Sunday, March 15, 2009

जोश मलीहाबादी बनाम जावेद अख्तर


जोश के लिखे इस गीत को कुछ लोग पूरा पढ़ना चाहते थे। सन 50 के कुछ साल आगे या पीछे जोश मलीहाबादी ने फिल्म मन की जीत के लिए एक गीत लिखा था, जो इस प्रकार है।

मोरे जोबना का देखो उभार,
पापी, जोबना का देखो उभार ।।

जैसे नदियों की मौज,
जैसे तुर्कों की फौज,
जैसे सुलगे से बम,
जैसे बालक उधम ,
जैसे कोयल पुकार।

जैसे हिरणी कुलेल,
जैसे तूफान मेल,
जैसे भंवरे की गूंज,
जैसे सावन की धूम,
जैसे गाती फुहार।

जैसे सागर पे भोर,
जैसे उड़ता चकोर,
जैसे गेंदा खिले,
जैसे लट्टू हिले,
जैसे गद्दार अनार।

मोरे जोबना का देखो उभार।
पापी, जोबना का देखो उभार।।


इस गीत को लिखने के बाद उस समय जोश की खूब किरकिरी हुई थी। उसके बाद से जोश ने किसी भी फिल्म के लिए गीत नहीं लिखा। लेकिन, इसके ठीक 40-45 साल बाद जावेद अख्तर ने फिल्म 1942-ए लव स्टोरी के वास्ते यह गीत लिखा था।

इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा।
इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा।।

जैसे खिलता गुलाब,
जैसे शायर का ख्वाब,
जैसे उजली किरण,
जैसे बन में हिरण,
जैसे चांदनी रात,
जैसे नरमी की बात,
जैसे मंदिर में हो...एक जलता दीया।
इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा।।

जैसे सुबह की रूप,
जैसे सर्दी की धूप,
जैसे बीणा की तान,
जैसे रंगों की जान,
जैसे बलखाए बाल,
जैसे लहरों का खेल
जैसे खुशबू लिए आई ठंडी हवा…।
इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा।।

जैसे नाचती मोर
जैसे रेशम की डोर,
जैसे परियों के रंग,
जैसे चंदन की आग,
जैसे सोलह श्रृंगार,
जैसे रस की फुहार,
जैसे आहिस्ता-आहिस्ता बहता नशा...।
इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा।।


तो आप समझ गए होंगे कि बॉलीवुड में कैसे बन जाता है कोई बेहतरीन गाना !

Tuesday, March 10, 2009

नजीर की होली पर लिखी पंक्तियां-




मियां! तू हमसे न रख कुछ गुबार होली में।
कि रूठे मिलते हैं आपस में यार होली में।।

मची है रंग की कैसी बहार होली में।
हुआ है जोर चमन आश्कार होली में।।

अजब यह हिन्द की देखी बहार होली में।।


सचमुच यूं मनाएं होली। मुबारक हो।

कविता


अब जब हमारा वक्त कंप्यूटर पर ही टिप-टिपाते निकल जाता है। स्याही से हाथ नहीं रंगते, तो कई लोग इसे पूरा सही नहीं मानते। यकीनन, हाथ से लिखे को पढ़ने का अपना आनंद है। यह तब पूरा समझ में आता है, जब मोबाइल फोन से बतियाने के बाद किसी पुराने खत को पढ़ा जाए। हिन्दू कॉलेज से निकलने वाली हस्तलिखित अर्द्धवार्षिक पत्रिका (हस्ताक्षर) की नई प्रति मिली तो मन गदगद हो गया।
पत्रिका की एक कविता आपके नजर-

ब्द
सीखो शब्दों को सही-सही
शब्द जो बोलते हैं
और शब्द जो चुप होते हैं

अक्सर प्यार और नफरत
बिना कहे ही कहे जाते हैं
इनमें ध्वनि नहीं होती पर होती है
बहुत घनी गूंज
जो सुनाई पड़ती है
धरती के इस पार से उस पार तक

व्यर्थ ही लोग चिंतित हैं
कि नुक्ता सही लगा या नहीं
कोई फर्क नहीं पड़ता
कि कौन कह रहा है देस देश को
फर्क पड़ता है जब सही आवाज नहीं निकलती
जब किसी से बस इतना कहना हो
कि तुम्हारी आंखों में जादू है

फर्क पड़ता है
जब सही न कही गयी हो एक सहज सी बात
कि ब्रह्मांड के दूसरे कोने से आया हूं
जानेमन तुम्हें छूने के लिए।

- लाल्टू

Sunday, March 8, 2009

इक खत कविता की शक्ल में


आज गुरुजी (अजित कुमार-साहित्य व पत्रकारिता से जुड़े पुराने लोग इन्हें खूब जानते हैं) के यहां जाना हुआ। वहां दीवार पर टंगी अंग्रेजी की इक कविता दिखी। खूब पढ़ा यानी कई दफा। अब आपके नजर-

I love you
Because
I love you
Because it would be
Impossible for me not
To love you, I love you
Without question,
Without calculation
Without reason
Good or bad, faithfully,
With all my heart
And soul, and
Every faculty

वैसे यह पत्र है जो Jyliette Drouet ने वर्ष 1833 में Victor के नाम लिखा था।

Saturday, March 7, 2009

राजधानी में सड़क छाप फिल्म फेस्टिवल


राजधानी के लुटियंस इलाके व उसके आसपास मनाया जाने वाला फिल्मोत्सव अब पुरानी परंपराओं को दरकिनार करते हुए शहर की झुग्गी बस्तियों में पहुंच गया। स्पृहा (गैर सरकारी संस्था) ने बच्चों की कोमल कल्पनाओं में और पंख लगाने के इरादे से दिल्ली के नई सीमापुरी इलाके में सड़क छाप फिल्म उत्सव का आयोजन किया।

उत्सव का उद्देश्य बच्चों में संवेदनशीलता कायम रखने व गरीब बच्चों से छिन रहे बचपन को लौटाने का है। हालांकि, यह एक चुनौती है, जिसे स्पृहा ने अनूठे अंदाज में पूरा करने की जिम्मेदारी ली है।

यहां उत्सव के दौरान बच्चों को 'चिरायु', 'छू लेंगे आकाश', 'जवाब आएगा' और 'उड़न छू' नाम की चार बाल फ़िल्में दिखलाई गईं। स्पृहा के संचालक पंकज दुबे ने बताया कि मल्टीप्लेक्स की संस्कृति में ये बच्चे मनोरंजक फिल्में देखने से महरूम रह जाते हैं। हमारी कोशिश बस इतनी है कि इन बच्चों को भी बेहतर फिल्म दिखाने को मिले।

उत्सव का आयोजन चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी आफ इंडिया(सीएफएसआई) के सहयोग से किया गया था। यकीनन पंकज इस प्रयास के लिए बधाई के पात्र हैं। लेकिन, यदि ये प्रयास हिंदुस्तान के बज्र देहाद में भी पहुंचे तो क्या कहने हैं !

Wednesday, March 4, 2009

सफर का सफरी सूटकेस


हाल ही में सफर (गैरसरकारी संस्था) ने राजधानी के दो-तीन जगहों पर इंडिया अनट्च्ड (लघु फिल्म) का पुनः प्रदर्शन किया। इसकी जानकारी मेरे पास थी। हालांकि स्टालिन की करीब दो घंटे की इस फिल्म को मैं कई बार देख चुका हूं। यह देश में व्याप्त छुआछूत और जाति प्रथा पर बनी है। इसे स्टालिन अपनी नजर से देखते हैं।

हालांकि, बार-बार देखने के बावजूद यकीन नहीं होता कि अब भी यही पूरा सच है। इसे लेकर एक झीन सा परदा अब भी मेरे मन में है। खैर, यह अलग मसला है। सफर बहस-मुबाहिसों को आगे बढ़ाने के लिए जो काम कर रहा है, वह मेरे निजी ख्याल से ज्यादा अहमियत रखता है।

जामिया मिलिया में फिल्म की स्क्रीनिंग के दौरान कई छात्र मौजूद थे। इससे पहले यह दिल्ली विश्वविद्यालय के एक छात्रावास में भी दिखाई गई थी। फिल्म पर छात्रों ने जमकर बातचीत की। यहां सफर ने विचार पैदा करने व बहस करने की संभ्रांतों की जागीर अब छात्रों व बज्र देहात में जीवन काट रहे लोगों में फैलाने का सिलसिला शुरू किया है, वह काबिलेगौर है।

इससे पहले भी सफर रविन्द्र भवन में होने वाली घिसीपिटी साहित्यिक गोष्ठियों से अलग एक नई तान दे चुका है। इसका एक मंजर तब दिखा जब, वजीराबाद गांव के सफर के दफ्तर में राजेंद्र यादव अपनी लघु कहानी का पाठ कर रहे थे। इसी तरह की हलचल पैदा करने वाली कुछ-एक बातें सफर के नाम नत्थी हैं।

Saturday, February 28, 2009

कलियुग को नज़ीर ने कुछ यूं देखा


दीवान पर नामवर सिंह के एक लेख को पढ़ने के बाद नज़ीर अकबराबादी तत्काल याद आ गए। कहा जाता है कि भाषा के स्तर पर उन्होंने अज़ान भी दी और शंख भी फूंका। खैर,
कलियुग पर लिखी उनकी चार पंक्तियां यूं हैं-

अपने नफ़ेके वास्ते मत और का नुक़सान कर।
तेरा भी नुक़सां होयगा इस बात ऊपर ध्यान कर।
खाना जो खा तो देखकर, पानी जो पी तो छानकर।
यां पांव को रख फूंककर और खौफ़ से गुज़रान कर।

कलयुग नहीं कर-जुग है यह, यां दिनको दे और रात ले।
क्या खूब सौदा नक़्द है, इस हाथ दे उस हाथ ले।।