दिल्ली के पठारी इलाके को दो नाम दिए गए। एक वह है, जिसे लोग उत्तरी रिज के नाम से जानते हैं। वहीं दूसरा दक्षिणी रिज है। उत्तरी रिज एक गुलजार इलाका है। यहां सैर-सपाटे के लिए काफी लोग आते हैं। एकांत जगह की तलाश में युवाओं का जोड़ा भी इन इलाकों में खूब दिखता है। पर इसके विपरीत दक्षिणी रिज बेहद शांत और विरान जगह है। इसी दक्षिणी रिज के बिहड़ में छीपा है एक रहस्यमयी महल। चाणक्यपुरी के सरदार पटेल क्रिसेंट पर। यह ठीक भू-जल संरक्षण केंद्र के बगल में स्थित है। नाम है- मालचा महल।
इतिहास में यह दर्ज है कि इस महल को फिरोजशाह तुगलक ने दक्षिणी पहाड़ी पर बनवाया था। यह महल उसका शिकारगाह था। पहाड़ी के एक टिले पर बने इस महल में करीब दस खिड़कियां एवं दरवाजे हैं। पेड़-पौधों व झाड़ियों से घिरा यह छोटा-सा महल करीब 700 साल पुराना है। आज यह एक शाही परिवार का बसेरा है। कहा जाता है कि यह शाही परिवार अवध के नवाब वाजिद अली शाह का है। जब अंग्रेजों ने नवाब वाजिद अली शाह को नजर-बंद कर 1856 में बर्मा भेज दिया तो उनका परिवार बिखर गया था। नवाब की कई रानियां थीं तथा कई बच्चे। इन्हीं वाजिद अली शाह के बेटों में से एक का निकाह बेगम विलायत महल से हुआ था। वाजिद अली के बाद उनकी रिआसत अंग्रेजों के कब्जे में आ गई। उनके बेटे ने अपना जीवन चलाने के लिए अंग्रेजों के यहां नौकरी करने का फैसला किया। जिसकी मौत के बाद बेगम विलायत महल ने लखनऊ में अंग्रेजों से अपनी जमीन पर हिस्सेदारी मांगने की कई बार कोशिशें कीं, पर अंग्रेजी हुकुमत ने इसे मानने से इनकार कर दिया।
1947 में आजादी के बाद रिआसतों के परिवारों को पेंशन देने का इंतजाम किया गया। इसके बाद से बेगम विलायत महल को भी 500 रुपए प्रतिमाह मिलने लगा। पर 1975 में इंदिरा सरकार ने राजाओं के मिलने वाले पेंशनों को बंद कर दिया। इसके बाद बेगम अपने बच्चे रयाज व सकिना और 12 पालतू कुत्ते, चार-पांच नौकरों के साथ दिल्ली आ गई। यहां रेलवे प्लेटफार्म पर ही डेरा जमा दिया और सरकार से अपने रहने का इंतजाम करने के लिए गुहार लगाती रही। बेगम ने रेलवे प्लेटफार्म के वीआईपी वेटिंग लाउज को ही अपना वैकल्पिक आशियाना बना लिया। हटाने की कोशिश करने पर वह कुत्तों से डरातीं। साथ ही जहर खाकर आत्महत्या कर लने की धमकी भी देती थी।
आखिरकार 1984 में इंदिरा गांधी ने बेगम विलायत महल की सुध ली। उन्हें शाही महल दिलाने का वादा भी किया। हालांकि इस बीच इंदिरा गांधी की हत्या हो गई, पर 1985 में राजीव गांधी ने विलायत महल को नवाब वाजिद अली शाह का वारिस मानते हुए रहने की जगह मुहैया करवाई। यह जगह थी- मालचा महल। एक बेगम को रहने के लिए ऐसा आवास मुहैया करवाया गया जो करीब-करीब खंडहर था। जहां जंगली घास महल की दीवारों से लेकर फर्श तक उगे हुए थे। लाल पत्थरों से बने इस महल में एक भी दरवाजा नहीं था। और तो और शाही वंशजों को सियार, तेंदुआ और दूसरे जंगली जानवरों से घिरे जंगल में बिजली एवं पानी की सुविधाएं भी नहीं दी गई। यह सुविधाएं आज भी यहां मुहैया नहीं कराई गई हैं।
आखिरकार बेगम विलायत महल ने अपनी गुमनामी से तंग आकर 1993 में हीरे के चुर्ण को खाकर खुदकुशी कर ली। पर उनके अधेड़ हो चुके बच्चे रियाज और सकिना आज भी उसी महल में रहते हैं। बगैर बिजली- पानी की सुविधा के। यकीनन यह महल एक धरोहर तो है, पर गुमनाम है। खुद आस-पास के लोग भी इसके बारे में कुछ नहीं जानते। जबकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की पुस्तक में इसे एक धरोहर बताया गया है। दिल्ली जोन के एएसआई के निदेशक के.के. मोहम्मद ने बताया, “यह इमारत एएसआई के संरक्षण में नहीं आती।’ महल झाड़-झांखाड़ से इस तरह घिरा है कि सामान्यत: नजर भी नहीं आता है। गौर से देखने पर बाहर एक तख्ती पर नजर जाती है। उसपर लिखा है, ‘रुलर्स ऑफ अवध प्रिंसेस विलायत महल’।
पढ़ें श्रुति अवस्थी की रिपोर्ट
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