Thursday, December 31, 2009

नया वर्ष, नई आकांक्षाएं







लो आ गई नई उम्मीद- नया साल मुबारक हो।
आप जैसा चाहें, वैसा हो। आप जैसा बनाएं, वैसा बने।

रोमांच का स्थल सिनेमाघर


दिल्ली में कभी मोती सिनेमाघर का जलवा था। यह चांदनी चौक इलाके में स्थित है। पुराने लोग बताते हैं कि यह राजधानी के पुराने सिनेमाघरों में से एक है। शायद सबसे पुराना। सिनेमाघरों पर दृश्य-श्रव्य माध्यम से सराय/सीएसडीएस में शोध कर चुकीं नंदिता रमण ने कहा, “किरीट देशाई ने सन् 1938 में एक पुराने थिएटर को मोती सिनेमाघर का रूप दिया।” दरअसल, देशाई परिवार सिनेमा के सबसे बड़े वितरकों में रहा है। शौकिया ही मोती सिनेमाघर को अस्तित्व में लाया था।

जो भी हो, यह सिनेड़ियों के लिए बड़े रोमांच की जगह थी। उन्हीं दिनों पुरानी दिल्ली इलाके में दो और सिनेमाघर आबाद हुए। नाम था- एक्सेल्सियर और वैस्ट एंड। नंदिता ने बातचीत के दौरान बताया कि चावड़ी बाजार के लाल कुआं के निकट स्थित एक्सेल्सियर सिनेमाघर सन् 1938 से पहले इनायत पवेलियन के नाम से मशहूर था। तब वह एक थिएटर हुआ करता था। एस.बी.चिटनिस ने सन् 38 में इसे सिनेमाघर में तब्दील करवा दिया। वैस्ट एंड सिनेमाघर भी चिटनिस परिवार का है। एक जमाने में यह दोनों सिनेमाघर महिलाओं के बीच खासा लोकप्रिय था। कई शो ऐसे होते थे, जिसमें पूरी बालकॉनी महिलाओं से भरी होती थी।

यह जानना रोचक होगा कि रीगल, मोती या एक्सेल्सियर व वैस्ट एंड में से वह कौन सा सिनेमाघर है जिसमें पहली दफा फिल्म दिखलाई गई थी। वैसे, ये चारों सिनेमाघर 20वीं शताब्दी के चौथे दशक में ही आबाद हुए थे। कुछ बाद में अस्तित्व में आए सिनेमाघरों में रिट्ज और नॉवेल्टि की खास पहचान बनी। पर, सन् 1940 तक पुरानी दिल्ली इलाके में कुल सात या आठ सिनेमाघर थे। तब आम आदमी इन सिनेमाघरों को बाइसकोप घर के नाम से पुकारता था। सिनेमाघर को उसके नाम से जानने का कोई रिवाज नहीं था।

भटके राहगीरों को निशानदेही के लिए हमेशा बताए जानेवाले तमाम सिनेमाघरों के साथ-साथ प्लाजा और डेलाइट की गिनती भी पुराने हॉल के रूप में होती है। कहा जाता है कि कनॉट प्लेस का विकास करते समय रॉबर्ट टोर रुसेल नाम के वास्तुकार ने प्लाजा को आकार दिया था। जबकि डेलाइट सन् 1955 में अस्तित्व में आया था, जो अपनी वैभवता के लिए हमेशा सिनेप्रेमियों के बीच लोकप्रिय रहा।

पर, 90 के दशक में जब केबल टीवी और वीसीआर पर फिल्मों को देखने का चलन बढ़ा तो सिनेमाघर धीरे-धीरे उपेक्षित होने लगा। उनकी लोकप्रियता पर असर पढ़ा। रीगल समेत तमाम सिनेमाघर इसकी चपेट में आए। मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों का उदय भी यहीं से शुरू हुआ। सन् 1997 में पहली बार पीवीआर साकेत मल्टीप्लेक्स सिनेमा हॉल के रूप में लोगों के सामने आया। इसके ठीक चार साल बाद पीवीआर विकासपुरी और पीवीआर नारायणा अस्तित्व में आया। समाज में हो रहे भारी फेर-बदल का ही परिणाम था कि सिनेमाघर को तौड़कर मल्टीप्लेक्स बनाने का सिलसिला जो सन् 97 से शुरू हुआ वह अब भी जारी है। चाणक्य सिनेमाघर को भी जमींदोज कर दिया। शायद इसी चक्कर में। ऐसे तमाम उदाहरण हैं।

सिनेमा विशेषज्ञों की राय में सिनेमाघर एक ऐसा उत्सवी जगह होता था जो पूरे समाज को एक जगह लाता था। अब मल्टीप्लेक्स कल्चर आने से स्थिति बदली है।


ब्रजेश झा
09350975445

Tuesday, December 1, 2009

भीड़ा का एकांत स्थल ‘ रीगल ’ सिनेमाघऱ



फिजूल की बात लग सकती है ! पर ताज्जुब न हो, कई बार ऐसा होता है कि सिनेमाघर आपको उस शहर की ठीक-ठीक उम्र बतला दे। अब दिल्ली के कनॉट प्लेस में आबाद रीगल सिनेमाघर को ही लें। यह इमारत सन् 1920 में तैयार हुई थी। इसकी काया वास्तुकार वाल्टर जॉर्ज की दिमागी उपज है। पुराने लोग बताते हैं कि कनॉट प्लेस के आबाद होने की कहानी रीगल सिनेमाघर की ईंट बयां कर सकती है।

खैर, जो भी हो, शुरुआती दिनों में रीगल की पहचान थिएटर के रूप में थी। यहां नगर की संभ्रांत आबादी नाटक का लुत्फ उठाने आती थी। कभी-कभार फिल्म-शो हो जाया करता था। पृथ्वीराज कपूर जैसे अभिनेता यहां नाटक का मंचन करते थे। यह बात बीसवीं शताब्दी के तीसरे और चौथे दशक के शुरू के वर्षों की है।

लेकिन, जब नाटक की जगह सिनेमा धीरे-धीरे लोकप्रिय होने लगा तो रीगल भी रफ्ता-रफ्ता एक सिनेमाघर के रूप में आबाद हुआ। जवाहरलाल नेहरू समेत कई बड़े लोग यहां फिल्म देखने आते। मशहूर फिल्म निर्माता-निर्देशक राजकपूर को अपनी फिल्मों का प्रीमीयर करना यहां खूब भाता। क्या है कि साठ और सत्तर के दशक में तो यह सिनेमाघर अपनी लोकप्रियता के चरम पर था। इसका खूब नाम-वाम था। वैसे, नाम अब भी है। पर थोड़ा रंग हल्का हुआ है। यहां कुल 694 लोगों के बैठने की जगह है।

रीगल जाएंगे तो पाएंगे कि उसकी ऊंची छत, अंदर लकड़ी का बना आलीशान बॉक्स, मेहराब, दीवारों पर टंगी पुराने फिल्मी सितारों की करीने की लगी तस्वीरें आदि-आदि। यह सब उसकी भव्यता की कहानी ही तो बयां करता है। रीगल के अंदर दाखिल होते ही एकबारगी ऐसा लगेगा कि कहीं किसी ऑपेरा हाउस में तो नहीं पहुंच गए। हल्ला-गुल्ला व चमक-दमक के बीच यह सिनेमाघर बहुत शांत और अपने में ही सिमटा मालूम पड़ता है। उसके टिकटघऱ पर खड़े होकर ही आप यह महसूस कर सकते हैं।

यह सिनेमाघर नए दौर में पुराने ढंग की भव्यता लिए सामने खड़ा है। तमाम बदलाव के बावजूद अब भी जिंदा है। और यकीन मानिए, उसकी मौजूदगी कनॉट प्लेस को ऐतिहासिक बनाती है। भटके राहगीर के लिए निशानदेही का काम करता है। राजधानी के सबसे महंगे स्थान पर होने के बावजूद आप यहां अधिकतम सौ और न्यूनतम 30 रुपए में नई फिल्मों का लुत्फ उठा सकते हैं।

जबकि बगल में नए रूप में आया ‘रिवोली’ नई महानगरीय संस्कृति का खूब इतराता है। पुराने कॉफी हाउस के बगल में खड़े रिवोली के अंदर चमक के साथ इक नई दुनिया आबाद है। यहां न्यूनतम टिकट ही सौ टका का है। फास्ट-फूड वगैरह पर जी आ गया तो भई, सौ और गला जाएगा। पर, उसका भी अपना स्वाद है।
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Tuesday, November 17, 2009

इक कड़ी की अंतिम तस्वीर



प्रभाष जोशी के करीबी लोग बताते हैं कि उनका 73वां जन्म दिन ऐसा पहला जन्मदिन था, जिसे उन्होंने राजी-खुशी मनाया। इससे पहले तक तो वे दबाव से ही मनाते आ रहे थे। सन् 1997 में पहली बार उनका साठवां जन्म दिन इंदौर में मनाया गया था। तब से यह सिलसिला जारी था। यह उस कड़ी की अंतिम तस्वीर है, जिसे संजय तिवारी ने अपने कैमेरे में कैद किया था।

Friday, November 6, 2009

ऐसी भी क्या जल्दी थी

एक शाम हिमांशु का फोन आया। उसने कहा, “क्या करें! प्रभाष जी तो हाथ ही नहीं आ रहे हैं। अब बिना बातचीत के रिपोर्ट कैसे बनाएं।” तत्काल उनकी (प्रभाष जोशी) माताराम की इक बात दिमाग में चक्कर काटने लगती है, जिसका जिक्र स्वयं उन्होंने अपने कागद कारे में किया था, “थारा पांव पै सनि म्हाराज है। तू सकना नी बेठेगो। ” सचमुच अपनी अंतिम यात्रा में भी वे कइयों के हाथ नहीं आए। जहां से चले थे। अंतत: कइयों को छकाते वहीं लौट गए।

खैर, कल भरी रात को राय साहब ने पंकजजी को फोन किया। भरी व स्थिर आवाज में कहा, “गोविंद जी(के.एन.गोविंदाचार्य) कहां हैं ? हमलोगों ने प्रभाषजी को खो दिया है।” मनोज जी (प्रथम प्रवक्ता) ने कहा कि और कुछेक लोगों को संक्षिप्त खबर हुई। वह यह कि राजधानी के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में इक बड़ा और अपने तरीके का एकेला व हदतोड़ी संपादक सबों से दूर जा चुका है।

ठेठ इंदौरी अंदाज में घूमने-फिरने वाला व्यक्ति कभी न जगने वाली नींद ले रहा था। उनके ऐसे अचानक चले जाने पर यकीन न करने वाले अब भी उस नींद के टूटने का इंतजार कर रहे थे। पर कहां हो पता है, वापस लौटना ! कई नामवर लोग वहां मौजूद थे। स्वयं प्रो. नामवर सिंह भी आए। गोविंदाचार्य भी सुबह दस बजे तक पहुंच गए। राजेंद्र यादव व आशोक वाजपेयी वहां मौजूद थे।

दोपहर एक बजे के आसपास पार्थिव शरीर को गांधी शांति प्रतिष्ठान लाया गया। दसेक मिनट बाद ही कुछ लोग शव को लेकर हवाई अड्डे की ओर रवाना हो गए। इस पंक्ति के लिखे जाने तक पार्थिव शरीर को लेकर लोग इंदौर पहुंच चुके थे। शहर से करीब साठ किलोमीटर की दूरी पर प्रभाष जोशी का पैतृक गांव है जहां शनिवार को अंत्येष्टि होगी। पूरे इंदौर में खबर आग की तरह फैल गई थी। जबकि इस शहर में बगल के इक अपार्टमेंट के सज्जन कहते सुनाई दिए- “अखबार के एक आदमी का निधन हो गया है। इसलिए इतने टीवी वाले आए हैं।” सचमुच कितना एकांगी हो गया है यह महानगर।

Friday, October 30, 2009

छोटी-छोटी बातों के मतलब बड़े


दफ्तर से निकलने की तैयारी अभी कर ही रहा था कि एक साथी ने पूछा- संजीव गया क्या ?
दूसरे ने कहा, “ हां, वह किसी मेहरारु वगैर की बात कर रहा था। इsके होवे है ?
तभी जोर की हंसी आई। लोग खूब हंसे।

सवाल करने वाले साथी अब भी गंभीर थे। वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हैं। लगातार पूछ रहे थे कि आखिर यह होता क्या है। लोग शांत रहे। तब उन्होंने ठेठ पश्चिमी उत्तर प्रदेश की भाषा में कहा, - “ओsए रेहेण दे..। चल तू ये बात इसका मतलब के होवे है।”

तब एक साथी ने गंभीर आवाज में कहा, “अरे ये एक तरीके की शराब है।” तब सवाल करने वाले साथी ने कहा, “अबे, इसमारे जल्दी-जल्दी चला गया। चल कोई बात ना। आज उसsए पीन दे।” तब ऐसा लगा कि वे कुछ और न कहें, इस अंदेशे से एक अन्य साथी ने समझाया कि भोजपुर इलाके में पत्नी को मेहरारु कहते हैं। तब सभी साथ-साथ हंसे।

इसके बात प. उप्रे के साथी ने कहा ने कहा, “यार तुम तो लड़ाई करवाने वाला काम कर रहे हो।” तब चौथे ने समझाया, “ शराब ही है पर मामला थोड़ा अलग है।”

दफ्तर से लौटते वक्त चौथे की बात पर सोचता रहा कि सचमुच शराब है। यदि है तो मामला अलग कहां है। सचमुच छोटी छोटी बातों में कैसे बड़ी बातें छुपी होती हैं।

Sunday, October 18, 2009

शेरोशायरी का मजा ले, न मन करे तो छोड़ दें



सुबह-सबेरे एक व्यक्ति को अलग-अलग समय इस पंक्ति को दोहराते-तिहराते सुना। कुछेक घंटे बाद अपन ने भी तोता पाठ जारी किया। शाम क्या, रात तक चला।

नहीं आती तो याद उनकी महीनों तक नहीं आती।
मगर जब याद आते हैं तो अकसर याद आते हैं।।

-हसरत मोहानी

कितना अच्छा होता शहर में दिवाली (दीपावली) की शाम शेरोशायरी से होती। देर रात उसी में डूबी रहती। पर यहां तो धूम-धड़ाके से शाम बीती। फिर रात चढ़ी और उसी में डूबी। सबेरा धूएं में घिरा रहा। यानी पर्यावरण की ऐसी की तैसी। तब फिराक की यह पंक्ति याद आई।

मजहब कोई लोटाले और उसकी जगह दे दे।
तहजीब सलीक़े की, इन्सान क़रीने के।।

- फिराक

Friday, October 16, 2009



अब त्योहार भी आतंक के साये में मना रहे हैं लोग । खैर, कोई गल नहीं। आएं जमकर मनाते हैं,
रोशनी के इस उत्सव को।
आप सब को दीपावली की बधाई।
पर किसी की एक कविता याद आती है। आपको भी सुनाए देता हूं।

रोशनी की जनमगाती फुहार के नीचे
अंधेरा सहसा और भी घना हो चला है
इन गलियारों में अब
लगातार चक्कर लगाती है उदासी
शिकार की ताक में
किसी बाध की तरह घूमती हुई।

तो दोस्त बाघ-वाघ से बच कर रहिएगा।

धन्यवाद

Monday, August 31, 2009

राह से भटका छात्र संघ



दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ का चुनाव चार सितंबर को होना है। शायद ही किसी दूसरे विश्वविद्यालय में छात्र संघ का चुनाव इतनी नियमितता से होता है, जितना कि दिल्ली विश्वविद्यालय में। पर यहां कि छात्र राजनीति पूरी तरह बदल चुकी है।

वैसे तो युवाओं की बढ़ती अराजनीतिक मानसिकता और कैरियर बनाने की आपाधापी वाले इस दौर में पूरे देश की ही छात्र राजनीति प्रभावित हुई है। देश का कोई परिसर अब किसी बदलाव के लिए नहीं गर्माता। मुद्दे गायब रहते हैं।

यूं कहें कि चुनाव राजनीति की ताकतवर दुनिया में जाने की सीढ़ी होकर रह गए हैं। डुसू की राजनीति इन्हीं आकांक्षाओं के इर्द-गिर्द घुमती है। लिंगदोह समिति की रोपोर्ट इस राह में रोड़े डालती है, जिसकी वजह से बड़े छात्र संगठन आपत्ति दर्ज करा रहे है। खैर। अब तक डुसू में चुने गए अध्यक्ष व सचिव


अब तक के डुसू अध्यक्ष
वर्ष - अध्यक्ष - सचिव

1954-55 गजराज बहादुर नागर, -----
1955-56 प्रेम सबरवाल, एचडी तुलसीदास
1956-57 यदुकुल भूषण , अशोक कुमार तनवर
1957-58 कृष्णानंद शर्मा , अदिश जैन
1958-59 नरेंद्र मेहता , कलश कपूर
1959-60 राम लुभाया सरवीना, अश्वनी सेठ
1960-61 विदेश प्रताप चौधरी, मदन सलूजा
1961-62 मदन लाल सलूजा , श्याम सुंदर भाटिया
1962-63 जोगिंदर संत सेटी, यशलाल शर्मा
1963-64 नरेंद्र नाथ कालिया , सुरेंद्र सेठी
1964-65 सुरेंद्र सेठी , राजवंसल जैन
1965-66 अशोक मारवाह, मनमोहन सिंह जुनेजा
1966-67 सुभाष गोयल, प्रदीप सेठ
1967-68 हरचरण सिंह जोश, विनय सेठ
1968-69 अजित सिंह चड्डा, रमेश वर्मा
1969-70 सुभाष सोहनी , ....
1970-71 सुभाष चोपड़ा , भगवान सिंह
1971-72 भगवान सिंह, रावत कुमार
1972-73 श्रीराम खन्ना , शेर सिंह डागर
1973-74 अशोक कुमार , अटल भाटिया
1974-75 अरुण जेटली , हेमंत विश्नोई
1975-76 आपात काल
1976-77 आपात काल
1977-78 विजय गोयल, रजत शर्मा
1978-79 हरि शंकर, विजय जॉली
1979-80 राजेश ओबराय, पिंकी आनंद
1980-81 विजय जॉली , सुशील कुमार
1981-82 सुधांशु मित्तल, अजित पांडे
1982-83 योगेश शर्मा , आर पी सिंह
1983-84 आर सोनी, नरेश शर्मा
1984-85 बलराम यादव, सतपाल धुग्ना
1985-86 अजय माकन, राजेश गर्ग
1986-87 मदन सिंह बिष्ट, नरेंद्र टंडन
1987-88 नरेंद्र टंडन , अंजु सचदेवा
1988-89 आशीष , हरिओम
1989-90 अंजु सचदेवा, कमल कांत सचदेवा
1990-91 अंजु सचदेवा , कमल कांत सचदेवा
1991-92 राजीव गोस्वामी, सोनिया सेठ
1992-93 अवधेश शर्मा , मोनिका कक्कर
1993-94 मोनिका कक्कर, शालू मलिक
1994-95 शालू मलिक , वंदना मिश्रा
1995-96 अलका लांबा , रेखा जिंदल
1996-97 रेखा जिंदल , सुरेंद्र गोयल
1997-98 अनिल झा , सुनीता नारंग
1998-99 जयवीर राणा , रीतू वर्मा
1999-00 रीतू वर्मा , नीतू वर्मा
2000-01 अमित मलिक , तरुण कुमार
2001-02 नीतू वर्मा , विकास सोकीन
2002-03 नकुल भारद्वाज , दीप्ति रावत
2003-04 रोहित चौधरी , रागिनी नायक
2004-05 नरेंद्र टोकस , अमृता धवन
2005-06 रागिनी नायक , रमित सहरावत
2006-07 अमृता धवन , .....
2007-08 अमृता बाहरी , मनीष चौधरी
2008-09 नुपूर शर्मा , अमित चौधरी

पीला जो रंग है



इक साथी ने कहा कि पीला भी कोई रंग है। रोग का सूचक है। तब हमने कहा,पीला ही रंग है- जैसे यह फूल। जैसे कि हल्दी आदि-आदि। कभी पराग को देखा है? इस शहर में तो लोग पराग भी नहीं जाते-अब क्या रहें! तपाक से इक अन्य साथी ने कहा- न जानें अपनी बला से। उससे पराग के गुण में कोई फर्क थोड़े ही आने वाला है।

Thursday, August 27, 2009

सड़क के पार



मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है।
क्योंकि,
इस तरह एक उम्मीद-सी होती है
कि
दुनिया जो इस तरफ है शायद उससे कुछ बेहतर हो, सड़क के उस तरफ।


गिरींद्र के ब्लॉग पर यह पंक्ति टंगी है। हर बार नई मालूम पड़ती है। सो यहं भी लागा दिया।

Monday, August 17, 2009

याद आए ढिंगरा


ठीक सौ वर्ष पहले आज ही के दिन क्रांतिकारी मदन लाल ढिंगरा को फांसी दी गई थी। उनपर अंग्रेज अधिकारी कर्जन वैलि को मारने का आरोप था। ढिंगरा का जन्म सन् 1883 में हुआ था और उनके पिता सिविल सर्जन थे।

हालांकि उनका परिवार अंग्रेजी सरकार के प्रति वफादार था। फिर भी वे अंग्रेजी राज का विरोध करते रहे। अंततः महज 26 वर्ष की उम्र में वतन के लिए शहीद हो गए। आज उनकी शहादत की शताब्दी दिवस पर कम ही लोग उन्हें याद कर रहे हैं। मीडिया भी अपवाद नहीं है। वैसे, द हिन्दू इस मामले में आगे है। इसलिए तो बेहतर है। वेब पत्रकारिता में भी मूल्य की खूब बात होती है। पर, ढिंगरा को भूल गए उसका क्या ?

सरकारी चंपुओं से हम इसकी उम्मीद नहीं कर सकते। अभी तो सब राहुल नाम का चादर ओड़े हैं। ऐसे में दूसरे नौजवान को कैसे याद किया जा सकता है ? शहीद हुए तो अपनी बला से! समझदारी से काम करते तो संभव था सन् 1947 आते-आते प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो जाते।

Sunday, August 16, 2009

रैगिंग का रोग बड़ा बुरा


देश के तमाम विश्वविद्यालयों में नया शैक्षणिक सत्र शुरू हो चुका है। पर अदालती लगाम के बावजूद रैगिंग का रोग छूटता नहीं दिख रहा। जेएनयू, डीयू समेत कई प्रतिष्ठित संस्थानों से इसकी शिकायते आई हैं। किरोड़ी मल कॉलेज ‘छात्रावास’ का मामला तो मीडिया में खूब आया।

यह सब तब हो रहा है जब सर्वोच्च न्यायालय ने रैगिंग पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया है। यूजीसी के दिशा-निर्देश पर सभी शिक्षण संस्थान चौकन्ने हैं।

आखिर वजह क्या है ? कुछ लोगों का मानना है कि वे छात्र रैगिंग करते ज्यादा देखे जाते हैं जो खुद रैगिंग का शिकार हो चुके होते हैं। वे अपना गुस्सा निकालने की प्रतीक्षा में रहते हैं और नए छात्रों की रैगिंग करना अपना अधिकार मानते हैं। यह एक प्रकार का मनोरोग है। आप क्या मानते हैं?

Tuesday, July 28, 2009

खबरनबिशों की खबरनबीशी और सिनमा


खबरनबीसी की दुनिया को हिंदी सिनेमा ने खूब खंगाला है। इसके कई रंगों से दर्शकों को वाकिफ कराया है। कुंदन शाह ने एक फिल्म बनाई थी। नाम था 'जाने भी दो यारो'। तब इसकी जमकर तारीफ की गई थी। आज भी सिने प्रेमी इस फिल्म को याद करते हैं।

जब यह फिल्म आई तो आम लोगों ने जाना कि अखबार मालिक या संपादक पत्रकारों से निजी फायदे के लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज या तस्वीर कैसे हासिल करना चाहता है। छह साल बाद एक और फिल्म आई "मैं आजाद हूं"। टीनू आनंद की इस फिल्म ने दर्शकों को पत्रकारिता के दूसरे सच से परिचित कराया। दर्शकों ने जाना कि पत्रकार जरूरत पड़ने पर झूठे पात्र भी गढ़ता है।

हालांकि इस फिल्म में महिला पत्रकार (शबाना आजमी) अखबार का सर्कुलेशन बढ़ाने के उद्देश्य से ऐसा करती है। लेकिन पत्रकारिता के मूल्य पर ऐसा करना उसे गंवारा नहीं था। यहां अखबार के व्यापार को बढ़ाने के लिए व्यवस्था की पोल खोली जाने लगी। गांव से शहर आए एक आम आदमी को अखबार ने हीरो बनाकर पेश किया था। जब यह फिल्म आई थी तब बोफोर्स घोटाला सुर्खियों में था। आगे भी ऐसी फिल्में आई- ' न्यू देहली टाइम्स', 'पेजथ्री' वगैरह। सिनेमाघऱ इसे दिखाकर पत्रकारिता के ताने-बाने को जानने-समझने का अवसर देता रहा है।

अब जब बीते लोकसभा चुनाव में मीडिया की भूमिका को लेकर बमचक मचा है तो ये फिल्में एकबारगी याद आती हैं। इसे पुनः देखने की जरूरत महसूस होती है। तब मालूम पड़ता है कि सिनेमा जगत ने यानी बॉलीवुड ने कई बार खबरनबिशों की दुनिया की ही खबनबीशी की है। इसकी सूची लंबी है। यहां नैतिकता का भी पाठ पढ़ाया गया है। वर्ष 1984 में प्रदर्शित हुई फिल्म मशाल को कौन भूल सकता है! दिलीप कुमार और अनिल कपूर को लेकर बनाई गई इस फिल्म में पत्रकारिता को अपनी राख से पैदा लेते दिखाया गया है।

अब सवाल उठता है कि खबर की जगह को बेचने से जो आग लगी है, उसकी राख से क्या सार्थक पत्रकारिता जिंदा हो सकेगी ? या फिर जो कुछ हुआ, वह यहां रिवाज बन जाएगा। क्या है न कि सिनेमा को कभी गंभीरता से नहीं लेने का चलन भारी पड़ा है। इससे कई जरूरी भविष्यवाणियां लोगों की समझ में नहीं आईं। इसलिए गत चुनाव में खबरनबिशों की दुनिया आम लोगों को चकमा दे गई।

Monday, July 27, 2009

अब वो बात कहां


williewonker के कैमरे में कैद कश्मीर वादी की कुछ पुरानी तस्वीरें। हालांकि अब वो बात कहां!



शाम ढलने पर शिकारा से हाउस बोट की तरफ जाते लोग।


वादी में चैन से अपनी फसल काटता किसान

वादी में घूमते हुए फिल्म "यहां" का इक संवाद खूब याद आता रहा- कैप्टन अमन: यकीन नहीं होता कि कभी यहां शम्मी कपूर नाचा करता था।
इस पर तपाक से हवलदार ने कहा: सर जी, आज उसका लौंडा नाचकर दिखा दे यहां!

Monday, July 20, 2009

गीत से लोकप्रिय हुए कठिन शब्द

हिन्दी सिनेमाई गीत ने विशुद्ध हिन्दी व अरबी-फारसी के कठिन शब्दों को बेहद सरल बनाने का काम किया है। ब्रज देहाद में भी ठेठ आंचलिक बोली में बतियाने वाले लोग इन शब्दों को प्रेम से इस्तेमान करते हैं। यकीनन, यह यहां गीतों को तवज्जो मिलने के कारण ही हुआ। सिनेमा के शुरुआती दिनों में बतौर गीतकार जुड़े आरजू लखनवी, पं. सुदर्शन, गोपाल सिंह नेपाली, मजाज लखनवी, जोश मलीहाबादी, प्रदीप, शैलेंद्र, साहिर, मजरूह आदि ने खूब प्रयोग किए।

हालांकि, उन्हीं दिनों से ही गीत लिखने के कुछ कहे और कई अनकहे नियम लागू रहे। अब भी हैं। इसकी वजह से कई लोगों को ये नगरी रास आई और कईयों को नहीं। पर, गीतों की भाषाई निर्माण की प्रक्रिया यहीं से शुरू हुई और निरंतर चलती रही।

उस समय गीत लिखते समय दूरस्थ अंचलों में रहने वाले लोगों को ध्यान में रखा जाता था। तभी अरबी-फारसी के दिलकशी, पुरपेच, उलफत, बदहवासी, मुरदा-परस्त जैसे भारी-भरकम शब्दों के साथ हमरी, तुमरी , बतियां, छतियां, नजरिया जैसे शब्दों का इस्तेमाल इन गीतकारों ने बेजोड़ तरीके से किया। इससे आंचलिकता की खूब गंध आती रही।
यहां सन 1931 में ही लिखे गए दो गीतों पर गौर करें- मत बोल बहार की बतियां (प्रेमनगर), सांची कहो मोसे बतियां, कहां रहे सारी रतियां (ट्रैप्ड-1931)। आगे चलकर साहिर ने अरबी-फारसी भारी-भरकम शब्दों का यूं इस्तेमाल किया- ये कूचे ये नीलाम-घर दिलकशी के, ये लूटते हुए कारवां जिन्दगी के। (प्यासा)।


गीतों की भाषा को समृद्ध करने में मजरुह सुल्तानपुरी ने बड़ा योगदान दिया है। इन्होंने कई फारसी शब्दों से फिल्मी गीतों को परिचित कराया।
जैसे- बंदा-नवाज, वल्लाह, खादिम, आफताब, दिलरूबा, दिलबर, सनम, वादे-सदा आदि। जैसे- माना जनाब ने पुकारा नहीं, वल्लाह जवाब तुम्हारा नहीं (पेइंग-गेस्ट)। आंखों-ही-आंखों में..., किसी दिलरूबा का नजारा हो गया (सीआईडी)।
अब ये शब्द आम नागरिकों की जुबान पर चढ़ चुके हैं। दूसरी तरफ शकील बदायूंनी ने गीत लिखते समय उलफत (अरबी) शब्द का खूब इस्तेमाल किया। जैसे- उलफत की जिन्दगी को मिटाया न जाएगा (दिल्लगी)।

इस तरह हिन्दी सिनेमा से जुड़े उर्दू साहित्यकार कई अरबी-फारसी के कठिन शब्दों का गीतों में सरलता से इस्तेमाल किया। यह एक बड़ी वजह है कि आज अरबी-फारसी के कठिन से कठिनतम शब्द आम लोगों की जुबान पर हैं।

हालांकि, इसके साथ यह धारणा भी बनी कि उर्दू अल्फाल व शायरी के बगैर फिल्मी गीत का लिखा जाना संभव नहीं है। प्रेम, प्यार के स्थान पर मुहब्बत, इश्क का इस्तेमाल जरूरी है। इस धारणा के प्रबल होने के बावजूद धनवान, निर्धन, ह्रदय, प्रिये, दर्पण, दीपक जैसे विशुद्ध हिन्दी शब्द प्रयोग में लाए गए। भरत व्यास, प्रदीप, इंदीवर, नीरज ने इन शब्दों का खूब प्रयोग किया।
जैसे- तुम गगन के चंद्रमा हो, मैं धरा की धूल हूं। तुम प्रणय के देवता हो, मैं समर्पित फूल हूं। (सती सावित्री)। इंदीवर ने भी लिखा- चंदन सा बदन, चंचल चितवन या कोई जब तुम्हारा ह्रदय तोड़ दे।
इन गीतों की जबर्दस्त कामयाबी ने फिल्म जगत में बन रही उस धारणा को झुठला दिया कि सफल गीतों में उर्दू के शब्दों की बहुलता जरूरी है। अब तो ये सारे शब्द आम-ईमली हो गए हैं।

Tuesday, July 14, 2009

क्या रौब था उस शख्स का !

मौलाना सैयद अब्दुल्लाह बुखारी के इंतकाल से जामा मस्जिद की राजनीति का वह दौर खत्म हो गया जो इमरजंसी से शुरू हुआ था। उस दौर में जामा मस्जिद मुस्लिम समुदाय की राजनीति का केंद्र बनकर उभरा था। जानकार के मुताबिक इसके कई प्रत्यक्ष और परोक्ष कारण थे। इमरजंसी से दो साल पहले मौलाना बुखारी शाही इमाम बने थे। वैसे इमाम तो वे पहले से ही थे। उन्होंने करीब 55 साल तक इमामत संभाली।

जब वे शाही इमाम बने उसके कुछ ही दिनों बाद दिल्ली के किशनगंज इलाके में भयानक दंगा भड़का। लोग बताते हैं कि वह तकलीफ का वक्त था। जिसमें मुसलमानों को शाही इमाम ने मदद पहुंचाई। इससे जहां उनकी शोहरत फैली, जिससे वे सत्ता पक्ष की आंख की किरकिरी बन गए। वही समय था, जब संजय गांधी कांग्रेस में मायने रखने लगे थे। उनके इशारे से सत्ता के गलियारे में पत्ते खड़कते थे।


इमरजंसी लगने पर मौलाना बुखारी ज्यादतियों के खिलाफ आवाज उठाई। इससे वे सत्ता के मुकाबिल चुनौती बनकर उभरे। उन्हें जेल जाना पड़ा। लेकिन सरकार लंबे समय तक उन्हें जेल में नहीं रख पाई। लोगों का दबाव पड़ा। टकराव भयानक हो सकता था, इसलिए तानाशाही के माथे पर सोच की लकीरें उभरी। उनका विवेक जगा। मौलाना बुखारी को रिहा करना ही मुनासिब समझा गया। वे चार दिवारी से बाहर आए। उनमें आत्मविश्वास पैदा हुआ। वे दूसरे स्वाधीनता संग्राम के नायक माने जाने लगे।

राजनीति की बारीक समझ रखने वाले बताते हैं कि उन्होंने सन् 77 के लोकसभा चुनाव में अहम भूमिका अदा की। वे मंच पर बड़े नेताओं की शोभा बन गए थे। इसमें हेमवती नंदन बहुगुणा की शह भी थी। जनता पार्टी से मोह भंग होने के बाद हेमवती नंदन बहुगुणा की कांग्रेस वापसी के समय मौलाना बुखारी की अहमियत देखने लायक थी। उनके दरबाजे पर कांग्रेस के बड़े नेता दस्तक देते थे। मौलाना बुखारी ने उस वक्त छह सूत्री मांग रखी, जिसे इंदिरा गांधी ने मंजूर किया। वह कांग्रेस के एलान का हिस्सा बना। उस समय मौलाना बुखारी मुस्लिम समुदाय के अकेले रहनुमा माने जाते थे।

राजस्थान के सांभार जिले में जन्मे बुखारी ने लंबी उम्र पाई। वे जिस तारीख को जामा मस्जिद के बारहवें शाही इमाम बने उसी तारीख में आखिरी सांस ली। उन्हें जामा मस्जिद अहाते में सुपुर्दे खाक किया गया। उनके बड़े बेटे मौलाना सैयद अहमद बुखारी शाही इमामत संभाल रहे हैं। पर जो रुतबा मौलान बुखारी का था, अब वह नहीं है। इस तख्त की पैठ हल्की हुई है।

Thursday, July 9, 2009

कमला नगर मार्केट व ‘चाचे-दी-हट्टी’


मुंबई में ‘बड़ा-पाव’ जितना लोकप्रिय व्यंजन है। दिल्ली में उतना ही छोला-भटूरा। बड़ी सहजता से हर चौराहे पर मिल जाता है। पर इसकी कुछ खास दुकानें भी हैं। जैसे- कमला नगर मार्केट में स्थित ‘चाचे-दी-हट्टी’ ।

छोला-भटूरा की ये दुकान जमाने से खूब लोकप्रिय है। सुबह नौ बजे के आसपास खुलती है और दोपहर दो बजे तक तुफानी अंदाज में चलती है। दुकान का पूरा नाम है, रावल पिण्डी वाले चाचे दी हट्टी। हालांकि, यह चाचे दी हट्टी के नाम से मशहूर है। इन दिनों दुकान की कमान कंवल किशोर संभाल रहे हैं।
वे बताते हैं, “पाकिस्तान के रावल पिण्डी से यहां आने के बाद मेरे पिता प्राणनाथ ने इस दुकान की नींव रखी थी।”

इस दुकान की रौनक दिल्ली विश्वविद्यालय के नार्थ कैंपस से भी है। तमाम कोशिशों के बावजूद कंवल किशोर अपनी लोकप्रियता के बारे में कुछ कहने से बचना चाहते हैं। बस तारीफ सुनकर थोड़ा मुस्कुरा देते है।
विश्विद्यालय के एक प्राध्यापक ने बताया कि खाने-पीने के कई बेहतरीन साधन कैंपस में सुलभ हैं। फिर भी चाचे दी हट्टी के देशी ठाठ का अपना रूआब है। लड़के-लड़कियां वहां खाना पसंद करते हैं। मैं जब छात्र था तब जाता था, आज भी जाता हूं।

हाल ही में वहां गया तो पुराने दिन याद आ गए। तब मामला पांच रुपये में निपट जाता था। अब तो 18 रुपये प्लेट छोले-भटुरे हैं। चलो अच्छा है।

Tuesday, June 16, 2009

क्यों गए हबीब ?

हबीब तनवीर रंगमंच की दुनिया का वह चेहरा था, जिससे आंदोलन की ताप अंत समय तक महसूस होती रही। अब वे नहीं रहे। हालांकि, वे अभी जीना चाहते थे। अपने संघर्ष के दिनों को किताब की शक्ल देने में जुटे थे। सुना है इक भाग लिखा भी है, पर किताब पूरी न हो सकी। आखिर कहां हो पाती हैं लोगों की सभी इच्छाएं पूरी।

लोग कहते हैं कि 85 वर्षीय हबीब का जाना एक अध्याय का समाप्त हो जाना है। लेकिन, इस पंक्ति का लेखक मानता है कि इस अध्याय में जो दर्ज हुआ, आने वाली पीढ़ी उसके रंग में गहरे डूबी रहेगी।


उनका जन्म सन् 1923 में सितंबर की पहली तारीख को रायपुर में हुआ था। उन्होंने अपनी स्कूली और कालेज की पढ़ाई तो गृह राज्य में ही ली, लेकिन उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए यानी एमए की पढ़ाई करने के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दाखिल हो गए। बाद में रंगमंच का प्रशिक्षण विदेश जाकर लिया। पर वापस लौटे तो ठेठ भारतीय नाट्य शैली को एक न्या स्वरूप दिया। लोक तहजीब व कलाओं को लोक भाषा के माध्यम से ही दुनिया के सानने प्रस्तुत किया।

तब जब हिन्दी की उप बोलियों का दायरा सिमटता जा रहा था, तब हबीब ने इसे अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। लोक कलाकारों को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंच दिया। तब दुनिया छत्तीसगढ़ के बज्र देहात में फलने-फुलने वाली कलाओं से दुनिया रूबरू हो सकी।

अपने रंगमंचीय सफर के दौरान हबीब ने रंगमंच को आंदोलन पैदा करने वाली कार्यशाला में तब्दील कर दिया। उनके नाटक थिएटर से निकलकर सामाजिक आंदोलन का विस्तार देते मालूम पड़ते हैं।


सन् 1954 में जब उनका नाटक आगरा बाजार मंचित हुआ तो इसकी खूब चर्चा हुई थी। आज पचपन साल बाद भी उसकी ताप बरकरार है। नाटक की प्रासंगिकता बनी हुई है। इस नाटक के माध्यम से उठाए गए मुद्दे बाजारवाद के इस दौर में एक तल्ख सच्चाई बयान करते हैं।

पोंगा पंडित नाटक जब मंचित हुआ तो हबीब एक राजनीतिक पार्टी और अतिवादी धार्मिक संगठन के निशाने पर आ गए। इन पर हमले भी हुए। लंबे समय तक उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा। पर एक कलाकार के कर्म को उन्होंने धर्म की तरह निभाया। अंत तक आंदोलन का तेवर रंगमंच के इस शख्स में बना रहा।

प्रयोगधर्मिता उनके कोमल स्वाभाव का सबल पक्ष था, जो अंत तक बरकरार रहा। वैसे हबीब के करीबी लोग के अनुसार उनका घर धर्मनिरपेक्षता की एक मिसाल है। वे जरूर एक मुस्लिम परिवार से थे। पर उनके घर भगवान की पूजा होती थी। शंख फूंके जाते थे। आरती होती थी। दरअसल उनकी पत्नी गैर मुस्लिम परिवार से थीं। लेकिन, उन्होंने कभी अपनी पत्नी को धर्म बदलने को नहीं कहा।

उन्होंने एक पत्रकार की हैसियत से अपने करियर की शुरुआत की थी। बाद में रंगकर्मी हो गए। कुछ फिल्मों में भी काम किया। जैसे- सन् 1982 में प्रदर्शित हुई रिचर्ड एटनबरो की मशहूर फिल्म गांधी में इक छोटी से भूमिका निभाई थी। फिल्म प्रहार में भी उन्होंने काम किया था। और भी कई हैं।

खैर, जब 97 वर्षीय जोहार सहगल ने कहा, “हबीब जैसा इंसान नहीं देखा। उसकी कला की रूहकभी मिट नहीं सकती।” तब एहसास होता है कि हमने क्या खोया है ? रंगमंच से जुड़े युवा मानते हैं कि हबीब तो पितामह थे। उनकी मौजूदगी हिम्मत बढ़ाती थी। अब उनकी यादें ऐसा काम करेंगी।


मालूम पड़ता है कि आज से सौ साल बाद भी यानी 185 वर्ष की उम्र में वे इस दुनिया से जाते तो लोग जरूर कहते इतनी जल्दी क्यों चले गए हबीब ?

Saturday, June 13, 2009

खारे पानी के नीचे का गंदा


उत्तरी दिल्ली के कुछ इलाकों में सप्लाई का पानी पीने योग्य नहीं है। मुखर्जी नगर, परमानंद कॉलोनी, ढक्का आदि इलाकों में लोगों को खरीद कर पानी पीना पड़ रहा है।
प्रवासी छात्रों की इन कॉलोनी में कुछ-एक दिन पहले छात्र आपस में बतिया रहे थे- ‘गंदा पानी सप्लाई करने की वजह भी हो सकती है। यह हो सकता है कि पानी बेचने वाली कंपनियों से गठजोड़ की वजह से ही दिल्ली जल बोर्ड ऐसा पानी सप्लाई कर सकता है, जिसका मीठापन बिल्कुल गायब हो। ऐसे में आम लोग खरीद कर ही पानी पी पाएंगे और इस तपती गर्मी में पानी का व्यापार फैलेगा।’
क्या यह सही हो सकता है ? भई हो तो कुछ भी सकता है। फिलहाल इसको लेकर खोज-पड़ताल करने की जरूर है। लेकिन इतना तो सही है कि गंदा पानी आने की वजह से इन इलाकों में पानी का व्यापार दोगुना हो गया है।

Thursday, June 11, 2009

चलो दिलदार चलो...


कई लोगों का मानना है कि मीना कुमारी की मौत ने ही ‘पाकीजा’ को जीवन और यश प्रदान किया। हालांकि, इस बात को कमाल अमरोही ने कभी स्वीकार नहीं किया। यह फिल्म सन् 1972 के पहले महीने में आई थी। जबकि इसे दिसंबर 1971 में ही प्रदर्शित होना था। लेकिन, भारत-पाक युद्ध की वजह से आठ सप्ताह बाद इसे रिजील किया गया। खैर !

इस फिल्म के तैयार होने की प्रक्रिया तो और भी पुरानी है। वैसे, यह फिल्म अपने संगीत और संवाद के लिए आज भी खूब जानी जाती है।
इसका संगीत गुलाम मोहम्मद ने तैयार किया था। उन्होंने ‘चलो दिलदार चलो’, ‘आज हम अपनी, निगाहों का असर देखेंगे’, ‘थाड़े रहियो’ जैसे खूबसूरत गीत तैयार किए। इन गीतों में राजस्थानी मांड की बंदिश साफ समझ में आती है।

वैसे, नौशाद की माने तो इस फिल्म के तीन गीत यानी- ‘इन्हीं लोगों ने’, ‘चलते-चलते’ और ‘मौसम है आशिकान’ की बंदिश उन्होंने ही गुलाम मोहम्मद के लिए की थी। जो भी हो। ये सारे गीत अब भी खूब सुने जाते हैं। लेकिन, इन गीतों के मशहूर होने से पहले ही गुलाम मोहम्मद इस दुनिया को छोड़ गए।

फिल्मी दुनिया के कई पुराने इमानदार लोगों को आज भी इस बात का मलाल है कि गुलाम मोहम्मद नाम के शख्स को कभी उनके जीते-जी अपनी प्रतिभा का वाजिब सम्मान नहीं मिला।

हां, इस फिल्म को संवाद के लिए भी जाना जाता है। दो संवाद आज भी खूब याद आते हैं। रेलगाड़ी की सीटी के बीच, फिल्म का नायक बोल पड़ता है - ‘आपके पांव देखे...।’ दूसरा संवाद- ‘अफसोस, लोग दूध से भी जल जाया करते हैं।’ इस दुनिया का भी गजब रिवाज है, लोग जिंदा होते हैं तो ढेला समझते हैं। छोड़ जाते हैं, तब सम्मान करते हैं।

Wednesday, June 10, 2009

उस गीत का नशा


बात साठ के दशक की है। हैदराबाद के नवाब अपने परिवार के साथ सिनेमाघर में फिल्म- हातिमताई देखने आए। उस फिल्म में मोहम्मद रफी का गाया हुए एक सूफियाना गीत था- परवरदिगार आलम तेरा ही है सहारा। इस गीत ने नवाब साहब को भाव विभोर कर दिया।

वे सिनेमाघर में ही सिसकने लगे, और इस गीत को बार-बार सुनने की फरमाइश करने लगे। प्रोजेक्टर पर उस गीत को वापस लाकर बारह बार बजाया गया। तब नवाब साहब का जी भरा, और फिल्म आगे बढ़ी। इस गीत को साहिर लुधियानवी ने लिखा था। संगीत एस.एन. त्रिपाठी का था।

Tuesday, June 9, 2009

झुमरी तिलैया और न्यूज रूम


जब कभी फिल्म पर कुछ लिखता या नकलचेपी करता हूं तो एक बात खूब याद आती है। और हंसी भी। तब मैं एक निजी समाचार एजेंसी में था। मैनें झुमरी तिलैया में रहने वाले फिल्मी गीतों के कदरदानों पर एक स्टोरी बनाई। स्टोरी को कायदे से सुबह चलाया जाना था।

दोपहर को जब मैं दफ्तर पहुंचा तो किसी ने बताया स्टोरी नहीं चलाई गई है। डेस्क इंचार्ज के आदेश पर उसे एक सहयोगी एडिट कर रहे हैं। मेरा मानना है कि स्टोरी हमेशा बेहतर बनाने के लिए ही एडिट होती है। जलील करने के लिए नहीं। खैर! एडिट हुई। चली। इसके बाद शिफ्ट संभाल रहीं महिला डेस्क इंचार्ज ने न्यूज रूम में बैठे सभी साथियों को सुनाते हुए कहा, “कॉपी काफी अच्छे तरीके से एडिट की गई है। अब इस कॉपी में जान सी आ गई है।”
यह सुनने के बाद मुझे अपनी स्टोरी को पढ़ने की इच्छा हुई। मैंने अक्षर-सह मिलान किया। पाया कि साढ़े तीन सौ शब्द की स्टोरी में केवल एक ‘झारखंड’ शब्द जोड़ा गया है। तब समझ में आया कि यही जान है। थोड़ी देर बाद उक्त सहयोगी मेरे पास आए। कहा कि मैडम ने स्टोरी ठीक करने को कहा था, जब मुझे लगा कि इसमें कुछ नहीं किया जाना चाहिए तो मुझे बात रखने के इरादे से एक शब्द जोड़ना पड़ा।

मैंने महसूस किया कि वे शिफ्ट इंचार्ज की ओर से की गई खुली तारीफ से बड़े शर्मिदा थे। बाद में मालूम पड़ा कि शिफ्ट इंचार्ज को इस बात की जानकारी ही नहीं थी कि झुमरी तिलैया कोई जगह है। खैर, ऐसा भी होता है।

यूं तैयार हुआ फिल्म उत्सव का संगीत



शशिकपूर की इस फिल्म का निर्देशन गिरीश कर्नाड कर रहे थे। तब लोकप्रिय व्यावसायिक फिल्मों में संगीत देकर ख्याति पा चुके लक्ष्मीकांत जब कभी उन्हें नई पर चालू किस्म की धुन सुनाते तो वे बड़े अदब से कहते, “यह धुन बड़ी उम्दा है, पर इस फिल्म के लिए प्रासंगिक नहीं है।”


ऐसे में लक्ष्मीकांत को कड़ी मेहनत करनी पड़ी, तब कहीं उत्सव पूरी हुई। वे अपनी इस फिल्म के संगीत को सबसे उम्दा मानते हैं। दरअसल, कर्नाड की दृष्टि और लक्ष्मीकांत के प्रयासों ने ऐसे बेहतरी संगीत की रचना करवा दी।
यदि आप इस फिल्म में लता और आशा का गया गीत – “रात शुरू होती है, आधी रात को... ” सुनेंगे, तब मालूम होगा कि समानांतर सिनेमा का संगीत कितना गहरा और उम्दा है।

Monday, June 8, 2009

आप जैसा कोई, मेरी जिन्दगी में आए



नाजिया हसन के गाए गीत “ आप जैसा कोई, मेरी जिन्दगी में आए” को गजब की लोकप्रियता मिली थी। यह गीत लगातार चौदह सप्ताह तक बिनाका गीत माला की पहली पायदान पर कायम रही। तब नाजिया ‘बात बन जाए गर्ल’ नाम से पहचानी जाने लगी थी।


वे जब पहली दफा भारत आईं तो बंबई के ताजमहल होटल की छठी मंजिल पर अपने परिवार के साथ ठहरी थीं। तब होटल की बालकनी से नीचे झांककर वह आनायास चिल्ला पड़ी थी। नीचे सड़क पर बैंड पर बज रहा था “ आप जैसा कोई”। नाजिया खुशी से झूम उठीं। तब उन्हें बताया गया कि उनके इस गीत ने भारत में कितनी धूम मचा रखी है।

इस गीत ने बिनाका गीत माला में लता के गाए हुए गीत “शीशा हो या दिल हो, आखिर टूट जाता है” को पीछे छोड़ दिया था। जानकर ताज्जुब होगा कि फिल्म कुर्बनी के इस गीत की जब इंग्लैंड में रिकार्डिंग हुई थी, तब नाजिया महज 13 साल की थी। ‘बात बन जाए गर्ल’ केवल 35 वर्ष की उम्र में दुनिया छोड़कर चली गईं।

Sunday, June 7, 2009

दौलत गई है, दानत नहीं


जो लोग हिन्दी सिनेमा के बारे में थोड़ा-बहुत भी जानते हैं वे चंद्रमोहन को जानते होंगे। वे ऐसे अभिनेता थे जिनके अभिनय का प्रमुख अस्त्र उनकी आंखें थीं। इसी अस्त्र से वे सबों के दिल पर राज करते थे। उनका जलवा था। मोतीलाल की चंद्रमोहन से खूब छनती थी।

पर दिन बदल गए। चंद्रमोहन की माली हालत खराब हो गई। तभी एक दिन मोतीलाल उनसे मिलने गए। चंद्रमोहन के हाथ में गिलास था और सामने स्कॉच व्हिस्की की बोतल खुली थी। वे अकेले ही पीते रहे। उन्होंने मोतीलाल को ऑफर नहीं किया।

जब मोतीलाल जाने लगे तब चंद्रमोहन ने कहा, “देखो मोती, मुझे मालूम है, मेरे ऑफऱ नहीं करने पर तुम्हें पीड़ा हुई है। पर सुनो, मेरी दौलत गई है, दानत नहीं। मेरे सामने जो बोतल पड़ी है वह जरूर स्कॉच व्हिस्की की है, पर अंदर उसके हाथभट्टी की शराब है और मैं नहीं चाहता कि तुम्हें हाथभट्टी की पीने दूं।”

Saturday, June 6, 2009

‘हिवरे बाजार’ इक गांव ऐसा भी


हिवरे बाजार यानी गांधी के सपनों का गांव। इक ऐसा गांव, जहां खुशहाल हिन्दुस्तान की आत्मा निवास करती है। बाजारवाद के अंधे युग में लौ का काम कर रही है। क्या वैसे दिन की कल्पना की जा सकती हैं, जब देश का सात लाख गांव हिवरे बाजार की तरह होगा। उसका अपना ग्राम स्वराज होगा ?


आर्थिक मंदी से इन दिनों दुनिया परेशान हैं। भारत सरकार भी चिंतित है। पर देश का इक गांव मजे में है। वहां के लोगों का इससे कोई सरोकार नहीं। वे रोजगार के लिए पलायन नहीं करते। गांव में रोजना स्कूल की कक्षा लगती है। आंगनवाड़ी रोज खुलती है। राशन की दुकान भी ग्राम सभा के निर्देशानुसार संचालित होती है। सड़कें इतनी साफ कि आप वहां कुछ फेंकने से शर्मा जाएंगे। एक ऐसा गांव जिसे जल संरक्षण के लिए 2007 का राष्ट्रीय पुरस्कार भी चुका है।

इस गांव की सत्ता दिल्ली में बैठी सरकार नहीं चलाती, बल्कि उसी गांव के लोग इसे संचालित करते हैं। इकबारगी यह यूटोपिया लगता होगा। पर महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के हिवरे बाजार गांव जाएंगे तो आप इस सच से रूबरू हो जाएंगे। और गांधी के सपनों के भारत को जान और समझ पाएंगे। इक शब्द में यह भी कहा जा सकता है कि हिवरे बाजार ग्राम स्वराज का प्रतिनिधि करता है।

आज से 20 वर्ष पहले यानी सन 1989 में इस उजाड़ से गांव को 30-40 पढ़े-लिखे नौजवानों ने संवारने का बीड़ा उठाया। गांव वालों ने उन नौजवानों को पूरा सहयोग दिया। अब देखिए साहब, गांव के नजारे ही बदल गए हैं। बंजर जमीन उपजाऊ हो गई है। एक फसल की जगह दो-दो फसल उगा रहे हैं। गांव के लोगों ने अपने प्रयास से गांव के आसपास 10 लाख पेड़ लगाए। इससे भू-जल स्तर ऊपर आया है और माटी में नमी बढ़ने लगी है। अब यहां फसल क्या, लोग सब्जियां तक उगाते हैं।
पहले यहां लोगों की औसत आमदनी प्रतिवर्ष 800 रुपये थी। अब 28000 रुपये हो गई है। पहले जो दूसरे गांव में जाकर मजूदरी करते अब रोजाना 250-300 लीटर दूध का व्यापार करते हैं।

हिवरे बाजार गांव में राशन ग्रामसभा के निर्देशानुसार सबसे पहले प्रत्येक कार्डधारी को दिया जाता है। यदि उसके बाद भी राशन बच जाता है तो ग्रामसभा तय करती है कि इसका क्या होगा। राशन की दुकान के संचालक आबादास थांगे बेबाकी से कहते हैं कि उन्हें फूड इंस्पेक्टर को रिश्वत नहीं देनी होती है। यह है भई, जलवा।

गांव के पोपट राव कहते हैं, बाहरी लोगों की नजर हमारे गांव के जमीन पर है। अतः हमलोगों ने नियम बना रखा है कि जमीन गांव से बाहर के किसी व्यक्ति को नहीं बेची जाएगी। गांधी के गांव का जरा रंग देखिए! यहां एकमात्र मुसलिम परिवार के लिए भी मसजिद है, जिसे ग्रामसभा ने ही बनवाया है।

यहां सारे फैसले ग्राम संसद लेती है। यकीनन, दिल्ली की संसद में बैठे लोग इससे बहुत सीख सकते हैं। खैर, एक वक्त था जब इस गांव के युवक यह बताने से कतरते थे कि वे हिवरे बाजार के निवासी हैं। आज बाला साहेब रमेश ने अपने नाम के आगे ही 'हिवरे बाजार' लगा रखा है। इसमें दो राय नहीं कि हिवरे बाजार गांधी के सपने को साकार करने के साथ-साथ घने अंधेरे में लौ जलाए हुए है।

विशेष जानकारी संजीव कुमार के पास।

Tuesday, June 2, 2009

मिटाना-विटाना तो इक दर्द देने वाली प्रक्रिया है


आगे आकर कुछ ऐसा लिखने की आदत नहीं जिसे आखिरकार मिटाना पड़े। क्योंकि सीखा यही है कि मिटाना-विटाना दरअसल, इक दर्द देने वाली प्रक्रिया है। वह भी किसी पत्रकार के लिए। यह बड़े शिद्दत से महसूस करता हूं। ऐसे में जब किसी पत्रकार की पूरी खबर ही मिटा दी जाए तो कैसा लगे ! अंदाजा लगाइये।

जिस खबर को अरुण आनंद जी के बेतुके आदेश पर मिटाया गया था, उसे यहां बता रहा हूं। कहानी भी साथ है। जो इस प्रकार है। उक्त स्टोरी को वेबसाइट से हटाने के बाबत अपना तर्क देते हुए उन्होंने निम्न आरोप लगाए थे। पहला- खबर की हेडलाइन में ही राजकमल प्रकाशक का नाम है जो उचित नहीं। दूसरा- खबर पढ़कर ऐसा लगता है कि संस्थान उक्त प्रकाशक का मुख पत्र है। इससे आज तक की उनकी मेहनत माटी में मिल गई। तीसरा- खबर की जो दिशा बताई गई थी यह उससे पूरी तरह अलग और गलत है। आदि-आदि।

कुछ और बात जान लें ताकि बात साफ रहे। खबर तैयार करने का आदेश देते हुए कहा गया था कि मुंबई हमलों पर क्या कोई किताब बाजार में आई है, यदि आई है तो पाठक उसे किस रूप में ले रहे है ? प्रकाशकों से भी बात की जाए ताकि किताब संबंधी खास जानकारी मिले ?

अब आप खबर पढ़े और उपर्युक्त तीन बिंदुओं से इसका मेल कर लें। क्योंकि, फैसला तो आपको ही करना है। आखिरकार यह लिखे का सवाल है। खैर, इस रफ्तार पर यहीं विराम लगाते हुए।

लोकतंत्र में खानदानी राजनीति का रिवाज


नए जनादेश से जो संप्रग सरकार बनी है उसके चेहरे पर खानदान का अटपटा टीका लगा हुआ है। लोकतंत्र में यह तो नहीं कहा जा सकता कि किसी खानदान को अपनी जगह बनाने का अधिकार नहीं है, लेकिन जिस सरकार के आधे से ज्यादा मंत्री किसी न किसी राजनीतिक परिवार के सदस्य हों उसे खानदानी मंत्रिमंडल ही माना जाएगा। दूसरे शब्दों में ऐसा मंत्रिमंडल सामंती लोकतंत्र की मिशाल कहा जाएगा। जिस नए-पुराने चेहरों ने सरकार में जगह पाई है उनका एक ही सदगुण पहचाना जा सकता है कि वे किसी बड़े बाप के बेटे या बेटी हैं। जिन्हें जन्मजात राजनीति घुट्टी मिली हुई है, उन्हें लोकतंत्र का पोलियो बूंद नहीं चाहिए। यह भारतीय लोकतंत्र का उपहास है या उसकी ताकत ? इसका जवाब वे भी देने में असमर्थ हो जाएंगे और उनकी बोलती बंद हो जाएगी जो खानदान की डोर पकड़कर पहले संसद में पहुंचे और अब सरकार में जम गए हैं।

जाने-माने पत्रकार सुरेंद्र किशोर ने आजादी के बाद की राजनीति के अज्ञात पन्नों से खोज कर अपने विश्लेषण में बताया है कि खानदानी राजनीति का रिवाज कब और कैसे शुरू हुआ। उन्होंने इसके उदाहरण भी दिए हैं कि एक बार ढलान पर कदम रखने के बाद निरंतर फिसलते जाने की कहानी कौन-कौन सी है। संभवतः वे अपने किसी दूसरे लेख में यह भी बताएंगे कि जो शुरुआत जवाहरलाल नेहरू ने अपनी बेटी इंदिरा के लिए की थी उसका सिलसिला तब से है जब ऐसी ही कोशिश आजादी की लड़ाई के दौरान पंडित मोतीलाल नेहरू ने की थी। पर तब बात कुछ और ही थी।

सुरेंद्र किशोर के लेख का पहला पारा कुछ इस प्रकार है।

“ताजा करुणानिधि प्रकरण राजनीति में परिवारवाद की बुराइयों की पराकाष्ठा है। अब किसी नेता के किचेन से भी यह तय हो रहा है कि केंद्र में किसे मंत्री बनाया जाना चाहिए। मध्य युग के राजतंत्र में भी ऐसा कम ही होता था। इससे पहले लालू प्रसाद ने जब अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया था तो अनेक लोग सन्न रह गए थे। पता नहीं इस डाइनेस्टिक डेमोक्रेसी के युग में इस देश को आगे और क्या-क्या देखना पड़ेगा।”


पूरा लेख प्रथम प्रवक्ता पत्रिका में पढ़ा जा सकता है। हालांकि यहां भी जल्द ही उपलब्ध करा दिया जाएगा।

Monday, June 1, 2009

डा. सिंह के शपथ ग्रहण की खबर पढ़ें


डा. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री पद की शपथ ग्रहण को लेकर एक निजी समाचार एजेंसी की ओर से चलाई गई निहायत गलत स्टोरी को कई लोग पढ़ना चाह रहे थे। अंततः यहां लगाना ही मुझे सही लगा। दूसरी स्टोरी की चर्चा जो मैंने की थी उसे आप कुछ कहानियों के साथ कल पढ़ पाएंगे।

Wednesday, May 27, 2009

पीएमओ का पीआरओ

दीवान व खंभा ब्लाग पर एक निजी समाचार एजेंसी की ओर से चलाई गई एक महत्वपूर्ण स्टोरी (डा. मनमोहन सिहं के शपथ को लेकर) के बाबत कुछ बातें हुई थीं। अनुमान के विपरीत लोगों की प्रतिक्रियाएं आईं। ज्यादा फोन ही आए। अब भी आ जाते हैं। जो मुझे पसंद नहीं।

बहरहाल, एक साथी ने उक्त खबर की मूल कॉपी यानी पूरी खबर से परिचय कराया तो पूरा पढ़कर बड़ा दुख हुआ। खबर दो पारा में है, यानी सौ शब्द होंगे। सरसरी निगाह भी डालें तो हजार के बराबर गलती दिख जाएगी।
खबर में यह बताया गया है कि नेहरू के बाद डा. मनमोहन सिंह ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं जो अपना पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा करने के बाद दूसरी बार प्रधानमंत्री चुने गए हैं।


यह बात बारह आनें सही है। पर सोलह आना सही यह है कि डा. सिंह देश के ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं जो बिना चुनाव लड़े प्रधानमंत्री बन गए हैं। इस बात का जिक्र खबर में नहीं है। क्या हिन्दी सर्विस को पीएमओ के पीआर का टेंडर मिला है ? यदि मिला है तो मजे लें। अन्यथा न्यूज धर्म निभाएं। दोनों बातों की जानकारी साथ-साथ दें।

यहां एक गंभीर और मोटी बात यह है कि डा. सिंह की तुलना नेहरू से करना पत्रकारिता के दृष्टिकोण से बड़ी भूल है। नेहरू तीन बार चुनाव जीतकर आए और प्रधानमंत्री बने। डा. सिंह के साथ ऐसी बात नहीं है। नेहरू दशरथ पुत्र भरत की भूमिका में नहीं थे।
वर्तमान समय में राजनीति करवट ले रही है। इसका सही विश्लेषण होना चाहिए। सुना है कि खबर हिन्दी के प्रमुख अरुण आनंद की ओर से संपादित है। बतलाइये संपादक के ऐसे रंग हैं। हालांकि, ऐसी रीति फिलहाल अन्य जगहों पर भी दिख रही है।

कुछ अन्य व्यस्तता की वजह से दोनों खबर आपतक नहीं पहुंचा पाया हूं। वह अगली दफा।

Tuesday, May 26, 2009

श्रीनगर, ढलान से उतरते हुए


मौसम के लिहाज से यह समय श्रीनगर जाने और ठाठ से बीसेक दिन रहने का है। पर भारी मन से ही सही, मुझे वहां से लौटे कुछ दिन बीत गए। दौरा चुनावी था और उसके अपने कायदे थे। खैर! कश्मीर वादी से लौटने के बाद अब कुछ रीता सा अनुभव हो रहा है। सोचता हूं- घूमना भी कायदे से पड़े, तो फिर घूमना क्या ?

वहां से लाई गई चीजें अब भी एक दूरी का भास कराती हैं। वे चेहरे अब भी खूब याद आते हैं जो तफरीह के दौरान वादी में मिले थे। वैसे तो पांच-छह दिनों की मुहलत किसी स्थान के बारे में पक्की राय कामय करने के लिए काफी नहीं है। लेकिन, इन चार-पांच दिनों में वहां की फिजा आपको स्थानीय गाढ़े रंग से हल्का परिचय जरूर करा देगी। इससे पहले कश्मीर जाने को लेकर एक ना-मालूम सा भय उत्पन्न होता था। अजीब सी झिझक पैदा होती थी। इस यात्रा ने इन दोनों चीजों को अब खत्म कर दिया है।

श्रीनगर से बडगाम करीब 35 से 40 किलोमीटर आगे है। इस दूरी को तय करते समय जो कुछ दिखा उससे साफ हो गया कि कश्मीर में हालात बदलें हैं। वादी की जनता अमन और सुकून के साथ अपना पूरा जीवन जीना चाहती है। यहां सुबह-सबेरे स्कूल जाती छात्राओं को देखकर बड़ा ताज्जुब हुआ। इक-बारगी यह सपना सा मालूम पड़ता है। लेकिन, बडगाम जिले के बीरु तहसील में स्कूल जा रही आठवीं कक्षा की एक छात्रा ने पूछने पर ढलान से उतरते हुए बताया, “मैं रोजाना अपनी सहेलियों के साथ स्कूल जाती हूं।” बच्ची के इस जवाब पर गाड़ी चला रहे व्यक्ति ने कहा, “इंसा-अल्लाह हम चाहते हैं कि दुनिया जाने की वादी में हालात अब बदले हैं।”

जम्मू से रवाना हुई हमारी गाड़ी जब श्रीनगर पहुंची तो रात काफी हो चुकी थी। अप्रैल की यह एक बेहद शांत, सूनी रात थी। ठंडी हवा शरीर में अजीब सिहरन पैदा कर रही थी। दरअसल, जवाहर टनल पार करने के बाद जब गाड़ी ढलान से उतर रही थी, तभी से ठंड का आभास हो चला था। ऐसी ठंड दिल्ली में रहते हुए हमलोग नवंबर के आखिरी दिनों में महसूस करते हैं। अंततः हाउस बोट का एक कमरा किराए पर लिया। लेकिन, पूरी रात बारामुला, पुलवामा, श्रीनगर आदि में हुई आतंकवादी घटनाओं से जुड़ी वे खबरें याद आती रहीं, जिसे मैंने कभी अखबारों में पढ़ा था।

खैर, दूसरे दिन शहर घूमते समय मुझे तनिक भी महसूस नहीं हुआ कि मैं वहां एक आउटसाइडर हूं। इस शहर में दो शाम गुजारने के बाद ऐसा लगा कि आप कितने भी गैर-रोमैण्टिक हों, वादी की फिजा आपको जरूर रोमैण्टिक बना देगी। हालांकि, वादी में टूरिस्ट युगल का तांता आना अभी शुरू नहीं हुआ है। पर ऐसा लगता है कि उन दिनों यह शहर सचमुच अभी की अपेक्षा और भी नया व जवान दिखता होगा।

यह पहला अवसर था जब इस यात्रा के दौरान मुझे सूबे की राजनीति के भीतर झांकने का मौका मिला। लेकिन, मुझे लगात है कि इस सफर के दौरान जुटाई गई बहुत-सी यादें व सामान पीछे छोड़ने होंगे। हालांकि, मन इसकी गवाही नहीं देता। ऐसे में हरिवंश राय बच्चन की एक कविता खूब याद आती है- अंगड़-खंगड़ सब अपना ही, क्या जोडूं क्या छोडूं रे।।

Friday, May 22, 2009

यह खबरनविशी है या मख्खनबाजी

डा. मनमोहन सिंह ने जब देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली तो खबर आई कि उन्होंने अंग्रेजी में शपथ ग्रहण किया। न्यूज चैनल देखने वाले कई लोग भी इसका सीधा प्रसारण देख रहे होंगे। लेकिन, देश की एक निजी समाचार एजेंसी की हिंदी इकाई की तरफ से खबर कुछ यूं जारी हुई-

डा. मनमोहन सिंह ने लगातार दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री के रूप में शुक्रवार को शपथ लेकर एक बार फिर देश की बागडोर अपने हाथों में थाम ली है। राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने उन्हें पद व गोपनीयता की शपथ दिलाई। उन्होंने पहले हिन्दी और फिर अंग्रेजी में शपथ ली।


इंट्रो की अंतिम पंक्ति काबिलेगौर है। सभी ने सुना-देखा की डा. सिंह ने शपथ के लिए जिस भाषा का उपयोग किया वह अंग्रेजी थी। हिन्दी-अंग्रेजी का मामला न बने इसलिए शायद तान छेड़ा गया कि शपथ लेते समय डा. सिंह ने हिन्दी भाषा का भी प्रयोग किया। अब जिस आम जनता के वास्ते खबर लिखी गई है वही फैसला करे यह खबरनविशी है य़ा फिर शुरू हो गई मख्खनबाजी।

इस पंक्ति के लेखक को खूब याद है कि उक्त एजेंसी में ही एक सही और पुख्ता खबर देने पर उसे क्या कुछ नहीं सुनना पड़ा था। हिन्दी सर्विस के कर्ताधर्ता ने वेबसाइट से खबर तक हटवा दी थी। जबकि वह निर्देशानुसार था। आखिरकार मैंने संस्थान को छोड़ना ही बेहतर समझा था। आज भी उस खबर की एक कॉपी मेरे पास है।

जल्दी ही दोनों खबरों को एक साथ आपके नजर डालूंगा। क्योंकि, सही फैसला तो जनता-जनार्दन के हाथों ही होगा।

Saturday, May 9, 2009

लाजिम है कि हम भी देखेंगे...


इकबाव बानो की गायकी से मुहब्बत रखने वाले जानते हैं कि फैज उनके पसंदीदा शायर थे। इस विद्रोही शायर को जब जिया उल हक की फौजी हुकूमत ने कैद कर लिया, तब उनकी शायरी को अवाम तक पहुंचाने का काम इकबाल बानो ने खूब निभाया था।
यह बात अस्सी के दशक की है। इकबाल बानो ने लाहौर के स्टेडियम में पचास हजार श्रोताओं के सामने फैज के निषिद्ध नज्म को खूब गाये थे। वह भी काली साड़ी पहनकर। तब वहां की सरकार ने फैज की शायरी पर ही नहीं बल्कि साड़ी पहनने पर भी पाबंदी लगा रखी थी। पर बानो ने इसकी परवाह नहीं की। वह नज्म इस प्रकार हैं-

हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लौह-ए-अजल में लिखा है
हम देखेंगे ...
जब जुल्म ए सितम के कोह-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों के पाँव तले
जब धरती धड़ धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी
हम देखेंगे ...
जब अर्ज़-ए-खुदा के काबे से
सब बुत उठवाये जायेंगे
हम अहल-ए-सफा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराए जाएंगे
हम देखेंगे ...
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो गायब भी है हाजिर भी
जो नाजिर भी है मंज़र भी
उठेगा अनलहक का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
हम देखेंगे ...

इस पाकिस्तानी गायिका का तीन सप्ताह पूर्व निधन हो गया। उनका जन्म दिल्ली में ही सन् 1935 में हुआ था और वे उस्ताद चांद खां की शागिर्द थीं। लेकिन, सन् 1952 में निकाह के बाद वह शौहर के पास पाकिस्तान चली गई थीं।

Thursday, May 7, 2009

दरीबा कलां और 200 रुपया सेर जलेबी


चांदनी चौक इलाके में दरीबा कलां के नुक्कड़ पर है, पुरानी जलेबी वाले की दुकान। साहब, यह दुकान 138 वर्ष पुरानी है! और इसकी लंबाई-चौड़ाई इतनी भर है कि यहां बा-मुश्किल से दो लोग बैठते हैं। जिनमें एक जलेबी तलने का काम करता रहता है। दूसरा दुकान की गद्दी संभाले रहता है।

यहां गर्म-गर्म जलेबी का लुत्फ उठाने वालों को दुकान के बाहर ही खड़ा होना पड़ेगा। इसके बावजूद दरीबा कलां डाकघर के निकट स्थित इस दुकान की खूब ख्याति है। चांदनी चौक से लौटने पर यार-दोस्त जरूर पूछते हैं- भई, वहां जलेबी खाया या नहीं!

इन दिनों दुकान कैलाश चंद्र जैन की देख-रेख में रफ्तार पकड़े हुए है। घंटा भर वहां खड़ा रहा। कैलाश साहब बड़े व्यस्त दिखे। वक्त देखकर तपाक से मेरे पूछने पर उन्होंने बताया, “हमारे पुरखे यानी नेम चंद्र जैन ने इस दुकान को खोला था। वह सन् 1870-71 का जमाना था । तब से अब तक इस इलाके में कई जरूरी बदलाव हुए। लेकिन, यह दुकान अपनी रफ्तार पकड़े हुए है।”

दुकान की पूरी काया देखने पर मालूम पड़ता है कि यहां भी वक्त के साथ जरूरी बदलाव किए गए हैं। रंग-रौगन होते रहे हैं। पर, तंग जगह होने के बावजूद कैलाश जी ने कायदे से जगह का इस्तेमान किया है। आस-पास कूड़ा न फैले इसका भी खूब इंतजाम है।

वैसे, यहां की जलेबी थोड़ी महंगी तो है। लेकिन, जिसने भी इसका स्वाद लिया, वह इसका मुरीद बन गया। दोबारा अपनी जेब ढ़ीली करने से नहीं हिचकिचाता है। कैलाश चंद्र ने बताया, “हमारे यहां दो सौ रुपये प्रति किलोग्राम की दर से जलेबी मिलती है। लोग बड़े चाव से जलेबी खाते हैं और अपने परिजनों के लिए भी लेकर जाते हैं।”

महांगाई के बाबत वे कहते हैं, “ भई महांगी तो है। पर, आज सस्ता ही क्या रह गया है जनाब।” कैलाश जी की बातें तब सच मालूम पड़ती हैं, जब डाकघर के नीचे खड़े होकर देर तक उनकी दुकान में आने-जाने वालों को गौर से देखाता रहता हूं। चांदनी चौके के कई छोटे-बड़े बदलाव की गवाह यह दुकान रोजना सुबह साढ़े आठ बजे मेहमानवाजी के लिए तैयार हो जाती है। और रात के साढ़े नौ बजे तक अपनी ही रफ्तार से चलती रहती है।

देहरी पर


उस पार है
उम्मीद और उजास की,
एक पूरी दुनिया।
अंधेरा तो सिर्फ
देहरी पर है।।

Monday, May 4, 2009

15वीं लोकसभा चुनाव में जगी बनारस की आत्मा


बनारस का न्यारापन जितना उसके नाम में है, उससे अधिक उसकी विभूति में है। जिसका जैसा नजरिया हो वह वैसा माने। यह आजादी यही शहर देता है। याद में यह काशी है। सरकारी कागजों में वाराणसी है। चुनाव आयोग ने इसे वाराणसी संसदीय क्षेत्र नाम दिया है और न. 77.
पंद्रहवीं लोकसभा के लिए डा. मुरली मनोहर जोशी ने काशी को चुना। इस पर खूब बमचख मचा, भाजपा में और बाहर भी।

पहले चरण के चुनाव के दौरान इसके संकेत साफ मिल रहे थे कि डा. जोशी यहां से चुनाव जीत रहे हैं। हालांकि, इसकी घोषणा सोलह मई को होनी है। यहां जो दिखा वह काशी की भावना थी। जो जीतती नजर आई। दागी और दोषी यहां क्यों पिछड़ते नजर आए? वे तो बाहुबली भी हैं। बहुत दिनों तक इसे बनारस गहरे डूबकर खोजेगा कि आखिर ऐसा क्यों हुआ?

यहां लोगों ने जनता की राजनीति और धंधे की राजनीति का फर्क समझा और समझाया। साथ ही धंधे की राजनीति के खतरे को ठीक-ठीक आंका। बनारस अपनी परंपरा में जीता है। उससे रस ग्रहण करता है। लोकतांत्रिक राजनीति में जो खतरे उभर आए हैं उन्हें बनारस ने अपने अनुभवों से पहचाना कि वे उसी तरह के हैं जैसे कभी महामारी हुआ करती थी। उसका नाम चेचक, हैजा, प्लेग कुछ भी हो सकता है। नई महामारी आतंकवाद है।

जिस तरह पहले बनारस वाले गली के नुक्कड़, तिराहे और चौराहे पर टोटका कर महामारी रोकते थे और उसके लिए अनुष्ठान करते थे वही तरीका इस बार चुनावी समर में बनारस ने अपनाया। यह चुनाव बनारस की अपनी इज्जत से जुड़ गया था। इसलिए सामाजिक सहिष्णुता की धारा के मौजूदा प्रतिनिधि सक्रिय हुए। इससे बनारस के बदले मिजाज को समझा जा सकता है।

यही वह खुला रहस्य है जो मतदान के दिन उजागर हुआ। मतदान के नतीजे की जब विधिवत घोषणा होगी तो साफ हो जाएगा कि देश की सांस्कृतिक राजधानी में लोकतांत्रिक आकांक्षा को राह दिखाने का सामर्थ्य है।

यथाकाल पेज का संक्षिप्त अंश

Friday, May 1, 2009

राजनाथ सिंह के नाम वीरेंद्र सिंह का पत्र


हाल ही में भाजपा के पूर्व सांसद वीरेंद्र सिंह पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के खिलाफ गाजियाबाद से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतर गए थे। हालांकि, आडवाणी से मुलाकात करने के बाद उन्होंने अपना नामांकन वापस ले लिया है। यहां प्रस्तुत है उनकी ओर से राजनाथ सिंह को लिखा गया पत्र-

माननीय अध्यक्ष
भारतीय जनता पार्टी
श्री राजनाथ सिंह
सलेमपुर लोकसभा क्षेत्र प्रकरण से मेरी आशंका की पुष्टि हुई है। आपसे मैंने बातचीत में कहा था कि आप अगर नहीं चाहेंगे तो मैं चुनाव नहीं लड़ सकूंगा। इसपर आपका अंदाज हमेशा की तरह बुझौवल वाला बना रहा। मैं भाजपा का कार्यकर्ता हूं। विचारों से प्रेरित और निष्ठा से अडिग। एक राजनीतिक कार्यकर्ता के लिए चुनाव का अवसर चुनौती बनकर आता है। इसे आप भी समझते हैं। लोगों की ही इच्छा थी कि मुझे सलेमपुर में तैयारी करनी चाहिए, क्योंकि परिसीमन से जो बदलाव आया है, वह भाजपा के लिए नई राजनीतिक जमीन मुहैया कराता है। यह सोचकर मैं सक्रिय हुआ। हर मतदान केंद्र पर एक मजबूत टीम खड़ी हुई। ऐसे करीब पांच हजार कार्यकर्ताओं को गहरी निराशा हुई है।

उनमें बेचौनी बड़ रही थी। उनके ही आग्रह पर मैं दिल्ली पहुंचा। ताकि अपने सहयोगियों की भावनाओं से पार्टी नेतृत्व को अवगत करा सकूं। मैं नहीं जानता कि इससे पहले कभी भाजपा में ऐसा हुआ है या नहीं कि पार्टी कार्यकर्ता और नीचे से उपर तक नेतृत्व चाहता हो कि पार्टी लड़े। लेकिन जिसे पार्टी ने कुंजी दे रखी है वह तिजोरी भरने के फिराक में पड़ गया। वह व्यक्ति का लठैत बन गया। मेरा मतलब आपसे है। कौन नहीं जानता कि मार्च के मध्य में बलिया के तमाम कोयला डिपो से रुपए की वसूली कर उसे गाड़ियों में भरकर जब दिल्ली भेजा जा रहा था तो जैसे ही इसकी भनक लगी कि कार्यकर्ता बेचैन होने लगे। उन्होंने मुझे दिल्ली में ही बने कहने के लिए कहा ताकि साजिश सफल न हो जब भाजपा के अध्यक्ष पद पर बैठाया गया व्यक्ति जोड़तोड़ और तिकड़म की अपनी आदत पर पहले की ही तरह अमल करता रहे तो उम्मीद बचेगी कैसे? यही आपने मेरे साथ किया।

आपकी अध्यक्षता में उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया अगस्त, 2008 में शुरू होनी थी। तबसे मेरे जैसा कार्यकर्ता रोज इम्तीहान में बैठता था और इम्तीहान टलता रहा। सौदेबाजी होती रही। आखिरकार 23 मार्च, 2009 का वह दिन भी आया जब पूरी चुनाव समिति चाहती थी कि सलेमपुर से भाजपा लड़े। वहां जद (यू) का न अंडा है न बच्चा। आप हैं जिन्होंने चमत्कार दिखाया और सजपा के विधान परिषद सदस्य को रातों-रात जद (यू) का उम्मीदवार बनवा दिया। मरे पास अगर पांच करोड़ रुपया होता तो वह सीट पा लेता। जिसे आपने उम्मीदवार बनवाया है, क्या उसके बारे में यह मालूम है कि हत्या के अभियोग में नाम आने पर पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने उससे किसी तरह का संबंध होने से इनकार किया था? क्या आप यह भी जानते हैं कि सन 2006 में जब उसी चंद्रशेखर ने उसे जेपी स्मारक ट्रस्ट का सचिव बनवाया तो मैंने उनसे लोहा लिया। आप यह भी जानते ही होंगे कि चंद्रशेखऱ से मेरे नजदीकी संबंध रहे हैं। फिर भी उसकी परवाह नहीं की। क्योंकि सवाल जेपी से जुड़ी एक सार्वजनिक संस्था का था, जो ऊंचे आदर्शों से प्रेरित होकर बनाई गई थी। जेपी स्मारक ट्रस्ट को एक पारिवारिक जागीर बनाने की लड़ाई मैंने सार्वजनिक जीवन में सीखे पाठ से लडी। यही अभियान पूरे बलिया में राजनीतिक संधर्ष का जनप्रिय मुद्दा बन गया था। जिसमें माफियाकरण के विनाश के बीज थे । क्या आप यह नहीं महसूस करते कि उस अभियान की आपने और जद यू ने हत्या कर दी है। यह राजनीतिक हत्या है। इसका मुकदमा जनता की अदालत में पहुंचना ही चाहिए।

मुझे मालूम है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राज्य सभा सदस्य शिवानंद तिवारी ने जद यू के अध्यक्ष शरद यादव से कहा कि वहां भाजपा के वीरेंद्र सिंह काम कर रहे हैं। उन्हें ही लड़ने का हक मिलना चाहिए। मुझे यह भी मालूम है कि लालकृष्ण आडवाणी ने जब जरूरत पड़ी तब साफ-साफ कहा कि सलेमपुर से वीरेंद्र सिंह का अलावा किसी दूसरे को लड़ाने का कोई तुक नहीं है। और आप हैं जो किसी गहरे द्वेषवश कुछ और ही मन में ठाने हुए थे। उसी तरह जैसे आपके मुख्यमंत्रित्व काल में भदोही-मिर्जापुर उपचुनाव में हुआ।
आपकी अध्यक्षता में भाजपा ने उम्मीदवार चयन का अजीब ढंग अपनाया। सलेमपुर का फैसला अप्रैल में सार्वजनिक किया गया, जब सबकुछ हो गया था। मैंने इसी उम्मीद पर सलेमपुर में नामांकन भरा कि निर्णय मेरे पक्ष में होगा। आपने वैसा होने नहीं दिया। जिसका पूरा विवरण मैं बता सकता हूं। जिसकी जानकारी बलिया और दिल्ली में हर उस व्यक्ति को है जो सलेमपुर में दिलचस्पी रखता है।

अध्यक्ष जी, मैं आपके द्वेष का शिकार हो गया हूं। जहां आप कभी चुनाव नहीं जीत सके, वहीं से मैंने दो बार लोकसभा का चुनाव लोगों की मदद से जीता तो इसमें मेरा क्या कसूर है। यह मैं बता दूं कि सलेमपुर से मुझे लोग जिताकर भेजना चाहते थे। आपने भाजपा की एक सीट गंवा दी। आपकी राजनीतिक पसंद से मुझे कोई हैरानी-परेशानी नहीं है। लोगों को है। जौनपुर में कौन राजनीतिक कार्यकर्ता है जो न जानता होगा कि आपने वहां एक दूसरे दल के उम्मीदवार की मदद में करतब दिखाया। भाजपा और देश का जाग्रत समाज जहां लालकृष्ण आडवाणी में अपना खेवनहार देखता है वहीं उसे यह भी पता हो गया कि उस नाव को डुबोने के लिए आप एक चुहे की भूमिका में उतर आए हैं। लेकिन मुझे पूरा भरोसा है कि भाजपा की नाव पार पा जाएगी। सतत् जागरूकता हमारा स्वभाव जो है।

जहां तक मेरा सवाल है, भाजपा में मेरी नियति है। इससे कोई भी हो, खिलवाड़ नहीं कर सकता। चाहे अध्यक्ष पद पर बैठे आप ही क्यों न हों। मैं समझता हूं कि मेरे साथ घोर अन्याय राजनाथ सिंह ने किया है, भाजपा ने नहीं। ..

कई लोग मानते हैं कि हिन्दुस्तान में पार्टी तंत्र अब व्यक्तितंत्र में बनकर रह चुका है। इसके कई साक्ष्य हैं। नजर दौड़ाएं तो इक-बारगी दिख जाएंगे। ऐसे में भाजपा थोड़ी अलग दिखती है। यहां पार्टी अध्यक्ष के किसी गलत फैसले पर कार्यकर्ता बगावत करते है। इसके बावजूद उन्हें बाहर का रास्ता नहीं दिखाया जाता। पूर्व सांसद वीरेंद्र सिंह का विरोध इसका प्रमाण है।

सभार- प्रथम प्रवक्ता

Thursday, April 30, 2009

टोल टैक्स का गोरख-धंधा



परिवहन मंत्रालय टोल टैक्स (चुंगी वसुली) के माध्यम से निजी क्षेत्र की निर्माण कंपनियों को बेहिसाब फायदा पहुंचाने में जुटी है। दिल्ली-गुड़गांव एक्सप्रेस हाईवे पर रोजाना टोल टैक्स के रूप में होने वाली लाखों रुपए की उगाही की जानकारी मिलने पर यह खुलासा हुआ।

भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) ने निजी क्षेत्र की भागीदारी से बीओटी यानी निर्माण, संचालन और स्थानांतरण के तहत दिल्ली-गुड़गांव एक्सप्रेस हाईवे का निर्माण किया है। इस परियोजना को पूरा होने में 702 करोड़ रुपए की लागत आई थी। इन रुपए की उगाही के लिए उक्त परियोजना से जुड़ी निजी कंपनी को सन् 2022 तक चुंगी उगाही का अधिकार दिया गया है।

प्रतिवर्ष गाड़ियों की बढ़ती संख्या और वहां से गुरजने वाली प्रत्येक गाड़ी पर टोल टैक्स में वृद्धि होने से सन् 2022 तक 24,000 करोड़ रुपये की उगाही का अनुमान है। इससे साफ मालूम पड़ता है कि यहां जनता की जरूरतों को नजरअंदाज कर परियोजना से जुड़ी निर्माण कंपनी को 702 करोड़ रुपए के बदले अरबों रुपए का फायदा पहुंचाने की जुगत लगाई गई है। इस बाबत अधिवक्ता विवेक गर्ग ने एनएचएआई के भ्रष्ट अधिकारियों और परिवहन मंत्रालय व इससे जुड़े अन्य संबंधित विभाग के खिलाफ केंद्रीय जांच ब्यूरो(सीबीआई) के निदेशक अश्वनि कुमार के समक्ष शिकायत दर्ज की है।

शिकायत में कहा गया है कि दिल्ली-गुड़गांव एक्सप्रेस हाईवे पर इंदिरा गांधी एयर पोर्ट (14 किमी), गुड़गांव दिल्ली बोर्डर (24 किमी) और खिड़कीदौला (42 किमी) के निकट राहगीरों से चुंगी वसूली जाती है। एनएचएआई की ओर से मुहैया कराए गए आंकड़ों के अनुसार इंदिरा गांधी एयर पोर्ट और खिड़कीदौला के निकट चुंगी के रूप में प्रत्येक महिने 10 करोड़ यानी वर्ष में करीब 130 करोड़ रुपए तक की उगाही होती है। जबकि, गुड़गांव दिल्ली बोर्डर पर होने वाली उगाही की कोई जानकारी नहीं दी गई है। अनुमान है कि यहां से होने वाली उगाही उक्त दोनों स्थानों से दोगुनी है।

ऐसी स्थिति में इस एक्सप्रेस हाईवे पर प्रतिवर्ष 260 करोड़ रुपए की उगाही का अनुमान
है। गर्ग ने बताया कि सूचना का अधिकार कानून का इस्तेमान करने पर एनएचएआई ने इस बात की जानकारी दी कि प्रत्येक वर्ष पहली अप्रैल को चुंगी की दर में संशोधन करने का प्रावधान है। अप्रैल 2008 में इस राशि में कुल 13 प्रतिशत की वृद्धि की गई थी। इससे गत वर्ष 293.8 करोड़ रुपये की वसूली का अनुमान है।

शिकायक पत्र में इस बात की ओर भी इशारा किया गया है कि प्रतिवर्ष गाड़ियों की बढ़ती संख्या की वजह से चुंगी की उगाही में और भी इजाफा होगा। ऐसे में इस परियोजना में लगी राशि की उगाही वर्ष 2010 तक ब्याज सहित कर ली जाएगी। साथ ही मूलधन के रूप में कम से कम 116.55 करोड़ रुपये का फायदा होगा। इसके बावजूद वर्ष 2022 तक चुंगी वसूलने का अधिकार दिए जाने का औचित्य समझ से परे है।

गर्ग ने बताया कि आरटीआई कानून के तहत देश भर में बीओटी के माध्यम से तैयार हुई परियोजनाओं से टोल टैक्स संबंधित जानकारी मागने पर संबंधित विभाग टालमटोल कर रहा है। इससे पता चलता है कि इसमें बड़े पैमाने पर हेराफेरी हो रही है।

Thursday, April 23, 2009

ख़बर पैदा करने का सही तरीक़ा, وسعت اللہ خان

आज सीएनएन-आईबीएन, एनडीटीवी जैसे ज़िम्मेदार चैनलों समेत बहुत से भारतीय चैनलों पर यह ख़बर चल
रही थी- " नई दिल्ली के इंडियन इटरनेशनल सेंटर में पाकिस्तान के पत्रकारों पर राम सेना के नौजवानों का हमला, हालात पर क़ाबू करने के लिए पुलिस तलब."

मैं भी इस सेमिनार में भाग ले रहे ढाई सौ लोगों में मौजूद था, जो भारत-पाकिस्तान में अंधराष्ट्रभक्ति की सोच बढ़ाने मे मीडिया की भूमिका के मौजू पर जानी-मानी लेखिका अरुंधति राय, हिंदुस्तान टाइम्स के अमित बरुआ, मेल टुडे के भार भूषण और पाकिस्तान के रहीमुल्ला युसुफ़जई और वीना सरवर समेत कई वक्ताओं को सुनने आए थे.

जो वाक़या राई के दाने से पहाड़ बना वह बस इतना था कि रहीमुल्ला युसुफ़जई पाकिस्तानी और हिंदुस्तानी मीडिया के ग़ैर ज़िम्मेदराना रवैए का तुलनात्मक जायज़ा पेश कर रहे थे तो तीन नौजवानों ने पाकिस्तान के बारे में नारा लगाया.

प्रबंधकों ने उनको हाल से बाहर निकाल दिया. बस फिर क्या था जो कैमरे सेमिनार की कार्रवाई फ़िल्मा रहे थे वे सब के सब बाहर आ गए और उन नौजवानों की प्रबंधकों से हल्की-फुल्की हाथापाई को फ़िल्माया और साउंड बाइट के तौर पर उन नौजवानों के इंटरव्यू लिए.

प्रबंधकों ने एहतियात के तौर पर पुलिस के पाँच-छह सिपाहियों को हाल के बाहर खड़ा कर दिया. सेमिनार की कार्रवाई इसके बाद डेढ़ घंटे तक जारी रही. सवाल-जवाब का लंबा सेशन हुआ. ढाई सौ लोगों का लंच हुआ लेकिन चैनलों को मिर्च-मसाला मिल चुका था. इसलिए उनकी नज़र में सेमिनार तो गया भाड़ में, ख़बर यह बनी कि पाकिस्तानी पत्रकारों पर नौजवानों का हमला.

फिर यह ख़बर सरहद पार पाकिस्तानी चैनलों ने भी उठा ली और पेशावर में मेरी बीवी तक भी पहुँच गई. उसने फ़ोन करके कहा, आप ख़ैरियत से तो हैं. कोई चोट तो नहीं लगी. जब मैंने कहा इस वाकए का कोई वजूद ही नहीं है तो कहने लगी आप मेरा दिल रखने के लिए झूठ बोल रहे हैं.

अब मैं यह बात किससे कहूँ कि जिसे कल तक पत्रकारिता कहा जाता था. आज वह बंदर के हाथ का उस्तरा बन चुकी है और ऐसे माहौल में भारत-पाकिस्तान में जिंगोइज़्म यानी कि अंधराष्ट्रभक्ति बढ़ाने में मीडिया की भूमिका की बात करना ऐसा ही है कि अंधे के आगे रोए, अपने नैन खोए.

वुस‌अत उल्लाह ख़ान
15 Apr 09, 02:40 PM

सभार- दीवान(सराय)

Thursday, April 9, 2009

‘तुम न जाने किस जहां में खो गए’


कश्मीर की कली और अमर प्रेम जैसी फिल्मों का निर्देशन करने वाले शक्ति सामंत अब इस दुनिया में नहीं रहे। वे 83 वर्ष के थे।

शक्ति सामंत का नाम उन चंद फिल्म निर्देशकों में गिना जा सकता है, जिन्होंने बॉलीवुड को दिशा प्रदान की। साथ ही साठ और सत्तर के दशक में कुछ ऐसी फिल्में बनाई, जो आने वाले समय में भी मिशाल पेश करेंगी।

हालांकि, यहां से जाना तो सभी को है। किन्तु, फिलहाल उनका जाना एक सपना का टूटने जैसा है। अब कौन है, जो कश्मीर की खिलखिलाती वादियों की सैर कराएगा? शर्मिला टैगोर जैसी बेहतरीन अदाकारा से दर्शकों को रू-ब-रू कराएगा।

उन्होंने हावड़ा ब्रिज, एन इवनिंग इन पेरिस, अराधना' जैसी कई प्रसिद्ध फिल्मों का निर्देशन किया था। यकीनन, ये फिल्में हमें हमेशा उनकी याद दिलाती रहेंगी।

सामंत पर कुछ खास फिर कभी।

Saturday, April 4, 2009

पराठे वाली गली का मजा लीजिए


दिल्ली का मुगलकालीन बाजार, यानी चांदनी चौक। यह इलाका चंद पेचिदां गलियों से घिरा एक बड़ा बाजार है। यहां की पराठे-वाली गली के क्या कहने हैं ! भई, जो भी गली में आया, इसका मुरीद बनकर रह गया।

सन् 1646 में मुगल बादशाह शाहजहां अपनी राजधानी को आगरा से दिल्ली लेकर आए थे। तब चांदनी
चौक आबाद हुआ था। स्थानीय लोगों के मुताबिक पराठे-वाली गली के नाम से मशहूर इस गली का वजूद भी उसी समय आ गया था। लकिन, उन दिनों भी यह गली पराठे-वाली गली के नाम से पहचानी जाती थी, इसका कोई पुख्ता साक्ष्य नहीं है।

खैर! इस गली के दूसरे मोड़ पर करीब 140 वर्ष पुरानी पीटी गयाप्रसाद शिवचरण नाम की दुकान है। दुकान पर बैठे मनीष शर्मा बताते हैं, हमारे पुरखे आगरा के रहने वाले थे। उन्होंने सन 1872 में इस दुकान को खोला था।

बातचीत के दौरान मालूम हुआ कि उनकी दुकान में पराठा बनाने वाले भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह काम कर रहे हैं। इनके पुरखे भी मनीष के पुरखे के साथ काम किया करते थे। इनका वर्षों का नाता है।

इसके बाजू वाली परांठे की दुकान 1876-77 की है। दुकान से बाहर परांठे का स्वाद लेने के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रही विद्या ने बताया, मैं अपनी बहन की शादी की मार्केटिंक करने मॉडल टाउन से यहां आई हूं। जब भी चांदनी चौक आने का मौका मिलता है तो पराठे-वाली गली जरूर आती हूं।

भीड़-भाड़ वाली इस गली में बहुत मुमकिन है कि आप बिना कंधे से कंधा टकराए एकाधा गज की दूरी तय कर सकें। इसके बावजूद यहां आने वाले लोगों से पराठे-वाली गली के जो पुराने ताल्लुकात कायम हुए थे, वो अब भी बने हुए हैं।

मनीष बताते हैं कई ऐसे लोग हैं जो पहले अपने पिताजी के साथ यहां पराठा खाने आते थे। अब अपने बच्चों को लेकर पराठा खाने आते हैं। आज नए उग आए बाजारों में खुले बड़े-बड़े रेस्तरां के मुकाबले चांदनी चौक की पराठे-वाली गली का मान है। क्योंकि, नई आधुनिकता से लबरेज माहौल में भी यह गली खांटी देशीपन का आभास कराते हुए देशी ठाठ वाले जायकेदार व्यंजनों का लुत्फ उठाने का भरपूर अवसर देती है। शायद इसलिए लोग समय निकालकर यहां आते हैं।

Tuesday, March 31, 2009

भारत में चुनावों के दौरान अब तक बुलंद हुए नारे-


चुनाव में नारों का बड़ा महत्व होता है। जितना तीखा हो उतनी ही धार पैदा करता है। इस मामले में सीपीआई ने नेहरू युगीन चुनाव में नारा दिया था- “लाल किले पर लाल निशान, मांग रहा है हिंदुस्तान।” उन दिनों जवाहरलाल नेहरू पार्टी और सरकार में अपनी समान पकड़ बना चुके थे। उनके समर्थकों ने नारा दिया- “नेहरू के हाथ मजबूत करो।”

उन दिनों जनसंघ विपक्ष में बैठने वाली कम महत्व वाली पार्टी थी। और इस पार्टी का चुनाव चिन्ह दीपक था। इसलिए कांग्रेसी व्यंग्य के साथ कहा करते थे- “इस दिये में तेल नहीं है, यह देश में कैसे उजाला लाएगी।”

दैनिक समस्यों से कई मुद्दे नारे का रूप लेते रहे हैं। बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई जैसे मुद्दे चुनावी नारों की शक्ल अख्तियार करते रहे हैं। मुलाहिजा फरमाइये- “रोजी-रोटी दे न सके जो वह सरकार निकम्मी है”, “ जो सरकार निकम्मी है उसे हमें बदलना है।” सन 1967 तक साझा चुनाव होते थे इसलिए चुनावी नारों में स्थानीय व प्रांतीय मुद्दों का हावी होना लाजमी था।

सन 1967 में उत्तरप्रदेश में छात्रों ने कुछ ज्यादा ही तीखे चुनावी नारे लगाए। जैसे- “उत्तरप्रदेश में तीन चोर, मुंशी गुप्ता युगलकिशोर। ” उन दिनों छात्र आंदोलन की वजह से कई छात्र जेलों में बंद थे। तब छात्रों ने नारा दिया- “जेल के फाटक टूटेंगे, साथी हमारे छूटेंगे।” पिछड़े वर्ग की आवाज बुलंद करते हुए सोशलिस्ट पार्टी ने नारा दिया- “संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ। ” गोरक्षा आंदोलन को तेज करते हुए जनसंघ ने नारा दिया- “गौ हमारी माता है, देश-धरम का नाता है।”

इंदिरा गांधी के आते-आते बहुत कुछ व्यक्ति केंद्रित हो गया था, तब नारा चुनावी नारा बना- “इंदिरा हटाओ, देश बचाओ।” दूसरी तरफ इंदिरा ने नारा दिया- “वे कहते हैं इंदिरा हटाओ, मैं कहती हूं गरीबी हटाओ।” आपात काल के बाद आम चुनाव में नारों का सर्वाधिक जोर रहा। इस दौरान जो आकाश फाडू नारे लगे वे इस प्रकार थे- “सन सतहत्तर की ललकार, दिल्ली में जनता सरकार।” “संपूर्ण क्रांति का नारा है, भावी इतिहास हमारा है।” “फांसी का फंदा टूटेगा, जार्ज हमारा छूटेगा।” “नसबंदी के तीन दलाल, इंदिरा संजय बंसीलाल।”
सन 1980 में कांग्रेस ने नारा दिया- “जात पर न पात पर, मुहर लगेगी हाथ पर।” इसी चुनाव में इंदिरा के समर्थन में और भी वजनी नारे लगाए- “आधी रोटी खाएंगे, इंदिरा को बुलाएंगे ।” इंदिरा की हत्या के बाद सन 84 में राजीव गांधी के समर्थन में जो नारे लगे वो इस प्रकार थे- “पानी में और आंधी में, विश्वास है राजीव गांधी में।” हालांकि यह विश्वास सन 89 में चूर-चूर हो गया और नारे लगे- “बोफोर्स के दलालों को एक धक्का और दो। ” दूसरी तरफ वीपी सिंह के समर्थन में नारे लगे- “राजा नहीं फकीर है देश की तकदीर है।” इसके जवाब में नारे लगे- “फकीर नहीं राजा है, सीआईए का बाजा है।”

सन 1996 में अटलबिहारी वाजपेयी के पक्ष में नारे लगे-“अबकी बारी अटलबिहारी।” अगले चुनाव यानी सन 2004 में इंडिया साइनिंग का नारा लगा। फिर भी वे चुनाव हार गए। तब कांग्रेस ने नारा दिया था-“कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ।” इस बार कांग्रेसी –“कांग्रेस की पहचान, विकास और निर्माण।” पर ताल ठोक रहे हैं।

कुछ और बुलंद नारे इस प्रकार हैं- “एक शेरनी सब लंगूर, चिकमंगलूर चिकमंगलूर”, “मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम”, “तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार”। और भी है, वह फिर कभी।

सभार- प्रथम प्रवक्ता के संजीव कुमार के सहयोग से।

Saturday, March 28, 2009

खबर में ऊर्जा कैसे आती है


हिन्दी में खबर का रंग- ढंग बदला है। जबकि, अंग्रेजी में कई प्रयोग हो रहे हैं। हिन्दी के संपादक को रिपोर्ताज की जरूरत नहीं है। अब आप अनाथ की जगह यतीम का भी प्रयोग नहीं कर सकते हैं। खैर! जनवरी 1976 में छपी एक खबर की कुछ पंक्तियां आपके नजर। पढ़कर मालूम होता है कि खबर में ऊर्जा कैसे आती है –

दुष्यन्तकुमार अब नहीं रहे

गत 30 दिसम्बर को हिन्दी ने दुष्यन्तकुमार के रूप में एक बहुत ही पैनी लेखनी का धनी रचनाकार खो दिया। चुके हुए, वयोवृद्ध रचनाकारों के निधन पर भी यह कहने की परंपरा है कि उनके चले जाने से साहित्य की अपूरणीय क्षति हुई, तब दुष्यन्तकुमार के निधन पर क्या कहा जाये ! अभी उनकी उम्र ही क्या थी- सिर्फ 42 वर्ष! वह लिख रहा था- लगातार लिख रहा था।

पिछले दिनों उसकी हिन्दी गजलों का संग्रह साये में धूप निकला, जो काव्य-जगत को उनकी अमूल्य देन है। एकदम सादी जुबान में समसामयिक स्थितियों पर जैसी गहरी और चुभती हुई बातें इन गजलों में कही गयी हैं वे किसी मामूली प्रतिभा के बूते से बाहर थीं।

दुष्यन्तकुमार जैसा कवि ही वे बातें उस तरह कह सकता था। और दुष्यन्तकुमार अब हमेशा के लिए खामोश हो गया है ! तो हिन्दी में गजलें कहने का जो एक नया सिलसिला उसने शुरू किया था उसे अब कौन आगे बढ़ायेगा ? कोई नहीं, शायद कोई भी नहीं। सचमुच हिन्दी की यह अपूरणीय क्षति है।

Thursday, March 26, 2009

(बेदिल दिल्ली) मैं न रहूँगी दिल्ली में-


“ मैं यहाँ सब कुछ छोड़ कर आई थी गाँव से। गाँव में मेरे घर की बड़ी सी ज़मीन थी जिन्हें इनके (शौहर की ओर इशारा करते हुए) ताया-आया ने घेर लिया। अब यहाँ से भी भगाया जा रहा है हमें। हम तो यहाँ से भी गए और वहाँ से भी। अगर जगह मिली तो यहाँ रहूंगी वरना नहीं रहूंगीं........ किस उस पे रहूँ?.......मैं दिल्ली मे नहीं रहूंगी।"

मोइना बाज़ी सन 1983 से जेपी कॉलोनी बस्ती में रह रही हैं। जब वो आई थी तो गिने-चुने मकान थे यहाँ। मकान क्या बांस-बल्ली में पर्दे टांग कर रहते थे लोग। किसी घर में कोई दरवाज़ा नही होता था। कहीं जाते थे तो पर्दा डाल कर निकल जाते थे। आसपास कूड़े का ढेर लगा होता था। ढेर सारे गढ्ढे थे। गत्तों का एक गोदाम था। धीरे-धीरे यहाँ लोग आते गए और बसते गए। पहले यह जगह इतनी खुली थी कि यहाँ पर खाट बिछा कर बैठा जा सकता था। यहाँ से ट्रक गुज़र जाया करते थे मगर आज एक आदमी के अलावा दूसरा नहीं गुज़र सकता।

वो बताती हैं, "रेवाड़ी, हरियाणा से मैं आई थी यहाँ। मेरे शौहर यहाँ के धोबी घाट पर काम करते थे इसलिए मैं यहीं पर रहने लगी।हमने इस जगह के गड्ढों को मलबे से भर कर समतल किया। उस वक्त यहाँ पर ना नालियाँ थी, ना पानी आता था और ना ही बिजली के कनेक्शन थे। आस-पास बहुत सारे नीम, पीपल और जामुन के पेड़ थे। पहले लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनाते थे हम। यहीं अपनी बड़ी बेटी की शादी की। वो हंसी-खुशी के दिन थे। लेकिन अचानक मेरी ज़िंदगी में दुख का पहाड़ टूटा और मेरा 16 साल का बेटा अयूब, जो नौवीं में कक्षा पढ़ता था, कार एक्सीडेंट में रीढ़ कि हड्डी टूट जाने के कारण हमेशा के लिए हमसे जुदा हो गया।"

आज जब जेपी कॉलोनी मे फिर सर्वे हो रहे हैं तो मोइना बाजी इस जगह से जुड़े अपने उन लम्हों को याद करके अच्छे दिन के लिए खुश भी होती हैं मगर अपने बेटे का ध्यान करके गमगीन हो जाती हैं।

आज जब़ वो अपने कागज़ातो को फिर से खोल कर देख रही थी और अपने बीते हुए लम्हों को बता रही थी तो लगा जैसे वो अपनी जगह और अपने रिश्तों की गुत्थम-गुत्थी में हैं जहाँ एक अनचाहे फैसले ने उन्हे इन दोनों पर फिर से सोचने के लिए मजबूर कर दिया है।

फरज़ाना और सरिता

सभार- जे.पी.कॉलोनी, नई दिल्ली-2

Wednesday, March 25, 2009

दायरों को लांघना


नई दिल्ली के बीचोंबीच अपना वजूद बनाए जे.पी.कॉलोनी की कहानियां अंकुर के सहारे हम तक पहुंच रही है।

ठौर-ठिकाने लोगों की ज़िन्दगी भर की दौड़धूप के बाद ही बनते हैं। किसी जगह को बनाने में कितनी ही ज़िन्दगियाँ और कितनी ही मौतें शामिल होती हैं, कितने ही मरहलों से गुज़रकर लोग अपने लिये एक मुकाम, एक घर हासिल कर पाते हैं। कितने ही पसीने की बूँदें उस मिट्टी में समाकर नई जगह का रूप देती हैं। बड़ी जतन से अपनी उस जगह को सींचते है।

आदमी तो सुबह का गया शाम को घर लौटकर आता है पर औरत को तो घर से लेकर बाहर तक सभी रहगुज़र को पार करना पड़ता है।
शौहर की पाबंदी, समाज का ख्याल, तो कहीं मज़हब की दीवार आड़े आती है। लेकिन सर्वे के दौरान कई ऐसे मौके सामने आये हैं जिसने मज़हब की दीवार को भी दरकिनार कर दिया है।

मुस्लिम समाज में जब किसी औरत का शौहर गुज़र जाता है तब से लेकर साढ़े चार महीने तक औरत को पर्दे में रहकर इद् दत करनी होती है जिसमें किसी गैर मर्द (यहाँ तक कि अपने घर के मर्दो से भी) से पर्दे में रहना होता है। इस दौरान औरत को अपने घर के आँगन या खुले आसमान तक के नीचे आने की भी इज़ाजत नहीं होती। अगर किसी मज़बूरी के तहत घर के बाहर जाना हो तो चाँदनी रात में नकाबपोश होकर निकलना पड़ता है।

लेकिन आज सर्वे के दौरान मजहबी पाबंदी होने के बावजूद उनको बाहर आना पड़ा। जब सर्वे अधिकारी ने काग़ज मांगे तो वो खुद आगे आई। आसपास खड़ी भीड़ भी उन्हें खामोशी से देख रही थी। किसी ने कहा : “इनके शौहर नहीं रहे। अभी ये इद् दत में हैं।"
इस बात को सर्वे अधिकारी भी समझते थे। उन्होंने कहा : “आप अंदर जाइये हम सर्वे कर देगें।"
वो अपने काले नकाब में ख़ुद को छुपाती हुई अंदर घर में ओझल हो गईं।

फरज़ाना