आखिरकार 16 अप्रैल से चली बैठक का सिलसिला असहमति के साथ थम गया है। लोकपाल बिल पर नागरिक समाज के प्रतिनिधियों और सरकार के बीच सहमति नहीं बन पाई। 21 जून को हुई अंतिम बैठक बिना किसी सहमति के खत्म हो गई। इसे देश का एक बड़ा वर्ग दुर्भाग्यपूर्ण मान रहा है। अब जब बैठकों का दौर खत्म हो गया है तो सरकार अपने पक्ष में माहौल बनाने के नुस्खे तलाश रही है। वहीं नागरिक समाज के प्रतिनिधि जन-अभियान चलाने की तैयारी में जुट गए हैं। अब कड़े बिल के प्रावधानों और सरकारी ड्राफ्ट की खामियों की जानकारी जनता को देने अन्ना हजारे देशव्यापी दौरे करने वाले हैं। ताकि अधिक से अधिक जनसमर्थन उन्हें मिले। वे कह रहे हैं, “सरकार की मंशा सख्त लोकपाल बिल बनाने की नहीं है। वह जनता में गलतफहमी पैदा कर रही है। अब 16 अगस्त से अनशन पर बैठने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। लोग सरकार को सबक सिखाएंगे। उनका आंदोलन सरकार के खिलाफ होगा। अब सख्त लोकपाल कानून बना तो ही अनशन वापस होगा।”
गत 5 अप्रैल की सुबह जब अन्ना ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर अनशन शुरू किया था तो लोकपाल बिल आम आदमी की जुबान पर आ गया। तब अन्ना के अभियान को जोर पकड़ता देख और आगामी पांच राज्यों के चुनाव के मद्देनजर सरकार ने उनकी मांगे मान ली थी। इसके बाद बातचीत का दौर चला। हालांकि, उस दौरान कई राजनीतिक दाव खेले गए। नागरिक समाज के प्रतिनिधियों पर आरोप दर आरोप लगाए गए। उन्हें विवाद में लाने की कोशिश हुई, पर दाल गली नहीं। अंतत: चौतरफ दबाव झेल रही सरकार गंभीर हुई। अब जो बिल तैयार हुआ है उससे नागरिक समाज संतुष्ट नहीं है। प्रशांत भूषण ने सरकारी मसौदे को बेहद निराशाजनक बताया हैं। और सरकारी मसौदे को भ्रष्टाचार रोकने का मात्र प्रतीकात्मक क़दम बताया। हालांकि वे अब भी प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाए जाने की अपनी मांग पर क़ायम हैं।
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