नए जनादेश से जो संप्रग सरकार बनी है उसके चेहरे पर खानदान का अटपटा टीका लगा हुआ है। लोकतंत्र में यह तो नहीं कहा जा सकता कि किसी खानदान को अपनी जगह बनाने का अधिकार नहीं है, लेकिन जिस सरकार के आधे से ज्यादा मंत्री किसी न किसी राजनीतिक परिवार के सदस्य हों उसे खानदानी मंत्रिमंडल ही माना जाएगा। दूसरे शब्दों में ऐसा मंत्रिमंडल सामंती लोकतंत्र की मिशाल कहा जाएगा। जिस नए-पुराने चेहरों ने सरकार में जगह पाई है उनका एक ही सदगुण पहचाना जा सकता है कि वे किसी बड़े बाप के बेटे या बेटी हैं। जिन्हें जन्मजात राजनीति घुट्टी मिली हुई है, उन्हें लोकतंत्र का पोलियो बूंद नहीं चाहिए। यह भारतीय लोकतंत्र का उपहास है या उसकी ताकत ? इसका जवाब वे भी देने में असमर्थ हो जाएंगे और उनकी बोलती बंद हो जाएगी जो खानदान की डोर पकड़कर पहले संसद में पहुंचे और अब सरकार में जम गए हैं।
जाने-माने पत्रकार सुरेंद्र किशोर ने आजादी के बाद की राजनीति के अज्ञात पन्नों से खोज कर अपने विश्लेषण में बताया है कि खानदानी राजनीति का रिवाज कब और कैसे शुरू हुआ। उन्होंने इसके उदाहरण भी दिए हैं कि एक बार ढलान पर कदम रखने के बाद निरंतर फिसलते जाने की कहानी कौन-कौन सी है। संभवतः वे अपने किसी दूसरे लेख में यह भी बताएंगे कि जो शुरुआत जवाहरलाल नेहरू ने अपनी बेटी इंदिरा के लिए की थी उसका सिलसिला तब से है जब ऐसी ही कोशिश आजादी की लड़ाई के दौरान पंडित मोतीलाल नेहरू ने की थी। पर तब बात कुछ और ही थी।
सुरेंद्र किशोर के लेख का पहला पारा कुछ इस प्रकार है।
“ताजा करुणानिधि प्रकरण राजनीति में परिवारवाद की बुराइयों की पराकाष्ठा है। अब किसी नेता के किचेन से भी यह तय हो रहा है कि केंद्र में किसे मंत्री बनाया जाना चाहिए। मध्य युग के राजतंत्र में भी ऐसा कम ही होता था। इससे पहले लालू प्रसाद ने जब अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया था तो अनेक लोग सन्न रह गए थे। पता नहीं इस डाइनेस्टिक डेमोक्रेसी के युग में इस देश को आगे और क्या-क्या देखना पड़ेगा।”
पूरा लेख
प्रथम प्रवक्ता पत्रिका में पढ़ा जा सकता है। हालांकि यहां भी जल्द ही उपलब्ध करा दिया जाएगा।
2 comments:
इस लेख को पूरा डालें।
भारत में शुरू से चल रही खानदानी परम्परा को बहुत ही सफाई से आगे बढाया जा रहा है....
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