Thursday, August 18, 2011

आपातकाल का वह दौर



26 जून 1975 का दिन आजाद भारत के इतिहास में काला दिन था। वह दिन अचानक नहीं आया था। धीरे-धीरे इसकी हवा बनी। पहले तो जनवरी 1974 में गुजरात में अनाजों व दूसरी जरूरी चीजों की कीमतों में वृद्धि हुई जन आक्रोश फैला। वह छात्रों के असंतोष के रूप में सामने आया। फिर इसका दायरा तेजी से बढ़ता गया। विपक्षी दल भी इसमें हिस्सा लेने लगे। पूरे राज्य में हंगामों का दौर शुरू हो गया। दूसरी तरफ मार्च 1974 में बिहार के छात्र भी सड़क पर उतर आए। छात्रों के बुलावे पर राजनीति से संन्यास ले चुके जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन का नेतृत्व संभाला। तब उन्होंने इसे संपूर्ण क्रांति का नारा दिया।

जेपी ने छात्रों और लोगों से कहा कि वे सरकारी कार्यालयों और विधानसभा का घेराव करें। मौजूदा विधायकों पर त्यागपत्र देने के लिए दबाव बनाएं। सरकार को ठप कर दें और जन सरकार गठित करें। इसके बाद जेपी ने बिहार से निकलकर पूरे देश में फैले भ्रष्टाचार और कांग्रेस व इंदिरा गांधी के निष्कासन को लेकर आंदोलन संगठित करने का निर्णय लिया। देशभर में अपने खिलाफ बहती बयार और गुजरात विधानसभा में मिली चुनावी हार के ठीक 14 दिन बाद यानी 26 जून 1975 को देश में आंतरिक आपातकाल की घोषणा कर दी। प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई। सरकार के किसी भी विरोधों पर पाबंदी लगा दी गई। रातोंरात आंतरिक सुरक्षा प्रबंधन कानून (मीशा) के तहत देश के शीर्ष विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी हुई। कुल 19 महीनों में हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया। कांग्रेस पार्टी पर भी कठोर नियंत्रण लगा दिया गया।

आपातकाल दौरान जेपी द्वारा गठित ‘छात्र युवा संघर्ष वाहिनी’ आंदोलन को तेज करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, ट्रेड यूनियन के नेता, जनसंघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े छात्र नेता अपने-अपने स्तर पर इसका विरोध कर रहे थे। आखिरकार 18 जनवरी, 1977 को इंदिरा गांधी ने अचानक मार्च में लोकसभा चुनाव कराए जाने की घोषणा की। राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया गया। प्रेस से सेंसरशिप हटा लिया गया। राजनीतिक सभा करने की आजादी बहाल कर दी गई। 16 मार्च को स्वतंत्र और निष्पक्ष माहौल में चुनाव संपन्न हुआ। इंदिरा गांधी और संजय गांधी दोनों ही चुनाव हार गए।

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