पीएसी अध्यक्ष मुरलीमनोहर जोशी से बातचीत हुई है, यहां प्रस्तुत हैं उसकी खास बातें- सवाल- गोपीनाथ मुंडे की अध्यक्षता में बनी ‘लोक लेखा समिति’(पीएसी) 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच करना चाहती थी, लेकिन वह नहीं कर सकी। आपकी समिति ने उसे जांच के दायरे में लिया। तब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से ही आपको विरोध का सामना करना पड़ा। क्या उससे पीएसी का काम-काज प्रभावित हुआ?जवाब- दरअसल, उस समय एक प्रकार का भ्रम फैलाया गया कि भाजपा मेरा विरोध कर रही है। मई, 2010 में मैंने जब 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच का काम शुरू किया था तो उस समय संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की कहीं कोई चर्चा नहीं थी और जून से लेकर सितंबर, 2010 तक हमलोग आठ-नौ बैठकें कर चुके थे। हां, यह सच है कि जेपीसी का सवाल जब उठा तो कुछ लोगों ने कहा कि साहब पीएसी काम कर ही रही है तो जेपीसी की क्या जरूरत है। तब कुछ लोगों ने यह भी कहा कि जेपीसी की मांग उठानी ही है तो पीएसी का काम क्यों हो रही है ? सदन में इसपर बहस चल रही थी। इसी बहस में से यह ध्वनि निकाली गई कि भाजपा पीएसी का विरोध कर रही है, जबकि मेरा कहना यह है कि भाजपा जेपीसी की मांग जरूर कर रही थी। यह सच है, लेकिन वह पीएसी का काम रोक रही थी, यह सही नहीं है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में या बाकी के कुछ लोग ऐसा कहते होंगे कि यदि आप जेपीसी की मांग कर रहे हैं तो पीएसी काम क्यों करें? यह सवाल उठता है। लेकिन, जांच के दौरान मेरे ऊपर काम को रोकने या उसकी गति को कम करने का कोई दबाव नहीं था।
इसमें दूसरी महत्वपूर्ण बात यह रही कि तब कांग्रेस ने एक नई बहस चलाई। उन लोगों ने कहा कि पीएसी के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी हैं जो स्वयं भाजपा के सदस्य हैं तो फिर पार्टी जेपीसी की मांग क्यों कर रही है। मैंने उस वक्त भी कहा था कि प्रतिपक्ष जेपीसी की मांग कर रहा है। मैं प्रतिपक्ष का सदस्य हूं। जेपीसी बने। इसपर मुझे कोई आपत्ति नहीं है, पीएसी के लिए जो संवैधानिक आदेश हैं, उसके तहत वह अपना काम करेगी। उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि जेपीसी बन रही है या नहीं। आखिर सुप्रीम कोर्ट तो काम कर ही रही थी। सीबीआई भी अपना काम कर ही रही थी, लेकिन जो बात फैलाई गई वह यह कि हम पार्टी से हटकर कुछ कर रहे हैं और पार्टी हमें सोमनाथ चटर्जी बना देगी। दरअसल, ऐसी बातें उन लोगों द्वारा फैलाई गई जो जेपीसी में रुचि रखते थे और उसकी तरफ ही जाना चाहते थे। यह जरूरी नहीं है कि वे केवल भारतीय जनता पार्टी के लोग हों, क्योंकि यह तो सभी जानते हैं कि जेपीसी की जांच में क्या निकलेगा और क्या नहीं? यानी उसमें अनिश्चितता है। पर यहां निश्चितता है।
मेरा अनुमान है कि जो लोग पीएसी की जांच से आतंकित और भयभीत थे, उन्होंने कोशिशें की कि पीएसी का काम न हो और जेपीसी बनती रहे।
सवाल - इनमें क्या भारतीय जनता पार्टी के भी कुछ लोग थे?जवाब - पार्टी के किसी लोगों ने तो मुझसे ऐसी बाते नहीं कीं।
सवाल - ऐसा लग रहा था कि समिति में हर दल के लोग आपको सहयोग कर रहे हैं। आखिरकार असहयोग और बाद में विरोध का कारण क्या रहा?जवाब – हां, 4 अप्रैल,2010 तक तो सभी लोग बड़े सहयोग की मुद्रा में थे। माननीय प्रधानमंत्री ने भी एक समय यह कहा था कि वे पीएसी के समक्ष उपस्थित होंगे। अप्रैल में ही कांग्रेस के सम्मानित सदस्यों ने पत्र लिखकर कहा कि काम बहुत हो चुका है, अब गवाहियां बंद की जाएं और रिपोर्ट लिखने का काम प्रारंभ हो। इसके बाद हमने कहा कि यह सही है कि अब रिपोर्ट लिखी जा सकती है, पर जांच के दौरान जो बातें सामने आई हैं उसकी पुष्टि जरूरी है, ताकि रिपोर्ट को अधिक से अधिक प्रामाणिक बनाया जा सके। इसके बाद 4 और 5 अप्रैल 2011 को कुछ लोग बुलाए गए, लेकिन चार अप्रैल को ही अचानक सवाल उठाया गया कि जेपीसी शुरू हो रही है तो अब पीएसी की क्या जरूरत है, फिर कहा गया कि मामला न्यायाल में है। यह भी कहा गया कि बहुत लोग बुलाए जा रहे हैं। इसके बाद मैंने कहा कि उन पत्रकारों को सुनना जरूरी है, जिन्होंने सबसे पहले इस मुद्दे को उठाया। आखिर मालूम हो कि उनके पास इसकी जानकारी कहां से आई और वे किस आधार पर लिख रहे थे, क्योंकि तब तक तो सीएजी की रिपोर्ट भी नहीं आई थी। तब हमने पत्रकार गोपीकृष्णन को बुलाया और इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने हमें साक्ष्य दिए। इसी तरह सीएजी की रिपोर्ट में कुछ लोगों के नाम आए तो उन्हें भी बुलाया गया। इसके बाद ‘आउटलुक’ और ‘ओपन’ पत्रिका ने कुछ टेप्स छापे थे तो उन्हें भी बुलाया। टाटा का भी नाम आया। कहा गया कि इससे वे भी लाभान्वित हुए हैं तो उन्हें भी बुलाया। कुल मिलाकर यहा है कि जो बातें सामने आईं उसके सत्यापन के लिए संबंधित सभी लोग बुलाए गए।
इसके बाद तय किया गया कि संबंधित विशेष अधिकारियों यानी प्रधानमंत्री के सचिव, केंद्रीय सचिव, विधि सचिव और तत्कालीन सॉलिसिटर जनरल को बुलाकर बातचीत का दौर खत्म हो और रिपोर्ट को 30 तारीख तक पूरा किया जाए। यह फैसला 4 अप्रैल को समिति की बैठक में लिया गया, क्योंकि दूसरी तरफ से रिपोर्ट को जल्दी पूरा करने के लिए लगातार पत्र आ रहे थे। लेकिन, 15 अप्रैल को लोगों के रुख बदले हुए थे। नजारा था कि ‘बदले-बदले से मेरे सरकार नजर आते हैं।’ दोपहर दो बजे तक वही सवाल जेपीसी, पीएसी, सब-ज्यूडिस। लोकसभा अध्यक्ष ने पत्र लिख दिया था कि आप अपना काम करें। वे अपना काम करेंगे। मैंने उन्हें बता दिया कि हम कहां तक पहुंच गए हैं। जेपीसी तब शुरू भी नहीं हुई थी। उनकी पहली बैठक 18 मई को होने वाली है, जबकि 30 अप्रैल को हमारा कार्यकाल खत्म हो रहा था। वैसे भी हम एक दूसरे के काम को कहीं भी आच्छादित नहीं कर रहे थे। दोनों की जांच का दायरा भी अलग-अलग है। हम जांच कर रहे थे- रीसेंट डवलपमेंट इन टेलीकॉम सेक्टर इनक्यूडिंग ए लोकेशन ऑफ स्पेक्ट्रम 2-जी एण्ड 3-जी सेक्टर। जबकि वे जांच कर रहे हैं- 1998 से लेकर 2009 तक की बनी नीतियों की। इसके बावजूद विरोध जारी रहा। दोपहर तक विरोध जारी रहा। अंततः आम राय पर बुलाए गए अधिकारियों से दोपहर बाद बातचीत शुरू हुई। लेकिन पहली बार लोगों को यह कहते देखा-सुना गया कि- कोई सवाल न पूछा जाए। न ही कोई जवाब दिया जाए। इस हंगामे के बीच विधि सचिव से बात पूरी हुई। इसके बाद प्रस्ताव आया कि अगली पूछताछ तबतक न की जाए, जबतक उनके कुछ प्रश्नों का उत्तर न दे दिया जाए। हमने कहा कि ठीक है, कल बैठते हैं। पर, 21 अप्रैल को बैठक तय हुई। उस दिन भी वही हंगामा खड़ा कर दिया गया। कोई परिणाम नहीं निकला। आखिरकार 28 तारीख को पुनः बैठक तय हुई। समिति का पहले से ही फैसला था कि रिपोर्ट 30 अप्रैल, 2011 तक सौंपनी है। इसे ध्यान में रखते हुए ही लंबित मामलों की संस्तुति के लिए 26 तारीख को ही रिपोर्ट की कॉपियां सदस्यों को दी गईं ताकि संशोधन व सुझाव के साथ वे अपनी संस्तुति दे सकें। पर, 27 तारीख को पूरी की पूरी रिपोर्ट बाहर आ गई। इसके बाद कांग्रेसी सदस्यों ने एक प्रेसवार्ता भी कर दी, जिसमें कहा गया कि रिपोर्ट बाहर से लिखवाई गई है और यह डॉ. जोशी की रिपोर्ट है। साथ ही यह भी कहा गया कि रिपोर्ट को खारिज करो, इसमें हमारे प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री का नाम इंगित किया गया। हम इसे कैसे मान सकते हैं। उसी दिन पवन बंसल जी और नारायण स्वामी जी रेवती रमणजी के घर गए। टेलीविजन में उनका आवागमन व रेवती रमणजी का वक्तव्य दिखाया गया है। उन्होंने कहा कि आप जोशी जी के साथ क्यों हैं। आप हमारे साथ आइए। अरे, यहां जोशीजी कौन हैं? मैं कोई पक्षकार हूं क्या? यह रिपोर्ट तो लोकसभा सचिवालय की है, वहां तैयार हुई है। इसे मैंने नहीं लिखा है।
इसके बाद मेरी समझ में आया कि वे हंगामा आगे भी करेंगे। नियम यह है कि पीएसी की रिपोर्ट में कोई विमति नहीं होती है। विमति की टिप्पणी की इजाजत नहीं है। रिपोर्ट जब सभी सदस्यों के पास पहुंच जाती है तो उसके एक-एक पैरे पर विचार होता है। उसके बाद यदि कहीं कोई संशोधन करना है तो वह प्रस्तुत किया जाता है। फिर आम राय से उसे स्वीकार किया जाता है। अन्यथा नहीं। शब्द यह है कि ‘रिपोर्ट इज एडॉप्टेड वीद और वीदाउट अमेंडमेंट्स’। वहां कुछ लोगों ने गलतियां बताई, हमने उसे स्वीकार किया। कुछ लोगों ने संशोधन की बात की, वह भी हुआ। लेकिन, कई सदस्य बहस करने को तैयार नहीं थे। आते ही रिपोर्ट खारिज करने के नारे लगाने लगे। ठीक वैसे ही जैसे जंतर-मंतर के चलने वाला जुलूस किसी बिल के पास करने या न करने के नारे लगाते हुए संसद पहुंच जाता है। ठीक वही स्थिति थी। दूसरी तरफ नीचे कांग्रेस संसदीय पार्टी के दफ्तर में चार मंत्री बैठे हुए थे, जिनमें चिदंबरम जी, कपिल सिब्बल जी, पवन बंसल जी और नारायण स्वामी जी। वे लोग वहां से अपने लोगों को दिशा-निर्देश दे रहे थे। जैसे ये लोग कठपुतलियां हों। ये परिस्थिति थी, बोलने नहीं दिया जा रहा था। अंततोगत्वा जो संशोधन आए, उसे हमने स्वीकार कर लिया और बैठक को समाप्त कर दिया। इसके बाद जो नाटक हुआ, वह सभी को मालूम है।
सवाल - रिपोर्ट एडॉप्ट (स्वीकृत) हुई या नहीं?जवाब - रिपोर्ट एडॉप्टेड ही है, क्योंकि सदस्यों के बीच रिपोर्ट बांटे जाने के बाद जिन्हें सुझाव देना था, उन्होंने दिया। जिन्हें नहीं देना था, उन्होंने नहीं दिया। उसे बाद सीएजी ने बैठक बुलाई और हमने उसमें रिपोर्ट पेश कर दिया। यही अंतिम चरण होता है। हमने रिपोर्ट ही पेश किया है। कोई रद्दी के कागज नहीं दिए गए हैं।
सवाल- क्या आपकी अध्यक्षता वाली पीएसी ने 2-जी के अलावा भी कोई जांच की है?जवाब- हमने 2-जी और 3-जी की जांच की है। हमारा यही विषय था।
सवाल- इसके अलावा कोई और रिपोर्ट आई है?
जवाब - पहले आई हो तो आई हो, मुझे मालूम नहीं है। हां, इसके अतिरिकत हमने अन्य मामलों में रिपोर्ट सौंपी है।
सवाल - वह कौन सी है?जवाब - एक तो ‘राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन’ को लेकर है। दूसरी ‘त्वरित सिंचाई लाभकारी योजना’ ये दो बड़ी रिपोर्ट सौंपी हैं। इसके अलावा उप-समिति की भी कई रिपोर्टें हैं। करीब 10-11 रिपोर्ट सौंपी गई है।
सवाल - कांग्रेस और द्रमुक के सदस्यों को किन सिफारिशों पर एतराज था?जवाब - वह यह था कि हमने प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और ए.राजा का नाम रिपोर्ट में क्यों शामिल किया है। हालांकि, हमने वही नाम रिपोर्ट में शामिल किए जो साक्ष्य से सामने आए और जिनका जिक्र फाइलों में था। इसके अतिरिक्त रिपोर्ट में कुछ भी नहीं है।
सवाल - समिति की सिफारिशों में एक जगह मांग की गई है कि इस रहस्य की जांच की जाए कि वित्त मंत्रालय दोषी है या दूर संचार विभाग?जवाब- यहां दोनों की अलग-अलग भूमिका है। दूर-संचार मंत्रालय में जो गड़बड़ियां हुईं और उसमें दूर-संचार मंत्री को जो भूमिका रही यह एक अलग प्रश्न हैं। इसमें वित्त मंत्रालय की भूमिका दूसरा प्रश्न है। प्रश्न ऐसा है कि अक्टूबर, 2003 में एक मंत्रि-परिषद का फैसला आया था, उसमें तय किया गया था कि स्पेक्ट्रम की कीमत का निर्धारण दूर-संचार और वित्त मंत्रालय मिलकर करेंगे। यहां परामर्श से नहीं है, बल्कि साथ-साथ तय करने की बात कहीं गई थी। वित्त मंत्रालय को इस नियम का पालन करना था। यह उसका अधिकार था। पर मंत्रालय ने एक सीमा के बाद अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया।
वहीं दूर-संचार मंत्रालय को मिलकर मूल्य का निर्धारण करना था। मंत्रालय ने इससे बचने की कोशिश की। गलत सलाहें प्रधानमंत्री को दी। साथ ही जो नोटिंग्स आईं, उसमें वह हिस्सा जो इस घोटाले में बाधक हो सकता था, उसे मंत्री ने अपने हाथ से काटकर हटा दिया। वित्त सचिवालय के सलाहकार की तरफ से जो बाते कहीं गई, उसे नजरअंदाज कर दिया। इतना ही नहीं, लेटर ऑफ इनटेंट (एलओआई) देने में जो तरीका अपनाया गया उससे साफ है कि कुछ कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए पक्षपात पूर्ण रवैया अपनाया गया। कंपनियों के नाम के साथ जब 9 जनवरी, 2008 को इकनॉमिक टाइम्स में खबर आई कि अगले दिन निम्न 10 कंपनियों को एलओआई दिए जाएंगे और निम्न 10 को नहीं, तो लोगों का ध्यान इस तरफ गया। अगले दिन यानी 10 जनवरी को वही हुआ। तब भी वित्त मंत्रालय ने कोई सवाल नहीं किए।
सवाल- इसमें क्या पी. चिंदबरम भी उतने ही गुनहगार हैं जितने ए. राजा?जवाब - मैंने कहा कि उनका यह धर्म था कि वे इस सरकारी खजाने की लूट को रोकते, लेकिन उन्होंने यह नहीं किया।
सवाल - अपने रिपोर्ट में यह भी लिखा है कि उन्होंने प्रधानमंत्री को सलाह दी थी कि बजाय इसकी जांच के मामले को बंद किया जाए।जवाब - उन्होंने कहा कि जो हो गया, सो हो गया अब मामले को बंद समझा जाए। इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री को लेकर भी हमने कहा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय को इन बातों की जानकारी थी। सभी काम उनकी जानकारी में हो रहे थे। और वे ए.राजा के पत्र लिख रहे थे कि यह सब क्या हो रहा है। मेरे पास शिकायतें आ रही हैं। इसे देखा जाएं। वहीं ए.राजा ने जवाब दे दिया कि यहां सब ठीक है। कोई गड़बड़ी नहीं है। पूरी ईमानदारी व नीतियों के अनुरूप काम हो रहा है।
यहां हमारा प्रश्न यह है कि कैबिनेट सचिव और प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव इस मामले में क्यों चुप बैठे रहे, आखिर कैबिनेट के फैसले का क्रियान्वयन करवाना किसकी जिम्मेदारी है? क्या कैबिनेट सचिव की यह जिम्मेदारी नहीं है, प्रधानमंत्री कार्यालय की नही हैं?
रिपोर्ट में यह भी इंगित किया है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि एक सचिव कहता है कि गलत हो रहा है, पर वह मंत्री के आगे झुक जाता है। क्या वह अच्छे पद के लोभ में एसा करता है? हमने कहा कि यदि किसी सचिव को पता चलता है कि गलत हो रहा है या मंत्रिपरिषद के फैसले के विरुद्ध हो रहा है तो ऐसी व्यवस्था हो या फिर उसे इजाजत होनी चाहिए कि इसकी जानकारी कैबिनेट सचिव और प्रधानमंत्री कार्यालय तक पहुंचा सके। जिससे देश के साथ होने वाले इन अपराधों को रोका जा सके। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है और परिणाम यह है कि घोटाले पर घोटाले हो रहे हैं।
सवाल - इससे सवाल निकलता है कि कहीं प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री और राजा लाचार दिख रहे हैं यानी उनपर कहीं बाहर से दबाव पड़ रहा है।जवाब - निष्कर्ष निकालने के लिए लोग स्वतंत्र हैं। हां, जो तथ्य आए हैं, उसे हमने सामने रख दिया है। इसलिए हमने कहा है कि इसका उत्तर राष्ट्र चाहता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय, वित्त मंत्रालय, कैबिनेट सचिवालय से ऐसा क्यों हुआ? इसका स्पष्टीकरण उन्हें संसद को देना है।
सवाल - आपने रिपोर्ट में टिप्पणी की है कि मंत्रालयों और विभागों के काम-काज में गंभीर प्रणाली गत कमियां आ गई हैं और इसकी जड़ें काफी गहरी हैं। थोड़ा इसे समझाएं।जवाब - प्रणाली में यह व्यवस्था स्पष्ट होनी चाहिए कि सरकार के जो फैसले हैं उसके ठीक तरीके से क्रियान्वयन की जिम्मेदारी किसकी है। कैबिनेट का जो सचिव है वह पूरी कैबिने का सचिव है। वह प्रधानमंत्री का सचिव नहीं है तो उसका यह धर्म है कि वह इस बात पर पैनी निगाह रखे कि कैबिनेट के जो फैसले हैं उसका ठीक तरीके से क्रियान्वयन हो रहा है या नहीं। अगर नहीं उसमें कहीं भटकाव या विचलन हो रहा है तो वह उसे तत्काल ठीक करे। लेकिन, आज प्रणाली में जो व्यवस्थाएं है यानी संसदीय कार्यों के क्रियान्वयन के नियम हैं उसमें यह व्यवस्था स्पष्ट नहीं है। वह कह देता है कि मेरी जिम्मेदारी नहीं है, हमने कैबिनेट का फैसला उक्त मंत्रालयों को भेज दिया है और आशा करते हैं कि वह इसका पालन करेंगे। यदि कोई बदलाव चाहता है तो इसकी सूचना देगा। हमारी राय में यह ठीक नहीं है, क्योंकि यदि कोई मंत्रालय कैबिनेट के फैसले को बदल रहा है या उसकी गलत व्याख्या कर रहा है तो इस पर रोक लगने की कोई व्यवस्था नहीं है।
इसी तरह यह प्रधानमंत्री कार्यालय की भी जिम्मेदारी हैं, क्योंकि कैबिनेट के अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते हैं। कार्यालय उन्हें बताए कि यह फैसला है और ऐसा हो रहा है। यहां तो सभी एक दूसरे पर ही जिम्मेदारी थोपते नजर आते हैं। यह ठीक नहीं है। एक और बात, यह नियम है कि कोई मंत्री बगैर विधि मंत्री की इजाजत के किसी विधि अधिकारी को सलाह लेने के लिए नहीं बुला सकता है। अब इस पर कौन नियंत्रण रखेगा। यहां विधि मंत्री लिख रहे हैं कि यह मामला मंत्रियों के समूह को जाना चाहिए, वहीं विधि अधिकारी कुछ और ही बात कह रहा है। तो ये खामियां हैं। इतना ही नहीं, यदि नीचे से कोई फाइल टिप्पणियों के साथ आ रही है तो उस टिप्पणी को ही बदल दिया गया। अब यह कौन देखेगा, सीवीसी, सीबीआई निदेशक, सीएजी की नियुक्ति कैसे होगी? हाल ही में हम लोगों ने सीवीसी की नियुक्ति का मामला देखा। सीबीआई भी साल भर तक इस मामले को दबाए रखी। हमने इस बारे में उनसे पूछा कि क्या आप पर कोई दबाव था।
सवाल - रिपोर्ट में आपने वित मंत्री के 15 जनवरी, 2008 के नोट का जिक्र किया है और कहा है कि उन्होंने प्रधानमंत्री जी को लिखा है कि हालांकि नुकसान हुआ है पर अब इस मामले को समाप्त समझा जाना चाहिए। क्या आपका इशारा पी. चिदंबरम की तरफ है? अगर है तो ऐसा क्यों कह रहे हैं?जवाब - हम नहीं जानते। हमने तो उनसे कहा कि इसकी व्याख्या की जाए, कि ऐसा क्यों हुआ। वे स्पष्टीकरण दें। संसद चाहती है कि वे सच बताएं।
सवाल - अपने सिफारिश की है कि इसकी व्यापक जांच होनी चाहिए। क्या आपको उम्मीद है कि जांच होगी?जवाब - संसदीय समिति की रिपोर्ट पर सरकार को कार्यवाही करनी पड़ती है। यह उसके धर्म है कि रिपोर्ट को गंभीरता से लें और इस पर अपना गंतव्य दें। यदि वह जांच नहीं करना चाहती है तो यह भी बताए कि इसके क्या कारण हैं।
सवाल - आपने रिपोर्ट में अपनी-अपनी सिफारिश में लिखा है कि प्रधानमंत्री की यह इच्छा कि पीएमओ इस मामले से दूरी बनाए रखे, संचार मंत्री को अनुचित व मनमानी तरीके से काम करने में अप्रत्यक्ष तरीके से योगदान दिया।
जवाब - उन्होंने लिखा है कि घोटाला हो गया, अब पीएमओ उससे दूर रहे। इसका क्या मतलब है? जो होगा सो गया। अब उसे बंद डब्बे में डाल दो। इसलिए हमने पूछा है कि देश को बताया जाए कि ऐसा क्यों हुआ और किन वजहों से ये बाते कहीं गईं।
सवाल - अपनी जांच में जब आपने यह कहा तो प्रधानमंत्री की जो इमेज है और जो वास्तविकता है उसमें फर्क दिखता है।
जवाब - देखिए, किस मंत्री की या प्रधानमंत्री की क्या इमेज है इसमें हमें मतलब नहीं है। यह अलग मसला है। हमारा ध्यान केवल तथ्य की तरफ रहा है और वह यही है। हम न तो किसी की इमेज हैं और न बिगाड़ते हैं। हां, जो तथ्य है उसे संसद के सामने रख देते हैं।
सवाल - आपकी रिपोर्ट में प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री में असामंजस्य का संकेत मिलता है। क्या इस कारण भी सरकारी खजाने को बहुत नुकसान हुआ?
जवाब - यह भी हमने जानना चाहा है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? कोई तो अपनी जिम्मेदारी ले। और सरकार किसी इसका जिम्मेदार मानती है यह तो बताए।
दखिए, हम अदालत नहीं है। हम संसदीय समिति हैं? हमारा काम तथ्यों को संसद के सामने रखना है। और उन तथ्यों के आधार पर सरकार को आगे क्या कार्यवाही करनी है, इसका सुझाव देना है। कार्यवाही करना या न करना यह सरकार की जिम्मेदारी है। अगर कार्यवाही की गई तो उसके बारे में बताएगी। यदि नहीं की गई तो इसके कारण बताएगी। पीएसी की रिपोर्ट का इसी प्रकार से निस्तारण होता है। सरकार को एक एक्शन टेकन रिपोर्ट देनी होती है।
सवाल - समिति ने सीबीआई के लिए अलग अधिनियम बनाने और उसे ज्यादा समर्थ बनाने के सुझाव दिए हैं। क्या सीबीआई को सरकार अधिक समर्थ बनाना चाहती है?
जवाब - यह मैं कैसे बता सकता हूं। यह तो सरकार ही बताएगी। अगर नहीं बनाना चाहती है तो वह एक नया संदेह पैदा करेगी। एक तरफ हम पारदर्शिता की बात करते हैं। प्रधानमंत्री जी कहते हैं कि जनता की राय बदल रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ वे जल्दी कार्रवाई चाहते हैं। अगर वे सचमुच जल्दी कार्रवाई चाहते हैं तो कार्रवाई करने वाली जो एजेंसी है उसे अधिकार दिया जाए। साधन दिए जाएं। अभी वहां तो हजार-डेढ़ हजार जगहें खाली हैं। साथ ही उसे जिम्मेदार बनाया जाए। साथ ही वह प्रत्येक छह महीने पर अपनी रिपोर्ट संसद में प्रस्तुत करे। साथ ही सीबीआई निदेशक को नियुक्ति प्रधानमंत्री, उच्चतम न्यायालय के एक न्यायाधीश, गृहमंत्री और नेता प्रतिपक्ष की समिति करे। इससे पारदर्शिता आ जाएगी। सीएजी की नियुक्ति में गृहमंत्री की जगह वित्त मंत्री को रखा जाए। यदि सरकार कोई और फार्मूला लाना चाहती है तो वह बताए। लेकिन इच्छा और नाराजगी पर ये नियुक्तियां नहीं होनी चाहिए। पुरस्कार देने या दंडित करने के लिए भी नहीं होना चाहिए।
सवाल - सीवीआई की जो इस मामले में जांच चल रही है। क्या आप उससे संतुष्ट हैं?
जवाब - अब जो जांच चल रही है, वह ठीक दिशा में जा रहे हैं। उनकी अपनी एक सीमा है पर उच्चतम न्यायालय की निगरानी में काम कर रहे हैं तो ज्यादा गड़बड़ी नहीं हो सकती है। हमारे सामने भी उन्होंने जो तथ्य रखे हैं वह निः संकोच हमें दी।
सवाल - कांग्रेस इस रिपोर्ट को सिर्फ मसौदा बता रही है। आपका क्या मत है?
जवाब - यह रिपोर्ट है। नियमों के अनुसार हमने पेश किया है। और अगर मसौदा भी था तो उसपर बहस तो करनी चाहिए थीं दरअसल, वे कहते हैं कि यह रिपोर्ट हमने रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। पवन बंसल का यह बयान है। यह बेहद खतरनाक बयान है।
देखिए, हमारा काम यह देखना है कि आज आम आदमी के टैक्स सरकारी कोष में आई जो धनराशि है, उसका सदुपयोग संसद की इच्छा और अनुमोदन के अनुरूप हो रहा है या नहीं। साथ ही इस बात पर भी नजर रखना है कि इसका लाभ आम आदमी को मिल रहा है या नहीं। हमने राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन में देखा कि लाखों रुपए की वैसी दवाइंया जिनकी तिथि समाप्त हो गई है, वह रखी हुई है। इमारतें बनी हैं तो उसमें गोबर भरा हुआ है। डाक्टर नहीं है। तो सवाल पूछने का हक है। संसद सदस्य होने के नाते हमारा कर्तव्य है कि हम अपने मतदाताओं के हितों का ध्यान रखें। साथ ही पीएसी के अध्यक्ष होने के नाते भी दायित्व है कि इसे देखें। अब अगर इस जांच को रोका जाता है तो यह धनाडयों के पक्ष में और गरीब आदमी के विरोध में लिया गया फैसला होगा। यहा उसके अधिकार पर डाका डाला जा रहा है। हम कहते हैं कि घोटाले न होते तो यह रुपए गांव के विकास के लिए मिलते। आप कहते हैं कि इसकी जांच बंद करो जो लूट गए, सो लूट गए। यानी गरीब की लूट और धनपति की छूट। यह काम हम नहीं होने देंगे। इसलिए जब वे कहते हैं कि हमने रिपोर्ट कचरे के डब्बे में डाल दी, तो पहली बात यह कि वे आम आदमी के पेट पर डाका डाल रहे हैं, उनके स्वास्थ्य, पढ़ाई-लिखाई और रोजगार पर डाका डाल रहे हैं।
इसका दूसरा पक्ष यह है कि आज वे इस संसदीय रिपोर्ट को कचरे के डिब्बे में डाल रहे हैं। कल वे संसद के किसी अधिनियम को कचरे के डिब्बे में डाल देंगे। फिर वे उच्चतम न्यायालय के किसी निर्णय को कचरे में फेंक देंगे। जैसा कि वे एक बार कर चुके हैं। प्रधानमंत्री के हम में उच्चतम न्यायालन ने फैसला नहीं दिया तो आपातकाल लगा दिया। संविधान तोड़ दिया। तो क्या आप उसी तरफ फिर बढ़ रहे हैं, लेकिन अब हम ऐसा नहीं होने देंगे। हम जनता को बताएंगे कि देखो क्या हो रहा है। इसमें ये घबड़ाए हुए हैं, क्योंकि उनके असली इरादे इससे साफ हो रहे हैं।
सवाल - जिन लोगों ने हंगामा कर समिति का अपमान किया है, क्या आप उनके खिलाफ विशेषाधिकार हनन की सूचना देंगे? क्योंकि यह समिति संसद का प्रतिनिधित्व कर रही थी, और इसका अपमान संसद का अपमान है?
जवाब - यह प्रश्न हमारे सामने आया है। इस पर मैं संविधान विशेषज्ञों से सलाह ले रहा हूं।
सवाल - इस रिपोर्ट से जैसा विवाद खड़ा हुआ है उससे क्या समिति में दलगत विभाजन का खतरा पैदा हो गया है?
जवाब - यह तो कांग्रेस ने किया है और यह अनुचित है। दरअसल, प्रत्येक समिति में सत्तापक्ष का बहुमत होता है। इसका मतलब यह कि हर संसदीय समिति उसक अंगूठे के नीचे चले। हम ऐसा नहीं होने देंगे। और यदि यही इच्छा है तो सभी संसदीय समितियां बंद कर दें। और सरकार चलाएं। यह तो सत्तापक्ष को तय करना होगा कि लोकतंत्र चले या नहीं। संसदीय समितियां अपना काम करें या नहीं।
सवाल - यह रिपोर्ट लोक लेखा समिति की परंपरागत रिपोर्ट से कई मायने में भिन्न दिखती है। जैसे कि इस रिपोर्ट में अखबारों में छपे लेखों और राडिया के टेप पर दो अध्याय हैं। ऐसा पहले नहीं होता रहा है, तो क्या यह जरूरी था ?
जवाब - यह जरूरी इसलिए था कि एक पत्रकार ने इस मामले को सबसे पहले उजागर किया। और तब सीएजी की रिपोर्ट नहीं थी। ऐसे में वह सबसे प्रमुख आधार है। यदि उससे बात न होती तो कैसे मालूम होता कि एलओआई को लेकर जो प्रक्रिया अपनाई गई इसकी सूचना उसे कैसे मिली। साथ ही जिन लोगों ने टेप्स को छापा उसमें कई महत्वपूर्ण बातें थी। एक यह भी था कि टाटा ने ए. राजा की तारीफ में करुणानिधि को पत्र लिखे। यदि उन्हें राजा की तारीफ में पत्र लिखना था तो वे प्रधानमंत्री को लिखते, आखिर वे प्रधानमंत्री के मंत्री थे। उसमें 600 करोड़ रुपए के रिश्वत की बात का जिक्र है जो करुणानिधि की पत्नी को दिया गया था। तो इन सब बातों को जानना बेहद जरूरी था।
सवाल - 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले से हुए नुकसान के जो-जो अनुमान है उसका विवरण रिपोर्ट में हैं। पर समिति का अनुमान नहीं है। आखिर वह क्या है?
जबाव - पीएसी के पास ऐसी कोई विशेषज्ञों की टीम नहीं है। जो घाटे का अनुमान लगा पाए। यह काम है टीआरएआई (टेलीकॉम रेगुलेट्री अथॉरिटी) का। उसने एक रिपोर्ट दी है उसके आधार पर वित्त मंत्रालय घाटे का अनुमान निकाल सकता है। हालांकि वित्त मंत्रालय से हमने पूछा तो उसने कहा कि वह नुकसान का हिसाब नहीं लगा सकता है। मेरा कहना है कि यदि वे नहीं निकाल सकते तो कौन निकालेगा। आप सारे देश का नफा-नुकसान निकालते हैं, लेकिन इसका नहीं निकाल सकते। इससे संदेह गहराता है, कि वे क्यों नहीं निकालना चाहते। हमने कहा कि वे टीआरएआई को माध्यम से गणना करे और बताए।
सवाल- रिपोर्ट में अरुण शौरी के एक पत्र और भंडाफोड की बात कही गई है। वह क्या है?
सवाल - अरुण शौरी जिस भंडाफोड की बात कर रहे हैं वह क्या है?
जवाब - हमें क्या पता। अखबारों में यह आया था कि अरुण शौरी ने सीबीआई को एक पत्र लिखा है। हमने सीबीआई से इस बारे में पूछा तो उन्होनंे कहा कि हमारे पास कोई पत्र नहीं है। तो वहीं बात खत्म हो गई।
सवाल - रिपोर्ट में शासन प्रणाली में गहरे दोष पैदा होने के संकेत दिए हैं, क्या वह संसदीय प्रणाली के संकट के दोतक है?
जवाब - मैं पहले ही कह चुका हूं कि ज्यादातर दोष प्रणालीगत है। अगर सरकार पारदर्शिता चाहती है और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन चाहती है तो उसे सुधार करने होंगे। हमारे जांच के दायरे में यह नहीं है कि संसदीय प्रणाली ठीक है या नहीं, बल्कि जांकर जो सीमित विषय रहा है उसमें जो गड़बड़ियां आई है, उसका उल्लेख किया है। नीतियों पर विचार करना पीएसी के अधिकार क्षेत्र में नहीं है।
सवाल- रिपोर्ट से एक बात और निकलकर आ रही है। वह यह है कि प्रधानमंत्री नाम की जो संस्था है वह आज कमजोर दिख रही है। इस पर आपकी क्या राय है?
जवाब - यह कमजोर है या ताकतवर है। इसका विश्लेषण हम नहीं कर रहे हैं। दरअसल, जो प्रणाली है और उसमें जो स्थिति है, यहां हम केवल उसकी बात कर रहे हैं। कमजोर और ताकतवर होने का विश्लेषण तो संसद और जनता करेगी। यहां तो हम अपना काम कर रहे थे।