Wednesday, January 25, 2012

मैदान के सिपाही, आंगन में उलझन



बिल्कुल आखिरी समय में भाजपा नेतृत्व ने घोषणा की। कहा है कि उमा भारती उत्तर प्रदेश के ‘चरखारी’ विधानसभा सीट से चुनाव लड़ेंगी। हालांकि, यह आधी घोषणा है। पूरी घोषणा के लिए अब भी सही समय का इंतजार हो रहा है। उमा भारती के संबंध में लिया जाने वाला हर फैसला पार्टी अध्यक्ष नितिन गडगरी के लिए चुनौती-पूर्ण रहा है। वह उमा भारती की पार्टी में वापसी की घोषणा का हो या कोई और। नितिन गडकरी को हर जगह अग्नि-परीक्षा देनी पड़ी है। इसलिए वे फूंक-फूंककर कदम बढ़ाना चाहते हैं, सो फिलहाल आधी घोषणा ही की है। इसकी वजह कोई बाहरी नहीं है, बल्कि उमा भारती की लोकप्रियता और पार्टी के अंदरखाने की राजनीति है।

दूसरी तरफ दिग्विजय सिंह हैं। वे भी मध्य प्रदेश से हैं। पिछले दो सालों से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को स्थापित करने में जुटे हैं। कहा जाता है कि वे राजीव गांधी के करीबी लोगों में थे। एक साक्षात्कार में वे स्वयं कह चुके हैं कि राजीव गांधी का मुझे बहुत स्नेह मिला। तो क्या दिग्गी राजा इन दिनों उस स्नेह का कर्ज चुकाने में लगे हैं! खैर, जो भी हो, यह तो साफ-साफ नजर आता है कि वे अपनी ही केंद्र सरकार को कटघरे में लाकर मुसलमानों की तरफदारी का सिलसिला चलाए हुए हैं। वह भी पिछले दो सालों से। दिग्गी राजा यह सब हवा में नहीं कर रहे हैं। कांग्रेस की राजनीति को जो लोग जानते-समझने हैं, उनका कहना है कि दिग्विजय सिंह विधानसभा चुनाव के मद्देनजर फार्मूले की राजनीति कर रहे हैं, ताकि पार्टी को जीत मिले और सूबे में वह अपना पांव जमा सके। फिलहाल ऐसी राजनीति उनकी मजबूरी है, क्योंकि इस बात को वे अच्छी तरह जानते-समझते हैं कि उत्तर प्रदेश में पार्टी संगठन के स्तर पर दूसरी पार्टियों के मुकाबले काफी कमजोर है। वहीं पार्टी का खोया जनाधार भी तत्काल वापस लाना एक बड़ी चुनौती है, इसलिए सूबे में वे फार्मूले की राजनीति में डूबे हैं। मंजिल तक पहुंचने का यही उनके लिए एक मात्र सरल रास्ता है, जिससे चुनाव में पार पाने के साथ-साथ वे युवराज को सूबे में स्थापित कर सकते हैं। पर, चुनाव देख मौसमी पक्षी उड़ने लगे हैं। सूबे में मुसलमानों की दो पार्टियां बन गई हैं। पहली- पीस पार्टी है, जबकि दूसरी का नाम ‘कौमी पार्टी’ है। ये मौसमी पक्षियां उनके लिए समस्या ही हैं, क्योंकि इनकी गतिविधियां कहीं दिग्गी राजा व राहुल की मेहनत पर पानी न फेर दे। वैसे, कांग्रेस की गतिविधि को देखकर राजनीतिक विशेषज्ञ कहते हैं कि अब राजनीति संगठन बनाकर नहीं हो रही है, बल्कि पार्टियां फार्मूले पर आधारित राजनीति कर रही हैं, इसलिए पार्टी कार्यकर्ता नाम की चीज भी खत्म हो रही है।

बहरहाल, 1993 तक दिग्विजय सिंह मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे। इसी साल कांग्रेस को वहां के विधानसभा चुनाव में जीत मिली तो वे सूबे के मुख्यमंत्री बनाए गए। तब अजित जोगी, मोतीलाल वोरा, विद्याचरण शुक्ल, कमलनाथ जैसे नेता उनके प्रतिद्वंद्वी थे। लेकिन उस वक्त अर्जुन सिंह ने दिग्गी राजा का ही नाम आगे बढ़ाया था। 1998 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने पार्टी नेतृत्व को इस शर्त पर पुन: चुनाव जीतकर आने का आश्वासन दिया था कि उन्हें टिकट बंटवारे की पूरी छूट दी जाए। उन्हें यह छूट मिली और पार्टी एक बार फिर सत्ता में आई। कहा जाता है कि तब टिकट बंटवारे के काम में प्रदेश की नौकरशाही ने उनकी खूब मदद की थी। पर, 2000-2003 में उन्हें दो तरफ से चुनौतियां मिलने लगी थीं। एक यह कि उमा भारती मध्य प्रदेश में सक्रिय हो गई थीं। राम मंदिर के साथ-साथ मंडल आंदोलन का जो जन-उभार था, वह पूरी तरह उमा भारती के पक्ष में था। दूसरी बात कांग्रेस पार्टी के अंदर भी विरोध के स्वर उठने लगे थे। अंतत: 2003 के चुनाव में दिग्विजय की राजनीतिक पराजय हुई। इस चुनावी हार के बाद वे प्रदेश से विस्थापित भी हो गए। सूबे में उनकी सक्रियता कम से कमतर होती चली गई। अब करीब 10 साल बाद वे उत्तर प्रदेश में पार्टी के सर्वेसर्वा हैं। उम्मीदवारों के चयन में उनकी खूब चली है। सो बुंदेलखंड में खुले तौर पर कहा जा रहा है कि वे अपने रिश्तेदारों को टिकट दिला रहे हैं। इससे सूबे के नेता खफा हैं। दिग्गी राजा का तैयार किया गया समीकरण गड़बड़ हो रहा है। अब इस समस्या से पार पाना उनके लिए चुनौती है।

वहीं उमा भारती की स्थिति भिन्न है। पार्टी की कमान इनके हाथों में नहीं है। वह छह साल बाद पार्टी में आई हैं। हालांकि, इससे पार्टी को एक जननेता मिला है। पार्टी को संगठित करने में भी मदद मिली है। कार्यकर्ताओं में उत्साह लौटा है। वहीं संगठन जो बेजान था, उसे इसी बहाने संजय जोशी ने मजबूत करने की कोशिश की है। पर, सबकुछ उमा भारती के अनुकूल नहीं है। सूबे के दौरे में जब उन्हें जन समर्थन मिलना शुरू हुआ तो प्रदेश के नेताओं ने इसे अपने लिए ठीक संकेत नहीं माना। भरसक कोशिश की गई कि उमा भारती सूबे में कोई असर न डाल सकें। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इन मुश्किलों से उमा भारती कैसे पार पाती हैं।

गौरतलब है कि 1991 में जब भाजपा अपने बल पर सत्ता में आई थी तो उसे 228 सीटें मिली थीं। हालांकि, तब विधानसभा में 425 सीटें थीं। हालांकि, उस चुनाव को प्रभावित करने वाले कई कारक थे। पार्टी को अयोध्या आंदोलन का फायदा मिला था, जबकि पार्टी के नेता और विरोधी दलों को इस बात का अंदाजा नहीं था। उस समय पार्टी का जो वर्ग चरित्र था, उसमें कल्याण सिंह का नेतृत्व पार्टी के लिए अनुकूल था। सवर्ण पार्टी के समर्थक थे, जबकि पिछड़े वर्ग से पार्टी का नेता था। एक बार फिर यह कमी पूरी हो सकती है। बशर्ते पार्टी का सवर्ण नेतृत्व उमा भारती को अपना स्वाभाविक नेता माने, पर इससे उलटा हो रहा है। प्रदेश के ज्यादातर नेता उन्हें निष्प्रभावी बनाने में लगे हैं। भाजपा को जानने वाले बताते हैं कि सूबे में पार्टी को तभी सफलता मिल सकती है जब सहयोगी संगठन और पार्टी पूरी ताकत से इसमें लगेगी। अब देखना यह है कि एक-दूसरे के आमने-सामने कई चुनावों में आ चुके दिग्गी राजा और उमा भारती यहां अपनी ही मुश्किलों से कैसे पार पाते हैं। मैदान के सिपाही तो फिलहाल आंगन की उलझनों से ही मुक्त नहीं हो पा रहे हैं, जबकि रणभेरी बज चुकी है।

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