एक आम आदमीकुछ अटकाव के बावजूद बहसतलब-दो कायदे का रहा। बड़ी सहजता से नाटक की दुनिया से जुड़ीं त्रिपुरारी शर्मा ने इसे समझाया भी। सवाल हुए तो बड़े उदात्त भाव से कहा, “बहस कहां हो रही है, मेरे लिए यह सवाल महत्व का नहीं है। महत्व की बात तो इतनी भर है कि आम आदमी के लिए बहस जारी है।” दरअसल यही वह बिंदु है जो बहसतलब में जान डालती है। उसके मतलब को बताती है। साथ ही उसे आगाह भी करती है।
बहरहाल, इस विमर्श के दौरान नामवर सिंह ने अपने नाम के साथ न्याय नहीं किया। ऐसा लगा कि जल्दी में आए हुए हैं। कथाकार राजेंद्र यादव के एक सवाल का जवाब देने की बारी आई तो थोड़े उलझते मालूम हुए। लगा कोई पुरानी कसर निकाल रहे हैं। राजेंद्र यादव शायद भांप गए और चुप ही रहे। आम आदमी का बहसतलब एकबारगी दो खास लोगों के अखाड़े में तबदील होता मालूम हुआ। दुर्भाग्य से अविनाश भी यही चाह रहे थे। यादव को बारंबार माइक थमा रहे थे कि वे कुछ बोलें। पर रंग गाढ़ा करने में विफल रहे। वैसे भी उक्त लोग बड़े हैं तो बात बड़प्पन में आई-गई।
अरविंद मोहन ने बताया कि आम आदमी का मीडिया किन हालातों से निपट रहा है। उन्होंने सच्चाई मानी। कई बातें इशारों में कह गए। शायद बहसतलब का संचालन कर रहे विनीत कुमार उसे पकड़ने से चूक गए। कह बैठे कि अरविंद मोहन डिफेंसिव खेल गए। यकीनन, अनुराग यहां आम लोगों से दो-चार हुए। और खूब कहा। पर सवाल करने वालों को संतुष्ट नहीं कर पाए। अजय ब्रह्मात्मज पूरी तरह आम आदमी की तरफ खड़े नजर आए।
कुल मिलाकर त्रिपुरारी शर्मा की बातें बहसतलब की उपलब्धियां रहीं। वहां न कोई आक्रामकता थी, न दंभ। न ही अपने खास होने का बोध। दरअसल आज दौर में वही तो है आम आदमी।
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