Wednesday, August 31, 2011

विदेश में अन्ना के समर्थक


अन्ना को समर्थन देश में ही नहीं मिला, विदेश में भी सैकडों लोग घर से बाहर आए। अन्ना के समर्थन में नारे लगे। यहां अन्ना के समर्थन में पोस्टर लिए बच्ची।

Sunday, August 28, 2011

अन्ना का अनशन टूटा


ओह!ये इंतजार के पल।

Thursday, August 25, 2011

नारों में तान देने आए थे नगाड़े वाले



नगाड़े वालों की यह टोली 22 अगस्त की रात रामलीला मैदान पहुंची थी। वह वृंदावन से आई थी। जांच-पड़ताल के नाम पर पुलिसवालों ने इन्हें बाहर ही रोक दिया था। टोली के साथ आए विनोद शर्मा ने हमें बताया, “हम अन्ना की आवाज में तान देने आए हैं।” 24 अगस्त की देर रात ढूंढ़ने के बावजूद वे हमें नहीं दिखे। हालांकि बीती रात मुश्किलों से भरी थी और रह-रहकर किसी कोने से ढोल की आवाज आ रही थी।

बहरहाल जो-जो टोलियां आई हैं उसका लेखा-जोखा है। फिलहाल तो इस तस्वीर में उस वृंदावनी टोली को देखें।

Wednesday, August 24, 2011

अन्ना की रसोई


अन्ना की रसोई का लुत्फ उठाते विदेशी मेहमान। पूछने पर बताया, "अदभुत नजारा है।"

Saturday, August 20, 2011

आगे बड़ी लड़ाई है...


इससे पहले भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध दो जनआंदोलन हो चुके हैं। आजकल उनसे ही अपनी-अपनी समझ से अक्सर लोग तुलना करते पाए जा रहे हैं। जब भविष्य को साफ-साफ पढ़ना मुश्किल होता है तब स्वाभाविक रूप से इतिहास की तरफ नजर जाती है और तुलना होने लगती है। कई बार कोई समानता न होने पर भी खिंच- खांचकर तुलना की जाती है। वैसे तो हर जनआंदोलन की अपनी खास वजह होती है और उसका विकास उन परिस्थितियों में होता है जो तात्कालिकता से जुड़ी होती है। अन्ना हजारे के आंदोलन से पहले सातवें दशक में गुजरात और बाद में बिहार आंदोलन भ्रष्टाचार के विरुद्ध विगुल से शुरू हुआ, जिसमें जेपी का नेतृत्व मिला। उससे आंदोलन बिखरने से बचा और वह व्यवस्था परिवर्तन के लक्ष्य से प्रेरित हुआ। दूसरा आंदोलन विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में शुरू हुआ और राजीव गांधी को हराकर समाप्त हो गया। वे दोनों आंदोलन मूलतः राजनीतिक थे। अन्ना हजारे का आंदोलन जो अभी अपना आकार ग्रहण कर रहा है, वह राजनीतिक होने की दिशा में है।

अन्ना हजारे ने जो चुनौती उछाली है वह नैतिक ही है। जिसे हल्का करने की चाले चलकर इस सरकार ने राजनीतिक बनने के लिए रास्ता खोल दिया है। नैतिक सवाल हमेशा सर्वव्यापी और समावेशी होता है। जब कोई आंदोलन राजनीतिक राह पकड़ता है तो वह सत्ता की धूरी पर टिक जाता है और युद्ध की युक्ति से चलता है। उसका अपना पक्ष होता है और वह किसी को परास्त करने के लक्ष्य से प्रेरित हो जाता है। इसे एक घटना से समझना आसान होगा। बात अक्टूबर 1974 की है। जेपी ने बिहार के आंदोलन में विधानसभा को भंग करने की मांग रख दी। उनका कहना था कि बिहार विधानसभा जनता का विश्वास खो चुकी है इसलिए उसे भंग कर दिया जाना चाहिए। वह मांग इंदिरा गांधी को कई कारणों से पसंद नहीं आई। वे इसे अपने खिलाफ राजनीतिक अभियान समझने लगी थी। उन्होंने अपने गृहमंत्री उमाशंकर दीक्षित को निर्देश दिया कि वे बिहार के मुख्यमंत्री को दिल्ली बुलावें। उनसे बात करें और कहें कि बिहार सरकार जेपी को गिरफ्तार कर ले। 4 नवंबर 1974 को जेपी ने वह तारीख तय कर रखी थी जिस दिन विधानसभा को भंग करने का ज्ञापन दिया जाना था। पूरे राज्य में हस्ताक्षर अभियान चला और उसको ही राज्यपाल को सौंपा जाना था। इंदिरा गांधी चाहती थी कि बिहार के मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर जेपी को गिरफ्तार करें। इसके लिए ही गृहमंत्री उमाशंकर दीक्षित ने उन्हें दिल्ली बुलाया और अपनी ओर से बताया कि इंदिरा गांधी क्या चाहती हैं। लोग शायद यकीन न करें पर यह सच है कि गृहमंत्रालय में उमाशंकर दीक्षित के सामने बैठे अब्दुल गफूर ने दो-टूक जबाव दिया, “यह मैं नहीं करूंगा। इस्तीफा देना पसंद करूंगा।“


इस बार यह काम शीला दीक्षित कर सकती थी, बशर्ते पुलिस उनके अधीन होती। इतिहास से सीख लेकर पी.चिदंबरम भी ऐसा कर सकते थे। लेकिन वे और उनके साथी मंत्री अन्ना हजारे को राजनीति के पाले में डालने पर तुले हुए हैं। इस कारण वे सच बोलने के बजाए पूरे देश को गुमराह कर रहे हैं कि अन्ना हजारे को गिरफ्तार दिल्ली पुलिस ने किया है। अफसोस यह है कि विपक्ष भी इसका सही जवाब नहीं दे रहा है। सच यह है कि अन्ना हजारे के बारे में जो भी पुलिस कार्रवाई हुई है वह केबिनेट की राजनीतिक मामलों की समीति का फैसला है। जो प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की सहमति के बगैर हो ही नहीं सकता।

अन्ना हजारे ने अपने आंदोलन को अहिंसक बनाए रखने की हर कोशिश की है। इस अर्थ में वे सविनय अवज्ञा के नए प्रबोधक बन गए हैं। उन्हें स्वतःस्फूर्त समर्थन मिल रहा है। संभवतः इस तरह के समर्थन की उम्मीद उन्हें भी नहीं रही होगी। ये लोग तो अवश्य ही अवाक हैं जो कहते रहे हैं कि समाज में आंदोलन का भाव बदल गया है। इस जन-उभार ने यह दिखा दिया है कि मुद्दा सही हो और नेतृत्व निस्वार्थी हो तो लोग उसके पीछे चलेंगे। लोग जान की बाजी लगा देंगे। उन्हें सिर्फ पता होना चाहिए कि किस मकसद से उनका आह्वान किया जा रहा है। सरकार ने गोलमेज बातचीत में वक्त गवाया और अन्ना को भरमाया। आजादी की लड़ाई में अंग्रेज यही तरीका अपनाते थे और हर बार उन्हें मुंह की खानी पड़ती थी। अन्ना की शक्ति सामान्य जन है। उनकी जो कमजोरी है उसे मीडिया ने पूरा कर दिया है। मीडिया ही लोगों से संवाद कर रहा है। इस संवाद ने अभियान को आंदोलन की शक्ल दे दी है और नारे लगने लगे हैं कि ‘अन्ना नहीं आंधी है’
इस तरह के नारे जनभावनाओं को प्रकट करते हैं। अब यह जानने और समझने का समय नहीं है कि अन्ना क्या हैं और क्या नहीं हो सकते। यह सवाल भी नहीं रह गया है कि वे कब क्या बोलें। जो आज मायने रखता है और जो भविष्य में अपनी छाप छोड़ेगा वह यह है कि लोगों के मन में अन्ना की छवि क्या है। इस अर्थ में यह आंदोलन दो समानांतर छवियों का संघर्ष है। एक अन्ना की चमकदार छवि है जो लोगों को आकर्षित कर रही है तो दूसरी यूपीए सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह की टूटती छवि है जो लोगों के मन में वितृष्णा पैदा कर रही है। यह ईमानदार और बेईमान का टकराव नहीं है। यह बनती बिगड़ती छवि का जनमानस में गहराता हुआ असर है। इसी लिहाज से तुलनाओं को देखा जा सकता है जब लोग इमरजंसी को याद करने लगे हैं।

इस बात का सही आकलन तो बाद में ही हो सकता है कि जिस मध्यवर्ग को खारिज किया जा रहा था वह अचानक क्यों आंदोलन में कूद पड़ा है। क्या उसकी आंतरिक बनावट बदल गई है। क्या यह भूमंडलीकरण में राज्यतंत्र के ढीले पड़ते प्रभाव का द्योतक है। क्या यह मध्यवर्ग वह है जो राज्यतंत्र की इसलिए परवाह नहीं करता क्योंकि उसके आर्थिक हित निजी क्षेत्र में नीहित हैं। क्या इसलिए सिर्फ शासन में भ्रष्टाचार का मुद्दा अन्ना हजारे के आंदोलन में प्रमुख है? ये ऐसे सवाल हैं जिनका तुरंत जवाब ढूंढना अंधेरे में तीर चलाने जैसा होगा। यह कहना भी अभी जल्दबाजी होगी कि इस आंदोलन ने जो राह पकड़ी है वह किस मंजिल पर पहुंचेगी।

इस आंदोलन की खूबी इसमें है कि इसने नागरिक को प्रेरित कर दिया है। उसकी उस आस्था को जगा दिया है कि वही भ्रष्टाचार की बुराई को दूर करने में सहायक हो सकता है। इसी आस्था ने उसे सड़क पर उतारा है। सविनय अवज्ञा का यह बल वास्तव में लोकतंत्र का आधार है। यह आधार जितना मजबूत होगा उतनी ही ऊंची इमारत लोकतंत्र की खड़ी हो सकेगी। इस अंदोलन से जनलोकपाल की जनआकांक्षा प्रकट हो रही है। देखने में यह बड़ी है, लेकिन परिणाम में यह एक संस्था को ही जन्म देगी। उससे समूची व्यवस्था का जो संकट है वह हल नहीं होगा। उसे हल करने के लिए इससे कहीं बड़े जनआंदोलन की तैयारी करनी होगी। यह भी याद रखना होगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध शुरू हुआ यह तीसरा जनआंदोलन है जो संसदीय लोकतंत्र के पाले में जाकर दम न तोड़ बैठे। इसलिए भ्रष्टाचार के मूल स्रोतों पर चौतरफा और मारक प्रहार का सतत आंदोलन ही सार्थक तरीका हो सकता है।
(जनलोकपाल आंदोलन पर वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय का मत)

लोकपाल बिल लs कs रहब


वह खुली पंचायत थी। अन्ना की टीम से एक पत्रकार ने सवाल किया कि आप प्रधानमंत्री से पटवारी तक को लोकपाल के दायरे में लाना चाहते हैं। लेकिन एनजीओ को इससे बाहर रखा है। ऐसा क्यों है ? इसपर अरविंद केजरीवाल बोले। कहा, “ हम उन एनजीओ को जन-लोकपाल के दायरे में लाने पर सहमत हैं जो सरकारी पैसे से काम कर रहे हैं।” केजरीवाल उन एनजीओ को जन-लोकपाल के दायरे में लाने पर सहमत नहीं थे जो बगैर सरकारी सहयोग के चलते हैं। इसपर जब पूरक सवाल किए गए तो वे आक्रामक हो गए। फिर जो कहा उसका लब्बोलुआव यह था कि मीडिया भी तो इसके दायरे में नहीं आना चाहती। हजारों लोगों के सामने चल रही उस प्रेस-वार्ता का नजारा अलग था। वहां खड़े लोग इसे देख-सुन रहे थे। साथ ही सवाल और फिर जवाब पर राय-दर-राय जाहिर कर रहे थे। यह सिलसिला लंबा चला।

खैर, आधा रामलीला मैदान कीचड़ से पटा है। फिर भी लोगों की आवाजाही जारी है। कई लोग जमे हैं। नारे लगा रहे हैं, “अन्नाजी के पास है, अनशन का ब्रह्मास्त्र है।” यही नहीं, दूसरे नारे भी हैं। मसलन- “मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना। अब तो सारा देश है अन्ना।।“ यह नजारा केवल रामलीला मैदान का नहीं है। निकटवर्ती इलाकों में भी नारे गूंज रहे हैं। मैदान के बाहर तो ठेठ देहादी मेला जैसा नजारा है। छोटे-छोटे बच्चे 10 रुपए के दो तिरंगे बेच रहे हैं। पूछ कर यदि न लें तो चार देने को तैयार हैं। आंदोलन की पोशाक बन चुकी ‘अन्ना टोपी’ भी यहां मिल रही है। उसपर लिखा है, ” मैं अन्ना हूं।” हालांकि इस टोपी की शक्ति पर राजनीतिक गलियारों में बहस जारी है। पर यहां पहुंचे कई लोग इसे सिर पर डालकर उत्साह में चूर हैं। वे नारे लगा रहे हैं, “पूरा देश खड़ा हुआ है। जनलोकपाल पर अड़ा हुआ है।।”

शाम आठ बजे के आसपास फिर बारिश शुरू हो जाती है। फिर भी लोग यहां खड़े हैं। बारिश से सरोबोर होकर। तमाम चैलनों पर यहां से लाइव रिपोर्टिंग की जा रही है। उन लोगों ने अपने वास्ते अस्थाई मंच बना रखा हैं। रात 10 बजे के आसपास भीड़ कम होने लगती है। हालांकि, जो लोग वहां हैं वे अब भी नारों-गीतों में डूबे हुए हैं। मैदान की दाई तरफ प्राथमिक उपचार की सुविधा हैं। वहां कुछेक लोग लगातार खड़े नजर आ रहे हैं। पूछने पर पता चला कि जिसे कोई तकलीफ हो रही है वह यहां आ रहा है। रोशनी की व्यवस्था कम है और पुलिस की चहलकदमी बढ़ रही है। अब व्यक्ति अब भी पट्टा लिए बैठा है। उस पर लिखा है, “अन्ना हजारे के अछि ललकार, भ्रष्टाचारी नेता होशियार। लोकपाल बिल लs कs रहब, मैथिल समाज के अईछ आवाज।।” इस पढ़ते-पढ़ते हम मैदान से बाहर आ जाते हैं। 20 अगस्त की सुबह-सबेरे वह उसी स्थान पर दिख रहा है। हवा फिर गर्म हो रही है।

Friday, August 19, 2011

एक आंदोलन ‘भूदान’ भी था


वह 18 अप्रैल, 1951 की तारीख थी, जब आचार्य विनोबा भावे को जमीन का पहला दान मिला था। उन्हें यह जमीन तेलंगाना क्षेत्र में स्थित पोचमपल्ली गांव में दान में मिली थी। यह विनोबा के उसी भूदान आंदोलन की शुरुआत थी, जो अब इतिहास के पन्नों में दर्ज है या फिर पुराने लोगों की स्मृति में। खैर, विनोबा की कोशिश थी कि भूमि का पुनर्वितरण सिर्फ सरकारी कानूनों के जरिए नहीं हो, बल्कि एक आंदोलन के माध्यम से इसकी सफल कोशिश की जाए। 20वीं सदी के पचासवें दशक में भूदान आंदोलन को सफल बनाने के लिए विनोबा ने गांधीवादी विचारों पर चलते हुए रचनात्मक कार्यों और ट्रस्टीशिप जैसे विचारों को प्रयोग में लाया। उन्होंने सर्वोदय समाज की स्थापना की। यह रचनात्मक कार्यकर्ताओं का अखिल भारतीय संघ था। इसका उद्देश्य अहिंसात्मक तरीके से देश में सामाजिक परिवर्तन लाना था।

बहरहाल, तब विनोबा पदयात्राएं करते और गांव-गांव जाकर बड़े भूस्वामियों से अपनी जमीन का कम से कम छठा हिस्सा भूदान के रूप में भूमिहीन किसानों के बीच बांटने के लिए देने का अनुरोध करते थे। तब पांच करोड़ एकड़ जमीन दान में हासिल करने का लक्ष्य रखा गया था जो भारत में 30 करोड़ एकड़ जोतने लायक जमीन का छठा हिस्सा था। उस वक्त प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) के नेता जयप्रकाश नारायण भी 1953 में भूदान आंदोलन में शामिल हो गए थे। आंदोलन के शुरुआती दिनों में विनोबा ने तेलंगाना क्षेत्र के करीब 200 गांवों की यात्रा की थी और उन्हें दान में 12,200 एकड़ भूमि मिली। इसके बाद आंदोलन उत्तर भारत में फैला। बिहार और उत्तर प्रदेश में इसका गहरा असर देखा गया था। मार्च 1956 तक दान के रूप में 40 लाख एकड़ से भी अधिक जमीन बतौर दान मिल चुकी थी। पर इसके बाद से ही आंदोलन का बल बिखरता गया।

1955 तक आते-आते आंदोलन ने एक नया रूप धारण किया। इसे ‘ग्रामदान’ के रूप में पहचाना गया। इसका अर्थ था ‘सारी भूमि गोपाल की’। ग्रामदान वाले गांवों की सारी भूमि सामूहिक स्वामित्व की मानी गई, जिसपर सबों का बराबर का अधिकार था। इसकी शुरुआत उड़ीसा से हुई और इसे काफी सफलता मिली। 1960 तक देश में 4,500 से अधिक ग्रामदान गांव हो चुके थे। इनमें 1946 गांव उड़ीसा के थे, जबकि महाराष्ट्र दूसरे स्थान पर था। वहां 603 ग्रामदान गांव थे। कहा जाता है कि ग्रामदान वाले विचार उन्हीं स्थानों पर सफल हुए जहां वर्ग भेद उभरे नहीं थे। वह इलाका आदिवासियों का ही था।

पर बड़ी उम्मीदों के बावजूद साठ के दशक में भूदान और ग्रामदान आंदोलन का बल कमजोर पड़ गया। लोगों की राय में इसकी रचनात्मक क्षमताओं का आम तौर पर उपयोग नहीं किया जा सका। दान में मिली 45 लाख एकड़ भूमि में से 1961 तक 8.72 लाख एकड़ जमीन गरीबों व भूमिहीनों के बीच बांटी जा सकी थी। कहा जाता है कि इसकी कई वजहें रहीं। मसलन- दान में मिली भूमि का अच्छा-खासा हिस्सा खेती के लायक नहीं था। काफी भूमि मुकदमें में फंसी हुई थी, आदि-आदि। कुल मिलाकर ये बातें अब भुला दी गई हैं। हालांकि, कभी-कभार मीडिया में भूदान में मिली जमीन के बाबत खबरें आती रहती हैं। आचार्य विनोबा का भूदान आंदोलन लोगों के जेहन में रह गया है। जानकारों की राय में आजादी के बाद यह उन पहली कोशिशों में से एक था, जहां रचनात्मक आंदोलन के माध्यम से भूमि सुधार की कोशिशें की गई थी। सो लोगों ने बड़ी कोशिशें की हैं, इस समाज को आगे लाने की। दुख है कि वह कोशिश राजनीतिक या फिर शासकीय मकड़ाजाल में फंसकर रह जाती है।

Thursday, August 18, 2011

आपातकाल का वह दौर



26 जून 1975 का दिन आजाद भारत के इतिहास में काला दिन था। वह दिन अचानक नहीं आया था। धीरे-धीरे इसकी हवा बनी। पहले तो जनवरी 1974 में गुजरात में अनाजों व दूसरी जरूरी चीजों की कीमतों में वृद्धि हुई जन आक्रोश फैला। वह छात्रों के असंतोष के रूप में सामने आया। फिर इसका दायरा तेजी से बढ़ता गया। विपक्षी दल भी इसमें हिस्सा लेने लगे। पूरे राज्य में हंगामों का दौर शुरू हो गया। दूसरी तरफ मार्च 1974 में बिहार के छात्र भी सड़क पर उतर आए। छात्रों के बुलावे पर राजनीति से संन्यास ले चुके जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन का नेतृत्व संभाला। तब उन्होंने इसे संपूर्ण क्रांति का नारा दिया।

जेपी ने छात्रों और लोगों से कहा कि वे सरकारी कार्यालयों और विधानसभा का घेराव करें। मौजूदा विधायकों पर त्यागपत्र देने के लिए दबाव बनाएं। सरकार को ठप कर दें और जन सरकार गठित करें। इसके बाद जेपी ने बिहार से निकलकर पूरे देश में फैले भ्रष्टाचार और कांग्रेस व इंदिरा गांधी के निष्कासन को लेकर आंदोलन संगठित करने का निर्णय लिया। देशभर में अपने खिलाफ बहती बयार और गुजरात विधानसभा में मिली चुनावी हार के ठीक 14 दिन बाद यानी 26 जून 1975 को देश में आंतरिक आपातकाल की घोषणा कर दी। प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई। सरकार के किसी भी विरोधों पर पाबंदी लगा दी गई। रातोंरात आंतरिक सुरक्षा प्रबंधन कानून (मीशा) के तहत देश के शीर्ष विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी हुई। कुल 19 महीनों में हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया। कांग्रेस पार्टी पर भी कठोर नियंत्रण लगा दिया गया।

आपातकाल दौरान जेपी द्वारा गठित ‘छात्र युवा संघर्ष वाहिनी’ आंदोलन को तेज करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, ट्रेड यूनियन के नेता, जनसंघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े छात्र नेता अपने-अपने स्तर पर इसका विरोध कर रहे थे। आखिरकार 18 जनवरी, 1977 को इंदिरा गांधी ने अचानक मार्च में लोकसभा चुनाव कराए जाने की घोषणा की। राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया गया। प्रेस से सेंसरशिप हटा लिया गया। राजनीतिक सभा करने की आजादी बहाल कर दी गई। 16 मार्च को स्वतंत्र और निष्पक्ष माहौल में चुनाव संपन्न हुआ। इंदिरा गांधी और संजय गांधी दोनों ही चुनाव हार गए।

Wednesday, August 17, 2011

डीयू से निकला रैला, अब अन्ना नहीं अकेला


दोपहर होते-होत छत्रशाल स्टेडियम के आस-पास हजारों लोग इकट्ठा हो चुके थे। वहां माहौल ठीक वैसा ही था, जैसा 8 अप्रैल को जंतर मंतर पर दिखा था। नारे लग रहे थे- “जबतक भ्रष्टाचारियों के हाथ में सत्ता है। तबतक कैसे मेरा भारत महान है।“ कुछ छात्र पर्चा दिखा रहे थे, उसपर लिखा था- “डीयू से निकला रैला। अन्ना नहीं है अब अकेला।“ साथ-साथ एक और नारे लग रहे थे- “सोनिया गांधी निकम्मी है। भ्रष्टाचारियों की मम्मी है।” इतना ही नहीं था। आगे भी वे कह रहे थे- “सरकारी लोकपाल धोखा है। अभी भी बचा लो मौका है।“

छत्रशाल स्टेडियम से दीवार पर एक छात्र पट्टी लिए खड़ा था। उसपर लिखा था-“बेइमानी का तख्त हटाना है, भ्रष्टाचार मिटाना है।” इसी नारे के ठीक नीचे लिखा था- “यह कैसा स्वराज्य है, जहां भ्रष्टाचारियों के सिर पर ताज है।” नारे और भी थे जो वहां की फिजाओं में गूंज रहे थे। तभी स्टेडियम के भीतर से बुलाते हुए एक व्यक्ति ने कहा, “भाई साहब यहां पीने का पानी तक नहीं है। पुलिस सुबह 09.20 में यहां लाई है, लेकिन स्टेडियम में पानी की कोई व्यवस्था नहीं है।”

दोपहर 1.50 तब भीड़ इतनी बढ़ गई की पुलिस को स्टेडियम के गेट खोलने पड़े। हालांकि, पुलिस इस कोशिश में लगी थी कि अधिक से अधिक लोग स्टेडियम के भीतर आ जाएं। पर वह इस काम को पूरा करने में असफल रही। विश्वविद्यालय व निकटवर्ती इलाकों से छात्रों का हुजूम एक-एक कर पहुंच रहा था। शाम तीन बजे तक करीब 10-12 हजार लोगों की भीड़ जमा हो गई थी। इस भीड़ में हिन्दु कॉलेज के प्राध्यापक रतन लाल भी दिखे। वे नारा लगा रहे थे- “हिंदु-मुश्लिम-सिख-ईसाई। भ्रष्टाचारियों ने इन सब को खाई।।“ पास ही खड़े संदीप ने बताया कि वे अन्ना के कहने पर सात दिन की छुट्टी लेकर आए हैं। अंकिता प्राथमिक स्कूल की शिक्षिका हैं। यहां अन्ना के समर्थन में आई हैं। साथ खड़े एक छात्र के हाथ में पोस्टर है। उसपर लिखा है- “शहीदो हम शर्मिंदा हैं। भ्रष्टाचारी जिंदा हैं।”

बेबस पुलिस के चेहरे पर तब हंसी की रेखा दिख रही थी जब नारे लग रहे थे- “ये अंदर की बात है, पुलिस हमारे साथ है।” सैकडों की संख्या में खड़ी पुलिस उन लड़कों को संभालने में असमर्थ थी जो नारे लगा रहे थे- “अन्ना से तुम डरते हो। पुलिस को आगे करते हो।”

शाम 3.10 पर स्टेडियम के दोनों तरफ के रास्ते जाम हो गए। पर प्रदर्शन कर रहे छात्रों ने ही उस जाम को नियंत्रित करने में पुलिस का सहयोग दिया। कुछ छात्र सफाई काम में भी लगे थे। वे 17 अगस्त की सुबह भी सफाई करते दिखे। सड़क पर बिखरी हुई बोतलें उठा-उठाकर कुडेदान में डाल रहे थे। अब देखना यह है कि बल पकड़ता यह आंदोलन किस दिशा में बढ़ता है। हालांकि, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह संसद में इस मसले पर अपना मत रख चुके हैं। पर उनकी बात से आवाम सहमत नहीं दिख रही हैं। वह अब भी सड़क पर है।