
सुबह-सबेरे एक व्यक्ति को अलग-अलग समय इस पंक्ति को दोहराते-तिहराते सुना। कुछेक घंटे बाद अपन ने भी तोता पाठ जारी किया। शाम क्या, रात तक चला।
नहीं आती तो याद उनकी महीनों तक नहीं आती।
मगर जब याद आते हैं तो अकसर याद आते हैं।।
-हसरत मोहानी
कितना अच्छा होता शहर में दिवाली (दीपावली) की शाम शेरोशायरी से होती। देर रात उसी में डूबी रहती। पर यहां तो धूम-धड़ाके से शाम बीती। फिर रात चढ़ी और उसी में डूबी। सबेरा धूएं में घिरा रहा। यानी पर्यावरण की ऐसी की तैसी। तब फिराक की यह पंक्ति याद आई।
मजहब कोई लोटाले और उसकी जगह दे दे।
तहजीब सलीक़े की, इन्सान क़रीने के।।
- फिराक
3 comments:
आभार मेरा पसंदीदा शॆर याद दिलवाने का:
नहीं आती तो याद उनकी महीनों तक नहीं आती।
मगर जब याद आते हैं तो अकसर याद आते हैं।।
-हसरत मोहानी
ांअभार इन नायाब मोतियोंके लिये
दो चीजों को जोड़ने का अंदा ज काफी अच्छा है।
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