लोग कहते हैं कि 85 वर्षीय हबीब का जाना एक अध्याय का समाप्त हो जाना है। लेकिन, इस पंक्ति का लेखक मानता है कि इस अध्याय में जो दर्ज हुआ, आने वाली पीढ़ी उसके रंग में गहरे डूबी रहेगी।
उनका जन्म सन् 1923 में सितंबर की पहली तारीख को रायपुर में हुआ था। उन्होंने अपनी स्कूली और कालेज की पढ़ाई तो गृह राज्य में ही ली, लेकिन उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए यानी एमए की पढ़ाई करने के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दाखिल हो गए। बाद में रंगमंच का प्रशिक्षण विदेश जाकर लिया। पर वापस लौटे तो ठेठ भारतीय नाट्य शैली को एक न्या स्वरूप दिया। लोक तहजीब व कलाओं को लोक भाषा के माध्यम से ही दुनिया के सानने प्रस्तुत किया।
तब जब हिन्दी की उप बोलियों का दायरा सिमटता जा रहा था, तब हबीब ने इसे अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। लोक कलाकारों को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंच दिया। तब दुनिया छत्तीसगढ़ के बज्र देहात में फलने-फुलने वाली कलाओं से दुनिया रूबरू हो सकी।
अपने रंगमंचीय सफर के दौरान हबीब ने रंगमंच को आंदोलन पैदा करने वाली कार्यशाला में तब्दील कर दिया। उनके नाटक थिएटर से निकलकर सामाजिक आंदोलन का विस्तार देते मालूम पड़ते हैं।
सन् 1954 में जब उनका नाटक आगरा बाजार मंचित हुआ तो इसकी खूब चर्चा हुई थी। आज पचपन साल बाद भी उसकी ताप बरकरार है। नाटक की प्रासंगिकता बनी हुई है। इस नाटक के माध्यम से उठाए गए मुद्दे बाजारवाद के इस दौर में एक तल्ख सच्चाई बयान करते हैं।
पोंगा पंडित नाटक जब मंचित हुआ तो हबीब एक राजनीतिक पार्टी और अतिवादी धार्मिक संगठन के निशाने पर आ गए। इन पर हमले भी हुए। लंबे समय तक उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा। पर एक कलाकार के कर्म को उन्होंने धर्म की तरह निभाया। अंत तक आंदोलन का तेवर रंगमंच के इस शख्स में बना रहा।
प्रयोगधर्मिता उनके कोमल स्वाभाव का सबल पक्ष था, जो अंत तक बरकरार रहा। वैसे हबीब के करीबी लोग के अनुसार उनका घर धर्मनिरपेक्षता की एक मिसाल है। वे जरूर एक मुस्लिम परिवार से थे। पर उनके घर भगवान की पूजा होती थी। शंख फूंके जाते थे। आरती होती थी। दरअसल उनकी पत्नी गैर मुस्लिम परिवार से थीं। लेकिन, उन्होंने कभी अपनी पत्नी को धर्म बदलने को नहीं कहा।
उन्होंने एक पत्रकार की हैसियत से अपने करियर की शुरुआत की थी। बाद में रंगकर्मी हो गए। कुछ फिल्मों में भी काम किया। जैसे- सन् 1982 में प्रदर्शित हुई रिचर्ड एटनबरो की मशहूर फिल्म गांधी में इक छोटी से भूमिका निभाई थी। फिल्म प्रहार में भी उन्होंने काम किया था। और भी कई हैं।
खैर, जब 97 वर्षीय जोहार सहगल ने कहा, “हबीब जैसा इंसान नहीं देखा। उसकी कला की रूहकभी मिट नहीं सकती।” तब एहसास होता है कि हमने क्या खोया है ? रंगमंच से जुड़े युवा मानते हैं कि हबीब तो पितामह थे। उनकी मौजूदगी हिम्मत बढ़ाती थी। अब उनकी यादें ऐसा काम करेंगी।
मालूम पड़ता है कि आज से सौ साल बाद भी यानी 185 वर्ष की उम्र में वे इस दुनिया से जाते तो लोग जरूर कहते इतनी जल्दी क्यों चले गए हबीब ?
2 comments:
बहुत अच्छी श्रद्धांजली.
हबीब अद्वितिय थे।
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