Saturday, May 26, 2007

सी.जी.ओ. यानी चीफ जुगाड़ अफसर की तलाश

मालूम पड़ा कि पत्रकारिता के कुछ साथी बागी हो चले हैं। वैसे ठीक है, कोई तो आईना दिखलाय।
मीडिया स्केन नामक कुछ लाने वाले हैं। दोस्तो यहां सी.जी.ओ. यानी चीफ जुगाड़ अफसर का एक जगह खाली है। खंभे को झटका दिये दोस्तों को सहयोग मिलना चाहिए। तब आपका क्या खयाल है? अपन ने तय किया है कि साथ रहना है ।

Thursday, May 24, 2007

लघु सिनेमा पर बात

सुरुचिपूर्ण कार्यक्रम के अभाव में शहराती जीवन जीने वाले लोग दूरदर्शन को कब का
भुला चुके हैं। अब इनके बच्चे क्यों याद रखें ? इनके लिए तो बाजार ने बड़ा विकल्प
छोड़ रखा है। कोई ताज्जुब की बात नहीं होगी , जब ग्रामीन बच्चों के साथ हमलोग
दूरदर्शन के चैनलों का नाम तक याद न रखें ! उसके बाद तो यह सरकारी दादागिरी के
बूते ही रुपया कमा पाएगा। ऐसी परिस्थितियां अचानक नहीं बनती हैं। कई वजहें घुल-मिल
कर नए माहौल पैदा करती हैं। ऐसे में यहां एक बड़ी वजह होगी , अच्छी डाक्यूमेंटरी और
लघु फिल्म का इन चैनलों पर नहीं दिखाया जाना।
दूरदर्शन के प्रति अनायास उत्पन्न हुआ वर्षों पुराना राग कमोबेश अब भी बना हुआ है।
पहले दूरदर्शन पर डाक्यूमेंटरी और लघु फिल्मों के लिए समय सीमा तय की गई थी।
इसे नियमित रूप से दिखलाया जाता था। लेकिन , अब ऐसी फिल्में दिखाना दूरदर्शन को
रास नहीं आ रहा है। जबकि, अमेरिका और यूरोप में अब भी टीवी पर डाक्यूमेंटरी फिल्में
दिखाई जाती हैं। भारत में चल रहे निजी चैनलों से हम इसकी उम्मीद नहीं करते हैं।
उनका काम तो बस चर्चा करना भर रह गया है। अमरिका में दिखाई गई माइकल मूर
की डाक्यूमेंटरी फारनहाईट 9 /11, की यहां के चैनलों पर खूब चर्चा हुई। लेकिन किसी भारतीय
चैनलों ने इसकी सफलता से सबक लेना उचित नहीं समझा। यहां दूरदर्शन के पास डाक्यूमेंटरी
और लघु फिल्म के लिए कोई तय समय नहीं है।
हमारे नए-पुराने फिल्मकार साल दर साल डाक्यूमेंटरी पर डाक्यूमेंटरी बनाते जा रहे हैं। पैसे की
कमी, ऐसी फिल्मों के प्रदर्शन के लिए मंचों का अभाव और घटते दर्शक वर्ग के बावजूद लोग अब
भी फिल्में बना रहे हैं। महत्वपूर्ण सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर बहस चला रहे हैं।
वहां विचार-विमर्श को जीवित रखे हुए हैं। इनकी कोशिश बेकार न हो, इसके लिए जरूरी है कि
दूरदर्शन पर ऐसी फिल्मों को दिखाने का एक समय तय हो। यदि यह मुमकिन नहीं है तो सैकड़ों
फिल्मकारों की सृजनात्मकता का कोई मोल नहीं है। जबतक समाज अपनी समस्याओं का अध्ययन
नहीं करेगा, तबतक उसका समाधान निकाल पाना मुश्किल है। इस अध्ययन में एसी फिल्में अपनी
महती भूमिका निभा सकती है। उदाहरण के तौर पर- यदि सुहासिनी मुले और तपन बोस द्वारा बनाई
गई डाक्यूमेंट्री 'एन इंडियन स्टोरी ' को हम सभी देख चुके होते तो 'गंगाजल ' फिल्म का यथार्थ हमारी
समझ में स्वत : आ जाता। दरअसल, यह डाक्यूमेंट्री भागलपुर में कैदियों की आखें फोड़ देने की घटना पर आधारित है। स्थितियों को समझने में हम इसका फायदा उठा सकते थे।
खैर, इतने के बावजूद अब भी इक्का-दुक्का लोगों से उम्मीद है। देखें आगे हम कितना हदतोड़ी बन पाते हैं।

Thursday, May 17, 2007

पहला बेबाक खेप

गुफ्तगु होगी उन मसलो पर जिससे हम चिपके हुए हैं अलग होने का नाम नहीं लेते, यानि पंचन के फैसला सर माथे,लेकिन खूंटा इहें गड़ी......