Saturday, August 20, 2011

लोकपाल बिल लs कs रहब


वह खुली पंचायत थी। अन्ना की टीम से एक पत्रकार ने सवाल किया कि आप प्रधानमंत्री से पटवारी तक को लोकपाल के दायरे में लाना चाहते हैं। लेकिन एनजीओ को इससे बाहर रखा है। ऐसा क्यों है ? इसपर अरविंद केजरीवाल बोले। कहा, “ हम उन एनजीओ को जन-लोकपाल के दायरे में लाने पर सहमत हैं जो सरकारी पैसे से काम कर रहे हैं।” केजरीवाल उन एनजीओ को जन-लोकपाल के दायरे में लाने पर सहमत नहीं थे जो बगैर सरकारी सहयोग के चलते हैं। इसपर जब पूरक सवाल किए गए तो वे आक्रामक हो गए। फिर जो कहा उसका लब्बोलुआव यह था कि मीडिया भी तो इसके दायरे में नहीं आना चाहती। हजारों लोगों के सामने चल रही उस प्रेस-वार्ता का नजारा अलग था। वहां खड़े लोग इसे देख-सुन रहे थे। साथ ही सवाल और फिर जवाब पर राय-दर-राय जाहिर कर रहे थे। यह सिलसिला लंबा चला।

खैर, आधा रामलीला मैदान कीचड़ से पटा है। फिर भी लोगों की आवाजाही जारी है। कई लोग जमे हैं। नारे लगा रहे हैं, “अन्नाजी के पास है, अनशन का ब्रह्मास्त्र है।” यही नहीं, दूसरे नारे भी हैं। मसलन- “मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना। अब तो सारा देश है अन्ना।।“ यह नजारा केवल रामलीला मैदान का नहीं है। निकटवर्ती इलाकों में भी नारे गूंज रहे हैं। मैदान के बाहर तो ठेठ देहादी मेला जैसा नजारा है। छोटे-छोटे बच्चे 10 रुपए के दो तिरंगे बेच रहे हैं। पूछ कर यदि न लें तो चार देने को तैयार हैं। आंदोलन की पोशाक बन चुकी ‘अन्ना टोपी’ भी यहां मिल रही है। उसपर लिखा है, ” मैं अन्ना हूं।” हालांकि इस टोपी की शक्ति पर राजनीतिक गलियारों में बहस जारी है। पर यहां पहुंचे कई लोग इसे सिर पर डालकर उत्साह में चूर हैं। वे नारे लगा रहे हैं, “पूरा देश खड़ा हुआ है। जनलोकपाल पर अड़ा हुआ है।।”

शाम आठ बजे के आसपास फिर बारिश शुरू हो जाती है। फिर भी लोग यहां खड़े हैं। बारिश से सरोबोर होकर। तमाम चैलनों पर यहां से लाइव रिपोर्टिंग की जा रही है। उन लोगों ने अपने वास्ते अस्थाई मंच बना रखा हैं। रात 10 बजे के आसपास भीड़ कम होने लगती है। हालांकि, जो लोग वहां हैं वे अब भी नारों-गीतों में डूबे हुए हैं। मैदान की दाई तरफ प्राथमिक उपचार की सुविधा हैं। वहां कुछेक लोग लगातार खड़े नजर आ रहे हैं। पूछने पर पता चला कि जिसे कोई तकलीफ हो रही है वह यहां आ रहा है। रोशनी की व्यवस्था कम है और पुलिस की चहलकदमी बढ़ रही है। अब व्यक्ति अब भी पट्टा लिए बैठा है। उस पर लिखा है, “अन्ना हजारे के अछि ललकार, भ्रष्टाचारी नेता होशियार। लोकपाल बिल लs कs रहब, मैथिल समाज के अईछ आवाज।।” इस पढ़ते-पढ़ते हम मैदान से बाहर आ जाते हैं। 20 अगस्त की सुबह-सबेरे वह उसी स्थान पर दिख रहा है। हवा फिर गर्म हो रही है।

Friday, August 19, 2011

एक आंदोलन ‘भूदान’ भी था


वह 18 अप्रैल, 1951 की तारीख थी, जब आचार्य विनोबा भावे को जमीन का पहला दान मिला था। उन्हें यह जमीन तेलंगाना क्षेत्र में स्थित पोचमपल्ली गांव में दान में मिली थी। यह विनोबा के उसी भूदान आंदोलन की शुरुआत थी, जो अब इतिहास के पन्नों में दर्ज है या फिर पुराने लोगों की स्मृति में। खैर, विनोबा की कोशिश थी कि भूमि का पुनर्वितरण सिर्फ सरकारी कानूनों के जरिए नहीं हो, बल्कि एक आंदोलन के माध्यम से इसकी सफल कोशिश की जाए। 20वीं सदी के पचासवें दशक में भूदान आंदोलन को सफल बनाने के लिए विनोबा ने गांधीवादी विचारों पर चलते हुए रचनात्मक कार्यों और ट्रस्टीशिप जैसे विचारों को प्रयोग में लाया। उन्होंने सर्वोदय समाज की स्थापना की। यह रचनात्मक कार्यकर्ताओं का अखिल भारतीय संघ था। इसका उद्देश्य अहिंसात्मक तरीके से देश में सामाजिक परिवर्तन लाना था।

बहरहाल, तब विनोबा पदयात्राएं करते और गांव-गांव जाकर बड़े भूस्वामियों से अपनी जमीन का कम से कम छठा हिस्सा भूदान के रूप में भूमिहीन किसानों के बीच बांटने के लिए देने का अनुरोध करते थे। तब पांच करोड़ एकड़ जमीन दान में हासिल करने का लक्ष्य रखा गया था जो भारत में 30 करोड़ एकड़ जोतने लायक जमीन का छठा हिस्सा था। उस वक्त प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) के नेता जयप्रकाश नारायण भी 1953 में भूदान आंदोलन में शामिल हो गए थे। आंदोलन के शुरुआती दिनों में विनोबा ने तेलंगाना क्षेत्र के करीब 200 गांवों की यात्रा की थी और उन्हें दान में 12,200 एकड़ भूमि मिली। इसके बाद आंदोलन उत्तर भारत में फैला। बिहार और उत्तर प्रदेश में इसका गहरा असर देखा गया था। मार्च 1956 तक दान के रूप में 40 लाख एकड़ से भी अधिक जमीन बतौर दान मिल चुकी थी। पर इसके बाद से ही आंदोलन का बल बिखरता गया।

1955 तक आते-आते आंदोलन ने एक नया रूप धारण किया। इसे ‘ग्रामदान’ के रूप में पहचाना गया। इसका अर्थ था ‘सारी भूमि गोपाल की’। ग्रामदान वाले गांवों की सारी भूमि सामूहिक स्वामित्व की मानी गई, जिसपर सबों का बराबर का अधिकार था। इसकी शुरुआत उड़ीसा से हुई और इसे काफी सफलता मिली। 1960 तक देश में 4,500 से अधिक ग्रामदान गांव हो चुके थे। इनमें 1946 गांव उड़ीसा के थे, जबकि महाराष्ट्र दूसरे स्थान पर था। वहां 603 ग्रामदान गांव थे। कहा जाता है कि ग्रामदान वाले विचार उन्हीं स्थानों पर सफल हुए जहां वर्ग भेद उभरे नहीं थे। वह इलाका आदिवासियों का ही था।

पर बड़ी उम्मीदों के बावजूद साठ के दशक में भूदान और ग्रामदान आंदोलन का बल कमजोर पड़ गया। लोगों की राय में इसकी रचनात्मक क्षमताओं का आम तौर पर उपयोग नहीं किया जा सका। दान में मिली 45 लाख एकड़ भूमि में से 1961 तक 8.72 लाख एकड़ जमीन गरीबों व भूमिहीनों के बीच बांटी जा सकी थी। कहा जाता है कि इसकी कई वजहें रहीं। मसलन- दान में मिली भूमि का अच्छा-खासा हिस्सा खेती के लायक नहीं था। काफी भूमि मुकदमें में फंसी हुई थी, आदि-आदि। कुल मिलाकर ये बातें अब भुला दी गई हैं। हालांकि, कभी-कभार मीडिया में भूदान में मिली जमीन के बाबत खबरें आती रहती हैं। आचार्य विनोबा का भूदान आंदोलन लोगों के जेहन में रह गया है। जानकारों की राय में आजादी के बाद यह उन पहली कोशिशों में से एक था, जहां रचनात्मक आंदोलन के माध्यम से भूमि सुधार की कोशिशें की गई थी। सो लोगों ने बड़ी कोशिशें की हैं, इस समाज को आगे लाने की। दुख है कि वह कोशिश राजनीतिक या फिर शासकीय मकड़ाजाल में फंसकर रह जाती है।

Thursday, August 18, 2011

आपातकाल का वह दौर



26 जून 1975 का दिन आजाद भारत के इतिहास में काला दिन था। वह दिन अचानक नहीं आया था। धीरे-धीरे इसकी हवा बनी। पहले तो जनवरी 1974 में गुजरात में अनाजों व दूसरी जरूरी चीजों की कीमतों में वृद्धि हुई जन आक्रोश फैला। वह छात्रों के असंतोष के रूप में सामने आया। फिर इसका दायरा तेजी से बढ़ता गया। विपक्षी दल भी इसमें हिस्सा लेने लगे। पूरे राज्य में हंगामों का दौर शुरू हो गया। दूसरी तरफ मार्च 1974 में बिहार के छात्र भी सड़क पर उतर आए। छात्रों के बुलावे पर राजनीति से संन्यास ले चुके जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन का नेतृत्व संभाला। तब उन्होंने इसे संपूर्ण क्रांति का नारा दिया।

जेपी ने छात्रों और लोगों से कहा कि वे सरकारी कार्यालयों और विधानसभा का घेराव करें। मौजूदा विधायकों पर त्यागपत्र देने के लिए दबाव बनाएं। सरकार को ठप कर दें और जन सरकार गठित करें। इसके बाद जेपी ने बिहार से निकलकर पूरे देश में फैले भ्रष्टाचार और कांग्रेस व इंदिरा गांधी के निष्कासन को लेकर आंदोलन संगठित करने का निर्णय लिया। देशभर में अपने खिलाफ बहती बयार और गुजरात विधानसभा में मिली चुनावी हार के ठीक 14 दिन बाद यानी 26 जून 1975 को देश में आंतरिक आपातकाल की घोषणा कर दी। प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई। सरकार के किसी भी विरोधों पर पाबंदी लगा दी गई। रातोंरात आंतरिक सुरक्षा प्रबंधन कानून (मीशा) के तहत देश के शीर्ष विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी हुई। कुल 19 महीनों में हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया। कांग्रेस पार्टी पर भी कठोर नियंत्रण लगा दिया गया।

आपातकाल दौरान जेपी द्वारा गठित ‘छात्र युवा संघर्ष वाहिनी’ आंदोलन को तेज करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, ट्रेड यूनियन के नेता, जनसंघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े छात्र नेता अपने-अपने स्तर पर इसका विरोध कर रहे थे। आखिरकार 18 जनवरी, 1977 को इंदिरा गांधी ने अचानक मार्च में लोकसभा चुनाव कराए जाने की घोषणा की। राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया गया। प्रेस से सेंसरशिप हटा लिया गया। राजनीतिक सभा करने की आजादी बहाल कर दी गई। 16 मार्च को स्वतंत्र और निष्पक्ष माहौल में चुनाव संपन्न हुआ। इंदिरा गांधी और संजय गांधी दोनों ही चुनाव हार गए।

Wednesday, August 17, 2011

डीयू से निकला रैला, अब अन्ना नहीं अकेला


दोपहर होते-होत छत्रशाल स्टेडियम के आस-पास हजारों लोग इकट्ठा हो चुके थे। वहां माहौल ठीक वैसा ही था, जैसा 8 अप्रैल को जंतर मंतर पर दिखा था। नारे लग रहे थे- “जबतक भ्रष्टाचारियों के हाथ में सत्ता है। तबतक कैसे मेरा भारत महान है।“ कुछ छात्र पर्चा दिखा रहे थे, उसपर लिखा था- “डीयू से निकला रैला। अन्ना नहीं है अब अकेला।“ साथ-साथ एक और नारे लग रहे थे- “सोनिया गांधी निकम्मी है। भ्रष्टाचारियों की मम्मी है।” इतना ही नहीं था। आगे भी वे कह रहे थे- “सरकारी लोकपाल धोखा है। अभी भी बचा लो मौका है।“

छत्रशाल स्टेडियम से दीवार पर एक छात्र पट्टी लिए खड़ा था। उसपर लिखा था-“बेइमानी का तख्त हटाना है, भ्रष्टाचार मिटाना है।” इसी नारे के ठीक नीचे लिखा था- “यह कैसा स्वराज्य है, जहां भ्रष्टाचारियों के सिर पर ताज है।” नारे और भी थे जो वहां की फिजाओं में गूंज रहे थे। तभी स्टेडियम के भीतर से बुलाते हुए एक व्यक्ति ने कहा, “भाई साहब यहां पीने का पानी तक नहीं है। पुलिस सुबह 09.20 में यहां लाई है, लेकिन स्टेडियम में पानी की कोई व्यवस्था नहीं है।”

दोपहर 1.50 तब भीड़ इतनी बढ़ गई की पुलिस को स्टेडियम के गेट खोलने पड़े। हालांकि, पुलिस इस कोशिश में लगी थी कि अधिक से अधिक लोग स्टेडियम के भीतर आ जाएं। पर वह इस काम को पूरा करने में असफल रही। विश्वविद्यालय व निकटवर्ती इलाकों से छात्रों का हुजूम एक-एक कर पहुंच रहा था। शाम तीन बजे तक करीब 10-12 हजार लोगों की भीड़ जमा हो गई थी। इस भीड़ में हिन्दु कॉलेज के प्राध्यापक रतन लाल भी दिखे। वे नारा लगा रहे थे- “हिंदु-मुश्लिम-सिख-ईसाई। भ्रष्टाचारियों ने इन सब को खाई।।“ पास ही खड़े संदीप ने बताया कि वे अन्ना के कहने पर सात दिन की छुट्टी लेकर आए हैं। अंकिता प्राथमिक स्कूल की शिक्षिका हैं। यहां अन्ना के समर्थन में आई हैं। साथ खड़े एक छात्र के हाथ में पोस्टर है। उसपर लिखा है- “शहीदो हम शर्मिंदा हैं। भ्रष्टाचारी जिंदा हैं।”

बेबस पुलिस के चेहरे पर तब हंसी की रेखा दिख रही थी जब नारे लग रहे थे- “ये अंदर की बात है, पुलिस हमारे साथ है।” सैकडों की संख्या में खड़ी पुलिस उन लड़कों को संभालने में असमर्थ थी जो नारे लगा रहे थे- “अन्ना से तुम डरते हो। पुलिस को आगे करते हो।”

शाम 3.10 पर स्टेडियम के दोनों तरफ के रास्ते जाम हो गए। पर प्रदर्शन कर रहे छात्रों ने ही उस जाम को नियंत्रित करने में पुलिस का सहयोग दिया। कुछ छात्र सफाई काम में भी लगे थे। वे 17 अगस्त की सुबह भी सफाई करते दिखे। सड़क पर बिखरी हुई बोतलें उठा-उठाकर कुडेदान में डाल रहे थे। अब देखना यह है कि बल पकड़ता यह आंदोलन किस दिशा में बढ़ता है। हालांकि, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह संसद में इस मसले पर अपना मत रख चुके हैं। पर उनकी बात से आवाम सहमत नहीं दिख रही हैं। वह अब भी सड़क पर है।

Friday, July 22, 2011

इबादत के रंग



बुल्ले शाह की इबादत का अपना ही अंदाज था। यूं बात करते थे अपने खुदा से-



कुछ असी भी तैनूं पियारे हां
कि मैहियों घोल घुमाई ?
बस कर जी हुण बस कर जी
काई गल असां नाल हस कर जी।

हिन्दी में-
कुछ मैं भी तुझ को प्यारा हूं
या मैं ही तुझ पर वारा हूं ?
बस कर दो, अब बस कर दो
हंसकर कुछ मुझसे तुम कह दो।

Monday, June 27, 2011

‘पीर गायब’ के किस्से







"पीर गायब"
















पीर गायब से लगी बावड़ी






फिरोज शाह तुगलक वह शासक था, जिसने अपने शासनकाल में कई इमारतें बनवाईं। इन्हीं में से एक है दिल्ली के उत्तरी रिज में स्थित हिंदूराव अस्पताल से लगी एक इमारत। इसका नाम है- ‘पीर गायब’। इसी इमारत से लगी हुई एक बावड़ी भी है। पीर गायब छोटी दो मंजिला इमारत है। फिरोज शाह ने इसे चौदहवीं शताब्दी के मध्य में बनवाया था।


उस जमाने में इमारत का उपयोग शिकारगाह एवं जानवरों को तलाशने के समय किया जाता था। तब इमारत की पहचान कुश्क-ए-शिकारा के नाम से थी। हालांकि, इस जगह के बारे में कुछ और कहानियां भी मशहूर हैं। जैसे यह इमारत कभी खगोलीय प्रेक्षणा के लिए इस्तेमाल की जाती रही होगी। ऐसा इसलिए माना जाता है, क्योंकि इसके दक्षिणी कमरे की फर्श और छत को भेदता हुआ एक सुराख है जो गोलाकार रूप लिए हुए है। शायद यही वजह है कि इसका एक नाम कुश्क-ए-जहांनुमा भी है, जिसका अर्थ-विश्व दर्शन महल है। ऐसी ही दूसरी कहानी भी मशहूर है।

बहरहाल, एक अनगढ़े पत्थरों से निर्मित इस इमारत का जीर्णोद्धार अभी हाल ही में हुआ मालूम पड़ता है। दूसरी मंजिल पर पहुंचने वाली सीढ़ियां नई बनी दिखती हैं। इसके बचे अवशेषों में दो संकरे कक्ष उत्तर और दक्षिण की ओर हैं। दूसरी मंजिल पर भी दो कमरे हैं। अंग्रेजों के समय में तो इसका इस्तेमाल सिर्फ क्रांतिकारियों को पकड़ने या फिर उनकी स्थिति का जायजा लेने के लिए किया जाता था। 1857 के सैनिक विद्रोह के दौरान अंग्रेज सैनिक इस ऊंची इमारत पर चढ़कर अपनी बंदूकों से निशाना साधते थे, क्योंकि उस वक्त रिज के जंगल में यह एक ऊंची इमारत थी।

इस इमारत के अहाते में एक बावड़ी भी है जो कि इलाके में पानी की आपूर्ति के लिए बनवाई गई थी। पर आज वह एक गहरे गड्ढे के रूप में नजर आती है। आज यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन एक संग्रहणीय इमारत से ज्यादा हिंदूराव अस्पताल की कचरा-पेटी नजर आती है।

पढें श्रुति अवस्थी की रिपोर्ट

Friday, June 24, 2011

राजनीति में विचारनिष्ठा के पुनर्जागरण का युग आया है: उमा भारती


भारतीय जनता पार्टी की तेजतर्रार नेता साध्वी उमा भारती 2005 में पार्टी से अचानक बाहर हो गई थीं। तब उनके निष्कासन को राजनीति विश्लेषक पार्टी की अंदरूनी खींच-तान का परिणाम मान रहे थे। इसके बाद 30 अप्रैल 2006 को उमा भारती ने उज्जैन के निकट स्थित महाकाल में नई पार्टी की घोषणा की। नाम रखा- भारतीय जनशक्ति पार्टी। उस समय अपनी पार्टी को भाजपा का पुनर्जन्म बताते हुए उमा ने खुद को 'पन्ना धाय' की संज्ञा दी थी और राष्ट्रवादी विचारधारा को जीवित रखने की प्रतिज्ञा ली थी। पर, लोकप्रियता के बावजूद उनकी पार्टी को मध्य प्रदेश में कोई खास चुनावी सफलता नहीं मिली। हालांकि, इस दौरान उमा भारती गंगा अभियान से भी जुड़ी रहीं। आखिरकार 25 मार्च, 2010 को उन्होंने अपनी ही पार्टी से इस्तीफा दे दिया था। और अब सात जून को भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने अचानक उनके पार्टी में शामिल होने की घोषणा कर दी है। उमा भारती बताती हैं कि यह अचानक क्यों हुआ, इसकी जानकारी तो उन्हें भी नहीं है। भावी योजनाओं के साथ-साथ इस बाबत प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के संपादित अंश।
श्रुति अवस्थी और ब्रजेश कुमार से हुई पूरी बातचीत के लिए प्रथम प्रवक्ता पढ़ें।


सवाल: करीब छह साल बाद भारतीय जनता पार्टी में वापसी पर क्या महसूस कर रही हैं ?
जवाब: छह साल नहीं, साढ़े पांच साल बाद। छह साल तो पूरे नहीं हुए। फिलहाल कुछ भी नया महसूस नहीं कर रही हूं, क्योंकि जब मैंने अलग पार्टी बनाई तो उसमें भारतीय जनता पार्टी के ही कार्यकर्ता थे और विचारधारा भी वही थी। यही वजह है कि भाजपा से जाना तो महसूस हुआ, पर आना महसूस नहीं हुआ। जब पार्टी से जाना हुआ तो संवाद में दूरी आ गई थी। इससे जाना महसूस हुआ, लेकिन अब जब आ गई हूं तो ऐसा महसूस नहीं हो रहा है कि कोई चीज हुई हो।

सवाल: आपके पार्टी में लाए जाने की मीडिया में कई बार खबरें आईं, पर तब ऐसा नहीं हुआ। सात जून को अचानक इसकी घोषणा की गई। इसकी कोई खास वजह थी ?
जवाब: इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं है। हां, नितिन गडकरी जी और आडवाणी जी पिछले एक-डेढ़ साल से मुझे पार्टी में आने के लिए कह रहे थे। बाकि अचानक यह घटनाक्रम क्यों हुआ, यह मेरी जानकारी में नहीं है।

सवाल: आपके पार्टी में आने को इतना गोपनीय रखा गया कि यह खबर आई कि इसकी जानकारी खुद आपको भी नहीं थी कि सात जून को आप भाजपा में शामिल होने जा रही हैं। इसकी कोई खास वचह तो होगी।
जवाब: मैं इस बारे में कोई टिप्पणी नहीं करना चाहती। आडवाणी जी, नितिन गडकरी जी और अशोक सिंघल जी के ऊपर मेरा पूरा विश्वास है। मैं इन लोगों से किसी न किसी कारण लगातार संपर्क में रही हूं। वे लोग जो कुछ कह रहे हैं, वह सही है। मैं उनके निर्णय को ठीक मानती हूं।

सवाल: उत्तर प्रदेश के भाजपा कार्यकर्ताओं और समर्थकों की मांग पर आपको पार्टी में लाया गया। ऐसा कहा जा रहा है।
जवाब: मैं देशभर में जहां भी जाती थी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता मुझसे मिलते थे। वे पार्टी में आने का आमंत्रण देते थे। मैं गत दिसंबर के महीने में जब द्वादश ज्योतिर्लिंग की यात्रा पर गई थी तो वहां मंदिरों में श्रद्धालुओं का जो भी समूह मिलता था, वह एक ही बात कहता था कि आप भाजपा में शामिल हो जाइये। इसलिए मैं तो यही मानती हूं कि उत्तर प्रदेश ही क्यों, भाजपा का कोई भी कार्यकर्ता जहां भी होगा उसको इस बात से खुशी होगी कि मैं पार्टी में वापस आई हूं।

सवाल: पार्टी अध्यक्ष ने मुख्य तौर पर आपको जो जिम्मेदारी सौंपी है वह क्या है?
जवाब: उन्होंने इसकी घोषणा की है। हां, मैं गंगा से जुड़े मुद्दे को लेकर पहले से सक्रिय थी और भाजपा में भी गंगा सेल है तो मुझे उसका काम सौंपा गया है।

सवाल: उत्तर प्रदेश में जगह-जगह से खबरें आ रही हैं कि आपकी भाजपा में वापसी से कार्यकर्ता काफी उत्साहित हैं। आपके शुक्रताल तीर्थ स्थल और मेरठ के कार्यक्रर्मों से भी यह स्पष्ट हुआ। तो क्या यह माना जाए कि उत्तर प्रदेश में भाजपा को उसका स्वाभाविक नेता मिल गया है ?
जवाब: यह कोई नई बात नहीं है, इसलिए मैं ऐसा बिल्कुल भी नहीं मानूंगी। हां, मैं यह जरूर मानती हूं कि मेरे आने से वे काफी खुश हैं। मैं पार्टी से चली गई थी तो इसका उन्हें दुख था। ऐसा बिलकुल नहीं है कि उत्तर प्रदेश में कोई नया नेता आ गया है। यहां नेताओं का अभाव नहीं है।

सवाल: यह सब 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर किया गया है, ऐसी धारणा है। आपके सामने दिग्विजय सिंह ही कांग्रेस की ओर से यहां उपस्थित हैं। आप इस चुनौती को किस तरह देखती हैं?
जवाब: मैं व्यक्तिगत स्तर पर कभी टकराव नहीं करती। न ही व्यक्तिगत स्तर पर हमारा किसी से विरोध है। दिग्विजय सिंह मेरे बड़े भाई जैसे हैं और वे भी मुझे छोटी बहन मानते हैं। लेकिन हां, यह एक बड़ी नियती ही है कि मध्यप्रदेश में उन्हें हराने का काम मुझे मिला। इतना ही नहीं, मैं जब बिहार का काम देख रही थी तो चुनाव के दौरान वे लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस गठबंधन का जिम्मा संभाले हुए थे और लालू के वकील की भूमिका में थे। 2003 में मध्य प्रदेश में मेरे हाथों हारने के बाद वे बिहार में भी हारे। यह अजीब बात है कि उनको मात देने का मौका मुझे ही मिलता है।


सवाल: समय बदल गया है। 2003 में दिग्विजय सिंह मध्यप्रदेश तक सीमित थे। अब आठ साल बाद वे पार्टी के महासचिव और 10 जनपथ के वास्तविक प्रवक्ता के रूप में एक राष्ट्रीय नेता की छवि पा चुके हैं। इससे आपका काम कितना कठिन होगा ?
उत्तर: मैंने आपसे पहले ही कहा कि उत्तर प्रदेश में ऐसा कुछ भी नहीं है। पहले वहां कांग्रेस तो सामने आए। हां, वहां हमें सपा और बसपा का मुकाबला करना है। कांग्रेस पार्टी वहां इतिहास का विषय बन गई है, इसलिए मैं नहीं मानती कि कांग्रेस से हमारी कोई टक्कर है।

सवाल: यही सही, पर सपा-बसपा से टक्कर के लिए ही पार्टी से आपको कितना सहयोग मिलेगा ?
जवाब- मुझे पार्टी से सहयोग नहीं चाहिए। मैं तो पार्टी की कार्यकर्ता हूं और इससे उलट यह मानती हूं कि हमारा राष्ट्रीय दायित्व है कि हम उत्तर प्रदेश में पार्टी की स्थिति को सुधारें, क्योंकि उत्तरप्रदेश से ही भारत की राजनीति में विकृतियां उत्पन्न हुई हैं। इस प्रदेश से दो प्रकार की राजनीति सामने आई। एक तो यह कि दलित वर्ग को यहां अपने दम पर सत्ता मिली। हालांकि, सबसे बड़ा दलित आंदोलन तमिलनाडु में हुआ। महात्मा ज्योतिबा फूले ने भी आंदोलन चलाया। इसके बावजूद राजनीतिक आंदोलन के द्वारा सत्ता-शीर्ष तो उसे उत्तर प्रदेश में ही मिला, जब मायावती बहुमत प्राप्त कर मुख्यमंत्री बनीं।
पर यहां सबसे बुरी बात यह रही कि जो लोग मुसलमानों के हितैषी बनते थे, उन्हीं के शासनकाल में मुसलमानों की स्थिति दयनीय हुई। डॉन-माफियाओं के साथ जुड़ाव यहीं के मुसलमानों का माना गया। प्रदेश के बुनकर-जुलाहे निरंतर बेरोजगार होते गए। कुल मिलाकर आज उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की सबसे खराब हालत है। अत: मैं मानती हूं कि राष्ट्रीय हितों को यदि साधना है तो उत्तर प्रदेश की राजनीति में परिवर्तन लाना होगा। प्रदेश में वैचारिक धरातल पर जो आंदोलन चलते रहे हैं, उसके मूल तत्व को बाहर लाना होगा। मैं यह कदापि नहीं कह रही हूं कि उन आंदोलनों को नकारा जाए। मेरा इतना भर कहना है कि चाहे वह दलित आंदोलन हो या रामजन्म भूमि का आंदोलन, इन आंदोलनों के मूल तत्वों को निकालकर एक नए राजनैतिक आधार पर वहां सत्ता प्राप्त करने की कोशिश करनी होगी।


सवाल: ऐसे में उत्तर प्रदेश का चुनावी मुद्दा क्या होगा ?
जवाब: ‘राम’ और ‘रोटी’ दोनों मुद्दा होगा। यानी मंडल भी और कमंडल भी। जो सांस्कृतिक आंदोलन हुए हैं, वह ‘कमंडल’ है और जो सामाजिक आंदोलन हुए हैं वह ‘मंडल’ है। ‘राम-मंदिर से राम-राज्य की ओर’ यही हमारा मुख्य नारा होगा।

सवाल: लेकिन, पिछले दिनों मुजफ्फरनगर जिले के शुक्रताल तीर्थ स्थल में तो आपने एक नया नारा दे दिया है।
जवाब: आप ठीक कह रहे हैं। पर वहां मैंने कार्यकर्ताओं के बीच नारा दिया है। आम लोगों के बीच तो हम दूसरी ही बात कहने जा रहे हैं। उनसे कहेंगे कि ‘प्रदेश बचाओ और सरकार बनाओ’। लेकिन मैंने कार्यकर्ताओं को वचन दिया है कि ‘आप मुझे गंगा दीजिए, मैं आपको सत्ता दूंगी।’ मैं पूरी कोशिश करुंगी कि गंगा के कामों में भाजपा के कार्यकर्ता लगें और जनता को भी इसके लिए प्रेरित करें।


सवाल: आपने पार्टी से बाहर रहने के दौरान भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों को समान दूरी से देखा है। इनमें आपने क्या बदलाव देखा ?
जवाब: जब हम राजनीतिक समीक्षा कर रहे होते हैं तो कुछ चीजों का हमेशा ध्यान रखना होता है। यदि हमें अपने दल के बारे में कुछ कहना है तो हम दल के अंदर ही कहेंगे। मुझे ‘भारतीय जनशक्ति पार्टी’ में कभी कोई कमी दिखती थी तो मैं बाहर बोलने नहीं जाती थी। पार्टी के अंदर ही बैठकर बात होती थी। इसलिए जब मैं भाजपा की समीक्षा करूंगी तो पार्टी के अंदर बैठकर ही करूंगी। बाहर मीडिया के सामने तो नहीं ही करूंगी।
हां, जहां तक पूरी राजनीतिक व्यवस्था की समीक्षा का सवाल है तो मैं यह कह सकती हूं कि अभी एक समय आया है, जिसमें अचानक विचारधाराओं की अतिवादिता खत्म हुई है। जब देवगौड़ा की सरकार बनी तो उस समय वामपंथियों ने अपने आग्रह छोड़े। अपनी विचारनिष्ठाओं से कहीं न कहीं समझौता किया। फिर हमारी सरकार बनी, पर 2004 में हम नहीं जीत पाए। फिर मनमोहन सिंह की सरकार बनी तो उसे बचाने का प्रयास हुआ। इस प्रयास में जो स्थितियां बनीं, उनसब को मिलाकर एक बात कह सकती हूं कि राजनीति में विचारनिष्ठा के पुनर्जागरण का युग आया है। फिर से उसको पुनर्स्थापित करना है।