Friday, July 2, 2010

मुश्किलें नारियल से कहीं आगे है


इस देश में धर्म का महत्व है, पर जाति उसपर हावी है। उसका महत्व बहुत ज्यादा है। इस देश के किसी भी गांव में तफरीह के दौरान आप किसी का परिचय पूछेंगे तो वह जाति को कहीं अधिक महत्व देता मालूम पड़ेगा। राजनीतिक वैज्ञानिक रजनी कोठारी इस बाबत विस्तार से कह चुके हैं। इस पंक्ति का लेखक भी महसूस कर रहा है कि लोग जाति के रास्ते समाज से जुड़ने का सरल रास्ता अख्तियार करते रहे हैं। उसके लिए धर्म तो बाद की चीज है।

इस देश में जो राजनेता जाति को नहीं जोड़ पाए, और उसकी राजनीति नहीं कर पाए, वे धर्म की राजनीति करने लगे। आप देख लें बसपा प्रमुख मायावती को या फिर शिबू सोरेन। उन्हें राजनीति के लिए धर्म की जरूरत नहीं है। पर हां, लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव को धर्मनिरपेक्ष बने रहना है, क्योंकि उनमें विचार और जाति के स्तर पर अपनी जाति को जोड़े रखना मुमकिन नहीं हो पा रहा है। भाजपा जिस हिंदुत्व के रास्ते चलने का दवा करती है, वह बड़ी चीज है। हिंदुत्व के उस शिखर तक पहुंचना भाजपा नेताओं के बूते की बात नहीं है। इससे भ्रम पैदा हो रहा है। यहां तो हिंदू के लिए सूफी आंदोलन का उतना ही महत्व है, जितना कि शैव और वैष्णव आंदोलन का है। उन्हें हाजी-अली से भी उतना ही लगाव है जितना महालक्ष्मी मंदिर से। तो यह तय है कि इस देश को वैसा हिन्दू राष्ट्र नहीं बनाया जा सकता जैसा कुछेक लोग चाहते है।

खैर, जिन्हें बिहार का पिछला विधानसभा चुनाव याद है, उन्हें स्मरण होगा कि तब चुनाव प्रचार के समय कहा जा रहा था कि जदयू-भाजपा गठबंधन को वोट न दें। यदि वे जीतते हैं तो सूबे में अल्पसंख्यकों का रहना मुश्किल हो जाएगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक चुनाव प्रचार के दौरान इस ओर संकेत कर रहे थे। पांच साल बीत गए। अब अगला चुनाव होने वाला है। स्थिति जो बनी वह सबके सामने है। यकीनन, वहां जो कुछेक विकास के काम शुरू हुए, उस दौरान नारियल भी फोड़े गए। पर कोई बवेला नहीं मचा। दरअसल मुश्किलें तो कहीं और पैदा हो रही हैं।