Monday, July 20, 2009

गीत से लोकप्रिय हुए कठिन शब्द

हिन्दी सिनेमाई गीत ने विशुद्ध हिन्दी व अरबी-फारसी के कठिन शब्दों को बेहद सरल बनाने का काम किया है। ब्रज देहाद में भी ठेठ आंचलिक बोली में बतियाने वाले लोग इन शब्दों को प्रेम से इस्तेमान करते हैं। यकीनन, यह यहां गीतों को तवज्जो मिलने के कारण ही हुआ। सिनेमा के शुरुआती दिनों में बतौर गीतकार जुड़े आरजू लखनवी, पं. सुदर्शन, गोपाल सिंह नेपाली, मजाज लखनवी, जोश मलीहाबादी, प्रदीप, शैलेंद्र, साहिर, मजरूह आदि ने खूब प्रयोग किए।

हालांकि, उन्हीं दिनों से ही गीत लिखने के कुछ कहे और कई अनकहे नियम लागू रहे। अब भी हैं। इसकी वजह से कई लोगों को ये नगरी रास आई और कईयों को नहीं। पर, गीतों की भाषाई निर्माण की प्रक्रिया यहीं से शुरू हुई और निरंतर चलती रही।

उस समय गीत लिखते समय दूरस्थ अंचलों में रहने वाले लोगों को ध्यान में रखा जाता था। तभी अरबी-फारसी के दिलकशी, पुरपेच, उलफत, बदहवासी, मुरदा-परस्त जैसे भारी-भरकम शब्दों के साथ हमरी, तुमरी , बतियां, छतियां, नजरिया जैसे शब्दों का इस्तेमाल इन गीतकारों ने बेजोड़ तरीके से किया। इससे आंचलिकता की खूब गंध आती रही।
यहां सन 1931 में ही लिखे गए दो गीतों पर गौर करें- मत बोल बहार की बतियां (प्रेमनगर), सांची कहो मोसे बतियां, कहां रहे सारी रतियां (ट्रैप्ड-1931)। आगे चलकर साहिर ने अरबी-फारसी भारी-भरकम शब्दों का यूं इस्तेमाल किया- ये कूचे ये नीलाम-घर दिलकशी के, ये लूटते हुए कारवां जिन्दगी के। (प्यासा)।


गीतों की भाषा को समृद्ध करने में मजरुह सुल्तानपुरी ने बड़ा योगदान दिया है। इन्होंने कई फारसी शब्दों से फिल्मी गीतों को परिचित कराया।
जैसे- बंदा-नवाज, वल्लाह, खादिम, आफताब, दिलरूबा, दिलबर, सनम, वादे-सदा आदि। जैसे- माना जनाब ने पुकारा नहीं, वल्लाह जवाब तुम्हारा नहीं (पेइंग-गेस्ट)। आंखों-ही-आंखों में..., किसी दिलरूबा का नजारा हो गया (सीआईडी)।
अब ये शब्द आम नागरिकों की जुबान पर चढ़ चुके हैं। दूसरी तरफ शकील बदायूंनी ने गीत लिखते समय उलफत (अरबी) शब्द का खूब इस्तेमाल किया। जैसे- उलफत की जिन्दगी को मिटाया न जाएगा (दिल्लगी)।

इस तरह हिन्दी सिनेमा से जुड़े उर्दू साहित्यकार कई अरबी-फारसी के कठिन शब्दों का गीतों में सरलता से इस्तेमाल किया। यह एक बड़ी वजह है कि आज अरबी-फारसी के कठिन से कठिनतम शब्द आम लोगों की जुबान पर हैं।

हालांकि, इसके साथ यह धारणा भी बनी कि उर्दू अल्फाल व शायरी के बगैर फिल्मी गीत का लिखा जाना संभव नहीं है। प्रेम, प्यार के स्थान पर मुहब्बत, इश्क का इस्तेमाल जरूरी है। इस धारणा के प्रबल होने के बावजूद धनवान, निर्धन, ह्रदय, प्रिये, दर्पण, दीपक जैसे विशुद्ध हिन्दी शब्द प्रयोग में लाए गए। भरत व्यास, प्रदीप, इंदीवर, नीरज ने इन शब्दों का खूब प्रयोग किया।
जैसे- तुम गगन के चंद्रमा हो, मैं धरा की धूल हूं। तुम प्रणय के देवता हो, मैं समर्पित फूल हूं। (सती सावित्री)। इंदीवर ने भी लिखा- चंदन सा बदन, चंचल चितवन या कोई जब तुम्हारा ह्रदय तोड़ दे।
इन गीतों की जबर्दस्त कामयाबी ने फिल्म जगत में बन रही उस धारणा को झुठला दिया कि सफल गीतों में उर्दू के शब्दों की बहुलता जरूरी है। अब तो ये सारे शब्द आम-ईमली हो गए हैं।

No comments: