Saturday, January 31, 2009

गंगाजल आपरेशन का सच


डिब्रूगढ़ (असम) से हाल ही में दिल्ली आए एक व्यक्ति से मुलाकात हुई। वे हिन्दी सिनेमा बड़े चाव से देखते हैं। उन्होंने कहा, डिब्रूगढ़ आते-जाते जब भी ट्रेन भागलपुर स्टेशन पहुंचती है तो फिल्म- ‘गंगाजल-द हौली वैपन ’ की खूब याद आती है। यह फिल्म शहर में हुई अंखफोड़वा कांड (गंगाजल आपरेशन) घटना पर आधारित है।

आगे उन्होंने कहा, ‘सोचता हूं कि इस घटना का सच क्या रहा होगा ?’ इस फिल्म के निर्देशन प्रकाश झा हैं। वे यह मानने से इनकार करते रहे हैं कि फिल्म भागलपुर में हुई अंखफोड़वा कांड पर आधारित है। हालांकि वे फिल्म पर घटना के प्रभाव की बात स्वीकारते हैं।

खैर! घटना को तीन दशक बीत गए। लेकिन तब जो सवाज उपजे थे, वे आज भी खड़े हैं। यह समझना जरूरी हो गया है कि आखिर क्यों लोगों को वह घटना यकायक याद आ जाती है। इन सवालों का जवाब सही-सही तलाशने के लिए उन परिस्थितियों को जानना जरूरी है, जिन स्थितियों में यह घटना घटी।

शहर के कोतवाली थाने के एक तात्कालीन पुलिस अधिकारी ने बताया कि घटना की शुरुआत 1979 में भागलपुर जिले के नवगछिया थाने से हुई थी। यहां पुलिस ने गंभीर आरोपों में लिप्त कुछ अपराधियों की आंखों में तेजाब डालकर अंधा कर दिया था। इसके बाद सबौर, बरारी, रजौन, नाथनगर, कहलगांव आदि थाना क्षेत्रों से भी ऐसी खबरें आईं।

ऐसी घटनाएं रह-रहकर अक्टूबर 1980 तक होती रहीं। घटना की जांच कर रही समिति के मुताबिक जिले में कुल 31 लोगों के साथ ऐसा बर्ताव किया गया। इनमें लक्खी महतो, अर्जुन गोस्वामी, अनिल यादव, भोला चौधरी, काशी मंडल, उमेश यादव, लखनलाल मंडल, चमनलाल राय, देवराज खत्री, शालिग्राम शाह, पटेल शाह, बलजीत सिंह जैसे लोग थे। बलजीत सिक्ख समुदाय का था। संभवतः इसलिए 6 अक्टूबर 1980 को उसके साथ ऐसी घटना होने पर मामला राजधानी दिल्ली में खूब उछला। हालांकि यह मामला उक्त समुदाय के किसी एक व्यक्ति के साथ घटित होने मात्र का नहीं था। उस समय तक जनता सरकार चुनाव हारकर सत्ता से बाहर हो गई थी और इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी। दुख की बात है कि इस मुल्क में कुछ चीजों को देखने का यही अनकहा चलन बन गया है।

बहरहाल, बाद में दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में इन लोगों की आंखों की जांच हुई। इसके बाद डाक्टरों ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि इनकी आंखों को भेदकर उसमें क्षयकारी पदार्थ डाल दिए गए हैं। इससे आंखों की पुतलियां जल गई हैं। नेत्र-गोल नष्ट हो गए हैं, जिससे इन लोगों की दृश्य-शक्ति हमेशा के लिए समाप्त हो गई है।

जानकारी के मुताबिक आंखों को भेदने के लिए टकुआ (बड़ी सुई) नाई द्वारा नख काटने के औजार और साइकिल के स्कोप का इस्तेमाल किया जाता था। कई महीने तक जिला पुलिस ने यह कार्य जारी रखा। इससे मालूम पड़ता है कि राज्य प्रशासन ने अशिक्षा, बेरोजगारी और गरीबी के बीच पनप रही आपराधिक प्रवृत्तियों को खत्म करने का सरल व निहायत अमानवीय रास्ता अख्तियार कर रखा था।

अपराधी प्रवृति के इन लोगों को दिन में शहर के विभिन्न थाना क्षेत्रों में पकड़ा जाता था और रात में उनकी आंखें फोड़ दी जाती थीं। यह जानकारी घटना की जांच के लिए उच्चतम न्यायालय की ओर से भेजी गई आर. नरसिम्हन समिति को जेल में बंद कुछ अंधे कैदियों ने दी थी। इसकी चर्चा समिति ने अपनी रिपोर्ट में भी की है।

राज्य सरकार को इस बात की जानकारी थी। फिर भी वह चुप बैठी रही। 26 अक्टूबर 1979 को अर्जुन को सेंट्रल जेल लाया गया था। उसने 20 नवम्बर 1979 को सीजीएम भागलपुर के नाम आवेदन दिया। जिसमें उसने अपने अंधेपन की जांच कराने की मांग की थी। 30 जुलाई 1980 को अन्य 11 अंधे कैदियों ने भी जांच की मांग करते हुए कानुनी सहायता की याचना की थी।

पर, शहर की अदालत ने यह कहते हुए उनकी याचना को ठुकरा दिया कि ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिसके तहत इनको कानुनी सहायता दी जाए। हालांकि, मार्च 1979 में उच्चतम न्यायालय ने हुसैनआरा खातून मामले में सभी कैदियों को कानुनी सहायता देने की बात कह चुका था। फिर भी जिला न्यायालय इस फैसले की अंदेखी कर गया, जो संविधान के अनुच्छेद 141 का उल्लंघन था।

राज्य सरकार से एक भारी भूल उस समय भी हुई जब 30 जुलाई 1980 को सेंट्रल जेल के अधीक्षक बच्चुलाल दास की ओर से अंधे कैदियों की जानकारी सरकार को देने के पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। यह जानकर ताज्जुब होगा कि राज्य के जेल महानिरीक्षक ने भी अपने दौरे के समय बांका जेल में देखे गए तीन अंधे कैदियों की जानकारी सरकार को दी थी। साथ ही इसे रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाने का आग्रह किया था। बिहार सरकार पर इन बातों का कोई असर नहीं हुआ। और 6 अक्टूबर 1980 को बलजीत सिंह और पटेल शाह सहित अन्य आठ कथित अपराधियों को अंधा कर दिया गया।

इस मामले को एस.एन.आबदी और अरुण सिन्हा जैसे पत्रकारों ने खूब उठाया। घटना के बाबत दो मामले उच्चतम न्यायालय में दर्ज किए गए। पहला- अनिल यादव और अन्य बनाम बिहार सरकार(रिट पटिसन संख्या- 5352 / 1980)। दूसरा- खत्री और अन्य बनाम बिहार सरकार (रिट पटिसन संख्या- 5760/ 1980)। न्यायालय में पीड़ितों की पैरवी अधिवक्ता कपिला हिंगोरानी कर रही थीं। बाद में दोषी पाए गए कई पुलिस अधिकारी व कर्मियों को निलंबित कर दिए गए और कईयों का तबादला।

शहर की आम जनता पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध की जा रही कार्रवाई के सख्त खिलाफ थी। सन् 1980 के आम चुनाव में नव-निर्वाचित सांसद भागवत झा आजाद के नेतृत्व में जनता ने सरकार के खिलाफ खूब प्रदर्शन किया। वे लोग पुलिस की कार्रवाई को उचित करार दे रहे थे। लोगों का कहना था कि इन अपराधियों को राजनेताओं का संरक्षण प्राप्त था और परिस्थितियों के हिसाब से उनसे निपटने का यह रास्ता सही था।

यकीनन ऐसी घटनाएं किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकती हैं। वह तो एक टीस छोड़ जाती है। लेकिन, आज जब देश की सबसे ऊंची पंचायत में कथित अपराधी भी पहुंच रहे हैं। समाज में भय पहले की अपेक्षा बढ़ा है तो जनता-जनार्दन क्या समाधान चुनती है ? यह बात देखऩे वाली होगी। *

ब्रजेश झा

1 comment:

Udan Tashtari said...

इस घटना की इतनी विस्तृत जानकारी नहीं थी, आभार.