Saturday, August 20, 2011

आगे बड़ी लड़ाई है...


इससे पहले भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध दो जनआंदोलन हो चुके हैं। आजकल उनसे ही अपनी-अपनी समझ से अक्सर लोग तुलना करते पाए जा रहे हैं। जब भविष्य को साफ-साफ पढ़ना मुश्किल होता है तब स्वाभाविक रूप से इतिहास की तरफ नजर जाती है और तुलना होने लगती है। कई बार कोई समानता न होने पर भी खिंच- खांचकर तुलना की जाती है। वैसे तो हर जनआंदोलन की अपनी खास वजह होती है और उसका विकास उन परिस्थितियों में होता है जो तात्कालिकता से जुड़ी होती है। अन्ना हजारे के आंदोलन से पहले सातवें दशक में गुजरात और बाद में बिहार आंदोलन भ्रष्टाचार के विरुद्ध विगुल से शुरू हुआ, जिसमें जेपी का नेतृत्व मिला। उससे आंदोलन बिखरने से बचा और वह व्यवस्था परिवर्तन के लक्ष्य से प्रेरित हुआ। दूसरा आंदोलन विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में शुरू हुआ और राजीव गांधी को हराकर समाप्त हो गया। वे दोनों आंदोलन मूलतः राजनीतिक थे। अन्ना हजारे का आंदोलन जो अभी अपना आकार ग्रहण कर रहा है, वह राजनीतिक होने की दिशा में है।

अन्ना हजारे ने जो चुनौती उछाली है वह नैतिक ही है। जिसे हल्का करने की चाले चलकर इस सरकार ने राजनीतिक बनने के लिए रास्ता खोल दिया है। नैतिक सवाल हमेशा सर्वव्यापी और समावेशी होता है। जब कोई आंदोलन राजनीतिक राह पकड़ता है तो वह सत्ता की धूरी पर टिक जाता है और युद्ध की युक्ति से चलता है। उसका अपना पक्ष होता है और वह किसी को परास्त करने के लक्ष्य से प्रेरित हो जाता है। इसे एक घटना से समझना आसान होगा। बात अक्टूबर 1974 की है। जेपी ने बिहार के आंदोलन में विधानसभा को भंग करने की मांग रख दी। उनका कहना था कि बिहार विधानसभा जनता का विश्वास खो चुकी है इसलिए उसे भंग कर दिया जाना चाहिए। वह मांग इंदिरा गांधी को कई कारणों से पसंद नहीं आई। वे इसे अपने खिलाफ राजनीतिक अभियान समझने लगी थी। उन्होंने अपने गृहमंत्री उमाशंकर दीक्षित को निर्देश दिया कि वे बिहार के मुख्यमंत्री को दिल्ली बुलावें। उनसे बात करें और कहें कि बिहार सरकार जेपी को गिरफ्तार कर ले। 4 नवंबर 1974 को जेपी ने वह तारीख तय कर रखी थी जिस दिन विधानसभा को भंग करने का ज्ञापन दिया जाना था। पूरे राज्य में हस्ताक्षर अभियान चला और उसको ही राज्यपाल को सौंपा जाना था। इंदिरा गांधी चाहती थी कि बिहार के मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर जेपी को गिरफ्तार करें। इसके लिए ही गृहमंत्री उमाशंकर दीक्षित ने उन्हें दिल्ली बुलाया और अपनी ओर से बताया कि इंदिरा गांधी क्या चाहती हैं। लोग शायद यकीन न करें पर यह सच है कि गृहमंत्रालय में उमाशंकर दीक्षित के सामने बैठे अब्दुल गफूर ने दो-टूक जबाव दिया, “यह मैं नहीं करूंगा। इस्तीफा देना पसंद करूंगा।“


इस बार यह काम शीला दीक्षित कर सकती थी, बशर्ते पुलिस उनके अधीन होती। इतिहास से सीख लेकर पी.चिदंबरम भी ऐसा कर सकते थे। लेकिन वे और उनके साथी मंत्री अन्ना हजारे को राजनीति के पाले में डालने पर तुले हुए हैं। इस कारण वे सच बोलने के बजाए पूरे देश को गुमराह कर रहे हैं कि अन्ना हजारे को गिरफ्तार दिल्ली पुलिस ने किया है। अफसोस यह है कि विपक्ष भी इसका सही जवाब नहीं दे रहा है। सच यह है कि अन्ना हजारे के बारे में जो भी पुलिस कार्रवाई हुई है वह केबिनेट की राजनीतिक मामलों की समीति का फैसला है। जो प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की सहमति के बगैर हो ही नहीं सकता।

अन्ना हजारे ने अपने आंदोलन को अहिंसक बनाए रखने की हर कोशिश की है। इस अर्थ में वे सविनय अवज्ञा के नए प्रबोधक बन गए हैं। उन्हें स्वतःस्फूर्त समर्थन मिल रहा है। संभवतः इस तरह के समर्थन की उम्मीद उन्हें भी नहीं रही होगी। ये लोग तो अवश्य ही अवाक हैं जो कहते रहे हैं कि समाज में आंदोलन का भाव बदल गया है। इस जन-उभार ने यह दिखा दिया है कि मुद्दा सही हो और नेतृत्व निस्वार्थी हो तो लोग उसके पीछे चलेंगे। लोग जान की बाजी लगा देंगे। उन्हें सिर्फ पता होना चाहिए कि किस मकसद से उनका आह्वान किया जा रहा है। सरकार ने गोलमेज बातचीत में वक्त गवाया और अन्ना को भरमाया। आजादी की लड़ाई में अंग्रेज यही तरीका अपनाते थे और हर बार उन्हें मुंह की खानी पड़ती थी। अन्ना की शक्ति सामान्य जन है। उनकी जो कमजोरी है उसे मीडिया ने पूरा कर दिया है। मीडिया ही लोगों से संवाद कर रहा है। इस संवाद ने अभियान को आंदोलन की शक्ल दे दी है और नारे लगने लगे हैं कि ‘अन्ना नहीं आंधी है’
इस तरह के नारे जनभावनाओं को प्रकट करते हैं। अब यह जानने और समझने का समय नहीं है कि अन्ना क्या हैं और क्या नहीं हो सकते। यह सवाल भी नहीं रह गया है कि वे कब क्या बोलें। जो आज मायने रखता है और जो भविष्य में अपनी छाप छोड़ेगा वह यह है कि लोगों के मन में अन्ना की छवि क्या है। इस अर्थ में यह आंदोलन दो समानांतर छवियों का संघर्ष है। एक अन्ना की चमकदार छवि है जो लोगों को आकर्षित कर रही है तो दूसरी यूपीए सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह की टूटती छवि है जो लोगों के मन में वितृष्णा पैदा कर रही है। यह ईमानदार और बेईमान का टकराव नहीं है। यह बनती बिगड़ती छवि का जनमानस में गहराता हुआ असर है। इसी लिहाज से तुलनाओं को देखा जा सकता है जब लोग इमरजंसी को याद करने लगे हैं।

इस बात का सही आकलन तो बाद में ही हो सकता है कि जिस मध्यवर्ग को खारिज किया जा रहा था वह अचानक क्यों आंदोलन में कूद पड़ा है। क्या उसकी आंतरिक बनावट बदल गई है। क्या यह भूमंडलीकरण में राज्यतंत्र के ढीले पड़ते प्रभाव का द्योतक है। क्या यह मध्यवर्ग वह है जो राज्यतंत्र की इसलिए परवाह नहीं करता क्योंकि उसके आर्थिक हित निजी क्षेत्र में नीहित हैं। क्या इसलिए सिर्फ शासन में भ्रष्टाचार का मुद्दा अन्ना हजारे के आंदोलन में प्रमुख है? ये ऐसे सवाल हैं जिनका तुरंत जवाब ढूंढना अंधेरे में तीर चलाने जैसा होगा। यह कहना भी अभी जल्दबाजी होगी कि इस आंदोलन ने जो राह पकड़ी है वह किस मंजिल पर पहुंचेगी।

इस आंदोलन की खूबी इसमें है कि इसने नागरिक को प्रेरित कर दिया है। उसकी उस आस्था को जगा दिया है कि वही भ्रष्टाचार की बुराई को दूर करने में सहायक हो सकता है। इसी आस्था ने उसे सड़क पर उतारा है। सविनय अवज्ञा का यह बल वास्तव में लोकतंत्र का आधार है। यह आधार जितना मजबूत होगा उतनी ही ऊंची इमारत लोकतंत्र की खड़ी हो सकेगी। इस अंदोलन से जनलोकपाल की जनआकांक्षा प्रकट हो रही है। देखने में यह बड़ी है, लेकिन परिणाम में यह एक संस्था को ही जन्म देगी। उससे समूची व्यवस्था का जो संकट है वह हल नहीं होगा। उसे हल करने के लिए इससे कहीं बड़े जनआंदोलन की तैयारी करनी होगी। यह भी याद रखना होगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध शुरू हुआ यह तीसरा जनआंदोलन है जो संसदीय लोकतंत्र के पाले में जाकर दम न तोड़ बैठे। इसलिए भ्रष्टाचार के मूल स्रोतों पर चौतरफा और मारक प्रहार का सतत आंदोलन ही सार्थक तरीका हो सकता है।
(जनलोकपाल आंदोलन पर वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय का मत)

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