Thursday, December 31, 2009

रोमांच का स्थल सिनेमाघर


दिल्ली में कभी मोती सिनेमाघर का जलवा था। यह चांदनी चौक इलाके में स्थित है। पुराने लोग बताते हैं कि यह राजधानी के पुराने सिनेमाघरों में से एक है। शायद सबसे पुराना। सिनेमाघरों पर दृश्य-श्रव्य माध्यम से सराय/सीएसडीएस में शोध कर चुकीं नंदिता रमण ने कहा, “किरीट देशाई ने सन् 1938 में एक पुराने थिएटर को मोती सिनेमाघर का रूप दिया।” दरअसल, देशाई परिवार सिनेमा के सबसे बड़े वितरकों में रहा है। शौकिया ही मोती सिनेमाघर को अस्तित्व में लाया था।

जो भी हो, यह सिनेड़ियों के लिए बड़े रोमांच की जगह थी। उन्हीं दिनों पुरानी दिल्ली इलाके में दो और सिनेमाघर आबाद हुए। नाम था- एक्सेल्सियर और वैस्ट एंड। नंदिता ने बातचीत के दौरान बताया कि चावड़ी बाजार के लाल कुआं के निकट स्थित एक्सेल्सियर सिनेमाघर सन् 1938 से पहले इनायत पवेलियन के नाम से मशहूर था। तब वह एक थिएटर हुआ करता था। एस.बी.चिटनिस ने सन् 38 में इसे सिनेमाघर में तब्दील करवा दिया। वैस्ट एंड सिनेमाघर भी चिटनिस परिवार का है। एक जमाने में यह दोनों सिनेमाघर महिलाओं के बीच खासा लोकप्रिय था। कई शो ऐसे होते थे, जिसमें पूरी बालकॉनी महिलाओं से भरी होती थी।

यह जानना रोचक होगा कि रीगल, मोती या एक्सेल्सियर व वैस्ट एंड में से वह कौन सा सिनेमाघर है जिसमें पहली दफा फिल्म दिखलाई गई थी। वैसे, ये चारों सिनेमाघर 20वीं शताब्दी के चौथे दशक में ही आबाद हुए थे। कुछ बाद में अस्तित्व में आए सिनेमाघरों में रिट्ज और नॉवेल्टि की खास पहचान बनी। पर, सन् 1940 तक पुरानी दिल्ली इलाके में कुल सात या आठ सिनेमाघर थे। तब आम आदमी इन सिनेमाघरों को बाइसकोप घर के नाम से पुकारता था। सिनेमाघर को उसके नाम से जानने का कोई रिवाज नहीं था।

भटके राहगीरों को निशानदेही के लिए हमेशा बताए जानेवाले तमाम सिनेमाघरों के साथ-साथ प्लाजा और डेलाइट की गिनती भी पुराने हॉल के रूप में होती है। कहा जाता है कि कनॉट प्लेस का विकास करते समय रॉबर्ट टोर रुसेल नाम के वास्तुकार ने प्लाजा को आकार दिया था। जबकि डेलाइट सन् 1955 में अस्तित्व में आया था, जो अपनी वैभवता के लिए हमेशा सिनेप्रेमियों के बीच लोकप्रिय रहा।

पर, 90 के दशक में जब केबल टीवी और वीसीआर पर फिल्मों को देखने का चलन बढ़ा तो सिनेमाघर धीरे-धीरे उपेक्षित होने लगा। उनकी लोकप्रियता पर असर पढ़ा। रीगल समेत तमाम सिनेमाघर इसकी चपेट में आए। मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों का उदय भी यहीं से शुरू हुआ। सन् 1997 में पहली बार पीवीआर साकेत मल्टीप्लेक्स सिनेमा हॉल के रूप में लोगों के सामने आया। इसके ठीक चार साल बाद पीवीआर विकासपुरी और पीवीआर नारायणा अस्तित्व में आया। समाज में हो रहे भारी फेर-बदल का ही परिणाम था कि सिनेमाघर को तौड़कर मल्टीप्लेक्स बनाने का सिलसिला जो सन् 97 से शुरू हुआ वह अब भी जारी है। चाणक्य सिनेमाघर को भी जमींदोज कर दिया। शायद इसी चक्कर में। ऐसे तमाम उदाहरण हैं।

सिनेमा विशेषज्ञों की राय में सिनेमाघर एक ऐसा उत्सवी जगह होता था जो पूरे समाज को एक जगह लाता था। अब मल्टीप्लेक्स कल्चर आने से स्थिति बदली है।


ब्रजेश झा
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