Sunday, March 25, 2012

ये जो सरगम के रंग हैं



“छन्न से बोले, चमक के जब चनार बोले/ ख्वाब देखा है, आंख का खुमार बोले/ ख्वाब छलके, तो आंख से टपक के बोले/ झन्न छलके तो पूरा आबसार बोले...।।”
गीतकार गुलजार ने इस गीत को फिल्म ‘यहां’ के वास्ते लिखा था। फिल्म जुलाई 2005 में परदे पर आई थी। और तब इसे अच्छी लोकप्रियता भी मिली थी। दरअसल, फिल्म ‘यहां’ कश्मीर वादी के एक ऐसे परिवार की कहानी है, जो वहां के हालातों में बुरी तरह उलझा है। ऐसे में गुलजार का यह गीत उस सपने की तरह है, जिसे वादी की नई पीढ़ी खुली आंखों से देखती है या यूं कहें कि देखना चाहती है।

वह पुराने लोगों के उन खयालों को खारिज करती है जो वादी के हालात को अपनी तकदीर समझ बैठे हैं। फिल्म के एक संवाद में नई पीढ़ी कहती है, “कश्मीर का यही दुर्भाग्य है कि यहां लोगों ने सपने देखने बंद कर दिए हैं।” गुलजार फिल्म के उक्त गीत से उसी सपने को जगाने की कोशिश करते हैं, जिसे देखना वादी के लोगों ने बंद कर दिया है। वे इस गीत में आगे कहते हैं- “आंख खोले कि ख्वाब-ख्वाब खेलते रहो/ रोज कोई, एक चांद बेलते रहो/ चांद टूटे तो टुकड़े-टुकड़े बांट लेना/ गोल पहिया है रात-दिन धकेलते रहो...।।”

मतलब यह कि इन हालातों में गीतकार उस उम्मीद और जीवन-चक्र की बात करता है जहां एक समय कहा गया था, “बुरे दिन बीते रे भैया, खुशी के पल आयो रे...।” ऐसा ही है सरोकारी हिन्दी सिनेमाई गीत। इसे सामाजिक और राजनीतिक इतिहास से अलग करना मुश्किल भरा काम है। समय-समय पर हुए सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों से यह गहरे प्रभावित रहा है। इसके ढेरों उदाहरण हैं।
यहां कुछेक का जिक्र है। देश आजाद हुआ तो एकाध साल बाद ही फिल्म आई थी ‘जिगर’। इस फिल्म में एक गीत के बोल थे, “हम चले शहर की ओर, अब तो गांव का रहना छोड़ दिया...”। इसे गीतकार एहसान रिजनी ने लिखा था। दरअसल, तब देहाती दुनिया में रहने वालों के मन में आजाद भारत के शहर को देखने की ललक थी। गीत से यही बात जाहिर होती है। पर, 25 साल बाद हालात बदल गए। तब गीतकार कैफी आजमी ने लिखा- “कितने पेट भरेगा दफ्तर/ ध्यान भी आता है तुझको/ शहर छोड़ के आजा प्यारे/खेत बुलाता है तुझको...।।” इसे कैफी ने फिल्म ‘असलियत’(1974) के वास्ते लिखा था।

अब जब देश-दुनिया का अर्थशास्त्र बदल चुका है। बाजार के नए कायदे-कानून आ गए हैं। शहर चौगुणी गति से फैला है और रोजगार के कई नए दरवाजे खुले हैं, लेकिन स्थिति बदली नहीं है। इतने के बावजूद कैफी का लिखा उक्त गीत वर्तमान हालात पर उतना ही सटीक बैठता है, जितना कि तीन दशक पहले रहा होगा। आज लोग शहर आते तो हैं पर वे गांव लौटना जल्दी चाहते हैं। हालांकि, संभावनाओं की तलाश करते कुछ शहर में ही रम जाते हैं। कैफी उन्हें ही आवाज देते मालूम पड़ते हैं। अब देखिए, अन्ना आंदोलन चला तो फिल्म में रुचि रखने वाला वह कौन व्यक्ति होगा, जिसे 1989 में आई फिल्म ‘मैं आजाद हूं’ का यह गीत याद न आया होगा- “आओ...आ जाओ, जग पर छा... जाओ...।” दरअसल, सिनेमाई गीतों का यह वह रंग है, जिसकी संवेदनशील समाज पर गहरी छाप है।