सरकार को खूबसूरत दिल्ली दिखाना है। इस बहाने हक की लड़ाई लड़ने वालों को महानगर से हटाया जा रह है। कई दिन हुए जंतर-मंतर का वजूद खत्म कर दिया गया। सरकार के खिलाफ अब यहां कोई चौबीस घंटे आवाज नहीं उठा सकता। ऐसा लगता है कि यहां से मुखर होता असहमति का स्वर मनमोहन सरकार को अब अच्छा नहीं लगता है। यह लोकतंत्र के लिए घातक है।
पुराने लोग बताते हैं कि यह दृश्य आपातकाल की उन परिस्थितियों से मिलता है, जब संजय गांधी को दिल्ली जहां कहीं गंदी दिखी, उसे उजाड़ दिया गया। खेल की आड़ में जंतर-मंतर साफ करा दिया गया। लोग कह रहे हैं, “आखिर यह कैसा लोकतंत्र है, जहां सरकार अहिंसक प्रतिरोध से भी डरती है। यकीनन यह घोषित आपातकाल नहीं है, पर एक बदतर लोकतंत्र है। ”
गत 20-25 वर्षों से जंतर-मंतर राजधानी में अभिव्यक्ति का बड़ा केंद्र रहा है। यह लंदन के उस हाइड पार्क जैसा मशहूर हो रहा था, जहां आम आदमी सरकार के किसी फैसले के खिलाफ मुखर विरोध करता है। लंदन में अभिव्यक्ति का वह केंद्र अब भी सुरक्षित है। दिल्ली में यह केंद्र गत साठ वर्षों में अपनी जगह बदलता रहा है।
सन् 1951 में दिल्ली से लगे क्षेत्रों के किसानों ने संसद भवन को चारों तरफ से घेर लिया था। संसद के गेट नंबर एक को जाम कर दिया। वे लोग भूमि अधिग्रहण का विरोध कर रहे थे। तब से प्रदर्शन का स्थल पटेल चौक कर दिया गया। अगले 15 सालों तक यही चौक अभिव्यक्ति का बड़ा केंद्र रहा।
पर, 7 नवंबर, 1966 को गोवध विरोधी रैली के दौरान हुई गोलीबारी के बाद वोट क्लब ने यह स्थान ले लिया। लोग बताते हैं कि उस दिन अटल बिहारी वाजपेयी ने जैसे ही अपना भाषण शुरू किया, उसी समय पहले आंसू गैस के गोले छोड़े गए। फिर गोली चली। खैर, इस घटना के बाद सन् 1986 तक वोट क्लब ही जमावड़ा स्थल रहा। जब वहां किसानों ने अभूतपूर्व प्रदर्शन किया तो इस जगह को भी हटा दिया गया। इसके बाद से ही जंतर-मंतर आबाद था। वैसे, रामलीला व लालकिला मैदान का भी अपना इतिहास है।
देश के तजुर्बेदार लोग कहते हैं लोकतंत्र मजबूत हो रहा है। इसकी जड़ें गहरी हो रही हैं। पर, उस लोकतंत्र का भविष्य क्या होगा, जहां असहमति के स्वर को मुखर होने से रोका जा रहा है। अब रात होते ही जंतर-मंतर पर पुलिस को देख कुत्ते भी शोर मचाने लगते हैं। आखिर उन्हें खाना देने वालों को इन लोगों ने भगाया है। अपराध तो बड़ा है।
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