Friday, September 16, 2011

एक तस्वीर



20 महीने के नन्हें बच्चे को दूध पिलाती गाय। यह तस्वीर कंबोडिया की है।

Friday, September 9, 2011

‘वंदे मातरम्’ एक अवतारी गीत


अन्ना हजारे के आंदोलन से यह भी निकला है कि पीढ़ी चाहे कोई भी हो, ‘वंदे मातरम्’ हमारे जीवन में गहरे बैठा है। इसका किसी को प्रमाण चाहिए तो वह राजधानी दिल्ली के नजारे को देख ले। पिछले दिनों यहां अदभुत नजारा था। जो गीत समारोहों में सिमट गया था वह नया प्रतीक बनकर फिर से उभरा है। कभी यह लोकमानस में राष्ट्रवाद का द्योतक था।

इस गीत का इतिहास निराला है। यह प्रारंभ में वंदना गीत था। बंकिमचंद्र ने इसे 1870 में रचा। उस समय उनके लिए यह रचना एकांत साधना थी। उसके ग्यारह साल बाद ‘आनंद मठ’ में उन्होंने इसे छपवाया। उपन्यास के छपते ही इसे अनूठी रचना मानी गई। वंदे मातरम् की छवि युद्धघोष की बनी, लेकिन वंदे मातरम् को वे ही जानते थे जिन्होंने आनंद मठ पढ़ा था। सालों बाद बंग-भंग के विरोध में जो स्वदेशी की लहर पैदा हुई उसपर वंदे मातरम् तैरने लगा। उस आंदोलन में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने वंदे मातरम् को लोकप्रिय बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई। 1905 में रक्षाबंधन के दिन निकले जुलूस का उन्होंने नेतृत्व किया। उससे पहले 1896 में वे कलकत्ता कांग्रेस में वंदे मातरम् गा चुके थे। 1905 से 1908 का समय वंदे मातरम् से गूंजता रहा। कैसे कोई गीत लोकमानस में प्रवेश करता है यह कहानी ही वंदे मातरम् के विकास की यात्रा है। यह वह गीत है जो पुस्तक में कैद होकर नहीं रह सका। उसी दौर में यह राष्ट्रीयता को समझाने का जरिया बना। राष्ट्रवादियों ने अंग्रेजी सत्ता से लड़ने का इसे अस्त्र माना। वही दौर है जब अरविंद घोष ने अपनी कल्पना शक्ति का चमत्कार दिखाया और इसके रचयिता बंकिमचंद्र चटर्जी को ‘राष्ट्रवाद का ऋषि’ घोषित किया।

उसी समय में बनारस कांग्रेस हुई। उसके अधिवेशन में वंदे मातरम् को सरला देवी ने गाया। जो रवीन्द्रनाथ टैगोर परिवार की थी। इस तरह एक गीत राष्ट्रवादियों के लिए नारा बनकर उभरा। उस समय के राष्ट्रवादी नेता इसे देश-भक्ति के नए धर्म का मंत्र समझते और बताते थे। अरविंद घोष उसी दौर में वंदे मातरम् पत्रिका का संपादन भी करते थे। जिसे राजद्रोह के आरोप में अंग्रेजों ने जब्त कर लिया। वही समय है जब वंदे मातरम् ने दक्षिण की यात्रा की। तमिल के महान कवि सुब्रह्मण्यम भारती ने 1905 में ही इसे अपनी भाषा में अनुदित किया। उसके बाद तो अनुवादों का क्रम चल पड़ा। मराठी, मलयालम, तेलगू आदि भाषाओं में वंदे मातरम् राष्ट्रीयता का वाहक बनकर पहुंचा। 1915 में मोहनदास करमचंद गांधी जब महात्मा नहीं बने थे तब मद्रास की एक सभा में वंदे मातरम् सुनकर बोले कि ‘आपने जो सुंदर गीत गाया उसे सुनकर हम सब एकदम उछल पड़े। यह हम आप पर है कि कवि ने मातृभूमि के बारे में जो कहा है उसे साकार करने की कोशिश करें।’

आजादी की लड़ाई में जहां वंदे मातरम् भारत भक्ति का माध्यम बना। वहीं एक समय ऐसा आया जब उसमें मूर्ति पूजा के तत्व लोग देखने लगे। उसपर पहला विवाद जिन्ना ने उठाया। जिसे मुस्लिम लीग ने अपने विरोध का मुद्दा बना लिया। आजादी की लड़ाई में मुस्लिम लीग ने वंदे मातरम् का प्रबल विरोध किया। कांग्रेस ने उसे मुस्लिम समाज की भावना से जोड़कर देखा। जिसके कारण जवाहरलाल नेहरू समिति की सिफारिश पर कांग्रेस ने 1937 में इसके कुछ अंशों को निकाल दिया। उस काट-छांट के बाद कांग्रेस ने इसे राष्ट्रगान के रूप में अपनाया। तब से ही वंदे मातरम् पर राजनीतिक विवाद की छाया बनी हुई है। वह उसके साथ चलती रहती है। लेकिन कांग्रेस ने जिन्ना को मुस्लिम समाज का अकेला प्रतिनिधि माना जबकि उसी समय रिजाउल करीम ने 1930 में ‘वंदे मातरम् और आनंद मठ’ की समीक्षा में लिखा कि ‘यह गूंगा को जबान और कलेजे के कमजोर लोगों को साहस देता है।’
उन्होंने यह भी लिखा कि बंकिमचंद्र ने इस गीत से देशवासियों को चिरकालिक उपहार दिया। उस विवाद को परे रखते हुए संविधान सभा ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की पहल पर जन-गण-मन के साथ इसे भी राष्ट्रगीत का दर्जा दिया।

मानना होगा कि तमाम विवादों के बावजूद वंदे मातरम् में अवतारी क्षमता है। यह अन्ना हजारे के आंदोलन में प्रकट हुई। अन्ना हजारे ने भी विवादों की परवाह नहीं की और वंदे मातरम् को प्रेरणा का नया स्रोत बना दिया। यह प्रकट हुआ कि वंदे मातरम् राष्ट्रीय संस्कृति की गीत रूप में धरोहर है। कोई भी गीत एक सांस्कृतिक कला तथ्य होता है। उसपर राजनीतिक विवाद नजरिए के कारण पैदा किया जाता है। जो उसे स्वदेशी, राष्ट्रीयता और देशभक्ति का प्रतीक मानते हैं उनके लिए वंदे मातरम् मंत्र है। मंत्र वही होता है जिसे समय-समय पर सिद्ध करना पड़ता है। जवाहरलाल नेहरू और जिन्ना को इसमें सांप्रदायिकता दिखी। यह उनकी अपनी राजनीतिक भूमिका थी।


ऐसा भी नहीं है कि अन्ना हजारे ने बहुत दिनों बाद वंदे मातरम् को जन-जन की जुबान पर ला दिया हो। 1997 में ए.आर. रहमान इसे अपने सुरताल में बांधा। 2002 में बीबीसी विश्व सेवा के 25 हजार श्रोताओं ने इसे भारत के दो सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों में से एक माना। अन्ना हजारे के आंदोलन ने वंदे मातरम् को एक नया अर्थ दिया है। जाहिर है कि वंदे मातरम् का अर्थ हमेशा इस पर निर्भर करता रहा है कि किस समय और किस उद्देश्य से इसका उपयोग किया जा रहा है। अन्ना की आंधी में यह देश में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के नए संकल्प का शंखनाद हो गया है। इस गीत के अतीत की गौरवशाली स्मृतियां अब हमारे वर्तमान को गढ़ने जा रही है।
(वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय)

Thursday, September 8, 2011

कैद में मोहम्मद साहब के पद चिन्ह


मोहम्मद साहब के पद चिन्ह>

आज हम जहां सैर पर हैं, वह फिरोजशाह के बेटे फतेहशाह की कब्रगाह है। यह इसलिए भी पाक मानी जाती है, क्योंकि यहां मक्का से मंगवाए गए वे पत्थर लगे हैं जिसपर मोहम्मद साहब चला करते थे। 13वीं शताब्दी में फिरोजशाह ने अपने आध्यात्मिक सलाहकार मखदूम जेहान गश्त से इस पत्थर को मक्का से मंगवाया था। वह इसे अपनी कब्र पर लगवाना चाहता था, लेकिन संयोग था कि फिरोजशाह से पहले उसके बेटे फतेहशाह की मृत्यु हो गई। और वह पवित्र पत्थर उसी की कब्र पर लगा दी गई।

खैर, आज इस जगह पर चित्रगुप्त मार्ग और ऑरिजनल रोड से पहुंचा जा सकता है। यह पहाड़गंज से आगे कुतुबमार्ग पर सदर बाजार की तंग गलियों में है और ‘कदम शरीफ’ के नाम से मशहूर है जो कई दरवाजों से घिरी इमारत है। यहां एक मस्जिद भी है। फिरोजशाह ने तो यहां एक मदरसा भी बनवाया था जो अब अस्तित्व में नहीं है। प्रचलित है कि इस इमारत को फिरोजशाह ने अपनी कब्रगाह के तौर पर बनवाया था ताकि उसे यहां दफनाय जा सके। इमारत के एक छोर पर एक गुंबद युक्त छोटी इमारत का निर्माण कराया गया था। इसके मध्य में एक आयताकार कब्र बनाई गई थी जो फिरोजशाह के लिए थी।

इतिहासकारों का कहना है कि फिरोजशाह बड़ा ही धार्मिक व्यक्ति था। उसने संत मखदूम जेहान को मक्का भेजा था ताकि वहां से हजरत मोहम्मद का लबादा लाया जा सके। पर मखदूम इस काम में असफल रहे। उन्होंने फिरोजशाह को बताया कि हजरत मोहम्मद की ऐसी बहुत सी चीजें हैं जिसे खलीफा अपने-आप से अगल नहीं करना चाहते हैं। इसके बाद फिरोजशाह ने ढेर सारे तोहफे के साथ उन्हें फिर मक्का भेजा। इससे प्रभावित होकर खलीफा ने मोहम्मद के पैरों के निशान वाले पत्थर फिरोजशाह को भिजवाए। इस पत्थर को फिरोजशाह अपनी कब्र पर लगाना चहाता था। पर यह हो न सका। दरअसल, फिरोजशाह के बेटे फतेहशाह ने अपने पिता से वादा लिया था कि उसकी कब्र पर उक्त पत्थर लगाए जाएंगे। दुर्भाग्य से जब ऐसा हुआ तो फतेहशाह को वहीं दफनाया गया जिसे फिरोजशाह ने अपने लिए बनवाया था और उसकी कब्र पर उन पत्थरों को लगा दिया गया। इसके बाद वह दरगाह कदम शरीफ कहलाया।

पहले दारा सिकोह और फिर जयसिंह की सेना में रहा एक इतालवी लेखक निकोलो मोन्युकी ने अपनी किताब ‘स्टोरिया दी मुगल’ में लिखा है कि कदम शरीफ को हजरत मोहम्मद के पदचिन्ह को रखने के लिए बनवाया गया था। और वह 17वीं शताब्दी में मस्लमानों द्वारा दर्शन किए आने वाले सबसे प्रमुख तीर्थस्थलों में था। पुस्तक में यह भी कहा गया है कि मुगल बादशाह औरंगजेब ने इस जगह को अपने धार्मिक उद्देश्य के लिए भी इस्तेमाल किया था।


फतेहशाह की कब्रगाह>

मुसलमानों की यह पवित्र दरगाह महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर है, लेकिन आज बदहाली के कगार पर है। हालांकि यह पुरातत्व विभाग के अधीन नहीं। एक मुस्लिम परिवार इसकी देख-रेख करता है। अंदर प्रवेश करने पर पूरी जमीन कबूतरों की गंदगी से भरी पड़ी दिखती है। फतेहशाह की कब्र पर भी धूल जमे हुए हैं। यहां पवित्र पत्थर कोई अता-पता नहीं है। वहां रहने वाले जहीर से पूछा तो उसने कहा, “1947 के दंगों में दंगाइयों ने इस पत्थर को निकाल दिया था। तभी से वह हमारे पास है।” कहने पर वह उस पवित्र पत्थर को दिखाता भी है। हालांकि आसपास के लोग अलग राय रखते हैं। वे कहते हैं कि सरकारी विभागों की अनदेखी के कारण इन लोगों ने यहां कब्जा जमा रखा है। गौर करें कि यह इमारत उसी फिरोजशाह ने बनवाई थी जिसने दिल्ली को न सिर्फ खूबसूरत बनाया, बल्कि जब कोई पुरातत्व विभाग नाम की चीज नहीं थी तब भी कुतुबमीनार जैसी ऐतिहासिक इमारतों का जीर्णोद्धार करवाया था। आज सबकुछ है। इसके बावजूद यह पवित्र इमारत उपेक्षित है। गंदगी में सनी हुई।

(श्रुति अवस्थी की खास रपट)

Tuesday, September 6, 2011

हारा मन फुदकन में खोजे चेतन


अन्ना हजारे ने जो कार्यक्रम चलाया, उसमें जनता की बहुत भागीदारी रही। विशेषकर नया मध्यवर्ग शहरों में मुखरित हुआ। और वह सक्रिय है। अभी जो कुछ हुआ है उसपर कई तरह की प्रतिक्रियाएं आई हैं। इसे आंदोलन माना जा रहा है। निजी तौर पर अभी मैं इसे कोई आंदोलन नहीं मानता हूं। हां, इसे एक कैंपेन जरूर कहूंगा। जो अन्ना हजारे के व्यक्तिगत अनुभव, उनकी सोच और सामाजिक जिम्मेदारी के आधार पर शुरू हुआ। आज देश के हजारों-लाखों लोगों के मन में बस एक ही सवाल है जो मूलत: भ्रष्टाचार से जुड़ा है। निश्चय ही इस सवाल को सार्वजनिक बनाने में अन्ना का बढ़ा योगदान रहा।

इस कैंपेन की विशेषता ही है कि वह वर्तमान व्यवस्था, सरकार और नेतृत्व के प्रति गहरा शक पैदा करता है और एक तरीके के घबराहट को भी जन्म देता है। यानी यह डिसट्रक्ट भी है और मिसट्रक्स भी। आप देखेंगे कि महात्मा गांधी ने समय-समय पर अंग्रेजों की काफी आलोचना की। इसके बावजूद यह कहा कि हम इनपर भरोसा कर सकते हैं। दरअसल, उनके मन में यह बात कहीं-न-कहीं गहरे बैठी थी कि ब्रिटिश सरकार आपसी सहमति के बाद जिस किसी नतीजे पर पहुंचेगी अंततोगत्वा उसका क्रियान्वयन जरूर करेगी। आज इसपर भी संकट खड़ा हो गया है। सरकार और नेतृत्व पर कोई यकीन करने को तैयार नहीं है। निश्चय ही इसमें कसूर व्यवस्था चलाने वालों का है और यह उनकी बड़ी असफलता है। मैं यह भी कहुंगा कि इस आंदोलन में जो लोग अन्ना के साथ बातचीत कर रहे थे वे राजनैतिक तौर पर परिपक्व नहीं थे। यह देश का दुर्भाग्य ही है।


यह अन्ना का पहला राष्ट्रीय अभियान है। वैसे तो अन्ना अबतक 14 कैंपेन चला चुके हैं। इनमें चार-पांच स्थानीय स्तर के रहे है। कुछेक सूचना के अधिकार कानून को लेकर उन्होंने चलाए थे। पर राष्ट्रीय स्तर पर उनका यह पहला अनुभव है। इसलिए उनकी अपनी सीमा भी है जो उनके अंदर निहित है। हमने देखा कि 28 अगस्त को जो कैंपेन सम्पन्न हुआ, वह उसे अभिव्यक्त भी कर रहा था। उन्हें इस बात का शायद अंदाजा भी नहीं था कि पूरे भारत में लोग उठ खड़े होंगे। यहां एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि व्यवस्था परिवर्तन पर वैकल्पिक व्यवस्था के बारे में भी उन्होंने कोई रूपरेखा नहीं दी है। न ही इस बारे में कोई जानकारी दी है। फिलहाल वे केवल राजनैतिक स्तर पर ही सुधार की बात कर रहे हैं। वह भी केंद्रीय स्तर पर। दूसरी बात यह कि इस कैंपेन में राजनैतिक संभावनाएं काफी कम हैं, क्योंकि जबतक यह उबाल कोई नेतृत्व पैदा नहीं करता है तबतक इस बात की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है। हालांकि इसने जनता को जागृत कर दिया है, लेकिन बुनियादी तबदीली के लिए कोई नेतृत्व ही नहीं है।

सामाजिक स्तर पर भी जो कुप्रथाएं हैं और उसकी वजह से जो भ्रष्टाचार है, उसे किसी कानून से खत्म करना मुमकिन नहीं है। इसके लिए तो सामाजिक सुधार की जरूरत पड़ती है। स्वतंत्रता आंदोलन के समय गांधीजी ने सामाजिक सुधार को लेकर कई प्रयोग किए थे। साथ ही रचनात्मक कार्यों पर बल दिया था। लेकिन इस कैंपेन में सामाजिक आंदोलन की कोई प्रवृति हमें दिखाई नहीं पड़ती है। यहां उपवासों के माध्यम से समाज की चेतना को कुरेदकर सुधार लाने का पहली बार प्रयास किया गया है। वह भी ऐसे व्यक्ति द्वारा जिसकी क्षमता अबतक स्थानीय और राज्य स्तर की चुनौतियों से लड़ने की रही है। यह उनका अवगुन नहीं है, बल्कि सीमा है। जिससे ‘आगे देखो’ जैसी सोच की संभावना यहां नहीं दिखती है। वैसे कई बातें कही गई हैं, फिर भी कोई स्पष्ट विचार या सोच उभरकर सामने नहीं आ रहा है। न तो अन्ना में और न ही उनके सहयोगियों में। हां, इस कैंपेन से प्रभावित होकर समाज के अंदर से वैसे प्रभावी लोग आगे आ जाएं तो बात अलग है। दरअसल जो समाज 64 साल से कभी बोला ही नहीं, वह अब बोल रहा है। हिंदुस्तान में जो हारे हुए और निराश लोग हैं उन्हें इससे एक अवसर नजर आया है। यहां एक कविता याद आती है, “हारा मन फुदकन में खोजे चेतन।”
इतने के बावजूद भारत में सिविल सोसाइटी का अपना महत्व है। वह स्थानीय स्तरों पर विभिन्न समय और रूपों में सक्रिय रहा है। मैं मानता हूं कि सिविल सोसाइटी का सरकार में दखल कम होना चाहिए। पर जब राजनैतिक हालात इतने खराब हो जाएं कि वह अपना काम ही न कर सके तो उन्हें बाहर आना पड़ता है। गत 50 सालों के राजनीतिक चलन से ऐसी स्थिति बनी कि सिविल सोसाइटी को सरकार में दखल देना पड़ा है। इस बिंदु पर अन्ना ने ऐतिहासिक काम किया है। लेकिन सिविल सोसाइटी की तासीर ऐसी होती है कि वह निरंतर कोई देशव्यापी आंदोलन नहीं चला सकता है। इसके लिए तो नेतृत्व की जरूरत होती है। आज इसपर विचार करने का समय है कि इन परिस्थितियों में सिविल सोसाइटी किस तरह इसे आगे ले जाएगी। यह जिम्मेदारी राजनीतिक पार्टीयों की भी है कि वह इसे नेतृत्व प्रदान करे, पर फिलहाल इसकी संभावना नहीं दिख रही है।

दरअसल, इसके अंदर जो संभावनाएं हैं उसे समझने की क्षमता आज के नेतृत्व में नहीं दिख रही है। न ही अभी कोई तिलक, गांधी या फिर आंबेडकर निकलता दिखाई दे रहा है। गत 47 दिनों में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों में करीब 300 आलेख आ चुके हैं। यह समाज के सजग होने की निशानी जरूर है, पर इसमें भी नई सोच के बीज अभी तक नहीं दिख रहे हैं। फ्रांस और रूस की क्रांति हुई तो कई नई प्रतिभाएं सामने आईं। राजनीति के साथ-साथ कला, साहित्य पर भी उसका प्रभाव पड़ा। अन्ना हजारे के इस आंदोलन का अभी वह प्रभाव नहीं है। सरकारी स्तर पर कुछ कमजोरियां निकलकर आ रही हैं, यह उसी पर केंद्रित है। इसमें विद्यार्थियों की भागीदारी जरूर रही, पर दूसरे छात्र आंदोलनों से इसकी तुलना करें तो इसमें वे लक्षण हमें नहीं मिलेंगे। कुल मिलाकर इससे सामाजिक चेतना की ऐसी कोई जमीन अभी नहीं बनी है जिससे नया पौध निकल आए।

(अन्ना आंदोलन पर मशहूर पत्रकार देवदत्त के विचार)