Wednesday, February 16, 2011

क्या दिग्गी राजा बनेंगे वजीर



प्रधानमंत्री बदला जाना है। अंदरखाने में इसकी चर्चा है। कहा जा रहा है कि दस जनपथ सुरक्षित विकल्प की तलाश में है। ऐसे में वहां कुछ लोग दिग्विजय सिंह यानी दिग्गी राजा का नाम ले रहे हैं। इससे दोनों खेमा सक्रिय है। एक वह जो उनके समर्थकों का है। दूसरा खेमा वह है, जहां उनके विरोधी हैं। हालांकि, बतौर विकल्प कुछेक नाम और हैं। पर, ऐसा लगता है कि दस जनपथ वैसे नामों पर चर्चा तक करना नहीं चाहता है, जिन नामों को लेकर मन में थोड़ा भी अटकाव है। आखिरकार युवराज के भविष्य का सवाल है।


1947 में एक संभ्रांत परिवार में पैदा हुए दिग्विजय उन कुछेक लोगों में हैं, जिनकी राजीव गांधी से निकटता थी। यकीनन, तमाम गुणों के साथ-साथ हमउम्र भी इसकी एक वजह हो सकती है। खैर, दिग्गी राजा स्वयं एक साक्षात्कार में यह स्वीकार चुके हैं। कहा है, “राजीव गांधी का मुझे बहुत स्नेह मिला। उन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया और 37 साल की उम्र में मध्य प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया। वह भी तब जब कई धुरंधर नेता थे।” अगले सात वर्षों तक वे प्रदेश अध्यक्ष बने रहे। इसके बाद 1993 के चुनाव में पार्टी जीतकर आई तो वे मुख्यमंत्री हुए। अगले 10 सालों तक सूबे का नेतृत्व किया। यह वह दौर था जब पार्टी मुश्किल दौर से गुजर रही थी। पर वे एक खंभा संभाले हुए थे। फिर 2003 में विधानसभा चुनाव हारे तो संगठन की कमान संभाली। अपने कहे का मान रखा, मौका मिला तो भी कोई पद नहीं लिया। आलाकमान का विश्वासी बना रहना ही जरूरी समझा।

राजनीतिक जानकार मानते हैं कि दिग्विजय लंबी रेस में यकीन करते हैं। खैर, इसके बाद से वे लगातार केंद्रीय राजनीति में सक्रिय हैं। उन कामों को अपने जिम्मे लिया है, जहां कांग्रेस पार्टी की नब्ज कमजोर है। वे उत्तर भारत में कांग्रेस को मजबूत करने में जुटे हैं। दरअसल, यही वह कूंजी है, जिससे पार्टी अपने बूते सत्ता में आ सकती है। युवराज यानी राहुल गांधी को सुरक्षित कुर्सी मिल सकती है। इन क्षेत्रों से कुछ अच्छे परिणाम आए हैं। वजह जो भी हो, पर इससे दस जनपद का भरोसा दिग्गी राजा पर बढ़ा है।


पिछले एक सालों से राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह की सक्रियता देख अनुमान लगाया जा सकता है कि पार्टी नेतृत्व का उनपर गहरा विश्वास है। यही वजह है कि नीतिगत मामलों पर भी वे सार्वजनिक मंचों से लगातार कह-बोल रहे हैं। मामला सरकार से जुड़ा हो या फिर पार्टी से। वे बयान देने से नहीं चूकते। माओवादी विद्रोहियों से निपटने के मसले पर उन्होंने गृह मंत्री पी.चिदंबरम को आडे हाथों लिया था। 14 अप्रैल, 2010 को अपने एक लेख में उन्होंने लिखा था, “चिदंबरम बेहद इंटेलिजेंट, कमिटेड और ईमानदार हैं, पर एक बार मन बना लेने पर वह काफी जिद्दी हो जाते हैं। वे आदिवासियों को प्रभावित करने वाले मुद्दों को नजरअंदाज कर रहे हैं। इस समस्या को लॉ एंड ऑर्डर की समस्या की तरह ट्रीट कर रहे हैं। ” केवल गृह मंत्री को ही नहीं, वे केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को भी सार्वजनिक रूप से सलाह दी चुके हैं। सिब्बल द्वारा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) की प्रवेश परीक्षा में प्रस्तावित सुधारों की घोषणा के एक दिन बाद ही दिग्गी राजा कह बैठे कि मंत्रालय को उच्च शिक्षा की बजाय स्कूली शिक्षा प्रणाली को विकसित करने पर ध्यान केंद्रीय करना चाहिए।

अबतक ऐसे उदाहरण कम देखने-सुनने को मिले हैं, जब कोई महासचिव सार्वजनिक बयान देकर सरकार को बार-बार दिशा देने का काम करता हो। यहां दिग्विजय सिंह ने नया रिवाज चलाया है। इतना ही नहीं है। पार्टी स्तर पर भी नीतिगत मसलों पर नई सीमा रेखा निर्धारित करने का काम वे लगातार करते आ रहे हैं। मामला अफजल गुरु की फांसी का हो या फिर बाटला हाउस एनकाउंटर का। वे नई लाईन लेते रहे हैं। एक समय उन्होंने कहा था कि संसद हमलाकांड के दोषी अफजल गुरु को फांसी होनी चाहिए। दिग्गी राजा की इस हिन्दूवादी लाइन ने कांग्रेस के कई नेताओं को सकते में डाला था। दूसरी तरफ वे बाटला एनकाउंटर में मारे गए आतंकियों के परिजनों से आजमगढ़ में मुलाकात कर आए। उन्होंने एनकाउंटर के तरीके पर भी सवाल किए थे। फिर हिन्दू आतंकवाद के मुद्दे पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को निशाने पर लिया। दिग्गी राजा के इन चौकाने वाले और आगे आकर बयान देने से पार्टी में उनकी स्थिति कमजोर नहीं हुई है, बल्कि मजबूत ही हुई है। इससे ऐसा लगता है कि हमेशा तौलकर बोलने वाले दिग्गी राजा के बयानों से कहीं न कहीं कांग्रेस आलाकमान की भी सहमति है। शायद यही वजह है कि उनके बयानों का कांग्रेस प्रवक्ता हमेशा बचाव करते या फिर ढुलमुल रवैया अख्तियार करते नजर आते रहते हैं।

गत एक सालों में कांग्रेस की तरफ से जो बयान आए, उसे या तो राहुल गांधी ने दिया, अन्यथा दिग्गी राजा ने। दूसरे इनके पीछे ही रहे। इससे दस जनपथ से उनकी निकटता को समझा जा सकता है। राजनीतिक विश्लेषक लिख-बोल रहे हैं कि पहली बार 2004 में यूपीए की सरकार आई तो यह धारणा बनी थी कि दोहरे राजनीतिक प्रबंधन का प्रयोग कांग्रेस ने शुरू किया है। पार्टी को सोनिया गांधी संभालेंगी। सरकार को मनमोहन सिंह चलाएंगे। 2009 के चुनाव के बाद इस हवा को गति मिली। पर, एकबारगी स्थिति बदल गई है। अंदरूनी खींचतान और महाघोटालों का भंडाफोड़ होने के बाद मनमोहन सिंह का विकल्प तलाशा जा रहा है। वहीं दस जनपथ की मजबूरी यह है कि पार्टी अभी वैसी मजबूत स्थिति में नहीं है कि सत्ता की बागडोर युवराज को सौंपी जाए। दस जनपथ को समय चाहिए। वह इस समय के लिए बेहतर विकल्प की खोज में है। दिग्गी राजा इसमें सबसे आग हैं। हालांकि,
बतौर विकल्प एक नाम प्रणव मुखर्जी का भी है। पर, सूत्रों के मुताबिक अंदरखाने में संदेह है कि टूजी-स्पेक्ट्रम घोटाले की सीडी उनके दरबार से ही बाहर आई है। ऐसी स्थिति में दस जनपथ फूंक-फूंककर कदम रखना चाहता है।
उसे दिग्विजय सिंह एक बेहतर विकल्प नजर आ रहे हैं। ये उनकी पहली पसंद हैं। इसकी पहली वजह तो यही है कि उन्होंने अपनी निष्ठा साबित की है। दूसरी यह कि वे बेदाग रहे हैं औऱ उनका जमीनी आधार भी है। तीसरी यह कि अब उनकी प्रतिज्ञा की समय-सीमा भी समाप्त होने वाली है। अब देखना यह है कि दस जनपथ किसे वजीर बनाता है।

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