Tuesday, December 1, 2009

भीड़ा का एकांत स्थल ‘ रीगल ’ सिनेमाघऱ



फिजूल की बात लग सकती है ! पर ताज्जुब न हो, कई बार ऐसा होता है कि सिनेमाघर आपको उस शहर की ठीक-ठीक उम्र बतला दे। अब दिल्ली के कनॉट प्लेस में आबाद रीगल सिनेमाघर को ही लें। यह इमारत सन् 1920 में तैयार हुई थी। इसकी काया वास्तुकार वाल्टर जॉर्ज की दिमागी उपज है। पुराने लोग बताते हैं कि कनॉट प्लेस के आबाद होने की कहानी रीगल सिनेमाघर की ईंट बयां कर सकती है।

खैर, जो भी हो, शुरुआती दिनों में रीगल की पहचान थिएटर के रूप में थी। यहां नगर की संभ्रांत आबादी नाटक का लुत्फ उठाने आती थी। कभी-कभार फिल्म-शो हो जाया करता था। पृथ्वीराज कपूर जैसे अभिनेता यहां नाटक का मंचन करते थे। यह बात बीसवीं शताब्दी के तीसरे और चौथे दशक के शुरू के वर्षों की है।

लेकिन, जब नाटक की जगह सिनेमा धीरे-धीरे लोकप्रिय होने लगा तो रीगल भी रफ्ता-रफ्ता एक सिनेमाघर के रूप में आबाद हुआ। जवाहरलाल नेहरू समेत कई बड़े लोग यहां फिल्म देखने आते। मशहूर फिल्म निर्माता-निर्देशक राजकपूर को अपनी फिल्मों का प्रीमीयर करना यहां खूब भाता। क्या है कि साठ और सत्तर के दशक में तो यह सिनेमाघर अपनी लोकप्रियता के चरम पर था। इसका खूब नाम-वाम था। वैसे, नाम अब भी है। पर थोड़ा रंग हल्का हुआ है। यहां कुल 694 लोगों के बैठने की जगह है।

रीगल जाएंगे तो पाएंगे कि उसकी ऊंची छत, अंदर लकड़ी का बना आलीशान बॉक्स, मेहराब, दीवारों पर टंगी पुराने फिल्मी सितारों की करीने की लगी तस्वीरें आदि-आदि। यह सब उसकी भव्यता की कहानी ही तो बयां करता है। रीगल के अंदर दाखिल होते ही एकबारगी ऐसा लगेगा कि कहीं किसी ऑपेरा हाउस में तो नहीं पहुंच गए। हल्ला-गुल्ला व चमक-दमक के बीच यह सिनेमाघर बहुत शांत और अपने में ही सिमटा मालूम पड़ता है। उसके टिकटघऱ पर खड़े होकर ही आप यह महसूस कर सकते हैं।

यह सिनेमाघर नए दौर में पुराने ढंग की भव्यता लिए सामने खड़ा है। तमाम बदलाव के बावजूद अब भी जिंदा है। और यकीन मानिए, उसकी मौजूदगी कनॉट प्लेस को ऐतिहासिक बनाती है। भटके राहगीर के लिए निशानदेही का काम करता है। राजधानी के सबसे महंगे स्थान पर होने के बावजूद आप यहां अधिकतम सौ और न्यूनतम 30 रुपए में नई फिल्मों का लुत्फ उठा सकते हैं।

जबकि बगल में नए रूप में आया ‘रिवोली’ नई महानगरीय संस्कृति का खूब इतराता है। पुराने कॉफी हाउस के बगल में खड़े रिवोली के अंदर चमक के साथ इक नई दुनिया आबाद है। यहां न्यूनतम टिकट ही सौ टका का है। फास्ट-फूड वगैरह पर जी आ गया तो भई, सौ और गला जाएगा। पर, उसका भी अपना स्वाद है।
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5 comments:

Udan Tashtari said...

रीगल के उपर बार में बहुत बैठक रही है हमारी एक जमाने में..अच्छा लगा पढ़कर..यादें ताजा हुई.

manoj yadav said...

very good,maza a gaya,likhte rahe .

हिमांशु शेखर said...

एक बार फिल्म देखी है यहां। असली सिनेमा हॉल तो यही है। दूसरों को तो मल्टीप्लेक्स और पता नहीं क्या-क्या कहा जाता है। अच्छा लगा पढ़कर। पुराने रंग में लिखा है आपने।

Unknown said...

Very good piece of writing about regal.

Rakesh Kumar Singh said...

ब्रजेश बाबू, बड़ा मज़ा आया पढ़कर. एक ही फिल्‍म देखी है आजतक यहां. अरे वहीं, जिसमें शबाना आज़मी है ... हां, याद आ गया : 'गॉडमदर'. तब तक अपनी आशिकी शुरू हो गयी थी, और अपनी प्रेमिका (आज की पत्‍नी भी) भी साथ थीं. सचमुच, बहुत ललचाता है हॉल का इंटीरियर.


याद जगाने के लिए शुक्रिया.