Tuesday, June 2, 2009

मिटाना-विटाना तो इक दर्द देने वाली प्रक्रिया है


आगे आकर कुछ ऐसा लिखने की आदत नहीं जिसे आखिरकार मिटाना पड़े। क्योंकि सीखा यही है कि मिटाना-विटाना दरअसल, इक दर्द देने वाली प्रक्रिया है। वह भी किसी पत्रकार के लिए। यह बड़े शिद्दत से महसूस करता हूं। ऐसे में जब किसी पत्रकार की पूरी खबर ही मिटा दी जाए तो कैसा लगे ! अंदाजा लगाइये।

जिस खबर को अरुण आनंद जी के बेतुके आदेश पर मिटाया गया था, उसे यहां बता रहा हूं। कहानी भी साथ है। जो इस प्रकार है। उक्त स्टोरी को वेबसाइट से हटाने के बाबत अपना तर्क देते हुए उन्होंने निम्न आरोप लगाए थे। पहला- खबर की हेडलाइन में ही राजकमल प्रकाशक का नाम है जो उचित नहीं। दूसरा- खबर पढ़कर ऐसा लगता है कि संस्थान उक्त प्रकाशक का मुख पत्र है। इससे आज तक की उनकी मेहनत माटी में मिल गई। तीसरा- खबर की जो दिशा बताई गई थी यह उससे पूरी तरह अलग और गलत है। आदि-आदि।

कुछ और बात जान लें ताकि बात साफ रहे। खबर तैयार करने का आदेश देते हुए कहा गया था कि मुंबई हमलों पर क्या कोई किताब बाजार में आई है, यदि आई है तो पाठक उसे किस रूप में ले रहे है ? प्रकाशकों से भी बात की जाए ताकि किताब संबंधी खास जानकारी मिले ?

अब आप खबर पढ़े और उपर्युक्त तीन बिंदुओं से इसका मेल कर लें। क्योंकि, फैसला तो आपको ही करना है। आखिरकार यह लिखे का सवाल है। खैर, इस रफ्तार पर यहीं विराम लगाते हुए।

1 comment:

RAJNISH PARIHAR said...

अच्छी जानकारी...