Thursday, November 27, 2008

जिम्मेदार नागरिक का प्रमाण दे रहे हैं नन्हें पत्रकार

गुजरात के विभिन्न जिलों में कई बच्चे नन्हें पत्रकार बन गए हैं। वे अपने अधिकारों की लड़ाई खुद लड़ रहे हैं, साथ ही जागरुक व जिम्मेदार नागरिक होने का प्रमाण भी दे रहे हैं।


ऐसी ही एक किशोरी है अहमदाबाद जिले के रजबलीका गांव की 15 वर्षीय बसंती। बसंती ने बताया, "जहां मैं रहती हूं वहां कुछ दिनों पहले तक शराब की काफी बिक्री होती थी। मेरे पिता भी शराब पीते थे। पुलिस को शिकायत की लेकिन कुछ नहीं हुआ। इसके बाद हम लोगों ने इसके विरोध में नुक्कड़ नाटक शुरू किया। घर-घर जाकर लोगों को शराब पीने से रोका और परचे बांटे।"

बसंती बताती है कि आज स्थिति बदल गई है। उसके पिता अब शराब को हाथ तक नहीं लगाते हैं। ऐसे और भी लोग हैं जिन्होंने शराब से नाता तोड़ लिया है और क्षेत्र में शराब की बिक्री भी कम हो गई है।

दरअसल, यह राज्य में गैर सरकारी संगठन 'चेतना' की पहल का नतीजा है। विकास की धारा से वंचित ये बच्चे अपने अधिकार की लड़ाई लड़ने के साथ सामाजिक जिम्मेदारियां भी वहन कर रहे हैं।

दस वर्षीय मनोज ने बताया, "पहले हमारे घर के निकट काफी गंदगी रहती थी। हम लोगों ने चंदा इकट्ठा कर सभी घरों के सामने कूड़ादान रख दिया है। एक आदमी भी है जो नियमित रूप से कूड़ा ले जाता है।"

राज्य में 'चेतना' बच्चों के लिए कई कार्यक्रम चला रही है, जिसमें 'बाल मित्र' भी शामिल है। इस कार्यक्रम के तहत नन्हें पत्रकार तैयार किए जा रहे हैं जो स्थानीय मुद्दों पर अपनी आवाज बुलंद करते हैं।

गुजरात के बलसाड़ जिले की 15 वर्षीय प्रीति ने बताया, "हम लोग 'बाल प्रभात' नाम से एक त्रैमासिक पत्रिका निकालते हैं, जिसमें स्थानीय मुद्दे उठाए जाते हैं।"

राज्य में 'जन जागृति', 'दिव्य संदेश' आदि पत्रिकाओं के माध्यम से भी बच्चे स्थानीय मुद्दे उठा रहे हैं। 'चेतना' से जुड़ी सोपना बेन ने कहा कि स्थानीय लोग बच्चों की बातों पर गौर करते हैं।

चेतना की उप निदेशक मीनाक्षी शुक्ला ने कहा कि यहां हम लोग बच्चों के अधिकार को लेकर आपसी संवाद व समझ कायम करने के लिए इकट्ठा हुए हैं, क्योंकि यह जानना जरूरी है कि जिनके कंधे पर देश का भविष्य है वे किन स्थितियों में हैं।

Sunday, October 12, 2008

हिन्‍दी सिनेमा में लोकगीतों व ठेठ आंचलिक शब्‍दों की बयार

एक लम्बी तफतीस के बाद मैं यह स्पष्‍ट कह दूँ कि बोलती हिन्‍दी सिनेमा में लोकगीतों व ठेठ
आंचलिक शब्‍दों की बयार शुरुआती वर्षों में ही आने लगे थे। वैसे, पारंपरिक गीतों का कदमताल भी
यहीं से जारी है जैसे- "काहे मारे पिचकारी लला हो काहे मारे पिचकारी " दौलत का नशा -फिल्म
का यह गीत होली का पारंपरिक गीत है। सन् 1931 में ही बंबई की इंपीरियल मुवीटोन ने इस
फिल्‍म का निर्माण किया था।
शादी के बाद लडकी की बिदाई भारतीय समाज की अटूट परंपरा है। यह फेविकोल का मजबूत जोड है।
आगे भी नहीं टूटने जा रहा है। शायद इसी वास्ते सन् 31 में जो इस पर लोगों की नजर टिकी सो अब
तक हटी नहीं है।
"बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए"मास्टर बसंत द्वारा लिखे इस पारंपरिक गीत को फिल्म ट्रैप्‍ड (1931) में सबसे पहले दुर्गा खोटे पर
फिल्माया गया था। आगे सन् 40 तक इन्‍हीं बोलों को और दो बार फिल्‍माया गया। नाचवाली (1934),
और स्‍ट्रीट सिंगर (1938) में।
' स्‍ट्रीट सिंगर ' के गीतकार को लेकर मैंने दूसरे खेप में आर.सी.बोराल का नाम लिया था। उसे वापस
लेता हूँ। दरअसल, आर.सी.बोराल ' स्‍ट्रीट सिंगर ' के संगीतकार और आरजू लखनवी गीतकार थे।
यहां आरजू लखनवी में गीत का दोहराव अचानक ही मिल जाता है। खैर, इस पर चर्चा बाद में।
अब जरा गौर फरमाइये–
"राजा जानी न मारो नजरवा के तीर रे…………।"यह गीत ' भारती बालक ' फिल्म से है। इसका निर्माण मादन थियेटर ने सन् 1931 में किया था।
' ट्रैप्ड ' फिल्‍म का – " साँची कहो मोसे बतियां, कहां रहे सारी रतियां "या फिर, दौलत का नशा – फिल्‍म का एक गीत-
" गगरिया भरने दे बांके छैला,
भर दे भरा दे सर पर उठा दे………।"
इधर मैं लगातार महसूस कर रहा हूँ कि लोक जीवन से उपजे शब्दों-गीतों का इस्तेमाल सिनेमा द्वारा
आवाज की दुनिया में दाखिल होते ही शुरु हो गया था। हाँ, इन बातों का खयाल जरूर रखा गया कि
इन ठेठ देहाती शब्दों में खुरदरेपन की बजाय एक प्रवाह हो ताकि उसे सहजता से लयबद्ध किया जा
सके। घुंघरवा, गगरिया, नजरवा, बलमवा, सुरतिया या फिर मोरा, तोरा, मोसे, तोसे, सांची (सच) इनके बारे
में क्या खयाल है? बात ऐसी है कि हिन्दी पट्टी के पूर्वी हिस्से में कहीं भी -कभी भी आकारांत जोड देने
की गजब परंपरा है। गीतकारों ने भी इस चलन का खूब इस्तेमाल किया। इसकी वजह पर गुफ्‍तगू आगे
करेंगे। आप के खयाल भी मेरे लिए अहमियत रखते हैं।

Thursday, October 9, 2008

झुमरीतिलैया है या 'झूम री तिलैया'

झारखंड के झुमरीतिलैया शहर के किस्से बड़े निराले हैं, खासकर फिल्मी गीतों को लेकर। कहा जाता है कि इस इलाके से केवल फरमाइशी गीतों की लहरें उठती हैं। रेडियो सिलोन (श्रीलंका) हो या फिर विविध भारती, इन रेडियो स्टेशनों से जब भी गीत प्रसारित होते हैं तो यहां के लोग मचल उठते हैं।


तिलैयावासी संजीव बर्नवाल बताते हैं, "आप इस छोटे से शहर में घूमें। तब आपको पता चलेगा कि फिल्मी गीतों के कितने कद्रदान यहां आकर बस गए हैं।" पहाड़ी पर बसे तिलैया शहर ने फरमाईशी गीतों के विविध कार्यक्रमों के बूते अपनी खास पहचान बनाई है। एक समय कहा जाने लगा था कि फरमाईशी गीतों के कार्यक्रमों को तिलैया वालों ने हिट कर दिया है, जिसमें एक महत्वपूर्ण नाम रामेश्वर प्रसाद बर्नवाल का


रामेश्वर बर्नवाल अब नहीं रहे लेकिन रेडियो सिलोन (श्रीलंका)और विविध भारती का पता लिखा पोस्टकार्ड अब भी उनकी आलमारी में पड़ा है। उनकी पत्नी द्रोपदी देवी ने बताया, "मेरे पति गीतों के बड़े शौकीन थे और फिल्मी गीतों को खूब सुनते थे।"


उन्होंने कहा, "साठ और सत्तर के दशक में जिन-जिन रेडियो स्टेशनों से फरमाईशी गीतों के कार्यक्रम प्रसारित होते थे, उन सभी स्टेशनों पर एक-एक पोस्टकार्ड भेजना उनका रोज का काम था।"


रामेश्वर के बेटे संजीव ने बताया, "पिताजी बताते थे कि यह प्रक्रिया खेल-खेल में शुरू हो गई। उन दिनों गीत सुनने की अपेक्षा रेडियो में अपना व अपने शहर का नाम सुनना लोगों को अधिक रोमांचित करता था। धीरे-धीरे फरमाईशी गीतों के कार्यक्रमों को सुनना तिलैयावासियों की आदत हो गई।"


हजारीबाग के निकट बसे इस शहर में सन सत्तर के आसपास 'झुमरीतिलैया रेडियो श्रोता संघ' का गठन किया गया था। गंगा प्रसाद, मनोज बागरिया, राजेश सिंह, अर्जुन साह जैसे लोग इसके सदस्य

बाद के दिनों में फरमाईशी गीतों को सुनने का ऐसा जादू चढ़ा कि लोग टेलीग्राम के माध्यम से भी पसंदीदा गीतों को बजाने की मांग करने लगे। इसकी शुरुआत भी रामेश्वर ने की थी। संजीव ने बताया कि सबसे पहले उन्होंने 'दो हंसों का जोड़ा बिछड़ गया रे'(फिल्म-गंगा यमुना) गीत सुनने के लिए विविध भारती को टेलीग्राम किया था।


एक समय ऐसा भी कहा जाने लगा था कि हिन्दी फिल्मों का चलताऊ संगीतकार भी झुमरीतिलैया के श्रोताओं के बल पर सुख की नींद सोता है। आखिर ऐसा हो भी क्यों न! लोग इस शहर को झुमरीतिलैया की जगह 'झूम-री-तिलैया' जो कहने लगे हैं।

Friday, October 3, 2008

बालीवुड में हुनर के साथ हुआ गीतों का दोहराव


उमराव-जान फिल्म मुझे काफी पसंद आती है और बार-बार देखता हूं। इसके गीत काफी सफल हुए थे। आज भी सुने जाते हैं। इस बाबत कुछ बातें याद आ गईं—
"इन आंखों की मस्‍ती के दीवाने हजारों हैं"
इस गीत को शहरयार ने उमराव-जान (1982) के लिए लिखकर
बड़ा नाम कमाया था किन्तु, दूसरी फिल्म की इक और पंक्ति याद आ रही है–
"मस्ताना निगाहों के दीवाने हजारों हैं"
फिल्म - गरीबी ( रणजीत मुवीटोन,मुम्बई) 1949 । गीतकार- शेवन रिजवी ।

इसके अलावा कई फिल्‍मी गीतें की पंक्‍तियां दिमाग में चक्कर लगा रही हैं, जिसे गीत के तौर पर कई बार
दुहराया-तिहराया गया–
1 चना-जोर गरम बाबू मैं लाया मजेदार,
चना-जोर गरम…………॥
फिल्‍म– बंधन ( बाम्‍बे टाकीज, मुम्‍बई) 1940 । गीतकार– प्रदीप ।
2 जोर गरम बाबू मुलायम मजेदार,
चना-जोर गरम……॥
फिल्‍म– छोर छोरी ,1955। गीतकार– केदार शर्मा ।
3 चाना-जोर गरम बाबू…………
फिल्‍म- क्रान्‍ति । गीतकार- आनंद बख्‍शी।
इन पंक्तियों में जरा सा बदलाव कर के बड़े हुनर का परिचय दिया गया है।
ऐसे और भी उदाहरण हैं। पड़ताल जारी है।

ब्रजेश झा
09350975445

Wednesday, October 1, 2008

मिर्जा गालिब और सिनेमाई गीत

मिर्जा गालिब से जुड़ा एक अखबारी लेख याद आता है- अली सरदार जाफरी एक गोष्ठी में बोल रहे थे कि जिंदगी के हर वाक़ये पर गालिब याद आते हैं। कुछ समय पहले एक मित्र का पैर टूटा तो मिर्जा का यह शेर याद आया-
हुए हैं पांव ही पहले नबुर्दे इश्क में जख्मी,
न भागा जाए है मुझसे न ठहरा जाए है मुझसे।

तभी दिल्ली आया तो कुर्रतुलएन हैदर से मिलना हुआ और पता चला कि उनका हाथ चोट लगने से कुछ दिनों तक प्लास्टर से बंधा रहा। सुनते ही पुनः मिर्जा याद आ गए-
बेकारि-ए-जहां को है सर पीटने का शग्ल,
जब हाथ टूट जाए तो फिर क्या करे कोई।


यह किस्सा लुत्फ उठाने के लिए नहीं, बल्कि सोचने के लिए है। वह यह कि यदि मिर्जा के यहां सभी मौके और बातों के लिए शेर मौजूद है तो क्या हिन्दी सिनेमाई गीतों के साथ ऐसा है।

यह सब दिमाग में चल रहा था और मेरे मित्र रसोई घर में लजीज व्यंजन की तैयारी में जुटे हुए थे। हालांकि, वहां बैठी उनकी अज़ीज़ सखा चाहती थीं कि वह साथ ही बैठें। वहां तत्काल मुझे एक गीत याद आया-
मसाला बांच लूं, प्याज काट लूं,
छुरी किधर गई, है नल खुला हुआ...।
मैं कह रहा हूं क्या, तू सुन रही है क्या...।
कहो न जोर से...। सुनो न गौर से...।
(फिल्म- करीब)।
हालांकि थोड़ा उल्टा मामला है। नायक महोदय रसोई में हैं, पर सीधा भी जल्द ही ढूंढ़ लिया जाएगा।

संख्या के लिहाज से इस दुनिया में इश्किया गीत हद तक हैं और यकीनन इन गीतों का आना जारी भी रहेगा। इसके बावजूद कई चीजों को देख-सुनकर गीत याद आते हैं। एक समाचार चैनल पर खबर आई कि शुक्रवार रात मोटरसाइकिल से जा रहे दो युवकों ने एक व्यक्ति की जमकर पिटाई कर दी। पुलिस हरकत में आई और दोनों को पकड़ ले गई। सुबह-सबेरे दोनों महानुभाव रिहा कर दिए गए। ऐसे में गुलजार याद आते हैं-
आबो-हवा देश की बहुत साफ है।
कायदा है कानून है, इंसाफ है.
अल्लाह-मियां जाने कोई जिए या मरे
आदमी को खून-वून सब माफ है।
(फिल्म-मेरे आपने)

यहां जनकवि से गीतकार बने शैलेंद्र के भी एक गीत दिमाग में चक्कर लगाने लगता हैं-
बूढ़े दरोगा ने चश्मे से देखा
आगे से देखा, पीछे से देखा
ऊपर से देखा, नीचे से देखा
बोले ये क्या कर बैठे घोटाला
ये तो है थाने दार का साला
(फिल्म- श्री 420)

यह न समझा जाए की यहां मिर्जा और फिल्मी गीतकारों के बीच किसी किस्म की समानता ढूंढ़ने की कोशिश हो रही है। हां, यह जानने की कोशिश जरूर है कि जिस तरह हर वाक़ये पर मिर्जा याद आते हैं तो क्या उस तरह फिल्मी गीत याद आ सकते हैं !

ब्रजेश झा
09350975445

Saturday, March 22, 2008

भांग की जगह ब्रांड का बोलवाला



देश की राजधानी में छात्रों के बीच त्योहारों के मूल चरित्र की निशानियां गुम होती जा रही हैं। यहां थोपी गई तहजीब तेजी से जड़ पकड़ती दिख रही है। होली है और ठंडाई की जगह ब्रांड हावी है।

दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले ज्यादातर पूरिबया छात्र होली के दिन ठंडाई पीने वाले ठेठ देसी संस्कृति के रिवाज से चिपके होते थे। अब नजारे बदले बदले से हैं। विश्वविद्यालय के ही छात्र बदलाते हैं कि ठंडाई का अपना मजा है जनाब ! पर इसे तैयार करना बड़े झमेले का काम है। इसलिए होली के दिन ठंडाई के मुरीद भी शराब से काम चला लेते हैं। लेकिन कोशिश रहती है कि ठंडाई का जुगाड़ हो जाए। दरअसल कैंपस में जुगाड़ा का बड़ा बोलबाला है।

बात ज्यादा पुरानी नहीं है जब परिसर में स्थित सभी होस्टलों में होली के दिन ठंडाई तैयार किया जाने का रिवाज था। नए पुराने सभी छात्रों की मंडली लगती थी। देशी ठाठ के राग का बोलवाल होता था। ऐसा न था कि लड़के शराब के मुरीद न थे। पर वह ठंडाई के मामाले में हदतोड़ी थे। यारो, मैं कहना इतना भर चाहता हूं कि उस वक्त शराब पर ठंडाई हावी हुआ करता था और तब जमता था रंग।

लेकिन गत एक दशक में स्थितियां बदली हैं। नए छात्रों में एक अलग किस्म की नफासत है। वह बेहद तहजीबयाफ्ता हैं। ठंडाई आज भी बनाई जाती है। उसके रसिक आज भी हैं। पर औसतन कम।

ब्रजेश झा

Wednesday, March 12, 2008

आटो के पीछे क्या है?

आटो के पीछे क्या है?
सुबह-सबेरे दिल्ली की सड़कों पर चलते वक्त यदि आटो रिक्शा के पीछे लिखा दि
ख जाय बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला तो अन्यथा न लें बल्कि गौर करें। क्या ये चुटकीली पंक्तियां
शहरी समाज के एक तबके को मुंह नहीं चिढ़ा रही हैं? गौरतलब है कि ऐसी सैकड़ों पंक्तियां तमाम आटो
रिक्शा व अन्य गाडि़यों के पीछे लिखी दिख जायेंगी जो बेबाक अंदाज में शहरी समाज की सच्चाई बयां
करती हैं। अंदाजे-बयां का ये रूप केवल हिन्दुस्तान तक ही सीमित नहीं है बल्कि पूरे दक्षिण एशिया में
प्रचलित है। इन पंक्तियों के पीछे भला क्या मनोविज्ञान छिपा हो सकता है, इस दिलचस्प विषय पर
शोध कर रहे दीवान ए सराय के श्रृंखला संपादक रविकांत ने कहा कि आटो रिक्शा के पीछे लिखी
चौपाइयां, दोहे और शेरो-शायरी वहां की शहरी लोक संस्कृतियों का इजहार करती हैं। मनोभावों की
अभिव्य1ित का ये ढंग पूरे दक्षिण एशिया में व्याप्त है। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में भी आपको
आटो रिक्शा के पीछे लिखा दिखेगा कायदे आजम ने फरमाया तू चल मैं आया। कहने का मतलब यह है कि
हर वैसी चीजें जो शहरी समाज का हिस्सा हैं वह शब्दों के रूप में आटो रिक्शा व अन्य वाहनों के पीछे
चस्पां हैं। वह रूहानी भी हैं और अश्लील भी। सियासती भी हैं और सामाजिक भी। फिलहाल मैं और
प्रभात इन लतीफों को इकट्ठा कर रहा हूं जिसे अब तक गैरजरूरी समझ कर छोड़ दिया गया था। यकी
नन इससे शहरी लोक संस्कृतियों को समझने में काफी मदद मिलेगी। खैर! इसमें दो राय नहीं है कि आटो
रिक्शा व अन्य गाडि़यों को चलाने वाले चालकों का जीवन मुठभेड़ भरा होता है। इन्हें व्यक्ति, सरका
र और सड़क तीनों से निबटना पड़ता है। तनाव के इन पलों में ऐसी लतीफे उन्हें गदुगुदा जाते हैं।
पर क्या अब दिल्ली में इजहारे-तहरीर पर भी सियासती रोक लगा दी गयी है?

ब्रजेश झा