हाल ही में
सफर (गैरसरकारी संस्था) ने राजधानी के दो-तीन जगहों पर
इंडिया अनट्च्ड (लघु फिल्म) का पुनः प्रदर्शन किया। इसकी जानकारी मेरे पास थी। हालांकि स्टालिन की करीब दो घंटे की इस फिल्म को मैं कई बार देख चुका हूं। यह देश में व्याप्त छुआछूत और जाति प्रथा पर बनी है। इसे स्टालिन अपनी नजर से देखते हैं।
हालांकि, बार-बार देखने के बावजूद यकीन नहीं होता कि अब भी यही पूरा सच है। इसे लेकर एक झीन सा परदा अब भी मेरे मन में है। खैर, यह अलग मसला है। सफर बहस-मुबाहिसों को आगे बढ़ाने के लिए जो काम कर रहा है, वह मेरे निजी ख्याल से ज्यादा अहमियत रखता है।
जामिया मिलिया में फिल्म की स्क्रीनिंग के दौरान कई छात्र मौजूद थे। इससे पहले यह दिल्ली विश्वविद्यालय के एक छात्रावास में भी दिखाई गई थी। फिल्म पर छात्रों ने जमकर बातचीत की। यहां सफर ने विचार पैदा करने व बहस करने की संभ्रांतों की जागीर अब छात्रों व बज्र देहात में जीवन काट रहे लोगों में फैलाने का सिलसिला शुरू किया है, वह काबिलेगौर है।
इससे पहले भी
सफर रविन्द्र भवन में होने वाली घिसीपिटी साहित्यिक गोष्ठियों से अलग एक नई तान दे चुका है। इसका एक मंजर तब दिखा जब,
वजीराबाद गांव के सफर के दफ्तर में राजेंद्र यादव अपनी लघु कहानी का पाठ कर रहे थे। इसी तरह की हलचल पैदा करने वाली कुछ-एक बातें सफर के नाम नत्थी हैं।
4 comments:
parda hatao dost sach to tabhi dikhega
इंडिया अन्टच्ड के बारे में पढ़ा जरुर है पर देखने का मौका कभी नहीं मिला.
यह जानकर खुशी हुई कि सफऱ देश के गांव में काम करने की कोशिश में लगा है। अन्यथा ज्यादा लोग तो राजधानी औऱ बड़े शहरों में ही बहस करना पसंद करते हैं। शहर से लगा भी अब उसकी आपाधापी से आक्रांत मालूम पड़ता है। सफर के बारे में जानकारी देने के लिए शुक्रिया
सफर के बारे में जानकारी देने के लिए शुक्रिया। यह जानकर अच्छा लगा कि आप निजी विचार पिलाने से अधिक किसी सार्वजनिक काम को महत्व देते हैं।
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