Monday, August 31, 2009

राह से भटका छात्र संघ



दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ का चुनाव चार सितंबर को होना है। शायद ही किसी दूसरे विश्वविद्यालय में छात्र संघ का चुनाव इतनी नियमितता से होता है, जितना कि दिल्ली विश्वविद्यालय में। पर यहां कि छात्र राजनीति पूरी तरह बदल चुकी है।

वैसे तो युवाओं की बढ़ती अराजनीतिक मानसिकता और कैरियर बनाने की आपाधापी वाले इस दौर में पूरे देश की ही छात्र राजनीति प्रभावित हुई है। देश का कोई परिसर अब किसी बदलाव के लिए नहीं गर्माता। मुद्दे गायब रहते हैं।

यूं कहें कि चुनाव राजनीति की ताकतवर दुनिया में जाने की सीढ़ी होकर रह गए हैं। डुसू की राजनीति इन्हीं आकांक्षाओं के इर्द-गिर्द घुमती है। लिंगदोह समिति की रोपोर्ट इस राह में रोड़े डालती है, जिसकी वजह से बड़े छात्र संगठन आपत्ति दर्ज करा रहे है। खैर। अब तक डुसू में चुने गए अध्यक्ष व सचिव


अब तक के डुसू अध्यक्ष
वर्ष - अध्यक्ष - सचिव

1954-55 गजराज बहादुर नागर, -----
1955-56 प्रेम सबरवाल, एचडी तुलसीदास
1956-57 यदुकुल भूषण , अशोक कुमार तनवर
1957-58 कृष्णानंद शर्मा , अदिश जैन
1958-59 नरेंद्र मेहता , कलश कपूर
1959-60 राम लुभाया सरवीना, अश्वनी सेठ
1960-61 विदेश प्रताप चौधरी, मदन सलूजा
1961-62 मदन लाल सलूजा , श्याम सुंदर भाटिया
1962-63 जोगिंदर संत सेटी, यशलाल शर्मा
1963-64 नरेंद्र नाथ कालिया , सुरेंद्र सेठी
1964-65 सुरेंद्र सेठी , राजवंसल जैन
1965-66 अशोक मारवाह, मनमोहन सिंह जुनेजा
1966-67 सुभाष गोयल, प्रदीप सेठ
1967-68 हरचरण सिंह जोश, विनय सेठ
1968-69 अजित सिंह चड्डा, रमेश वर्मा
1969-70 सुभाष सोहनी , ....
1970-71 सुभाष चोपड़ा , भगवान सिंह
1971-72 भगवान सिंह, रावत कुमार
1972-73 श्रीराम खन्ना , शेर सिंह डागर
1973-74 अशोक कुमार , अटल भाटिया
1974-75 अरुण जेटली , हेमंत विश्नोई
1975-76 आपात काल
1976-77 आपात काल
1977-78 विजय गोयल, रजत शर्मा
1978-79 हरि शंकर, विजय जॉली
1979-80 राजेश ओबराय, पिंकी आनंद
1980-81 विजय जॉली , सुशील कुमार
1981-82 सुधांशु मित्तल, अजित पांडे
1982-83 योगेश शर्मा , आर पी सिंह
1983-84 आर सोनी, नरेश शर्मा
1984-85 बलराम यादव, सतपाल धुग्ना
1985-86 अजय माकन, राजेश गर्ग
1986-87 मदन सिंह बिष्ट, नरेंद्र टंडन
1987-88 नरेंद्र टंडन , अंजु सचदेवा
1988-89 आशीष , हरिओम
1989-90 अंजु सचदेवा, कमल कांत सचदेवा
1990-91 अंजु सचदेवा , कमल कांत सचदेवा
1991-92 राजीव गोस्वामी, सोनिया सेठ
1992-93 अवधेश शर्मा , मोनिका कक्कर
1993-94 मोनिका कक्कर, शालू मलिक
1994-95 शालू मलिक , वंदना मिश्रा
1995-96 अलका लांबा , रेखा जिंदल
1996-97 रेखा जिंदल , सुरेंद्र गोयल
1997-98 अनिल झा , सुनीता नारंग
1998-99 जयवीर राणा , रीतू वर्मा
1999-00 रीतू वर्मा , नीतू वर्मा
2000-01 अमित मलिक , तरुण कुमार
2001-02 नीतू वर्मा , विकास सोकीन
2002-03 नकुल भारद्वाज , दीप्ति रावत
2003-04 रोहित चौधरी , रागिनी नायक
2004-05 नरेंद्र टोकस , अमृता धवन
2005-06 रागिनी नायक , रमित सहरावत
2006-07 अमृता धवन , .....
2007-08 अमृता बाहरी , मनीष चौधरी
2008-09 नुपूर शर्मा , अमित चौधरी

पीला जो रंग है



इक साथी ने कहा कि पीला भी कोई रंग है। रोग का सूचक है। तब हमने कहा,पीला ही रंग है- जैसे यह फूल। जैसे कि हल्दी आदि-आदि। कभी पराग को देखा है? इस शहर में तो लोग पराग भी नहीं जाते-अब क्या रहें! तपाक से इक अन्य साथी ने कहा- न जानें अपनी बला से। उससे पराग के गुण में कोई फर्क थोड़े ही आने वाला है।

Thursday, August 27, 2009

सड़क के पार



मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है।
क्योंकि,
इस तरह एक उम्मीद-सी होती है
कि
दुनिया जो इस तरफ है शायद उससे कुछ बेहतर हो, सड़क के उस तरफ।


गिरींद्र के ब्लॉग पर यह पंक्ति टंगी है। हर बार नई मालूम पड़ती है। सो यहं भी लागा दिया।

Monday, August 17, 2009

याद आए ढिंगरा


ठीक सौ वर्ष पहले आज ही के दिन क्रांतिकारी मदन लाल ढिंगरा को फांसी दी गई थी। उनपर अंग्रेज अधिकारी कर्जन वैलि को मारने का आरोप था। ढिंगरा का जन्म सन् 1883 में हुआ था और उनके पिता सिविल सर्जन थे।

हालांकि उनका परिवार अंग्रेजी सरकार के प्रति वफादार था। फिर भी वे अंग्रेजी राज का विरोध करते रहे। अंततः महज 26 वर्ष की उम्र में वतन के लिए शहीद हो गए। आज उनकी शहादत की शताब्दी दिवस पर कम ही लोग उन्हें याद कर रहे हैं। मीडिया भी अपवाद नहीं है। वैसे, द हिन्दू इस मामले में आगे है। इसलिए तो बेहतर है। वेब पत्रकारिता में भी मूल्य की खूब बात होती है। पर, ढिंगरा को भूल गए उसका क्या ?

सरकारी चंपुओं से हम इसकी उम्मीद नहीं कर सकते। अभी तो सब राहुल नाम का चादर ओड़े हैं। ऐसे में दूसरे नौजवान को कैसे याद किया जा सकता है ? शहीद हुए तो अपनी बला से! समझदारी से काम करते तो संभव था सन् 1947 आते-आते प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो जाते।

Sunday, August 16, 2009

रैगिंग का रोग बड़ा बुरा


देश के तमाम विश्वविद्यालयों में नया शैक्षणिक सत्र शुरू हो चुका है। पर अदालती लगाम के बावजूद रैगिंग का रोग छूटता नहीं दिख रहा। जेएनयू, डीयू समेत कई प्रतिष्ठित संस्थानों से इसकी शिकायते आई हैं। किरोड़ी मल कॉलेज ‘छात्रावास’ का मामला तो मीडिया में खूब आया।

यह सब तब हो रहा है जब सर्वोच्च न्यायालय ने रैगिंग पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया है। यूजीसी के दिशा-निर्देश पर सभी शिक्षण संस्थान चौकन्ने हैं।

आखिर वजह क्या है ? कुछ लोगों का मानना है कि वे छात्र रैगिंग करते ज्यादा देखे जाते हैं जो खुद रैगिंग का शिकार हो चुके होते हैं। वे अपना गुस्सा निकालने की प्रतीक्षा में रहते हैं और नए छात्रों की रैगिंग करना अपना अधिकार मानते हैं। यह एक प्रकार का मनोरोग है। आप क्या मानते हैं?