कीर्ति चौधरी की एक कविता पढ़ें। फिर याद करें, राष्ट्रमंडल खेल के बाबत किए जा रहे विकास कार्यों को। यकीनन, अजीब विरोधाभास पाएंगे।
प्रगति
अभी कुछ ही दिन तो बीते
इधर से निकले
कैसा सुनसान था !...
और अब ये नए रास्ते हर ओर
छज्जों, बालकनियों से उठता हुआ शोर
लॉन पर खेलती
चमकदार आंखों वाली बच्ची
अजनबी चेहरे
फिजा में भी
जिंदगी के बोल जैसे घुले-मिले।
अभी कुछ ही दिन तो बीते
इधर से निकले।
इतने में ही कोई बस्ती बस गई,
लगता है।
आज कीर्ति चौधरी होतीं तो इस विकास पर क्या कहतीं।