Tuesday, June 16, 2009

क्यों गए हबीब ?

हबीब तनवीर रंगमंच की दुनिया का वह चेहरा था, जिससे आंदोलन की ताप अंत समय तक महसूस होती रही। अब वे नहीं रहे। हालांकि, वे अभी जीना चाहते थे। अपने संघर्ष के दिनों को किताब की शक्ल देने में जुटे थे। सुना है इक भाग लिखा भी है, पर किताब पूरी न हो सकी। आखिर कहां हो पाती हैं लोगों की सभी इच्छाएं पूरी।

लोग कहते हैं कि 85 वर्षीय हबीब का जाना एक अध्याय का समाप्त हो जाना है। लेकिन, इस पंक्ति का लेखक मानता है कि इस अध्याय में जो दर्ज हुआ, आने वाली पीढ़ी उसके रंग में गहरे डूबी रहेगी।


उनका जन्म सन् 1923 में सितंबर की पहली तारीख को रायपुर में हुआ था। उन्होंने अपनी स्कूली और कालेज की पढ़ाई तो गृह राज्य में ही ली, लेकिन उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए यानी एमए की पढ़ाई करने के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दाखिल हो गए। बाद में रंगमंच का प्रशिक्षण विदेश जाकर लिया। पर वापस लौटे तो ठेठ भारतीय नाट्य शैली को एक न्या स्वरूप दिया। लोक तहजीब व कलाओं को लोक भाषा के माध्यम से ही दुनिया के सानने प्रस्तुत किया।

तब जब हिन्दी की उप बोलियों का दायरा सिमटता जा रहा था, तब हबीब ने इसे अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। लोक कलाकारों को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंच दिया। तब दुनिया छत्तीसगढ़ के बज्र देहात में फलने-फुलने वाली कलाओं से दुनिया रूबरू हो सकी।

अपने रंगमंचीय सफर के दौरान हबीब ने रंगमंच को आंदोलन पैदा करने वाली कार्यशाला में तब्दील कर दिया। उनके नाटक थिएटर से निकलकर सामाजिक आंदोलन का विस्तार देते मालूम पड़ते हैं।


सन् 1954 में जब उनका नाटक आगरा बाजार मंचित हुआ तो इसकी खूब चर्चा हुई थी। आज पचपन साल बाद भी उसकी ताप बरकरार है। नाटक की प्रासंगिकता बनी हुई है। इस नाटक के माध्यम से उठाए गए मुद्दे बाजारवाद के इस दौर में एक तल्ख सच्चाई बयान करते हैं।

पोंगा पंडित नाटक जब मंचित हुआ तो हबीब एक राजनीतिक पार्टी और अतिवादी धार्मिक संगठन के निशाने पर आ गए। इन पर हमले भी हुए। लंबे समय तक उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा। पर एक कलाकार के कर्म को उन्होंने धर्म की तरह निभाया। अंत तक आंदोलन का तेवर रंगमंच के इस शख्स में बना रहा।

प्रयोगधर्मिता उनके कोमल स्वाभाव का सबल पक्ष था, जो अंत तक बरकरार रहा। वैसे हबीब के करीबी लोग के अनुसार उनका घर धर्मनिरपेक्षता की एक मिसाल है। वे जरूर एक मुस्लिम परिवार से थे। पर उनके घर भगवान की पूजा होती थी। शंख फूंके जाते थे। आरती होती थी। दरअसल उनकी पत्नी गैर मुस्लिम परिवार से थीं। लेकिन, उन्होंने कभी अपनी पत्नी को धर्म बदलने को नहीं कहा।

उन्होंने एक पत्रकार की हैसियत से अपने करियर की शुरुआत की थी। बाद में रंगकर्मी हो गए। कुछ फिल्मों में भी काम किया। जैसे- सन् 1982 में प्रदर्शित हुई रिचर्ड एटनबरो की मशहूर फिल्म गांधी में इक छोटी से भूमिका निभाई थी। फिल्म प्रहार में भी उन्होंने काम किया था। और भी कई हैं।

खैर, जब 97 वर्षीय जोहार सहगल ने कहा, “हबीब जैसा इंसान नहीं देखा। उसकी कला की रूहकभी मिट नहीं सकती।” तब एहसास होता है कि हमने क्या खोया है ? रंगमंच से जुड़े युवा मानते हैं कि हबीब तो पितामह थे। उनकी मौजूदगी हिम्मत बढ़ाती थी। अब उनकी यादें ऐसा काम करेंगी।


मालूम पड़ता है कि आज से सौ साल बाद भी यानी 185 वर्ष की उम्र में वे इस दुनिया से जाते तो लोग जरूर कहते इतनी जल्दी क्यों चले गए हबीब ?

Saturday, June 13, 2009

खारे पानी के नीचे का गंदा


उत्तरी दिल्ली के कुछ इलाकों में सप्लाई का पानी पीने योग्य नहीं है। मुखर्जी नगर, परमानंद कॉलोनी, ढक्का आदि इलाकों में लोगों को खरीद कर पानी पीना पड़ रहा है।
प्रवासी छात्रों की इन कॉलोनी में कुछ-एक दिन पहले छात्र आपस में बतिया रहे थे- ‘गंदा पानी सप्लाई करने की वजह भी हो सकती है। यह हो सकता है कि पानी बेचने वाली कंपनियों से गठजोड़ की वजह से ही दिल्ली जल बोर्ड ऐसा पानी सप्लाई कर सकता है, जिसका मीठापन बिल्कुल गायब हो। ऐसे में आम लोग खरीद कर ही पानी पी पाएंगे और इस तपती गर्मी में पानी का व्यापार फैलेगा।’
क्या यह सही हो सकता है ? भई हो तो कुछ भी सकता है। फिलहाल इसको लेकर खोज-पड़ताल करने की जरूर है। लेकिन इतना तो सही है कि गंदा पानी आने की वजह से इन इलाकों में पानी का व्यापार दोगुना हो गया है।

Thursday, June 11, 2009

चलो दिलदार चलो...


कई लोगों का मानना है कि मीना कुमारी की मौत ने ही ‘पाकीजा’ को जीवन और यश प्रदान किया। हालांकि, इस बात को कमाल अमरोही ने कभी स्वीकार नहीं किया। यह फिल्म सन् 1972 के पहले महीने में आई थी। जबकि इसे दिसंबर 1971 में ही प्रदर्शित होना था। लेकिन, भारत-पाक युद्ध की वजह से आठ सप्ताह बाद इसे रिजील किया गया। खैर !

इस फिल्म के तैयार होने की प्रक्रिया तो और भी पुरानी है। वैसे, यह फिल्म अपने संगीत और संवाद के लिए आज भी खूब जानी जाती है।
इसका संगीत गुलाम मोहम्मद ने तैयार किया था। उन्होंने ‘चलो दिलदार चलो’, ‘आज हम अपनी, निगाहों का असर देखेंगे’, ‘थाड़े रहियो’ जैसे खूबसूरत गीत तैयार किए। इन गीतों में राजस्थानी मांड की बंदिश साफ समझ में आती है।

वैसे, नौशाद की माने तो इस फिल्म के तीन गीत यानी- ‘इन्हीं लोगों ने’, ‘चलते-चलते’ और ‘मौसम है आशिकान’ की बंदिश उन्होंने ही गुलाम मोहम्मद के लिए की थी। जो भी हो। ये सारे गीत अब भी खूब सुने जाते हैं। लेकिन, इन गीतों के मशहूर होने से पहले ही गुलाम मोहम्मद इस दुनिया को छोड़ गए।

फिल्मी दुनिया के कई पुराने इमानदार लोगों को आज भी इस बात का मलाल है कि गुलाम मोहम्मद नाम के शख्स को कभी उनके जीते-जी अपनी प्रतिभा का वाजिब सम्मान नहीं मिला।

हां, इस फिल्म को संवाद के लिए भी जाना जाता है। दो संवाद आज भी खूब याद आते हैं। रेलगाड़ी की सीटी के बीच, फिल्म का नायक बोल पड़ता है - ‘आपके पांव देखे...।’ दूसरा संवाद- ‘अफसोस, लोग दूध से भी जल जाया करते हैं।’ इस दुनिया का भी गजब रिवाज है, लोग जिंदा होते हैं तो ढेला समझते हैं। छोड़ जाते हैं, तब सम्मान करते हैं।

Wednesday, June 10, 2009

उस गीत का नशा


बात साठ के दशक की है। हैदराबाद के नवाब अपने परिवार के साथ सिनेमाघर में फिल्म- हातिमताई देखने आए। उस फिल्म में मोहम्मद रफी का गाया हुए एक सूफियाना गीत था- परवरदिगार आलम तेरा ही है सहारा। इस गीत ने नवाब साहब को भाव विभोर कर दिया।

वे सिनेमाघर में ही सिसकने लगे, और इस गीत को बार-बार सुनने की फरमाइश करने लगे। प्रोजेक्टर पर उस गीत को वापस लाकर बारह बार बजाया गया। तब नवाब साहब का जी भरा, और फिल्म आगे बढ़ी। इस गीत को साहिर लुधियानवी ने लिखा था। संगीत एस.एन. त्रिपाठी का था।

Tuesday, June 9, 2009

झुमरी तिलैया और न्यूज रूम


जब कभी फिल्म पर कुछ लिखता या नकलचेपी करता हूं तो एक बात खूब याद आती है। और हंसी भी। तब मैं एक निजी समाचार एजेंसी में था। मैनें झुमरी तिलैया में रहने वाले फिल्मी गीतों के कदरदानों पर एक स्टोरी बनाई। स्टोरी को कायदे से सुबह चलाया जाना था।

दोपहर को जब मैं दफ्तर पहुंचा तो किसी ने बताया स्टोरी नहीं चलाई गई है। डेस्क इंचार्ज के आदेश पर उसे एक सहयोगी एडिट कर रहे हैं। मेरा मानना है कि स्टोरी हमेशा बेहतर बनाने के लिए ही एडिट होती है। जलील करने के लिए नहीं। खैर! एडिट हुई। चली। इसके बाद शिफ्ट संभाल रहीं महिला डेस्क इंचार्ज ने न्यूज रूम में बैठे सभी साथियों को सुनाते हुए कहा, “कॉपी काफी अच्छे तरीके से एडिट की गई है। अब इस कॉपी में जान सी आ गई है।”
यह सुनने के बाद मुझे अपनी स्टोरी को पढ़ने की इच्छा हुई। मैंने अक्षर-सह मिलान किया। पाया कि साढ़े तीन सौ शब्द की स्टोरी में केवल एक ‘झारखंड’ शब्द जोड़ा गया है। तब समझ में आया कि यही जान है। थोड़ी देर बाद उक्त सहयोगी मेरे पास आए। कहा कि मैडम ने स्टोरी ठीक करने को कहा था, जब मुझे लगा कि इसमें कुछ नहीं किया जाना चाहिए तो मुझे बात रखने के इरादे से एक शब्द जोड़ना पड़ा।

मैंने महसूस किया कि वे शिफ्ट इंचार्ज की ओर से की गई खुली तारीफ से बड़े शर्मिदा थे। बाद में मालूम पड़ा कि शिफ्ट इंचार्ज को इस बात की जानकारी ही नहीं थी कि झुमरी तिलैया कोई जगह है। खैर, ऐसा भी होता है।

यूं तैयार हुआ फिल्म उत्सव का संगीत



शशिकपूर की इस फिल्म का निर्देशन गिरीश कर्नाड कर रहे थे। तब लोकप्रिय व्यावसायिक फिल्मों में संगीत देकर ख्याति पा चुके लक्ष्मीकांत जब कभी उन्हें नई पर चालू किस्म की धुन सुनाते तो वे बड़े अदब से कहते, “यह धुन बड़ी उम्दा है, पर इस फिल्म के लिए प्रासंगिक नहीं है।”


ऐसे में लक्ष्मीकांत को कड़ी मेहनत करनी पड़ी, तब कहीं उत्सव पूरी हुई। वे अपनी इस फिल्म के संगीत को सबसे उम्दा मानते हैं। दरअसल, कर्नाड की दृष्टि और लक्ष्मीकांत के प्रयासों ने ऐसे बेहतरी संगीत की रचना करवा दी।
यदि आप इस फिल्म में लता और आशा का गया गीत – “रात शुरू होती है, आधी रात को... ” सुनेंगे, तब मालूम होगा कि समानांतर सिनेमा का संगीत कितना गहरा और उम्दा है।

Monday, June 8, 2009

आप जैसा कोई, मेरी जिन्दगी में आए



नाजिया हसन के गाए गीत “ आप जैसा कोई, मेरी जिन्दगी में आए” को गजब की लोकप्रियता मिली थी। यह गीत लगातार चौदह सप्ताह तक बिनाका गीत माला की पहली पायदान पर कायम रही। तब नाजिया ‘बात बन जाए गर्ल’ नाम से पहचानी जाने लगी थी।


वे जब पहली दफा भारत आईं तो बंबई के ताजमहल होटल की छठी मंजिल पर अपने परिवार के साथ ठहरी थीं। तब होटल की बालकनी से नीचे झांककर वह आनायास चिल्ला पड़ी थी। नीचे सड़क पर बैंड पर बज रहा था “ आप जैसा कोई”। नाजिया खुशी से झूम उठीं। तब उन्हें बताया गया कि उनके इस गीत ने भारत में कितनी धूम मचा रखी है।

इस गीत ने बिनाका गीत माला में लता के गाए हुए गीत “शीशा हो या दिल हो, आखिर टूट जाता है” को पीछे छोड़ दिया था। जानकर ताज्जुब होगा कि फिल्म कुर्बनी के इस गीत की जब इंग्लैंड में रिकार्डिंग हुई थी, तब नाजिया महज 13 साल की थी। ‘बात बन जाए गर्ल’ केवल 35 वर्ष की उम्र में दुनिया छोड़कर चली गईं।

Sunday, June 7, 2009

दौलत गई है, दानत नहीं


जो लोग हिन्दी सिनेमा के बारे में थोड़ा-बहुत भी जानते हैं वे चंद्रमोहन को जानते होंगे। वे ऐसे अभिनेता थे जिनके अभिनय का प्रमुख अस्त्र उनकी आंखें थीं। इसी अस्त्र से वे सबों के दिल पर राज करते थे। उनका जलवा था। मोतीलाल की चंद्रमोहन से खूब छनती थी।

पर दिन बदल गए। चंद्रमोहन की माली हालत खराब हो गई। तभी एक दिन मोतीलाल उनसे मिलने गए। चंद्रमोहन के हाथ में गिलास था और सामने स्कॉच व्हिस्की की बोतल खुली थी। वे अकेले ही पीते रहे। उन्होंने मोतीलाल को ऑफर नहीं किया।

जब मोतीलाल जाने लगे तब चंद्रमोहन ने कहा, “देखो मोती, मुझे मालूम है, मेरे ऑफऱ नहीं करने पर तुम्हें पीड़ा हुई है। पर सुनो, मेरी दौलत गई है, दानत नहीं। मेरे सामने जो बोतल पड़ी है वह जरूर स्कॉच व्हिस्की की है, पर अंदर उसके हाथभट्टी की शराब है और मैं नहीं चाहता कि तुम्हें हाथभट्टी की पीने दूं।”

Saturday, June 6, 2009

‘हिवरे बाजार’ इक गांव ऐसा भी


हिवरे बाजार यानी गांधी के सपनों का गांव। इक ऐसा गांव, जहां खुशहाल हिन्दुस्तान की आत्मा निवास करती है। बाजारवाद के अंधे युग में लौ का काम कर रही है। क्या वैसे दिन की कल्पना की जा सकती हैं, जब देश का सात लाख गांव हिवरे बाजार की तरह होगा। उसका अपना ग्राम स्वराज होगा ?


आर्थिक मंदी से इन दिनों दुनिया परेशान हैं। भारत सरकार भी चिंतित है। पर देश का इक गांव मजे में है। वहां के लोगों का इससे कोई सरोकार नहीं। वे रोजगार के लिए पलायन नहीं करते। गांव में रोजना स्कूल की कक्षा लगती है। आंगनवाड़ी रोज खुलती है। राशन की दुकान भी ग्राम सभा के निर्देशानुसार संचालित होती है। सड़कें इतनी साफ कि आप वहां कुछ फेंकने से शर्मा जाएंगे। एक ऐसा गांव जिसे जल संरक्षण के लिए 2007 का राष्ट्रीय पुरस्कार भी चुका है।

इस गांव की सत्ता दिल्ली में बैठी सरकार नहीं चलाती, बल्कि उसी गांव के लोग इसे संचालित करते हैं। इकबारगी यह यूटोपिया लगता होगा। पर महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के हिवरे बाजार गांव जाएंगे तो आप इस सच से रूबरू हो जाएंगे। और गांधी के सपनों के भारत को जान और समझ पाएंगे। इक शब्द में यह भी कहा जा सकता है कि हिवरे बाजार ग्राम स्वराज का प्रतिनिधि करता है।

आज से 20 वर्ष पहले यानी सन 1989 में इस उजाड़ से गांव को 30-40 पढ़े-लिखे नौजवानों ने संवारने का बीड़ा उठाया। गांव वालों ने उन नौजवानों को पूरा सहयोग दिया। अब देखिए साहब, गांव के नजारे ही बदल गए हैं। बंजर जमीन उपजाऊ हो गई है। एक फसल की जगह दो-दो फसल उगा रहे हैं। गांव के लोगों ने अपने प्रयास से गांव के आसपास 10 लाख पेड़ लगाए। इससे भू-जल स्तर ऊपर आया है और माटी में नमी बढ़ने लगी है। अब यहां फसल क्या, लोग सब्जियां तक उगाते हैं।
पहले यहां लोगों की औसत आमदनी प्रतिवर्ष 800 रुपये थी। अब 28000 रुपये हो गई है। पहले जो दूसरे गांव में जाकर मजूदरी करते अब रोजाना 250-300 लीटर दूध का व्यापार करते हैं।

हिवरे बाजार गांव में राशन ग्रामसभा के निर्देशानुसार सबसे पहले प्रत्येक कार्डधारी को दिया जाता है। यदि उसके बाद भी राशन बच जाता है तो ग्रामसभा तय करती है कि इसका क्या होगा। राशन की दुकान के संचालक आबादास थांगे बेबाकी से कहते हैं कि उन्हें फूड इंस्पेक्टर को रिश्वत नहीं देनी होती है। यह है भई, जलवा।

गांव के पोपट राव कहते हैं, बाहरी लोगों की नजर हमारे गांव के जमीन पर है। अतः हमलोगों ने नियम बना रखा है कि जमीन गांव से बाहर के किसी व्यक्ति को नहीं बेची जाएगी। गांधी के गांव का जरा रंग देखिए! यहां एकमात्र मुसलिम परिवार के लिए भी मसजिद है, जिसे ग्रामसभा ने ही बनवाया है।

यहां सारे फैसले ग्राम संसद लेती है। यकीनन, दिल्ली की संसद में बैठे लोग इससे बहुत सीख सकते हैं। खैर, एक वक्त था जब इस गांव के युवक यह बताने से कतरते थे कि वे हिवरे बाजार के निवासी हैं। आज बाला साहेब रमेश ने अपने नाम के आगे ही 'हिवरे बाजार' लगा रखा है। इसमें दो राय नहीं कि हिवरे बाजार गांधी के सपने को साकार करने के साथ-साथ घने अंधेरे में लौ जलाए हुए है।

विशेष जानकारी संजीव कुमार के पास।

Tuesday, June 2, 2009

मिटाना-विटाना तो इक दर्द देने वाली प्रक्रिया है


आगे आकर कुछ ऐसा लिखने की आदत नहीं जिसे आखिरकार मिटाना पड़े। क्योंकि सीखा यही है कि मिटाना-विटाना दरअसल, इक दर्द देने वाली प्रक्रिया है। वह भी किसी पत्रकार के लिए। यह बड़े शिद्दत से महसूस करता हूं। ऐसे में जब किसी पत्रकार की पूरी खबर ही मिटा दी जाए तो कैसा लगे ! अंदाजा लगाइये।

जिस खबर को अरुण आनंद जी के बेतुके आदेश पर मिटाया गया था, उसे यहां बता रहा हूं। कहानी भी साथ है। जो इस प्रकार है। उक्त स्टोरी को वेबसाइट से हटाने के बाबत अपना तर्क देते हुए उन्होंने निम्न आरोप लगाए थे। पहला- खबर की हेडलाइन में ही राजकमल प्रकाशक का नाम है जो उचित नहीं। दूसरा- खबर पढ़कर ऐसा लगता है कि संस्थान उक्त प्रकाशक का मुख पत्र है। इससे आज तक की उनकी मेहनत माटी में मिल गई। तीसरा- खबर की जो दिशा बताई गई थी यह उससे पूरी तरह अलग और गलत है। आदि-आदि।

कुछ और बात जान लें ताकि बात साफ रहे। खबर तैयार करने का आदेश देते हुए कहा गया था कि मुंबई हमलों पर क्या कोई किताब बाजार में आई है, यदि आई है तो पाठक उसे किस रूप में ले रहे है ? प्रकाशकों से भी बात की जाए ताकि किताब संबंधी खास जानकारी मिले ?

अब आप खबर पढ़े और उपर्युक्त तीन बिंदुओं से इसका मेल कर लें। क्योंकि, फैसला तो आपको ही करना है। आखिरकार यह लिखे का सवाल है। खैर, इस रफ्तार पर यहीं विराम लगाते हुए।

लोकतंत्र में खानदानी राजनीति का रिवाज


नए जनादेश से जो संप्रग सरकार बनी है उसके चेहरे पर खानदान का अटपटा टीका लगा हुआ है। लोकतंत्र में यह तो नहीं कहा जा सकता कि किसी खानदान को अपनी जगह बनाने का अधिकार नहीं है, लेकिन जिस सरकार के आधे से ज्यादा मंत्री किसी न किसी राजनीतिक परिवार के सदस्य हों उसे खानदानी मंत्रिमंडल ही माना जाएगा। दूसरे शब्दों में ऐसा मंत्रिमंडल सामंती लोकतंत्र की मिशाल कहा जाएगा। जिस नए-पुराने चेहरों ने सरकार में जगह पाई है उनका एक ही सदगुण पहचाना जा सकता है कि वे किसी बड़े बाप के बेटे या बेटी हैं। जिन्हें जन्मजात राजनीति घुट्टी मिली हुई है, उन्हें लोकतंत्र का पोलियो बूंद नहीं चाहिए। यह भारतीय लोकतंत्र का उपहास है या उसकी ताकत ? इसका जवाब वे भी देने में असमर्थ हो जाएंगे और उनकी बोलती बंद हो जाएगी जो खानदान की डोर पकड़कर पहले संसद में पहुंचे और अब सरकार में जम गए हैं।

जाने-माने पत्रकार सुरेंद्र किशोर ने आजादी के बाद की राजनीति के अज्ञात पन्नों से खोज कर अपने विश्लेषण में बताया है कि खानदानी राजनीति का रिवाज कब और कैसे शुरू हुआ। उन्होंने इसके उदाहरण भी दिए हैं कि एक बार ढलान पर कदम रखने के बाद निरंतर फिसलते जाने की कहानी कौन-कौन सी है। संभवतः वे अपने किसी दूसरे लेख में यह भी बताएंगे कि जो शुरुआत जवाहरलाल नेहरू ने अपनी बेटी इंदिरा के लिए की थी उसका सिलसिला तब से है जब ऐसी ही कोशिश आजादी की लड़ाई के दौरान पंडित मोतीलाल नेहरू ने की थी। पर तब बात कुछ और ही थी।

सुरेंद्र किशोर के लेख का पहला पारा कुछ इस प्रकार है।

“ताजा करुणानिधि प्रकरण राजनीति में परिवारवाद की बुराइयों की पराकाष्ठा है। अब किसी नेता के किचेन से भी यह तय हो रहा है कि केंद्र में किसे मंत्री बनाया जाना चाहिए। मध्य युग के राजतंत्र में भी ऐसा कम ही होता था। इससे पहले लालू प्रसाद ने जब अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया था तो अनेक लोग सन्न रह गए थे। पता नहीं इस डाइनेस्टिक डेमोक्रेसी के युग में इस देश को आगे और क्या-क्या देखना पड़ेगा।”


पूरा लेख प्रथम प्रवक्ता पत्रिका में पढ़ा जा सकता है। हालांकि यहां भी जल्द ही उपलब्ध करा दिया जाएगा।

Monday, June 1, 2009

डा. सिंह के शपथ ग्रहण की खबर पढ़ें


डा. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री पद की शपथ ग्रहण को लेकर एक निजी समाचार एजेंसी की ओर से चलाई गई निहायत गलत स्टोरी को कई लोग पढ़ना चाह रहे थे। अंततः यहां लगाना ही मुझे सही लगा। दूसरी स्टोरी की चर्चा जो मैंने की थी उसे आप कुछ कहानियों के साथ कल पढ़ पाएंगे।