
दीवान पर नामवर सिंह के एक लेख को पढ़ने के बाद नज़ीर अकबराबादी तत्काल याद आ गए। कहा जाता है कि भाषा के स्तर पर उन्होंने अज़ान भी दी और शंख भी फूंका। खैर,
कलियुग पर लिखी उनकी चार पंक्तियां यूं हैं-
अपने नफ़ेके वास्ते मत और का नुक़सान कर।
तेरा भी नुक़सां होयगा इस बात ऊपर ध्यान कर।
खाना जो खा तो देखकर, पानी जो पी तो छानकर।
यां पांव को रख फूंककर और खौफ़ से गुज़रान कर।
कलयुग नहीं कर-जुग है यह, यां दिनको दे और रात ले।
क्या खूब सौदा नक़्द है, इस हाथ दे उस हाथ ले।।
8 comments:
वाह कलियुग पर क्या खूब लिखा है।
कलयुग नहीं कर-जुग है यह, यां दिनको दे और रात ले।
क्या खूब सौदा नक़्द है, इस हाथ दे उस हाथ ले।।
वाह ...।
वैसे दीवान की हिंदी साईट पता तो बताए।
कलयुग नहीं कर-जुग है यह, यां दिनको दे और रात ले।
क्या खूब सौदा नक़्द है, इस हाथ दे उस हाथ ले।।
waah dil khush ho gaya padhkar,behtarin.
ब्रजेश भाई,
नजीर की यह रचना अधूरी है....
लेकिन जो भी है लाजवाब है .
बहुत बढिया. सम्भव हो तो यह रचना पूरी दें.
वाह बहुत खूब पढ़वाया है मेरे भाई ...
मेरी कलम -मेरी अभिव्यक्ति
शुक्रिया! नज़ीर मेरे पसंदीदा शायर हैं।
Very factual
that's good.
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