Saturday, October 20, 2007

हिन्दी सिनेमा में आए राजनैतिक गाने- इस मोड़ से जाते हैं




आप सब तो जानते ही होंगे कि हिन्दुस्तानी फिल्म में गीतों को जितना तवज्जह मिला उतना संसार के किसी के किसी भी दूसरे फिल्मीद्योग में नहीं मिला है। यहां तो फिल्में आती हैं, चली जाती हैं। सितारे भी पीछे छूट जाते हैं। लेकिन, जुबान पर रह जाते हैं तो कुछ अच्छे-भले गीत। यकीनन, यह युगों तक बजते रहेंगे। फिल्मी गीतों के इन्हीं लम्बे सफर में जिंदगी के हर वाकये पर गीत लिखे गए। इसमें एक खाम किस्म का गीत है- राजनैतिक गीत।
दरअसल, शासन के सामयिक प्रश्नों समस्याओं से जुड़े गीत ही ठेठ राजनैतिक गीत कहलाए। ऐसे में आजादी के दशक भर बाद लिखे गए प्यासा(1957) फिल्म के गीत अचानक याद आते हैं-
जरा हिन्द के रहनुमा को बुलाओ / ये गलियां ये कूचे उनको दिखाओ।इस फिल्म के गीतकार साहिर लुध्यानवी असल में एक तरक्की पसंद साहित्यकार थे। लेकिन, इसके साथ-साथ उन्होंने फिल्मी दुनिया से बतौर गीतकार एक रिश्ता कायम कर लिया था। क्योंकि, केवल सपने बेचना उन्हें मंजूर नहीं था। तभी तो उन्होंने नाच घर(1959) फिल्म में खूब कहा-
कितना सच है कितना झूठ / कितना हक है कितनी लूट
ढोल का ये पोल सिर्फ देख ले / ऐ दिल जबां न खोल सिर्फ देख ले।

सहिर के साथ-साथ शैलेन्द्र, कैफी आजमी जैसे कई अन्य गीतकारों ने भी ऐसे गीत लिखे। एक के बाद एक(1960) फिल्म में कैफी ने लिखा-
उजालों को तेरे सियाही ने घेरा / निगल जाएगा रोशनी को अंधेरा।सन् 1968 में आई इज्जत में तो साहिर ने साफ- साफ लिख-
देखें इन नकली चेहरों की कब तक जय-जयकार चले
उजले कपड़ों की तह में कब तक काला बाजार चले।
इससे पहले राजनेताओं के दोरंगे चेहरे पर ऐसे धारदार गीत लिखे हुए नहीं के बराबर मिलते हैं। वैसे भी, कई गीतकार फिल्मी गीतों के माध्यम से ऐसी बातें कहने में हिचकिचाहट महसूस कर रहे थे। लेकिन, कैफी आजमी ने संकल्प(1974) फिल्म में वोट की खरीद- फरोक पर कुछ ऐसे गीत लिखे-
हाथों में कुछ नोट लो,फिर चाहे जितने वोट लो
खोटे से खोटा काम करो,बापू को नीलाम करो।
यह गीत इंतहा है उजड़ रहे ख्वाबों से जन्मी करूणा और क्रोध की। इसके साथ-साथ यह गाना एक बारीक जिक्र है-परिवर्तन का। जो जनतांत्रिक व्यवस्था के फलस्वरूप आया है। इस समय तक लोग देश में पांच आम चुनाव देख चुके थे। कटु अनुभव उनके पास था। ऐसे में इन गीतों की हवा चली तो रुकती कैसे? मन में जो बातें थीं, वह सामने आने लगी। इस सफर में अब तक कई लोग अपना बेहतरीन योगदान देकर दुनिया से रुखसत हो गए थे। कई नए आ चुके थे। और वो भी हवा के रुख को महसूस कर रहे थे।
ऐसे में गीतों का थोड़े अंतराल पर लगातार आना जारी रहा।
गुलजार ने अपने ही अंदाज में आंधी के गीतों के माध्यम से बड़ा ही तीखा व्यंग्य किया-
सलाम कीजिए / आलीजनाब आए हैं
यह पांच साल का देने हिसाब आए हैं।
क्या यह कोई भूल सकता है कि आंधी में रिश्तों के रेशे ही नहीं हैं, बल्कि राजनेताओं के हालात पर बड़ी सख्त टिप्पणी भी है। अब यह गीत सर चढ़कर बोलता है। आगे भी इसी रफ्तार से राजनैतिक गीत का कदमताल जारी रहा। तब से अब तक कई जमाने पुराने हो गए हैं। कई चीजें पीछे छूट गई हैं। मगर आंधी फिल्म की ये कव्वाली नई ताजगी और तेवर के साथ सफेद पोशाकी पर फिट बैठती है। आगे कुछ और भी गीत आए। जैसे- काला बाजार(1989) के गीत-
ये पैसा बोलता है/ मिलता है उसी को वोट
दिखाये जो वोटर को नोट/ ये पैसा बोलता है
आगे के राजनैतिक माहौल पर हू-तू-तू फिल्म में लिखे गुलजार के गीत स्थितियों को साफ कर देते हैं।जरा गौर करें- हमारा हुक्मरां अरे कमबख्त है/ बंदोबस्त, जबरदस्त है।इसी फिल्म का दूसरा गीत-
घपला है भई/ घपला है
जीप में घपला,टैंक में घपला
दरअसल, ये गीत वर्तमान राजनैतिक स्थितियों का बखान करते हैं। वैसे तो ऐसे गीत औसतन कम ही लिखे गए हैं। पर ऐसा मालूम पड़ता है कि सिनेमा में आए ये राजनैतिक गीत भारतीय राजनीति का आईना है। यहां एक और बड़ी
महत्वपूर्ण बात यह है कि ये सिनेमाई गीतकार हुक्मरानों की मसनवी न लिखकर आम लोगों, मजदूरों के करीब खड़ा रहा है। कई गीतकार तो ताउम्र खड़े रहे। और गीत लिखते गए। साफ और सीधी भाषा में।

ब्रजेश झा- 09350975445

Tuesday, October 9, 2007

इब्तिदाए इश्क

अजित कुमार यानि हिन्दी सहित्य का बेहद पहचाना हुआ नाम। सहित्य से अलग अजित कुमार को आम पाठक एक जमाने में धर्मयुग पत्रिका में खूब पढ़ा करते थे। अब नए जमाने के आम पाठकों में कम ही लोग धर्मयुग और अजित बाबु के बारे में नाम से ज्यादा कुछ जानते हैं। ऐसे में लीजिए इक याद ताजा करिए।

इब्तिदाए इश्क
यात्राओं के साथ शुरू से ही प्रीति, आश्चर्य और संतोष की जो भावना मेरे मन में जुड़ी रही है और अपनी
जन्मभूमि की यात्रा ने इन भावों के साथ हमेशा गहरी खुशी और नई पहचान की जो अनुभूति मुझे दी है,
वह सब इस बार की उन्नाव-लखनऊ यात्रा के दौरान शुरू से आखिर तक गायब रहा। यह बात अलग है कि
दिल्ली की भयानकता, खीझ और थकान की तुलना में, एक हफ्ता फिर चैन से बीता लेकिन बचपन और
यौवन के दिनों में यहां जो मस्ती और बेफिक्री हुआ करती थी, उसकी जगह अनवरत भागा-दौड़ी और
कशमकश ने आखिरकार उन्नाव और लखनऊ को भी मेरे लिए दिल्ली बनाकर ही छोड़ा। वह सपना खंडित
चाहे अभी न हुआ लेकिन बदरंग जरूर हो गया कि ऐसा वक्त आएगा जब हम अवकाश लेकर चैन और
आराम की जिन्दगी अपने वतन में बिताएंगे।
इस यात्रा ने समझाया कि चैन और आराम किसी छोटी सी छुट्टी के दौरान मनाली या गुलमर्ग में मिले तो मिले; उन्नाव, नवाबगंज और लखनऊ में तो मुकदमों, झगड़ों, फ़सादों, पटवारियों, पेशकारों, चपरासियों, अफसरों को भुगताते-निपटाते ही गुजारना होगा। सुख की कल्पना यहां तो साकार होने वाली नहीं, क्योंकि
चकबंदी अधिकारी से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक मुकदमों का जाल फैला हुआ है। मेरे जीवन-काल में वह
सिमटने वाला नहीं, भले ही मैं औऱ बीस वर्षों तक जीने की उम्मीद करूं। सच तो यह है कि नवाबगंज
का मतलब मेरे लिए पिछले तमाम वर्षों में खीझ, गुस्से, अवरोध, भरपूर कोशिश के अलावा और कुछ नहीं रहा।
इस यात्रा ने मुझे बार-बार यह सोचने के लिए मजबूर किया कि जिस जीवन की रक्षा और सुरक्षा की हम जी-तोड़ कोशिश करते हैं, वह जीवन तो गायब हो जाता है, सिर्फ कोशिश ही कोशिश यहां से वहां तक फैली रहती है। हम अपने कन्धों पर बोझ बढ़ाते चले जाते हैं और अगली पीढ़ी के लिए एक ऐसी गठरी छोड़ जाते हैं दुर्गन्धयुक्त, मैले कपड़ों की, जिसको धुलाने की लागत शायद हमारे पीछे छूट गये बैंक-बैलेन्स से कहीं ज्यादा होगी।
आखिर क्यों मुझे यह यात्रा करनी पड़ी ? इसीलिए न कि मेरे पिता ने बीस साल पहले करीब ढाई हजार रुपये में ज़मीन का एक टुकड़ा खरीदा था जिसकी कीमत आज बहुत हो चुकी है और जिसके किसी हिस्से को हथियाने में एक स्थानीय गुंडा कामयाब हो गया। अब मैं बीस साल तक उसके साथ मुकदमेबाजी करूंगा फिर मुमकिन है, जीतने पर लाख-दो लाख और लगाकर, अड़ोस-पड़ोस की थोड़ी और ज़मीन खरीद अपने बेटे-भतीजों को सौंप जाऊं। फिर जब वे हिसाब-किताब बिठा कर आत्मतृप्त होने लगेंगे कि उनके खानदान की माली हैसियत अकेले नवाबगंज में पच्चीस लाख रुपये से अधिक की है और वहां आरा मिल. पेपर मिल या कोल्ड स्टोरेज का लाभकारी धन्धा मज़े से शुरू किया जा सकता है तो उन्हें पता चले कि उनकी जमीन के किसी अन्य टुकड़े पर किसी अन्य स्थानीय लठैत ने कब्जा जमा लिया है। तब वे अपनी जमीन की कीमत अस्सी लाख या दो करोड़ रुपये हो जाने तक अनवरत मुकदमेबाजी करते जाएं...
यह सिनिरेयो दिल्ली से रवाना होते समय भीड़ भरे रेल के डिब्बे में जागते-ऊंघते कभी दिमागी तो कभी पलकों में बनता-मिटता रहा है। पहला पड़ाव था उन्नाव, जहां वकीलों से मिलने का मतलब था- एक ऐसे जाल में फंसा महसूस करना, जिससे निकलने की न कभी हम उम्मीद कर पाते हैं, न उसमें फंसे बिना अपने लिए कोई दूसरा चारा ही खोज पाते हैं। जब तुम्हारे अधिकार पर कोई दूसरा ज़बर्दस्ती दखल करे तो तुम यदि इतने विरक्त या बुद्धिमान नहीं हो कि इस कब्जे को नज़रअंदाज कर सको तो यह तय है कि तुम पुलिस – कचहरी, वकील, गवाह, कागज-तारीख के अनवरत शिकंजे में जरूर ही फंस जाओगे। यह तटस्थता या होशियारी मैं अपने निजी जीवन में थोड़ी बहुत लागू कर सका, जबकि बाकी तमाम लोग इसे दब्बूपन, कायरता, सुस्ती, पलायनवाद आदि- आदि कहते समझते रहे लेकिन अपने पिता और छोटे भाई को मैं कभी नहीं समझा पाया कि ज़मीन-जायदाद और मान-मर्यादा के लिए लड़ने-झगडने में समय, शक्ति और साधन का जो अपव्यय करना पड़ता है, उससे हमेशा एक ही मसल याद आती है कि ‘टके की बुलबुल नौ टका हुसकाई।’ चूकिं, उनकी राय मुझसे मेल न खाती थी और मैं खूद भी कभी-कभी सोचने लगता था कि गलती कहीं न कहीं मेरे ही सोच में है, और कि जो भी हो मुझे ज़रूरत के वक़्त उनके हाथ मज़बूत करने चाहिए- यह मेरा नैतिक कर्तव्य है- तो आखिरकार मुझे भी, मजबूरन इस जंजाल में फंसना पड़ा, लेकिन जब मैं इस मुहिम का हिस्सा बना, तो मैंने यह भी समझा कि यहां अधिक वास्तविक दुनिया है जो हमें जीने का ज्यादा कारगर ढंग सिखा सकती है और संसार का पूर्णतर चित्र हमारे सामने रखती है।उस एक हफ्ते में मैंने बहुत जानकारी हासिल की, जिसे विस्तार से बताना जरूरी नहीं, अपनी समझ के लिए कुछ ही मुद्दे दर्ज करता हूं ताकि सनद रहे और वक़्त जरूरत काम आय।
मैंने अनुभव किया कि आम तौर से निचले दर्जे के कर्मचारी अधिक सुस्त, काहिल और भ्रष्ट हैं बनिस्पक ऊंचे दर्जे के। कार्यकुशलता और शिष्टता का भी बड़ अभाव है। लेकिन हमारी व्यवस्था का ढांचा कुछ ऐसा है कि पैसे या निजी संबंधों के बल पर हम अपना अधिकतर काम इस निचले तबके के अमले से करवा सकते हैं। पटवारी, पेशकार, सिपाही, दारोगा हमारे लिए जितना कारगर हो सकता है, उतना मंत्री, सचिव या उच्च अधिकारी वर्ग नहीं हो पाता। देश का जीवन- स्तर जिस निचले दर्जे पर सामान्य रूप से चलता है, वहां सुई की उपयोगिता तलवार की तुलना में कहीं अधिक दिखाई देती है।
जहां तक उच्च अधिकारियों का संबंध है, वे किन्हीं मामलों में कारगर होते जरूर हैं, लेकिन तभी जब उन पर ऊपर से कोई गहरा दबाव पड़े या कोई अन्य बड़ी वजह हो, वरना आमतौर से वे हीला-हवाल कर मामले से बचने की और कीचड़ में कमल वाली छवि बनाये रखने की कोशिश करते हैं। यह जरूर है कि हमारी व्यवस्था में उनकी हैसियत ऐसी बनायी गई है कि यदि वे प्रभावकारी हस्तक्षेप का निर्णय लेते हैं तो तमाम बन्द दरवाजे अपने आप खुलने लगते हैं। हमारे मामले में भी यही बात लागू हुई कि एक मामूली पटवारी ने जमीन के कागजों में मौजूद तनिक से पेंच की जानकारी किसी स्थानीय हड़पबाज घुसपैठिये को दे दि और उसने हमारी जमीन में ऐसी लात घुसा दी कि उसे निकाल फेंकना मुश्किल हो गया। बहरहाल जब सत्ता के पहियों को हमने घुमाना शुरू किया तो ऐसा लगा कि पटवारी उनके वेग को संभाल नहीं पा रहा है, लेकिन यह तो लड़ाई की महज शुरूआत है। अभी से कुछ नहीं कहा जा सकता कि चक्के में फंसा पेंचकस उसको जाम कर देगा या खुद टूट-फूट जायेगा। बहुत सी अन्य बातों पर लड़ाई का नतीजा निर्भर करेगा। अभी तो मुझे न मामले की पूरी जानकारी है न झगड़े की शक्ल साफ़ हुई है। सिर्फ चार-छह बार पेशियों पर हाजिर होना और तारीखों का बढ़ जाना ही हाथ लगा है। इसे पूर्वजन्मों के संचित पुण्य का फल कहूं या किन्हीं पापों का फूट निकलना, मैं नहीं जानता।
यह बेशक मालूम है कि बिना आरक्षण वाली वापसी रेल यात्रा में पिताजी द्वारा सिखाया गया मूलमंत्र मैं कितना ही जपूं कि, ’बैठने की जगह मिले तो खड़े मत रहना और लेटने की गुंजाइश दिखे तो बैठे रहने से बचना’ लेकिन इसका क्या भरोसा कि भेड़ियाधसान मुझे डिब्बे के भीतर घुसेड़ कर ही चैन लेगी या गाड़ी छूट जाने के बाद प्लेटफार्म पर अटका और अगली ट्रेन की फिक्र में डूबा मैं देर तक दोहराता ही रह जाऊंगा- ‘इब्तिदाए इश्क है... रोता है क्या !
आगे आगे देखिये होता है क्या !’

Friday, October 5, 2007

धोख ही धोख

यदि जनसत्ता अखबार आप पढ़ते होंगे तो यकीनन प्रसून लतांत की लेखनी से पाला पड़ा होगा। जहां आजादी के साठ साल बाद कुछ खास न हुआ वहां इनकी कलम चलती है।
तो इनका एक लेख मौजूद है-

पिछले सप्ताह कालाहांडी में फिर से आदिवासियों के भूख से मरने की खबर बाहर आई। मीडिया के लोग वहां पहुचे तो स्थानीय नेताओं ने आदिवासियों पर दबाव बनाया कि वे मीडिया के सामने हकीकत न खोलें। मीडिया की टीम जहां पहुंचती, स्थानीय नेता भी वहां पहुंच जाते और बयान बदलवाने की हर कोशिश करते। लेकिन, आदिवासियों ने उनके मनसूबे सफल नहीं होने दिए। उन्होंने बताया कि किस तरह आनाज की आपूर्ति पिछले कुछ महीने से नहीं की गई है और उन्हें कुछ जंगली फलों और बीजों पर निर्भर रहना पड़ रहा है। क्षेत्र के विकास की स्थिति ऐसी है कि पिछले कई वर्षों से न तो यहां सड़कें हैं, न पीने का पानी, न खाने के वास्ते अनाज। सिंचाई और खेती के साधन नहीं हैं। रोजगार, चिकित्सा आदी की उचित व्यवस्था तक नहीं है। ऐसा नहीं है कि सरकार ने पैसा नहीं दिया। केंद्र सरकार ने इस क्षेत्र के विकास के लिए राज्य सरकार को 3500 करोड़ रुपए दिए, पर ये पैसे सिर्फ कागजों में ही खर्च हुए दिखाए गए। जमीनी हकीकत यही है कि पीने के पानी पर करोड़ों रुपए खर्च होने के बावजूद आदिवासी झरने और तालाबों का पानी पीकर बीमार हुए और महामारी फैली।
कालाहांडी के इस सच की तरह ही छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, झारखंड जैसे अन्य राज्यों के सुदूर आदिवासी अंचलों का यही हाल है। सुदूर जंगलों में रहने के कारण सरकारी अधिकारी, स्थानीय नेता और ठेकेदार आदिवासियों के नाम पर आने वाले पैसे गटक जाते हैं। इन्हें ऐसा करने में कोई संकोच भी इसलिए नहीं होता कि अधिकारी सुदूर और दुर्गम आदिवासी इलाके में विकास का जायजा लेने जाते ही नहीं हैं। बड़े नेता भी सिर्फ वोट के दिनों में ही जाते हैं। इसी कारण पिछले कुछ दशकों से नक्सलवाद उनके क्षेत्र में पैठ बनाता ज रहा है।
और यहां शांति से जीवन-यापन करने वाले आदिवासियों के इलाके में खून-खराबा हो रहा है। अब तो हर वह इलाका नक्सलवाद पीड़ित हो गया है जहां आदिवासी बहुतायत में रहते हैं। हिन्दी के प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह पिछले दिनों एक संगोष्ठी में यही सवाल उठा रहे थे कि आखिर क्या वजह है कि जहां आदिवासी बहुतायत में हैं वहीं नक्सलवाद पनप रहा है। सिंह मानते हैं कि संविधान में जो चीजें इन आदिवासियों के
लिए तय की गई, उन्हें केंन्द्र और राज्य दोनों ने नहीं माना। उनका कहना है कि सिर्फ अलग राज्य बना देने से उनका विकास नहीं हो सकता। उन्होंने आदिवासी क्षेत्रों की सभी तरह की समस्याओं के समाधान के लिए अकेले राज्य को जिम्मेदार बना देने के लिए केंद्र सरकार को कोसा। साथ ही यह कहा कि छत्तीसगढ़ में सलवा जुडुम माओवादियों का जवाब नहीं है।
समाजवादी रघु ठाकुर कहते हैं कि आज नक्सलवाद किसी खास विचाधारा पर जिंदा नहीं है। इसमें शामिल लोग हत्यारे हो गए हैं। उनके कारण आज जहां भी और जिसकी ओर से भी गोलियां चलाई जाती हैं उनसे मारे आदिवासी ही जाते हैं। शांति से प्राकृतिक साधनों के सहारे जीवन-यापन करने वाले आदिवासियों का इलाका आतंक के साए में आ गया है। गांधीवादी पीवी राजगोपाल कहते हैं कि नक्सलवाद से निजात पाने के लिए जरूरी है आदिवासी अंचलों के संसाधनों पर आदिवासियों का अधिकार हो और उनकी श्रम शक्ति से विकास की नई धारा शुरू की जाए। उन्होंने स्पष्ट किया कि आदिवासियों के अंचल के संसाधनों पर जिंदल घरानों का अधिकार है और आदिवासी पलायन कर पंजाब और रायपुर की सड़कों पर ईंट ढोने के काम में लगे हुए हैं।
छत्तीसगढ़ के इलाके में शंकर गुहा नियोगी ही एक नेता हुए, जिन्होंने वास्तव में आदिवासियों की नब्ज पकड़ी और उन्हें सही विकास की धारा में आगे लेकर चल पड़े थे। नियोगी की कारगर भूमिका से आदिवासियों के विकास की नई धारा शुरू हुई, पर उन्हें भी शराब माफिया ने मौत की नींद सुला दिया। नियोगी का कसूर यह था कि उन्होंने आदिवासियों को शराब से तौबा करवा कर उनकी गाढ़ी कमाई के पैसों को शराब माफिया की झोली में जाने से रोका था। नियोगी के प्रयास देश के दूसरे आदिवासी इलाके
के लिए भी विकास की मिसाल बनते जा रहे थे। आदिवासियों के विकास के लिए सिर्फ योजना बना देने से काम नहीं चलेगा, बल्कि उन्हें विकास की मुख्यधारा में लाने के पहले उपयुक्त माहौल बना देने की जरूरत है। यह काम वही कर सकते हैं जो वास्तव में दार्शनिक के साथ आदिवासियों के दोस्त और मार्गदर्शक भी हों। यह क्षमता नियोगी में थी। और यही वजह है कि उनकी आवाज पर आदिवासी संगठित होते थे और खुद में बदलाव लाने के लिए तैयार हो जाते थे। लेकिन, राज्य सरकार ने नियोगी के प्रयोगों को अमल में लाने की बजाय भ्रष्ट अधिकारियों, ठेकेदारों और अपराधियों को तवज्जो दी।
आजादी के साठ साल तक आदिवासियों के इलाके में विकास को प्राथमिकता नहीं दी गई, बल्कि उनके इलाके के संसाधनों का खूब दोहन किया गया। इतना ही नहीं, उन्हें बाहर से आए लोगों के धोखे का भी शिकार होना पड़ा। राजनेताओं ने भी जम कर उनका शोषण किया। आज जब उनके क्षेत्र में नक्सलवाद हावी हो गया है तो प्रमुख राजनैतिक पार्टियां एक- दूसरे के कार्यकाल को कोस रही हैं। पर उपाय नहीं
खोज रही हैं, जिनसे वे ठीक से जीवन-यापन भी कर सकें। लाखों आदिवासियों को जमीन के पट्टे नहीं मिले हैं और पट्टे के अभाव में उनकी जमीन भी उनके हाथ से चली जा रही है। जंगलों से तो उन्हें पहले से ही खदेड़ा जा रहा है। आदिवासी शोध संस्थानों में न जाने कितने शोध हुए, पर उनमें से किसी भी शोध को अमल में लाने की किसी भी सरकार ने जरूरत महसूस नहीं की। वे शोध आज भी धूल फांक रहे है.