्ना का बढ़ा योगदान रहा।

इस कैंपेन की विशेषता ही है कि वह वर्तमान व्यवस्था, सरकार और नेतृत्व के प्रति गहरा शक पैदा करता है और एक तरीके के घबराहट को भी जन्म देता है। यानी यह डिसट्रक्ट भी है और मिसट्रक्स भी। आप देखेंगे कि महात्मा गांधी ने समय-समय पर अंग्रेजों की काफी आलोचना की। इसके बावजूद यह कहा कि हम इनपर भरोसा कर सकते हैं। दरअसल, उनके मन में यह बात कहीं-न-कहीं गहरे बैठी थी कि ब्रिटिश सरकार आपसी सहमति के बाद जिस किसी नतीजे पर पहुंचेगी अंततोगत्वा उसका क्रियान्वयन जरूर करेगी। आज इसपर भी संकट खड़ा हो गया है। सरकार और नेतृत्व पर कोई यकीन करने को तैयार नहीं है। निश्चय ही इसमें कसूर व्यवस्था चलाने वालों का है और यह उनकी बड़ी असफलता है। मैं यह भी कहुंगा कि इस आंदोलन में जो लोग अन्ना के साथ बातचीत कर रहे थे वे राजनैतिक तौर पर परिपक्व नहीं थे। यह देश का दुर्भाग्य ही है।


यह अन्ना का पहला राष्ट्रीय अभियान है। वैसे तो अन्ना अबतक 14 कैंपेन चला चुके हैं। इनमें चार-पांच स्थानीय स्तर के रहे है। कुछेक सूचना के अधिकार कानून को लेकर उन्होंने चलाए थे। पर राष्ट्रीय स्तर पर उनका यह पहला अनुभव है। इसलिए उनकी अपनी सीमा भी है जो उनके अंदर निहित है। हमने देखा कि 28 अगस्त को जो कैंपेन सम्पन्न हुआ, वह उसे अभिव्यक्त भी कर रहा था। उन्हें इस बात का शायद अंदाजा भी नहीं था कि पूरे भारत में लोग उठ खड़े होंगे। यहां एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि व्यवस्था परिवर्तन पर वैकल्पिक व्यवस्था के बारे में भी उन्होंने कोई रूपरेखा नहीं दी है। न ही इस बारे में कोई जानकारी दी है। फिलहाल वे केवल राजनैतिक स्तर पर ही सुधार की बात कर रहे हैं। वह भी केंद्रीय स्तर पर। दूसरी बात यह कि इस कैंपेन में राजनैतिक संभावनाएं काफी कम हैं, क्योंकि जबतक यह उबाल कोई नेतृत्व पैदा नहीं करता है तबतक इस बात की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है। हालांकि इसने जनता को जागृत कर दिया है, लेकिन बुनियादी तबदीली के लिए कोई नेतृत्व ही नहीं है।

सामाजिक स्तर पर भी जो कुप्रथाएं हैं और उसकी वजह से जो भ्रष्टाचार है, उसे किसी कानून से खत्म करना मुमकिन नहीं है। इसके लिए तो सामाजिक सुधार की जरूरत पड़ती है। स्वतंत्रता आंदोलन के समय गांधीजी ने सामाजिक सुधार को लेकर कई प्रयोग किए थे। साथ ही रचनात्मक कार्यों पर बल दिया था। लेकिन इस कैंपेन में सामाजिक आंदोलन की कोई प्रवृति हमें दिखाई नहीं पड़ती है। यहां उपवासों के माध्यम से समाज की चेतना को कुरेदकर सुधार लाने का पहली बार प्रयास किया गया है। वह भी ऐसे व्यक्ति द्वारा जिसकी क्षमता अबतक स्थानीय और राज्य स्तर की चुनौतियों से लड़ने की रही है। यह उनका अवगुन नहीं है, बल्कि सीमा है। जिससे ‘आगे देखो’ जैसी सोच की संभावना यहां नहीं दिखती है। वैसे कई बातें कही गई हैं, फिर भी कोई स्पष्ट विचार या सोच उभरकर सामने नहीं आ रहा है। न तो अन्ना में और न ही उनके सहयोगियों में। हां, इस कैंपेन से प्रभावित होकर समाज के अंदर से वैसे प्रभावी लोग आगे आ जाएं तो बात अलग है। दरअसल जो समाज 64 साल से कभी बोला ही नहीं, वह अब बोल रहा है। हिंदुस्तान में जो हारे हुए और निराश लोग हैं उन्हें इससे एक अवसर नजर आया है। यहां एक कविता याद आती है, “हारा मन फुदकन में खोजे चेतन।”
इतने के बावजूद भारत में सिविल सोसाइटी का अपना महत्व है। वह स्थानीय स्तरों पर विभिन्न समय और रूपों में सक्रिय रहा है। मैं मानता हूं कि सिविल सोसाइटी का सरकार में दखल कम होना चाहिए। पर जब राजनैतिक हालात इतने खराब हो जाएं कि वह अपना काम ही न कर सके तो उन्हें बाहर आना पड़ता है। गत 50 सालों के राजनीतिक चलन से ऐसी स्थिति बनी कि सिविल सोसाइटी को सरकार में दखल देना पड़ा है। इस बिंदु पर अन्ना ने ऐतिहासिक काम किया है। लेकिन सिविल सोसाइटी की तासीर ऐसी होती है कि वह निरंतर कोई देशव्यापी आंदोलन नहीं चला सकता है। इसके लिए तो नेतृत्व की जरूरत होती है। आज इसपर विचार करने का समय है कि इन परिस्थितियों में सिविल सोसाइटी किस तरह इसे आगे ले जाएगी। यह जिम्मेदारी राजनीतिक पार्टीयों की भी है कि वह इसे नेतृत्व प्रदान करे, पर फिलहाल इसकी संभावना नहीं दिख रही है।

दरअसल, इसके अंदर जो संभावनाएं हैं उसे समझने की क्षमता आज के नेतृत्व में नहीं दिख रही है। न ही अभी कोई तिलक, गांधी या फिर आंबेडकर निकलता दिखाई दे रहा है। गत 47 दिनों में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों में करीब 300 आलेख आ चुके हैं। यह समाज के सजग होने की निशानी जरूर है, पर इसमें भी नई सोच के बीज अभी तक नहीं दिख रहे हैं। फ्रांस और रूस की क्रांति हुई तो कई नई प्रतिभाएं सामने आईं। राजनीति के साथ-साथ कला, साहित्य पर भी उसका प्रभाव पड़ा। अन्ना हजारे के इस आंदोलन का अभी वह प्रभाव नहीं है। सरकारी स्तर पर कुछ कमजोरियां निकलकर आ रही हैं, यह उसी पर केंद्रित है। इसमें विद्यार्थियों की भागीदारी जरूर रही, पर दूसरे छात्र आंदोलनों से इसकी तुलना करें तो इसमें वे लक्षण हमें नहीं मिलेंगे। कुल मिलाकर इससे सामाजिक चेतना की ऐसी कोई जमीन अभी नहीं बनी है जिससे नया पौध निकल आए।

(अन्ना आंदोलन पर मशहूर पत्रकार देवदत्त के विचार)

Wednesday, August 31, 2011

विदेश में अन्ना के समर्थक


अन्ना को समर्थन देश में ही नहीं मिला, विदेश में भी सैकडों लोग घर से बाहर आए। अन्ना के समर्थन में नारे लगे। यहां अन्ना के समर्थन में पोस्टर लिए बच्ची।

Sunday, August 28, 2011

अन्ना का अनशन टूटा


ओह!ये इंतजार के पल।

Thursday, August 25, 2011

नारों में तान देने आए थे नगाड़े वाले



नगाड़े वालों की यह टोली 22 अगस्त की रात रामलीला मैदान पहुंची थी। वह वृंदावन से आई थी। जांच-पड़ताल के नाम पर पुलिसवालों ने इन्हें बाहर ही रोक दिया था। टोली के साथ आए विनोद शर्मा ने हमें बताया, “हम अन्ना की आवाज में तान देने आए हैं।” 24 अगस्त की देर रात ढूंढ़ने के बावजूद वे हमें नहीं दिखे। हालांकि बीती रात मुश्किलों से भरी थी और रह-रहकर किसी कोने से ढोल की आवाज आ रही थी।

बहरहाल जो-जो टोलियां आई हैं उसका लेखा-जोखा है। फिलहाल तो इस तस्वीर में उस वृंदावनी टोली को देखें।

Wednesday, August 24, 2011

अन्ना की रसोई


अन्ना की रसोई का लुत्फ उठाते विदेशी मेहमान। पूछने पर बताया, "अदभुत नजारा है।"

Saturday, August 20, 2011

आगे बड़ी लड़ाई है...


इससे पहले भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध दो जनआंदोलन हो चुके हैं। आजकल उनसे ही अपनी-अपनी समझ से अक्सर लोग तुलना करते पाए जा रहे हैं। जब भविष्य को साफ-साफ पढ़ना मुश्किल होता है तब स्वाभाविक रूप से इतिहास की तरफ नजर जाती है और तुलना होने लगती है। कई बार कोई समानता न होने पर भी खिंच- खांचकर तुलना की जाती है। वैसे तो हर जनआंदोलन की अपनी खास वजह होती है और उसका विकास उन परिस्थितियों में होता है जो तात्कालिकता से जुड़ी होती है। अन्ना हजारे के आंदोलन से पहले सातवें दशक में गुजरात और बाद में बिहार आंदोलन भ्रष्टाचार के विरुद्ध विगुल से शुरू हुआ, जिसमें जेपी का नेतृत्व मिला। उससे आंदोलन बिखरने से बचा और वह व्यवस्था परिवर्तन के लक्ष्य से प्रेरित हुआ। दूसरा आंदोलन विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में शुरू हुआ और राजीव गांधी को हराकर समाप्त हो गया। वे दोनों आंदोलन मूलतः राजनीतिक थे। अन्ना हजारे का आंदोलन जो अभी अपना आकार ग्रहण कर रहा है, वह राजनीतिक होने की दिशा में है।

अन्ना हजारे ने जो चुनौती उछाली है वह नैतिक ही है। जिसे हल्का करने की चाले चलकर इस सरकार ने राजनीतिक बनने के लिए रास्ता खोल दिया है। नैतिक सवाल हमेशा सर्वव्यापी और समावेशी होता है। जब कोई आंदोलन राजनीतिक राह पकड़ता है तो वह सत्ता की धूरी पर टिक जाता है और युद्ध की युक्ति से चलता है। उसका अपना पक्ष होता है और वह किसी को परास्त करने के लक्ष्य से प्रेरित हो जाता है। इसे एक घटना से समझना आसान होगा। बात अक्टूबर 1974 की है। जेपी ने बिहार के आंदोलन में विधानसभा को भंग करने की मांग रख दी। उनका कहना था कि बिहार विधानसभा जनता का विश्वास खो चुकी है इसलिए उसे भंग कर दिया जाना चाहिए। वह मांग इंदिरा गांधी को कई कारणों से पसंद नहीं आई। वे इसे अपने खिलाफ राजनीतिक अभियान समझने लगी थी। उन्होंने अपने गृहमंत्री उमाशंकर दीक्षित को निर्देश दिया कि वे बिहार के मुख्यमंत्री को दिल्ली बुलावें। उनसे बात करें और कहें कि बिहार सरकार जेपी को गिरफ्तार कर ले। 4 नवंबर 1974 को जेपी ने वह तारीख तय कर रखी थी जिस दिन विधानसभा को भंग करने का ज्ञापन दिया जाना था। पूरे राज्य में हस्ताक्षर अभियान चला और उसको ही राज्यपाल को सौंपा जाना था। इंदिरा गांधी चाहती थी कि बिहार के मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर जेपी को गिरफ्तार करें। इसके लिए ही गृहमंत्री उमाशंकर दीक्षित ने उन्हें दिल्ली बुलाया और अपनी ओर से बताया कि इंदिरा गांधी क्या चाहती हैं। लोग शायद यकीन न करें पर यह सच है कि गृहमंत्रालय में उमाशंकर दीक्षित के सामने बैठे अब्दुल गफूर ने दो-टूक जबाव दिया, “यह मैं नहीं करूंगा। इस्तीफा देना पसंद करूंगा।“


इस बार यह काम शीला दीक्षित कर सकती थी, बशर्ते पुलिस उनके अधीन होती। इतिहास से सीख लेकर पी.चिदंबरम भी ऐसा कर सकते थे। लेकिन वे और उनके साथी मंत्री अन्ना हजारे को राजनीति के पाले में डालने पर तुले हुए हैं। इस कारण वे सच बोलने के बजाए पूरे देश को गुमराह कर रहे हैं कि अन्ना हजारे को गिरफ्तार दिल्ली पुलिस ने किया है। अफसोस यह है कि विपक्ष भी इसका सही जवाब नहीं दे रहा है। सच यह है कि अन्ना हजारे के बारे में जो भी पुलिस कार्रवाई हुई है वह केबिनेट की राजनीतिक मामलों की समीति का फैसला है। जो प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की सहमति के बगैर हो ही नहीं सकता।

अन्ना हजारे ने अपने आंदोलन को अहिंसक बनाए रखने की हर कोशिश की है। इस अर्थ में वे सविनय अवज्ञा के नए प्रबोधक बन गए हैं। उन्हें स्वतःस्फूर्त समर्थन मिल रहा है। संभवतः इस तरह के समर्थन की उम्मीद उन्हें भी नहीं रही होगी। ये लोग तो अवश्य ही अवाक हैं जो कहते रहे हैं कि समाज में आंदोलन का भाव बदल गया है। इस जन-उभार ने यह दिखा दिया है कि मुद्दा सही हो और नेतृत्व निस्वार्थी हो तो लोग उसके पीछे चलेंगे। लोग जान की बाजी लगा देंगे। उन्हें सिर्फ पता होना चाहिए कि किस मकसद से उनका आह्वान किया जा रहा है। सरकार ने गोलमेज बातचीत में वक्त गवाया और अन्ना को भरमाया। आजादी की लड़ाई में अंग्रेज यही तरीका अपनाते थे और हर बार उन्हें मुंह की खानी पड़ती थी। अन्ना की शक्ति सामान्य जन है। उनकी जो कमजोरी है उसे मीडिया ने पूरा कर दिया है। मीडिया ही लोगों से संवाद कर रहा है। इस संवाद ने अभियान को आंदोलन की शक्ल दे दी है और नारे लगने लगे हैं कि ‘अन्ना नहीं आंधी है’
इस तरह के नारे जनभावनाओं को प्रकट करते हैं। अब यह जानने और समझने का समय नहीं है कि अन्ना क्या हैं और क्या नहीं हो सकते। यह सवाल भी नहीं रह गया है कि वे कब क्या बोलें। जो आज मायने रखता है और जो भविष्य में अपनी छाप छोड़ेगा वह यह है कि लोगों के मन में अन्ना की छवि क्या है। इस अर्थ में यह आंदोलन दो समानांतर छवियों का संघर्ष है। एक अन्ना की चमकदार छवि है जो लोगों को आकर्षित कर रही है तो दूसरी यूपीए सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह की टूटती छवि है जो लोगों के मन में वितृष्णा पैदा कर रही है। यह ईमानदार और बेईमान का टकराव नहीं है। यह बनती बिगड़ती छवि का जनमानस में गहराता हुआ असर है। इसी लिहाज से तुलनाओं को देखा जा सकता है जब लोग इमरजंसी को याद करने लगे हैं।

इस बात का सही आकलन तो बाद में ही हो सकता है कि जिस मध्यवर्ग को खारिज किया जा रहा था वह अचानक क्यों आंदोलन में कूद पड़ा है। क्या उसकी आंतरिक बनावट बदल गई है। क्या यह भूमंडलीकरण में राज्यतंत्र के ढीले पड़ते प्रभाव का द्योतक है। क्या यह मध्यवर्ग वह है जो राज्यतंत्र की इसलिए परवाह नहीं करता क्योंकि उसके आर्थिक हित निजी क्षेत्र में नीहित हैं। क्या इसलिए सिर्फ शासन में भ्रष्टाचार का मुद्दा अन्ना हजारे के आंदोलन में प्रमुख है? ये ऐसे सवाल हैं जिनका तुरंत जवाब ढूंढना अंधेरे में तीर चलाने जैसा होगा। यह कहना भी अभी जल्दबाजी होगी कि इस आंदोलन ने जो राह पकड़ी है वह किस मंजिल पर पहुंचेगी।

इस आंदोलन की खूबी इसमें है कि इसने नागरिक को प्रेरित कर दिया है। उसकी उस आस्था को जगा दिया है कि वही भ्रष्टाचार की बुराई को दूर करने में सहायक हो सकता है। इसी आस्था ने उसे सड़क पर उतारा है। सविनय अवज्ञा का यह बल वास्तव में लोकतंत्र का आधार है। यह आधार जितना मजबूत होगा उतनी ही ऊंची इमारत लोकतंत्र की खड़ी हो सकेगी। इस अंदोलन से जनलोकपाल की जनआकांक्षा प्रकट हो रही है। देखने में यह बड़ी है, लेकिन परिणाम में यह एक संस्था को ही जन्म देगी। उससे समूची व्यवस्था का जो संकट है वह हल नहीं होगा। उसे हल करने के लिए इससे कहीं बड़े जनआंदोलन की तैयारी करनी होगी। यह भी याद रखना होगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध शुरू हुआ यह तीसरा जनआंदोलन है जो संसदीय लोकतंत्र के पाले में जाकर दम न तोड़ बैठे। इसलिए भ्रष्टाचार के मूल स्रोतों पर चौतरफा और मारक प्रहार का सतत आंदोलन ही सार्थक तरीका हो सकता है।
(जनलोकपाल आंदोलन पर वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय का मत)

लोकपाल बिल लs कs रहब


वह खुली पंचायत थी। अन्ना की टीम से एक पत्रकार ने सवाल किया कि आप प्रधानमंत्री से पटवारी तक को लोकपाल के दायरे में लाना चाहते हैं। लेकिन एनजीओ को इससे बाहर रखा है। ऐसा क्यों है ? इसपर अरविंद केजरीवाल बोले। कहा, “ हम उन एनजीओ को जन-लोकपाल के दायरे में लाने पर सहमत हैं जो सरकारी पैसे से काम कर रहे हैं।” केजरीवाल उन एनजीओ को जन-लोकपाल के दायरे में लाने पर सहमत नहीं थे जो बगैर सरकारी सहयोग के चलते हैं। इसपर जब पूरक सवाल किए गए तो वे आक्रामक हो गए। फिर जो कहा उसका लब्बोलुआव यह था कि मीडिया भी तो इसके दायरे में नहीं आना चाहती। हजारों लोगों के सामने चल रही उस प्रेस-वार्ता का नजारा अलग था। वहां खड़े लोग इसे देख-सुन रहे थे। साथ ही सवाल और फिर जवाब पर राय-दर-राय जाहिर कर रहे थे। यह सिलसिला लंबा चला।

खैर, आधा रामलीला मैदान कीचड़ से पटा है। फिर भी लोगों की आवाजाही जारी है। कई लोग जमे हैं। नारे लगा रहे हैं, “अन्नाजी के पास है, अनशन का ब्रह्मास्त्र है।” यही नहीं, दूसरे नारे भी हैं। मसलन- “मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना। अब तो सारा देश है अन्ना।।“ यह नजारा केवल रामलीला मैदान का नहीं है। निकटवर्ती इलाकों में भी नारे गूंज रहे हैं। मैदान के बाहर तो ठेठ देहादी मेला जैसा नजारा है। छोटे-छोटे बच्चे 10 रुपए के दो तिरंगे बेच रहे हैं। पूछ कर यदि न लें तो चार देने को तैयार हैं। आंदोलन की पोशाक बन चुकी ‘अन्ना टोपी’ भी यहां मिल रही है। उसपर लिखा है, ” मैं अन्ना हूं।” हालांकि इस टोपी की शक्ति पर राजनीतिक गलियारों में बहस जारी है। पर यहां पहुंचे कई लोग इसे सिर पर डालकर उत्साह में चूर हैं। वे नारे लगा रहे हैं, “पूरा देश खड़ा हुआ है। जनलोकपाल पर अड़ा हुआ है।।”

शाम आठ बजे के आसपास फिर बारिश शुरू हो जाती है। फिर भी लोग यहां खड़े हैं। बारिश से सरोबोर होकर। तमाम चैलनों पर यहां से लाइव रिपोर्टिंग की जा रही है। उन लोगों ने अपने वास्ते अस्थाई मंच बना रखा हैं। रात 10 बजे के आसपास भीड़ कम होने लगती है। हालांकि, जो लोग वहां हैं वे अब भी नारों-गीतों में डूबे हुए हैं। मैदान की दाई तरफ प्राथमिक उपचार की सुविधा हैं। वहां कुछेक लोग लगातार खड़े नजर आ रहे हैं। पूछने पर पता चला कि जिसे कोई तकलीफ हो रही है वह यहां आ रहा है। रोशनी की व्यवस्था कम है और पुलिस की चहलकदमी बढ़ रही है। अब व्यक्ति अब भी पट्टा लिए बैठा है। उस पर लिखा है, “अन्ना हजारे के अछि ललकार, भ्रष्टाचारी नेता होशियार। लोकपाल बिल लs कs रहब, मैथिल समाज के अईछ आवाज।।” इस पढ़ते-पढ़ते हम मैदान से बाहर आ जाते हैं। 20 अगस्त की सुबह-सबेरे वह उसी स्थान पर दिख रहा है। हवा फिर गर्म हो रही है।

Friday, August 19, 2011

एक आंदोलन ‘भूदान’ भी था


वह 18 अप्रैल, 1951 की तारीख थी, जब आचार्य विनोबा भावे को जमीन का पहला दान मिला था। उन्हें यह जमीन तेलंगाना क्षेत्र में स्थित पोचमपल्ली गांव में दान में मिली थी। यह विनोबा के उसी भूदान आंदोलन की शुरुआत थी, जो अब इतिहास के पन्नों में दर्ज है या फिर पुराने लोगों की स्मृति में। खैर, विनोबा की कोशिश थी कि भूमि का पुनर्वितरण सिर्फ सरकारी कानूनों के जरिए नहीं हो, बल्कि एक आंदोलन के माध्यम से इसकी सफल कोशिश की जाए। 20वीं सदी के पचासवें दशक में भूदान आंदोलन को सफल बनाने के लिए विनोबा ने गांधीवादी विचारों पर चलते हुए रचनात्मक कार्यों और ट्रस्टीशिप जैसे विचारों को प्रयोग में लाया। उन्होंने सर्वोदय समाज की स्थापना की। यह रचनात्मक कार्यकर्ताओं का अखिल भारतीय संघ था। इसका उद्देश्य अहिंसात्मक तरीके से देश में सामाजिक परिवर्तन लाना था।

बहरहाल, तब विनोबा पदयात्राएं करते और गांव-गांव जाकर बड़े भूस्वामियों से अपनी जमीन का कम से कम छठा हिस्सा भूदान के रूप में भूमिहीन किसानों के बीच बांटने के लिए देने का अनुरोध करते थे। तब पांच करोड़ एकड़ जमीन दान में हासिल करने का लक्ष्य रखा गया था जो भारत में 30 करोड़ एकड़ जोतने लायक जमीन का छठा हिस्सा था। उस वक्त प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) के नेता जयप्रकाश नारायण भी 1953 में भूदान आंदोलन में शामिल हो गए थे। आंदोलन के शुरुआती दिनों में विनोबा ने तेलंगाना क्षेत्र के करीब 200 गांवों की यात्रा की थी और उन्हें दान में 12,200 एकड़ भूमि मिली। इसके बाद आंदोलन उत्तर भारत में फैला। बिहार और उत्तर प्रदेश में इसका गहरा असर देखा गया था। मार्च 1956 तक दान के रूप में 40 लाख एकड़ से भी अधिक जमीन बतौर दान मिल चुकी थी। पर इसके बाद से ही आंदोलन का बल बिखरता गया।

1955 तक आते-आते आंदोलन ने एक नया रूप धारण किया। इसे ‘ग्रामदान’ के रूप में पहचाना गया। इसका अर्थ था ‘सारी भूमि गोपाल की’। ग्रामदान वाले गांवों की सारी भूमि सामूहिक स्वामित्व की मानी गई, जिसपर सबों का बराबर का अधिकार था। इसकी शुरुआत उड़ीसा से हुई और इसे काफी सफलता मिली। 1960 तक देश में 4,500 से अधिक ग्रामदान गांव हो चुके थे। इनमें 1946 गांव उड़ीसा के थे, जबकि महाराष्ट्र दूसरे स्थान पर था। वहां 603 ग्रामदान गांव थे। कहा जाता है कि ग्रामदान वाले विचार उन्हीं स्थानों पर सफल हुए जहां वर्ग भेद उभरे नहीं थे। वह इलाका आदिवासियों का ही था।

पर बड़ी उम्मीदों के बावजूद साठ के दशक में भूदान और ग्रामदान आंदोलन का बल कमजोर पड़ गया। लोगों की राय में इसकी रचनात्मक क्षमताओं का आम तौर पर उपयोग नहीं किया जा सका। दान में मिली 45 लाख एकड़ भूमि में से 1961 तक 8.72 लाख एकड़ जमीन गरीबों व भूमिहीनों के बीच बांटी जा सकी थी। कहा जाता है कि इसकी कई वजहें रहीं। मसलन- दान में मिली भूमि का अच्छा-खासा हिस्सा खेती के लायक नहीं था। काफी भूमि मुकदमें में फंसी हुई थी, आदि-आदि। कुल मिलाकर ये बातें अब भुला दी गई हैं। हालांकि, कभी-कभार मीडिया में भूदान में मिली जमीन के बाबत खबरें आती रहती हैं। आचार्य विनोबा का भूदान आंदोलन लोगों के जेहन में रह गया है। जानकारों की राय में आजादी के बाद यह उन पहली कोशिशों में से एक था, जहां रचनात्मक आंदोलन के माध्यम से भूमि सुधार की कोशिशें की गई थी। सो लोगों ने बड़ी कोशिशें की हैं, इस समाज को आगे लाने की। दुख है कि वह कोशिश राजनीतिक या फिर शासकीय मकड़ाजाल में फंसकर रह जाती है।

Thursday, August 18, 2011

आपातकाल का वह दौर



26 जून 1975 का दिन आजाद भारत के इतिहास में काला दिन था। वह दिन अचानक नहीं आया था। धीरे-धीरे इसकी हवा बनी। पहले तो जनवरी 1974 में गुजरात में अनाजों व दूसरी जरूरी चीजों की कीमतों में वृद्धि हुई जन आक्रोश फैला। वह छात्रों के असंतोष के रूप में सामने आया। फिर इसका दायरा तेजी से बढ़ता गया। विपक्षी दल भी इसमें हिस्सा लेने लगे। पूरे राज्य में हंगामों का दौर शुरू हो गया। दूसरी तरफ मार्च 1974 में बिहार के छात्र भी सड़क पर उतर आए। छात्रों के बुलावे पर राजनीति से संन्यास ले चुके जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन का नेतृत्व संभाला। तब उन्होंने इसे संपूर्ण क्रांति का नारा दिया।

जेपी ने छात्रों और लोगों से कहा कि वे सरकारी कार्यालयों और विधानसभा का घेराव करें। मौजूदा विधायकों पर त्यागपत्र देने के लिए दबाव बनाएं। सरकार को ठप कर दें और जन सरकार गठित करें। इसके बाद जेपी ने बिहार से निकलकर पूरे देश में फैले भ्रष्टाचार और कांग्रेस व इंदिरा गांधी के निष्कासन को लेकर आंदोलन संगठित करने का निर्णय लिया। देशभर में अपने खिलाफ बहती बयार और गुजरात विधानसभा में मिली चुनावी हार के ठीक 14 दिन बाद यानी 26 जून 1975 को देश में आंतरिक आपातकाल की घोषणा कर दी। प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई। सरकार के किसी भी विरोधों पर पाबंदी लगा दी गई। रातोंरात आंतरिक सुरक्षा प्रबंधन कानून (मीशा) के तहत देश के शीर्ष विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी हुई। कुल 19 महीनों में हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया। कांग्रेस पार्टी पर भी कठोर नियंत्रण लगा दिया गया।

आपातकाल दौरान जेपी द्वारा गठित ‘छात्र युवा संघर्ष वाहिनी’ आंदोलन को तेज करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, ट्रेड यूनियन के नेता, जनसंघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े छात्र नेता अपने-अपने स्तर पर इसका विरोध कर रहे थे। आखिरकार 18 जनवरी, 1977 को इंदिरा गांधी ने अचानक मार्च में लोकसभा चुनाव कराए जाने की घोषणा की। राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया गया। प्रेस से सेंसरशिप हटा लिया गया। राजनीतिक सभा करने की आजादी बहाल कर दी गई। 16 मार्च को स्वतंत्र और निष्पक्ष माहौल में चुनाव संपन्न हुआ। इंदिरा गांधी और संजय गांधी दोनों ही चुनाव हार गए।

Wednesday, August 17, 2011

डीयू से निकला रैला, अब अन्ना नहीं अकेला


दोपहर होते-होत छत्रशाल स्टेडियम के आस-पास हजारों लोग इकट्ठा हो चुके थे। वहां माहौल ठीक वैसा ही था, जैसा 8 अप्रैल को जंतर मंतर पर दिखा था। नारे लग रहे थे- “जबतक भ्रष्टाचारियों के हाथ में सत्ता है। तबतक कैसे मेरा भारत महान है।“ कुछ छात्र पर्चा दिखा रहे थे, उसपर लिखा था- “डीयू से निकला रैला। अन्ना नहीं है अब अकेला।“ साथ-साथ एक और नारे लग रहे थे- “सोनिया गांधी निकम्मी है। भ्रष्टाचारियों की मम्मी है।” इतना ही नहीं था। आगे भी वे कह रहे थे- “सरकारी लोकपाल धोखा है। अभी भी बचा लो मौका है।“

छत्रशाल स्टेडियम से दीवार पर एक छात्र पट्टी लिए खड़ा था। उसपर लिखा था-“बेइमानी का तख्त हटाना है, भ्रष्टाचार मिटाना है।” इसी नारे के ठीक नीचे लिखा था- “यह कैसा स्वराज्य है, जहां भ्रष्टाचारियों के सिर पर ताज है।” नारे और भी थे जो वहां की फिजाओं में गूंज रहे थे। तभी स्टेडियम के भीतर से बुलाते हुए एक व्यक्ति ने कहा, “भाई साहब यहां पीने का पानी तक नहीं है। पुलिस सुबह 09.20 में यहां लाई है, लेकिन स्टेडियम में पानी की कोई व्यवस्था नहीं है।”

दोपहर 1.50 तब भीड़ इतनी बढ़ गई की पुलिस को स्टेडियम के गेट खोलने पड़े। हालांकि, पुलिस इस कोशिश में लगी थी कि अधिक से अधिक लोग स्टेडियम के भीतर आ जाएं। पर वह इस काम को पूरा करने में असफल रही। विश्वविद्यालय व निकटवर्ती इलाकों से छात्रों का हुजूम एक-एक कर पहुंच रहा था। शाम तीन बजे तक करीब 10-12 हजार लोगों की भीड़ जमा हो गई थी। इस भीड़ में हिन्दु कॉलेज के प्राध्यापक रतन लाल भी दिखे। वे नारा लगा रहे थे- “हिंदु-मुश्लिम-सिख-ईसाई। भ्रष्टाचारियों ने इन सब को खाई।।“ पास ही खड़े संदीप ने बताया कि वे अन्ना के कहने पर सात दिन की छुट्टी लेकर आए हैं। अंकिता प्राथमिक स्कूल की शिक्षिका हैं। यहां अन्ना के समर्थन में आई हैं। साथ खड़े एक छात्र के हाथ में पोस्टर है। उसपर लिखा है- “शहीदो हम शर्मिंदा हैं। भ्रष्टाचारी जिंदा हैं।”

बेबस पुलिस के चेहरे पर तब हंसी की रेखा दिख रही थी जब नारे लग रहे थे- “ये अंदर की बात है, पुलिस हमारे साथ है।” सैकडों की संख्या में खड़ी पुलिस उन लड़कों को संभालने में असमर्थ थी जो नारे लगा रहे थे- “अन्ना से तुम डरते हो। पुलिस को आगे करते हो।”

शाम 3.10 पर स्टेडियम के दोनों तरफ के रास्ते जाम हो गए। पर प्रदर्शन कर रहे छात्रों ने ही उस जाम को नियंत्रित करने में पुलिस का सहयोग दिया। कुछ छात्र सफाई काम में भी लगे थे। वे 17 अगस्त की सुबह भी सफाई करते दिखे। सड़क पर बिखरी हुई बोतलें उठा-उठाकर कुडेदान में डाल रहे थे। अब देखना यह है कि बल पकड़ता यह आंदोलन किस दिशा में बढ़ता है। हालांकि, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह संसद में इस मसले पर अपना मत रख चुके हैं। पर उनकी बात से आवाम सहमत नहीं दिख रही हैं। वह अब भी सड़क पर है।

Friday, July 22, 2011

इबादत के रंग



बुल्ले शाह की इबादत का अपना ही अंदाज था। यूं बात करते थे अपने खुदा से-



कुछ असी भी तैनूं पियारे हां
कि मैहियों घोल घुमाई ?
बस कर जी हुण बस कर जी
काई गल असां नाल हस कर जी।

हिन्दी में-
कुछ मैं भी तुझ को प्यारा हूं
या मैं ही तुझ पर वारा हूं ?
बस कर दो, अब बस कर दो
हंसकर कुछ मुझसे तुम कह दो।

Monday, June 27, 2011

‘पीर गायब’ के किस्से







"पीर गायब"
















पीर गायब से लगी बावड़ी






फिरोज शाह तुगलक वह शासक था, जिसने अपने शासनकाल में कई इमारतें बनवाईं। इन्हीं में से एक है दिल्ली के उत्तरी रिज में स्थित हिंदूराव अस्पताल से लगी एक इमारत। इसका नाम है- ‘पीर गायब’। इसी इमारत से लगी हुई एक बावड़ी भी है। पीर गायब छोटी दो मंजिला इमारत है। फिरोज शाह ने इसे चौदहवीं शताब्दी के मध्य में बनवाया था।


उस जमाने में इमारत का उपयोग शिकारगाह एवं जानवरों को तलाशने के समय किया जाता था। तब इमारत की पहचान कुश्क-ए-शिकारा के नाम से थी। हालांकि, इस जगह के बारे में कुछ और कहानियां भी मशहूर हैं। जैसे यह इमारत कभी खगोलीय प्रेक्षणा के लिए इस्तेमाल की जाती रही होगी। ऐसा इसलिए माना जाता है, क्योंकि इसके दक्षिणी कमरे की फर्श और छत को भेदता हुआ एक सुराख है जो गोलाकार रूप लिए हुए है। शायद यही वजह है कि इसका एक नाम कुश्क-ए-जहांनुमा भी है, जिसका अर्थ-विश्व दर्शन महल है। ऐसी ही दूसरी कहानी भी मशहूर है।

बहरहाल, एक अनगढ़े पत्थरों से निर्मित इस इमारत का जीर्णोद्धार अभी हाल ही में हुआ मालूम पड़ता है। दूसरी मंजिल पर पहुंचने वाली सीढ़ियां नई बनी दिखती हैं। इसके बचे अवशेषों में दो संकरे कक्ष उत्तर और दक्षिण की ओर हैं। दूसरी मंजिल पर भी दो कमरे हैं। अंग्रेजों के समय में तो इसका इस्तेमाल सिर्फ क्रांतिकारियों को पकड़ने या फिर उनकी स्थिति का जायजा लेने के लिए किया जाता था। 1857 के सैनिक विद्रोह के दौरान अंग्रेज सैनिक इस ऊंची इमारत पर चढ़कर अपनी बंदूकों से निशाना साधते थे, क्योंकि उस वक्त रिज के जंगल में यह एक ऊंची इमारत थी।

इस इमारत के अहाते में एक बावड़ी भी है जो कि इलाके में पानी की आपूर्ति के लिए बनवाई गई थी। पर आज वह एक गहरे गड्ढे के रूप में नजर आती है। आज यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन एक संग्रहणीय इमारत से ज्यादा हिंदूराव अस्पताल की कचरा-पेटी नजर आती है।

पढें श्रुति अवस्थी की रिपोर्ट

Friday, June 24, 2011

राजनीति में विचारनिष्ठा के पुनर्जागरण का युग आया है: उमा भारती


भारतीय जनता पार्टी की तेजतर्रार नेता साध्वी उमा भारती 2005 में पार्टी से अचानक बाहर हो गई थीं। तब उनके निष्कासन को राजनीति विश्लेषक पार्टी की अंदरूनी खींच-तान का परिणाम मान रहे थे। इसके बाद 30 अप्रैल 2006 को उमा भारती ने उज्जैन के निकट स्थित महाकाल में नई पार्टी की घोषणा की। नाम रखा- भारतीय जनशक्ति पार्टी। उस समय अपनी पार्टी को भाजपा का पुनर्जन्म बताते हुए उमा ने खुद को 'पन्ना धाय' की संज्ञा दी थी और राष्ट्रवादी विचारधारा को जीवित रखने की प्रतिज्ञा ली थी। पर, लोकप्रियता के बावजूद उनकी पार्टी को मध्य प्रदेश में कोई खास चुनावी सफलता नहीं मिली। हालांकि, इस दौरान उमा भारती गंगा अभियान से भी जुड़ी रहीं। आखिरकार 25 मार्च, 2010 को उन्होंने अपनी ही पार्टी से इस्तीफा दे दिया था। और अब सात जून को भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने अचानक उनके पार्टी में शामिल होने की घोषणा कर दी है। उमा भारती बताती हैं कि यह अचानक क्यों हुआ, इसकी जानकारी तो उन्हें भी नहीं है। भावी योजनाओं के साथ-साथ इस बाबत प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के संपादित अंश।
श्रुति अवस्थी और ब्रजेश कुमार से हुई पूरी बातचीत के लिए प्रथम प्रवक्ता पढ़ें।


सवाल: करीब छह साल बाद भारतीय जनता पार्टी में वापसी पर क्या महसूस कर रही हैं ?
जवाब: छह साल नहीं, साढ़े पांच साल बाद। छह साल तो पूरे नहीं हुए। फिलहाल कुछ भी नया महसूस नहीं कर रही हूं, क्योंकि जब मैंने अलग पार्टी बनाई तो उसमें भारतीय जनता पार्टी के ही कार्यकर्ता थे और विचारधारा भी वही थी। यही वजह है कि भाजपा से जाना तो महसूस हुआ, पर आना महसूस नहीं हुआ। जब पार्टी से जाना हुआ तो संवाद में दूरी आ गई थी। इससे जाना महसूस हुआ, लेकिन अब जब आ गई हूं तो ऐसा महसूस नहीं हो रहा है कि कोई चीज हुई हो।

सवाल: आपके पार्टी में लाए जाने की मीडिया में कई बार खबरें आईं, पर तब ऐसा नहीं हुआ। सात जून को अचानक इसकी घोषणा की गई। इसकी कोई खास वजह थी ?
जवाब: इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं है। हां, नितिन गडकरी जी और आडवाणी जी पिछले एक-डेढ़ साल से मुझे पार्टी में आने के लिए कह रहे थे। बाकि अचानक यह घटनाक्रम क्यों हुआ, यह मेरी जानकारी में नहीं है।

सवाल: आपके पार्टी में आने को इतना गोपनीय रखा गया कि यह खबर आई कि इसकी जानकारी खुद आपको भी नहीं थी कि सात जून को आप भाजपा में शामिल होने जा रही हैं। इसकी कोई खास वचह तो होगी।
जवाब: मैं इस बारे में कोई टिप्पणी नहीं करना चाहती। आडवाणी जी, नितिन गडकरी जी और अशोक सिंघल जी के ऊपर मेरा पूरा विश्वास है। मैं इन लोगों से किसी न किसी कारण लगातार संपर्क में रही हूं। वे लोग जो कुछ कह रहे हैं, वह सही है। मैं उनके निर्णय को ठीक मानती हूं।

सवाल: उत्तर प्रदेश के भाजपा कार्यकर्ताओं और समर्थकों की मांग पर आपको पार्टी में लाया गया। ऐसा कहा जा रहा है।
जवाब: मैं देशभर में जहां भी जाती थी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता मुझसे मिलते थे। वे पार्टी में आने का आमंत्रण देते थे। मैं गत दिसंबर के महीने में जब द्वादश ज्योतिर्लिंग की यात्रा पर गई थी तो वहां मंदिरों में श्रद्धालुओं का जो भी समूह मिलता था, वह एक ही बात कहता था कि आप भाजपा में शामिल हो जाइये। इसलिए मैं तो यही मानती हूं कि उत्तर प्रदेश ही क्यों, भाजपा का कोई भी कार्यकर्ता जहां भी होगा उसको इस बात से खुशी होगी कि मैं पार्टी में वापस आई हूं।

सवाल: पार्टी अध्यक्ष ने मुख्य तौर पर आपको जो जिम्मेदारी सौंपी है वह क्या है?
जवाब: उन्होंने इसकी घोषणा की है। हां, मैं गंगा से जुड़े मुद्दे को लेकर पहले से सक्रिय थी और भाजपा में भी गंगा सेल है तो मुझे उसका काम सौंपा गया है।

सवाल: उत्तर प्रदेश में जगह-जगह से खबरें आ रही हैं कि आपकी भाजपा में वापसी से कार्यकर्ता काफी उत्साहित हैं। आपके शुक्रताल तीर्थ स्थल और मेरठ के कार्यक्रर्मों से भी यह स्पष्ट हुआ। तो क्या यह माना जाए कि उत्तर प्रदेश में भाजपा को उसका स्वाभाविक नेता मिल गया है ?
जवाब: यह कोई नई बात नहीं है, इसलिए मैं ऐसा बिल्कुल भी नहीं मानूंगी। हां, मैं यह जरूर मानती हूं कि मेरे आने से वे काफी खुश हैं। मैं पार्टी से चली गई थी तो इसका उन्हें दुख था। ऐसा बिलकुल नहीं है कि उत्तर प्रदेश में कोई नया नेता आ गया है। यहां नेताओं का अभाव नहीं है।

सवाल: यह सब 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर किया गया है, ऐसी धारणा है। आपके सामने दिग्विजय सिंह ही कांग्रेस की ओर से यहां उपस्थित हैं। आप इस चुनौती को किस तरह देखती हैं?
जवाब: मैं व्यक्तिगत स्तर पर कभी टकराव नहीं करती। न ही व्यक्तिगत स्तर पर हमारा किसी से विरोध है। दिग्विजय सिंह मेरे बड़े भाई जैसे हैं और वे भी मुझे छोटी बहन मानते हैं। लेकिन हां, यह एक बड़ी नियती ही है कि मध्यप्रदेश में उन्हें हराने का काम मुझे मिला। इतना ही नहीं, मैं जब बिहार का काम देख रही थी तो चुनाव के दौरान वे लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस गठबंधन का जिम्मा संभाले हुए थे और लालू के वकील की भूमिका में थे। 2003 में मध्य प्रदेश में मेरे हाथों हारने के बाद वे बिहार में भी हारे। यह अजीब बात है कि उनको मात देने का मौका मुझे ही मिलता है।


सवाल: समय बदल गया है। 2003 में दिग्विजय सिंह मध्यप्रदेश तक सीमित थे। अब आठ साल बाद वे पार्टी के महासचिव और 10 जनपथ के वास्तविक प्रवक्ता के रूप में एक राष्ट्रीय नेता की छवि पा चुके हैं। इससे आपका काम कितना कठिन होगा ?
उत्तर: मैंने आपसे पहले ही कहा कि उत्तर प्रदेश में ऐसा कुछ भी नहीं है। पहले वहां कांग्रेस तो सामने आए। हां, वहां हमें सपा और बसपा का मुकाबला करना है। कांग्रेस पार्टी वहां इतिहास का विषय बन गई है, इसलिए मैं नहीं मानती कि कांग्रेस से हमारी कोई टक्कर है।

सवाल: यही सही, पर सपा-बसपा से टक्कर के लिए ही पार्टी से आपको कितना सहयोग मिलेगा ?
जवाब- मुझे पार्टी से सहयोग नहीं चाहिए। मैं तो पार्टी की कार्यकर्ता हूं और इससे उलट यह मानती हूं कि हमारा राष्ट्रीय दायित्व है कि हम उत्तर प्रदेश में पार्टी की स्थिति को सुधारें, क्योंकि उत्तरप्रदेश से ही भारत की राजनीति में विकृतियां उत्पन्न हुई हैं। इस प्रदेश से दो प्रकार की राजनीति सामने आई। एक तो यह कि दलित वर्ग को यहां अपने दम पर सत्ता मिली। हालांकि, सबसे बड़ा दलित आंदोलन तमिलनाडु में हुआ। महात्मा ज्योतिबा फूले ने भी आंदोलन चलाया। इसके बावजूद राजनीतिक आंदोलन के द्वारा सत्ता-शीर्ष तो उसे उत्तर प्रदेश में ही मिला, जब मायावती बहुमत प्राप्त कर मुख्यमंत्री बनीं।
पर यहां सबसे बुरी बात यह रही कि जो लोग मुसलमानों के हितैषी बनते थे, उन्हीं के शासनकाल में मुसलमानों की स्थिति दयनीय हुई। डॉन-माफियाओं के साथ जुड़ाव यहीं के मुसलमानों का माना गया। प्रदेश के बुनकर-जुलाहे निरंतर बेरोजगार होते गए। कुल मिलाकर आज उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की सबसे खराब हालत है। अत: मैं मानती हूं कि राष्ट्रीय हितों को यदि साधना है तो उत्तर प्रदेश की राजनीति में परिवर्तन लाना होगा। प्रदेश में वैचारिक धरातल पर जो आंदोलन चलते रहे हैं, उसके मूल तत्व को बाहर लाना होगा। मैं यह कदापि नहीं कह रही हूं कि उन आंदोलनों को नकारा जाए। मेरा इतना भर कहना है कि चाहे वह दलित आंदोलन हो या रामजन्म भूमि का आंदोलन, इन आंदोलनों के मूल तत्वों को निकालकर एक नए राजनैतिक आधार पर वहां सत्ता प्राप्त करने की कोशिश करनी होगी।


सवाल: ऐसे में उत्तर प्रदेश का चुनावी मुद्दा क्या होगा ?
जवाब: ‘राम’ और ‘रोटी’ दोनों मुद्दा होगा। यानी मंडल भी और कमंडल भी। जो सांस्कृतिक आंदोलन हुए हैं, वह ‘कमंडल’ है और जो सामाजिक आंदोलन हुए हैं वह ‘मंडल’ है। ‘राम-मंदिर से राम-राज्य की ओर’ यही हमारा मुख्य नारा होगा।

सवाल: लेकिन, पिछले दिनों मुजफ्फरनगर जिले के शुक्रताल तीर्थ स्थल में तो आपने एक नया नारा दे दिया है।
जवाब: आप ठीक कह रहे हैं। पर वहां मैंने कार्यकर्ताओं के बीच नारा दिया है। आम लोगों के बीच तो हम दूसरी ही बात कहने जा रहे हैं। उनसे कहेंगे कि ‘प्रदेश बचाओ और सरकार बनाओ’। लेकिन मैंने कार्यकर्ताओं को वचन दिया है कि ‘आप मुझे गंगा दीजिए, मैं आपको सत्ता दूंगी।’ मैं पूरी कोशिश करुंगी कि गंगा के कामों में भाजपा के कार्यकर्ता लगें और जनता को भी इसके लिए प्रेरित करें।


सवाल: आपने पार्टी से बाहर रहने के दौरान भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों को समान दूरी से देखा है। इनमें आपने क्या बदलाव देखा ?
जवाब: जब हम राजनीतिक समीक्षा कर रहे होते हैं तो कुछ चीजों का हमेशा ध्यान रखना होता है। यदि हमें अपने दल के बारे में कुछ कहना है तो हम दल के अंदर ही कहेंगे। मुझे ‘भारतीय जनशक्ति पार्टी’ में कभी कोई कमी दिखती थी तो मैं बाहर बोलने नहीं जाती थी। पार्टी के अंदर ही बैठकर बात होती थी। इसलिए जब मैं भाजपा की समीक्षा करूंगी तो पार्टी के अंदर बैठकर ही करूंगी। बाहर मीडिया के सामने तो नहीं ही करूंगी।
हां, जहां तक पूरी राजनीतिक व्यवस्था की समीक्षा का सवाल है तो मैं यह कह सकती हूं कि अभी एक समय आया है, जिसमें अचानक विचारधाराओं की अतिवादिता खत्म हुई है। जब देवगौड़ा की सरकार बनी तो उस समय वामपंथियों ने अपने आग्रह छोड़े। अपनी विचारनिष्ठाओं से कहीं न कहीं समझौता किया। फिर हमारी सरकार बनी, पर 2004 में हम नहीं जीत पाए। फिर मनमोहन सिंह की सरकार बनी तो उसे बचाने का प्रयास हुआ। इस प्रयास में जो स्थितियां बनीं, उनसब को मिलाकर एक बात कह सकती हूं कि राजनीति में विचारनिष्ठा के पुनर्जागरण का युग आया है। फिर से उसको पुनर्स्थापित करना है।