Saturday, February 28, 2009

कलियुग को नज़ीर ने कुछ यूं देखा


दीवान पर नामवर सिंह के एक लेख को पढ़ने के बाद नज़ीर अकबराबादी तत्काल याद आ गए। कहा जाता है कि भाषा के स्तर पर उन्होंने अज़ान भी दी और शंख भी फूंका। खैर,
कलियुग पर लिखी उनकी चार पंक्तियां यूं हैं-

अपने नफ़ेके वास्ते मत और का नुक़सान कर।
तेरा भी नुक़सां होयगा इस बात ऊपर ध्यान कर।
खाना जो खा तो देखकर, पानी जो पी तो छानकर।
यां पांव को रख फूंककर और खौफ़ से गुज़रान कर।

कलयुग नहीं कर-जुग है यह, यां दिनको दे और रात ले।
क्या खूब सौदा नक़्द है, इस हाथ दे उस हाथ ले।।

Wednesday, February 25, 2009

गांधी क्यों लौट-लौट आते हैं?


सराय /सीएसडीएस से जुड़े रविकान्त का लेख पढ़ें। साथ ही गांधी के अगल-बगल होने का एहसास करें

आशिस नंदी ने अपने एक मशहूर लेख में बताया था कि गांधी को मारनेवाला सिर्फ़ वही नहीँ था जिसकी पिस्तौल से गोली चली थी, बल्कि इस साज़िश को हिन्दुस्तानियोँ के एक बड़े तबक़े का मौन-मुखर समर्थन हासिल था। सत्ता की राजनैतिक मुख्यधारा के लिए वे काँटा बन चुके थे, और चालीस के दशक में उनके अपने चेलोँ ने ही उन्हें हाशिए पर सरका दिया था, क्योंकि बक़ौल पार्थ चटर्जी, राष्ट्र अपनी मंज़िल के क़रीब आ चुका था। पर हम सुमित सरकार के हवाले से यह भी जानते हैँ कि गांधी की जीवन-ज्योति बुझने से ठीक पहले अपनी दिव्य प्रदीप्ति भी छोड़ जाती है, जब बटवारे के दुर्दांत दृष्टांत में कोई और हिकमत काम नहीं आती तो गांधी का खटवास-पटवास ही काम आता है। कहा जा सकता है कि अपने ही लोगों के ख़िलाफ़ हुई अपनी आख़िरी जंग में हिन्दुस्तानी रिवायतों की रचनात्मक पुनर्परिभाषा करनेवाले गांधी के अपने सांस्कृतिक स्रोत सूखते नज़र आते हैं - ख़ासकर तब जब हम उन्हें महिलाओं को बेइज़्ज़ती की आशंका पर प्राणोत्सर्ग की हिमायत करते देखते हैं। बहरहाल दिलचस्प है कि उनके अपने प्रणोत्सर्ग ने असंभव को संभव कर दिखाया और इस तरह गांधी ने बटवारे के समय मरकर एक ज़ोरदार कमबैक दिया, और यह सिलसिला थमा नहीं है।

तो गांधी हमारे कमबैक किंग सिर्फ़ इसलिए नहीं हैं कि उनके आचार-विचार और आदर्श-व्यवहार अपने रूपकार्थ में आज भी हमें रोशनी और हौसला देते हैं, बल्कि इसलिए भी हम उनके सुझाए विकल्पोँ से बेहतर विकल्प अपने लिए नहीं ढूँढ पाए हैं। मसलन जब पश्चिम की अपनी हिंसक मुठभेड़ के संदर्भ में जब देरिदा मिल-जुलकर जीने की कला और सहिष्णुता का पाठ पढ़ाते हैं तो हमारे लिए गांधी का याद आना स्वाभाविक है, क्योंकि वे भी कुछ वैसा ही कह रहे थे। और हम इसमें न तो अकेले हैँ, न ही पहले। गांधी की वैश्विक पहुँच और स्वीकृति थी और रहेगी: गांधी-स्मृति जा‌इए, जनसत्ता में सुधीर चंद्र के कॉलम पढ़िए, या थोड़ा इंटरनेट पर घूमिए तो पाएँगे कि लोग आज उन्हें पर्यावरण से लेकर प्रौद्योगिकी तक के इलाक़ों में
पुनर्मिश्रित और पुनर्व्याख्यायित कर रहे हैं, उनके जीवन-प्रसंगोँ की नई तर्जुमानी हो रही है, और उन औज़ारों के ज़रिए उनका पुनराविष्कार हो रहा है, जिनसे शायद उनको ख़ुद बहुत लगाव नहीं था। आप शायद कहें कि गांधीगिरी, गांधीवाद नहीं है। बेशक, पर शाहिद अमीन के चौरी-चौरा के किसानों से पूछिए कि क्या उन्होंने गांधी को उल्टा नहीं घिसा था? हम सबके अपने-अपने गांधी इसलिए हैं कि हमें उनसे जूझना ही पड़ता है, ऐसी उनकी अनुपस्थित उपस्थिति है, ऐसा महात्म्य है
उनका।

Monday, February 23, 2009

दिल है छोटा सा, छोटी सी आशा...


मजे की बात है कि स्लमडाग मिलिनेयर के संगीत व गीत के लिए एआर. रहमान को दो एकेडमी अवार्ड्स प्रदान किए गए। इससे हम हिन्दुस्तानी बड़े गदगद हैं। यह ठीक भी है। आखिर उन्हें भी समझ में आना चाहिए था कि यहां के संगीतकार भी ठोक-बजाकर काम करते हैं। यूं ही सिर का बाल बढ़ाकर रंग नहीं जमाते।

बहरहाल, मुंबई की झुग्गियों की जीवन-शैली पर बनी इस फिल्म ने लोस एंजल्स में खूब पुरस्कार बटोरे। एकबारगी ऐसा लगा कि गत 80-90 वर्षों के दौरान बालीवुड में जो बना वह तो कचरा ही रहा, जबकि डैनी बॉयल ने यहां की झुग्गियों में तफरीह कर जो देखा और बनाया मात्र वही बेहतरीन था।

लेकिन, मात्र एक उदाहरण इस धारणा को झुठलाने के लिए बहुत है। ठीक उसी तरह जैसे फिल्म इकबाल में इकबाल के लिए पांच मिनट ही काफी था। रहमान ने वर्ष 1992 में पहली बार बालीवुड में कदम रखा। उन्होंने फिल्म रोजा के –
दिल है छोटा सा, छोटी सी आशा...
चांद तारों को छू लेने की आशा
आसमानों में उड़ने की आशा।

जैसे बेहतरीन गीत को संगीतबद्ध किया। हालांकि रुचि और पसंद तो निजी है। पर व्यक्तिगत राय यही है कि ये गीत जय हो... से कहीं भी कमतर मालूम नहीं पड़ते। मामला कल्पना के नए दरवाजे खोलने का हो या फिर छोटे-छोटे शब्दों में बड़े-बड़े अर्थ घोलने का।

फिल्म रोजा आतंकवाद की मार झेल रहे राज्य (जम्मू कश्मीर) में आए एक आम आदमी की कहानी थी। तब अमेरकियों के वास्ते इस शब्द का कोई औचित्य नहीं था। तो भई काहे का अवार्ड! अब जब हालात बदलें हैं। तंगी छाई है तो बालीवुड याद आया है। यहां के आंचलिक संगीत उन्हें कर्णप्रिय लग रहे हैं। जब अपने रंग में थे साहब तो मदर इंडिया को नजरअंदाज करने में उन्हें जरा भी वक्त नहीं लगा था।

रही बात गुलजार साहब की तो भई, उनसा कोई दूसरा न हुआ, जो फिल्म निर्माण से लेकर त्रिवेणी लिखने तक समान पकड़ रखता हो। यकीन न हो तो देश-विदेश में नजर फिरा लें।
खैर, इसपर विस्तार से बात होगी।
शुक्रिया

Thursday, February 19, 2009

मदर्से की लड़कियों की दुआ


न्यूज रूम में अकसर खबर आती थी कि पाकिस्तान के फलां इलाके में लड़कियों के स्कूल तबाह कर दिए गए तब अख़्तर शीरानी खूब याद आते थे।
मदर्से की लड़कियों की दुआ उनकी कलम से यूं निकली-

यारब, यही दुआ है तुझसे सदा हमारी।
हिम्मत बढ़ा हमारी, क़िस्मत बना हमारी।।
तालीम में कुछ ऐसी हम सब करें तरक्की।
गैरों की इन्तहां भी हो इब्तदा हमारी।।
पढ़ लिखके नाम पाएं, कुछ काम कर दिखाएं।
तेरे हुजूर में हैं यह इल्तजा हमारी।

शीरानी का अपना अंदाज है। उनके कहे में तह की चीजें भी वहां साफ नजर आती हैं।

Saturday, February 14, 2009

उत्तरप्रदेश से लोकसभा में चुनकर आए मुसलिम प्रतिनिधि

इन दिनों देश में 15वीं लोकसभा चुनाव की तैयारी चल रही है। इस बाबत भाजपा के पूर्व नेता कल्याण सिंह और सपा के बीच हुए राजनीतिक गठजोड़ ने उत्तर भारत की मुसलिम राजनीति को नए मोड़ पर ला खड़ा किया है। उत्तरप्रदेश में लोकसभा की कुल 80 सीटें हैं। दिल्ली की सत्ता में किस पार्टी की कितनी हैसियत होगी ! इसे तय करने में यह प्रदेश बड़ी भूमिका अदा करता है।

वर्ष 2001 में हुई जनगणना के मुताबिक राज्य में मुसलमानों की जनसंख्या राज्य की कुल आबादी का 17.33 प्रतिशत है। ऐसे में मुसलिम मतदाताओं का सभी पार्टियों के लिए खास महत्व है। हालांकि उनका महत्व पहले भी रहा है, जिसका मुसलिम ठेकेदारों व धर्मनिरपेक्षता का बांग देने वाली पार्टियां सत्ता पाने के लिए मनमाफिक इस्तेमाल करती रही हैं। राम मंदिर आंदोलन (1991) से जो स्थितियां बनी उसने इन पार्टियों का काम और भी आसान कर दिया।

खैर, यह अलग मसला है। मूल बात यह है कि वर्ष 1980 को छोड़कर राज्य में संख्या के औसत के हिसाब से मुसलिम प्रतिनिधि नहीं चुने जा सके हैं। यहां मुसलिम बहुल इलाकों से मुसलिमों को टिकट देने का चलन भर सभी पार्टियों ने अख्तियार कर रखा है।

राज्य में कांग्रेस पार्टी का आधार कमजोर होने और राममंदिर आंदोलन के बाद मुसलिम वोटर समाजवादी पार्टी के लिए एक लाटरी के रूप में सामने आए। हालांकि, इससे पहले सातवें (1980) और आठवें (1984) लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी से 11-11 उम्मीदवार मुसलिम समुदाय के चुनकर आए थे।

अब जब राम मंदिर आंदोलन का असर कम हो गया है तो प्रदेश में सांप्रदायिकता की आंच पर वोट पाना किसी भी पार्टी के लिए मुश्किल हो गया है। ऐसे में पिछड़े वोटरों को एक साथ करने के इरादे से कल्याण सिंह और सपा ने साथ-साथ चुनाव में उतरने का फैसला किया है। मायावती इस गठबंधन के बहाने मुसलमानों को अपने पक्ष में करने की कोशिश में लगी हैं, जबकि कांग्रेस नए रास्ते तलाश रही है।

दूसरी तरफ इस गठबंधन से प्रदेश के कई मुसलिम नेता खासे नाराज हैं। ऐसी संभावना बन रही है कि इस दफा उनका वोट बैंक दूसरी करवट ले सकता है। यदि ऐसा होता है तो धर्मनिरपेक्षता के नाम पर ठगे जा रहे इस समुदाय के पास अपने सही नुमाइंदों को चुनने का मौका मिल सकता है। अब देखना है कि प्रदेश का मुसलिम मतदाता एक बार फिर किसी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का शिकार बनता है या अपनी मर्जी का उम्मीदवार चुनता है। आखिर फैसला तो उन्हें ही करना है।
लोकसभा में चुनकर आए मुसलिम प्रतिनिधियों के आंकड़े-



पहले लोकसभा (1952) चुनाव में उत्तरप्रदेश से चुनकर आने वाले प्रतिनिधि-
लोकसभा क्षेत्र का नाम
मुरादाबाद- हफिजुर रहमान इंडियन नेशनल कांग्रेस
रामपुर-बरेली- अबुल कलाम आजाद ,,
मेरठ (उत्तर पूर्व)- शाह नवाज खान ,,
फर्रुखाबाद - बशिर हुसैन जैदी ,,
सुल्तानपुर - एम. ए. काजमी ,,
बहराइच (पूर्व)- रफि अहमद किदवई ,,
गोंडा (उत्तर) - चौधरी एच. हुसैन ,,

दूसरे लोकसभा चुनाव-(1957)
लोकसभा क्षेत्र का नाम
मेरठ- शाह नवाज खान (इंडियन नेशनल कांग्रेस)
बिजनौर- अब्दुल लतीफ ,,
अमरोहा - हफिजुर रहमान ,,
रामपुर - राजा सईद अहमद मेहि ,,
अलीगढ़ - वाय. जमाल ख्वाजा ,,
फतेहपुर - अंसार हरवानी ,,

तीसरे लोकसभा चुनाव-(1962)
लोकसभा क्षेत्र का नाम
अमरोहा- हफिजुर रहमान (इंडियन नेशनल कांग्रेस)
मुरादाबाद- मुजफ्फर हुसैन (आरपीआई)
रामपुर - अहमद मेहदी (इंडियन नेशनल कांग्रेस)
मेरठ - शाह नवाज खान (इंडियन नेशनल कांग्रेस)
बिसउली - अंसार हरवानी (इंडियन नेशनल कांग्रेस)


चौथे लोकसभा चुनाव-(1967)
लोकसभा क्षेत्र का नाम

अमरोहा- मौलाना इस्हाक (सीपीआई)
रामपुर - एन. एस. ए. खान (एसडब्ल्युए)
कासगनि - एम. ए. खान (इंडियन नेशनल कांग्रेस)
मुजफ्फरनगर- एल. ए. खान (सीपीआई)
कैराना - जी. ए. खान (एसएसपी)



पांचवीं लोकसभा चुनाव-(1971)
लोकसभा क्षेत्र का नाम
रामपुर- जेड. ए. खान (इंडियन नेशनल कांग्रेस)
उन्नाव - जेड. रहमान (इंडियन नेशनल कांग्रेस)
मिर्जापुर - ए. इमाम (इंडियन नेशनल कांग्रेस)
मेरठ - एस. एन. खान (इंडियन नेशनल कांग्रेस)
अमरोहा - आई. सम्भाली (सीपीआई)
कैराना - एस. जंग (इंडियन नेशनल कांग्रेस)


छठे लोकसभा चुनाव-(1977)
लोकसभा क्षेत्र का नाम
फतेहपुर - बशीर अहमद (बीएलडी)
सुल्तानपुर- जुल्फिकार उल्लाह (बीएलडी)
बुलंदशहर - महमूद हसन खान (बीएलडी)
पीलीभीत - मोहम्मद एस. हसन खान ( बीएलडी)
मुजफ्फरनगर - सईद मुर्तजा ( बीएलडी)

सहारनपुर - रशीद मसूद ( बीएलडी)
मुरादाबाद - गुलाम मो. खान ( बीएलडी)
हापुर - के. एम. अली खान ( बीएलडी)

मिर्जापुर - फकीर अली ( बीएलडी)

नोट- गौरतलब है कि इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी को राज्य में एक भी सीट पर जीत हासिल नहीं हुई थी।

सातवें लोकसभा चुनाव (1980) में राज्य के 85 लोकसभा सीटों में 18 सीटों मुस्लिम प्रतिनिधियों को जीत हासिल हुई थी। राज्य में पहली बार मुस्लिम आबादी के औसत के हिसाब से पांच अधिक उम्मीदवार चुनकर लोकसभा पहुंचे। आठवें लोकसभा चुनाव (1984) में 12 मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे, जो संख्या की आदर्श स्थिति के हिसाब से एक कम है।


नौवे लोकसभा चुनाव-(1989)
लोकसभा क्षेत्र का नाम
मुरादाबाद - गुलाम मोहम्मद खान (जेडी)
रामपुर - जुल्फिकार अली खान (इंडियन नेशनल कांग्रेस)
उन्नाव - अनवर अहमद (जेडी)
बहराइच - आरिफ मोहम्मद खान (जेडी)
बलरामपुर - एफ. रहमान (इंडियन नेशनल कांग्रेस)
मिर्जापुर - युसुफ बेग (जेडी)
बुलंदशहर - एस. हुसैन (जेडी)
मुजफ्फरनगर - मुफ्ति मो. सईद (जेडी)
सहारनपुर - रशीद मसूद (जेडी)


10वें लोकसभा चुनाव-(1991)
लोकसभा क्षेत्र का नाम
मुरादाबाद - गुलाम मोहम्मद खान (जेडी)
फर्रुखाबाद - सलमान खुर्शिद (इंडियन नेशनल कांग्रेस)
सहारनपुर - रशीद मसूद (जेडी)


11वें लोकसभा चुनाव-(1996)
लोकसभा क्षेत्र का नाम
मुरादाबाद - एस. रहमान (एसपी)
रामपुर - बेगम नूरबानो (इंडियन नेशनल कांग्रेस)
बदायूं - सलीम इकबाल शेरवानी (एसपी)
शाहाबाद - इलियास आजमी (बीएसपी)
सीतापुर - एम. अनिस (एसपी)
कैराना - मुनव्वर हसन (एसपी)

12वें लोकसभा चुनाव-(1998)
लोकसभा क्षेत्र का नाम
मुरादाबाद - डा. एस. रहमान बर्क (एसपी)
रामपुर - मुख्तार अब्बास नकवी (बीएसपी)
बदायूं - सलीम इकबाल शेरवानी (एसपी)
बहराइच - आरिफ मोहम्मद खान (बीएसपी)
बलरामपुर - रिजवान जेड. खान (एसपी)
आजमगढ़ - अकबर अहमद (बीएसपी)


13वें लोकसभा चुनाव-(1999)
लोकसभा क्षेत्र का नाम
अमरोहा - रशीद अलवी (बीएसपी)
रामपुर - बेगम नूर बानो (इंडियन नेशनल कांग्रेस)
बदायूं - सलीम इकबाल शेरवानी (एसपी)
शाहाबाद - डी. अहमद (बीएसपी)
बलरामपुर - रिजवान जेड. खान (एसपी)
सहारनपुर - मंसूर अली खान (बीएसपी)
कैराना - अमिर अलाम (आरएलडी)
मुजफ्फरनगर - सईद (इंडियन नेशनल कांग्रेस)


वर्ष 2004 में हुए 14वें लोकसभा चुनाव में 11 मुस्लिम मतदात चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे।
लोकसभा क्षेत्र का नाम
मुरादाबाद - डा. शफीकुर्रहमान बर्क (सपा)
बदायूं - सलीम इकबाल शेरवानी (सपा)
शाहबाद - इलियास आजमी (बसपा)
सुल्तानपुर- मो. ताहिर (बसपा)
बहराइच - रूबाब सैयद (सपा)
डुमरियागंज - मो. मुकीम (बसपा)
गाजीपुर - अफजाल अंसारी (सपा)
फुलपुर - अतीक अहमद (सपा)
मेरठ - मोहम्मद शाहिद (बसपा)
मुजफ्फरनगर - चौ. मुनव्वर हसन (सपा)
सहारनपुर - रशीद मसूद (सपा)

* अब तक उत्तरप्रदेश से लोकसभा में 112 मुसलिम सांसद चुनकर आए हैं। नौवीं लोकसभा (1989) चुनाव में प्रदेश के बलरामपुर लोकसभा क्षेत्र से एफ. रहमान निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुने जाने वाले एक मात्र उम्मीदवार रहे हैं। फिलहाल इस सीट का प्रतिनिधित्व भाजपा के ब्रजभूषण शरण सिंह कर रहे हैं।

वैलेंटाइन का नशा


हिन्दी सिनेमा में मजाज़ी इश्क़ (सांसारिक प्रेम) पर लिखे गीतों के रुतबे को तो सभी महसूस करते ही होंगे ! इधर मैं कुछ दिनों से इश्क़-विश्क के उन गीतों को ढूंढ रहा था जो खासकर वैलेंटाइन डे पर लिखे गए हैं। अभी सफर जारी है। इस दौरान तत्काल जो गीत मुझे याद आया वह फिल्म बागवान का है। बोल है- चली इश्क की हवा चली।

यकीनन यह गीत मजेदार व ऒडीटोरियम-फोडू है। लेकिन बालीवुड में गीत का जो इतिहास है, उसमें बहुत बाद का है। थोड़ा पहले का मिले तो मजा आ जाए। और आप सब का सहयोग मिले तो फिर क्या कहने हैं !

खैर ! यह वैलेंटाइन डे जितना सिर चढ़कर बोल रहा है, गीत ढूंढते वक्त ऐसा लगता नहीं कि इसकी जड़ उतनी गहरी है। इसपर बातचीत पूरी खोज के बाद। लेकिन, इसमें शक नहीं कि यदि वैलेंटाइन डे से ज्यादा बिंदास डे कोई आ गया तो इस डे के मुरीद उधर ही सरक जाएंगे। ठीक है। इश्क के इजहार का वे जो भी तरीका अख्तियार करें यह तो उनका निजी मसला है।

लेकिन कई बार यह भी सच मालूम पड़ता है कि इस कूचे की सैर करने वाले इश्क की नजाकत भूला बैठते हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह बालीवुड- चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो, हम हैं तैयार चलो...। जैसे रूहानी गीत कम ही तैयार करने लगा है। अब के गीतों में तो केवल सुबह तक प्यार करने की बात होती है। याद करें- सुबह तक मैं करुं प्यार...। ये दोनों ही गीत अपने-अपने दौर में खूब सुने गए।

कई लोग मानते हैं कि तमाम अच्छाइयों के बावजूद अब इश्क कई जगह टाइम-पास यानी सफर में चिनियाबादाम जैसी चीज बनकर रह गया है। यहां रूहानियत गायब है और कल्पना का भी कोई मतलब नहीं रहा। संभवतः इसमें कुछ सच्चाई हो तभी तो कई लोग वैलेंटाइन डे को लेकर हवावाजी कर रहे हैं और ठाठ से अपनी दुकान चमका रहे हैं।

इश्क के मकतब (स्कूल) में दाखिला लेने वाले कहते हैं- भई जरा सोच-समझकर इस मकतब में कदम रखियेगा। क्योंकि, इस मकतब से कोई पास नहीं होता, जरा गौर फरमाएं-
मकतबे इश्कका दुनिया में निराला है सबक़।
उसको छुट्टी न मिली, जिसको सबक़ याद हुआ।।

इश्क में फंसे लोगों ने अपनी आवाज बुलन्द कर कुछ यू फ़र्माया है-

मोमिन
असरेगम, जरा बता देना।वोह बहुत पूछते हैं, क्या है इश्क ?

माइल देहलवी
अपनी तो आशिकी का किस्सा ये मुख्तसिर है।
हम जा मिले खुदा से, दिलबर बदल-बदलकर।।

Tuesday, February 3, 2009

सुरा पर फिदा तहजीब


पब संस्कृति को खत्म करने के नाम पर श्रीराम सेना के लोगों ने बड़ा उत्पात मचाया। इस दौरान युवतियों के साथ जो बेअदबी हुई, उससे भारतीय संस्कृति से जुड़े कई गहरे सवाल खड़े हुए हैं। इसपर बहस जारी है और यह जरूरी है।

दरअसल, खान-पान निहायत व्यक्तिगत पसंद की चीज है। किसी भी तरह के खाने-पीने की आदतों व शौकों से उस जगह की तहजीब खूब समझ में आती है। लेकिन, उदार बाजारवाद की बयार ने इस तहजीब को बदला है। जहां-जहां यह बयार पहुंची है, वहां ठेठ देशी संस्कृति आहत हुई है। आप खुद देख लें ! अब ज्यादातर समौसे की दुकान से सरसों की चटनी गायब है। बोतलबंद सॊस हावी है। दूसरी तरफ अब लोग लिट्टी खाकर उतना लुत्फ नहीं उठाते, जितना मोमोज खाकर उठाते हैं।

हालांकि, इस देश में पब का विकल्प भी जमाने से मौजूद है। इस देश की देहाती-दुनिया में आबादी से दूर कलाल-खाना (मद्यशाला) सेवा चलती रही है। दारू व ताड़ी के मुरीद वहां मजे से अपना शौक पूरा करते हैं। पर, इस कलाल-खाने से निकलकर कोई रईसजादा राहगीरों को नहीं कुचलता है। वहां किसी युवती को भी गोली नहीं मारी जाती है और न ही कोई सेना धमाचौकड़ी मचाती है। लेकिन, जब बाजार उदार हुआ तो इस मामले को लेकर कुछ लोग ज्यादा ही उदार हो गए। बड़े शहरों में शराबनोशी का अंदाज इससे बड़ा प्रभावित व प्रोत्साहित हुआ। मजे की बात यह है कि पहले शराबखोरी छिपकर होती थी। अब यह पार्टियों के ठाठ की पहचान बन गई है। इसके बारी-बारी से कई रंग दिख रहे हैं आम जनजीवन भी प्रभावित हो रहा है।

सिनेमा व टेलीविजन भी इस मामले में समय के साथ कमदताल कर रहा है। पेज थ्री के नामवर बंदे यहां दर्शन देने लगे। इससे शहरी समाज में संदेश गया कि भई, शराब तो हमारी तहजीब का हिस्सा है। और पब उनमुक्तता का प्रतीक। कलाल-खाना की तरह पब शहर व आबादी से दूर नहीं खोला जाता, बल्कि प्रमुख चौराहे पर जगह तलाशी जाती है। एक और बात यह है कि शहरी समाज पर हावी हो रही इस नई तहजीब को बारीकी से समझने के लिए उन चेहरों की पहचान, उनके दैनिक जीवन की जरूरतों, उलझनों व जटिलताओं को समाजशास्त्रीय निगाह से जानना होगा।

लेकिन, मालूम पड़ता है कि श्रीराम सेना को इतनी फुर्सत नहीं। वे लोग एक समस्या का दूसरी बड़ी समस्या खड़ी कर हल ढूंढ़ रहे हैं। दरअसल, नोट और वोट के इस दौड़ में सबों की अपनी डफली और अपना राग है। पर इसमें दोराय नहीं कि सुरा पर देशी तहजीब कुछ ज्यादा ही फिदा है। *

ब्रजेश झा

Monday, February 2, 2009

सस्ता संदेश जंग का

मुंबई में हुए आतंकवादी हमलों को बालीवुड के कई निर्माता-निर्देशक संजीदगी से नहीं ले पाए। उनपर व्यवसाय हावी है। उन्हें इस घटना में व्यावसाय नजर आ रहा है। हाल ही में ऐसी खबर आई थी कि बालीवुड के कई निर्माता-निर्देशक इस घटना को देर-सबेर रुपहले परदे पर उतारने के लिए नामों का पंजीकरण करा रहे हैं।

हालांकि सिनेमा के शुरुआती दिनों से ही देशभक्ति या जंगी जज्बों से सराबोर युद्ध विषयक फिल्में बनती रही हैं। एलओसी, बार्डर के आने से पहले ललकार, हकीकत और उसने कहा था जैसी फिल्में प्रदर्शित हो चुकी थीं। जिसे दर्शकों ने खूब सराहा था। इन फिल्में में देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत होकर सैनिकों को लड़ते दिखाया गया है। साथ ही युद्ध की विभीषिका में मानवीय संबंधों को भी उजागर किया गया है।

इन फिल्में का उद्देश्य लोगों की भावनाओं को भड़काना नहीं था, बल्कि उन संवेदनाओं को प्रकट करना था, जो इस भयावह माहौल में स्वतः पैदा लेती है। देश में जब नक्सली व आतंकवादी समस्याएं पैदा हुईं तो कुछ सतर्क निर्माता-निर्देशकों की निगाहें उधर भी गईं और सार्थक फिल्में बनीं। पर ऐसी फिल्में अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं, जिनमें माचिस, यहां, हजारों ख्वाहिशें ऐसी व ए वेडनस-डे जैसी कुछ फिल्मों के नाम याद आते हैं।

कुछ साल पहले जब बार्डर और एलओसी जैसी फिल्में आई थीं तो कई सवाल उठे थे। लोगों का मानना था कि भाषाई स्तर पर ऐसी फिल्मों की गरिमा कम हुई है। तात्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जमाली ने भी सार्क सम्मेलन के दौरान इन फिल्मों की भाषा पर आपत्ति दर्ज की थी। यह लाजमी था। क्योंकि, जमाना जानता है कि कला का उद्देश्य रुचि व विचार को परिष्कृत करना है और सिनेमा एक कला है। केवल व्यवसाय नहीं।

गत कुछ वर्षों से बालीवुड देशभक्ति के जज्बों को भुनाने की जिस बारीक कोशिश में लगा है, वहा काबिलेगौर है। फिल्म रंग दे बसंती तो इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। इन दिनों देशभक्ति से लबरेज ज्यादातर फिल्में मात्र सस्ता और उन्मादी मनोरंजन परोस रही हैं।

यकीनन, बालीवुड में कुछ लोगों द्वारा मुल्क के दुखते रग को भुनाने की यह बेचैनी नई आशंका को जन्म देती है। मंबई आतंकवादी हमले पर फिल्म तैयार करने के लिए नाम पंजीकृत कराने की यह प्रक्रिया इसे और गहरा देती है।