Monday, February 23, 2009

दिल है छोटा सा, छोटी सी आशा...


मजे की बात है कि स्लमडाग मिलिनेयर के संगीत व गीत के लिए एआर. रहमान को दो एकेडमी अवार्ड्स प्रदान किए गए। इससे हम हिन्दुस्तानी बड़े गदगद हैं। यह ठीक भी है। आखिर उन्हें भी समझ में आना चाहिए था कि यहां के संगीतकार भी ठोक-बजाकर काम करते हैं। यूं ही सिर का बाल बढ़ाकर रंग नहीं जमाते।

बहरहाल, मुंबई की झुग्गियों की जीवन-शैली पर बनी इस फिल्म ने लोस एंजल्स में खूब पुरस्कार बटोरे। एकबारगी ऐसा लगा कि गत 80-90 वर्षों के दौरान बालीवुड में जो बना वह तो कचरा ही रहा, जबकि डैनी बॉयल ने यहां की झुग्गियों में तफरीह कर जो देखा और बनाया मात्र वही बेहतरीन था।

लेकिन, मात्र एक उदाहरण इस धारणा को झुठलाने के लिए बहुत है। ठीक उसी तरह जैसे फिल्म इकबाल में इकबाल के लिए पांच मिनट ही काफी था। रहमान ने वर्ष 1992 में पहली बार बालीवुड में कदम रखा। उन्होंने फिल्म रोजा के –
दिल है छोटा सा, छोटी सी आशा...
चांद तारों को छू लेने की आशा
आसमानों में उड़ने की आशा।

जैसे बेहतरीन गीत को संगीतबद्ध किया। हालांकि रुचि और पसंद तो निजी है। पर व्यक्तिगत राय यही है कि ये गीत जय हो... से कहीं भी कमतर मालूम नहीं पड़ते। मामला कल्पना के नए दरवाजे खोलने का हो या फिर छोटे-छोटे शब्दों में बड़े-बड़े अर्थ घोलने का।

फिल्म रोजा आतंकवाद की मार झेल रहे राज्य (जम्मू कश्मीर) में आए एक आम आदमी की कहानी थी। तब अमेरकियों के वास्ते इस शब्द का कोई औचित्य नहीं था। तो भई काहे का अवार्ड! अब जब हालात बदलें हैं। तंगी छाई है तो बालीवुड याद आया है। यहां के आंचलिक संगीत उन्हें कर्णप्रिय लग रहे हैं। जब अपने रंग में थे साहब तो मदर इंडिया को नजरअंदाज करने में उन्हें जरा भी वक्त नहीं लगा था।

रही बात गुलजार साहब की तो भई, उनसा कोई दूसरा न हुआ, जो फिल्म निर्माण से लेकर त्रिवेणी लिखने तक समान पकड़ रखता हो। यकीन न हो तो देश-विदेश में नजर फिरा लें।
खैर, इसपर विस्तार से बात होगी।
शुक्रिया

6 comments:

संगीता पुरी said...

बहुत सही....महा शिव रात्रि की बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं..

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

जय हो ब्रजेश भैया की। गुलजार की त्रिवेणी से लेकर नमक इश्क का आनंद उठाकर कोई भी ताल ठोक कर कह सकता है- जय हो, जरी वाले रहमान और गुलजार की।

बहरहाल आपकी पोस्ट पर बात करूं। कहीं-कहीं आपकी बात से सहमत नहीं हं, जैसे आप कह रहे हैं- आखिर उन्हें भी समझ में आना चाहिए था कि यहां के संगीतकार भी ठोक-बजाकर काम करते हैं। यूं ही सिर का बाल बढ़ाकर रंग नहीं जमाते।
हम काम करते हैं और करते आए हैं, हमें किसी क प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं टीक वैसे ही जैसे एक कामगार कहता है कि हम काम पर विश्वास करते हैं अपने मालिक को खुश करने पर नहीं। हालांकि अब चलन खुश करने का ही आ गया है।

वैसे पोसट सार्थक लगी।
शुक्रिया।

Unknown said...

हमलोग काफी खुश हैं कि भारतीय संगीतकार को सफलता मिली। लेकिन यह खुमारी अभी पूरी तरह चढ़ी भी नहीं थी कि आपका पोस्ट पढ़ने को मिल गया। मन के किसी कोने में यह बात जरूर है कि यह प्रतिभा का सम्मान है या बाजार का।

Zirah said...

आप जो कहना चाह रहे हैं वह साफ जरूर है। लेकिन इसे और धारदार तरीके से रखने की जरूर है।

संदीप कुमार said...

यकीनन हम आस्कर के मुहताज नहीं हैं लेकिन यह वैसी ही खुशी है जैसी पड़ोसी से अपने बच्चे की तारीफ सुन कर होती है भले ही हमें उसकी काबिलियत मालूम हो। आप ने जो आस्कर मिलने के समय की बात उठाई वो काबिले गौर है। मुझे याद है एक समय ऐसे ही हमारे यहां विश्व सुंदरियों की भरमार हो गई थी।

आप लिखा हमेशा पसंद आता है जारी रखें

KAUSHAL said...

इस बाजार और प्रचार के युग में ए. आर रहमान को ऑस्कर मिलने से लोगों का गदगद होना लाजिमी है. लेकिन रहमान की प्रतिभा इसकी मोहताज नहीं थी. slumdog से जुडी विदेशी टीम के कारण ऑस्कर मिलने से भले ही इस बार रहमान के संगीत की चर्चा चारों ओर हो रही है. लेकिन आपकी यह बात बिलकुल सच है कि उनकी पिछली फिल्मों, चाहे वह रोजा हो, दिल से, बॉम्बे, ताल या गुरु हो, का संगीत कहीं से भी कमतर नहीं था. रहमान को किसी प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है.