Saturday, May 29, 2010

अजीब विरोधाभास


कीर्ति चौधरी की एक कविता पढ़ें। फिर याद करें, राष्ट्रमंडल खेल के बाबत किए जा रहे विकास कार्यों को। यकीनन, अजीब विरोधाभास पाएंगे।

प्रगति

अभी कुछ ही दिन तो बीते
इधर से निकले
कैसा सुनसान था !...

और अब ये नए रास्ते हर ओर
छज्जों, बालकनियों से उठता हुआ शोर
लॉन पर खेलती
चमकदार आंखों वाली बच्ची
अजनबी चेहरे
फिजा में भी
जिंदगी के बोल जैसे घुले-मिले।
अभी कुछ ही दिन तो बीते
इधर से निकले।
इतने में ही कोई बस्ती बस गई,
लगता है।

आज कीर्ति चौधरी होतीं तो इस विकास पर क्या कहतीं।

Saturday, May 1, 2010

मेरे राम


तुमसे इक प्रश्न पुछूं
मेरे राम
तुमने स्वयं क्यों नहीं दी
अग्निपरीक्षा
.......
तुम्हारी चलाई इस परंपरा में
आज भी कितनी औरतों को
देनी पड़ रही हैं अग्निपरीक्षाएं
.....
इतिहास दुहरा रहा है स्वयं को
अंतहीन-सीमाहीन
तुम्हें कैसे मांफ कर दूं
मेरे राम

अरसा पहले इस कविता को कहीं पढ़ा था। इस तस्वीर को देख फिर याद आ गई।
सो तस्वीर और कविता साथ-साथ।