राजधानी के जिन इलाकों से देश के हुक्मरान और नीति-निर्धारक अकसरां गुजरते हैं, उन्हीं इलाकों के चौराहे पर फुटपाती जीवन काट रहे बेसहारा बच्चे अभिजात वर्ग के लिए पत्रिकाएं बेचते दिख जाएंगे।
यकीन न हो तो एक मर्तबा दक्षिणी दिल्ली तफरीह कर आएं।
आमतौर पर इन बच्चों को सैंडविच-ब्वाय के नाम से जाना जाता है जो नाम एकबारगी निजी कंपनियों के मार्केटिंग अधिकारियों का दिया मालूम पड़ता है। दिल्ली के चौराहे पर ये बच्चे देश-विदेश की ख्याति प्राप्त पत्रिकाएं व कुछ किताबें उक्त कंपनियों के कपड़े पहनकर बेचा करते हैं। हालांकि कंपनी का नाम आम लोगों की जुबान पर चढ़ जाने के बाद कंपनियां ये औपचारिकताएं भी भूल जाती हैं।
चौराहे की बत्ती लाल हुई नहीं कि वे बच्चे व्यस्त हो जाते हैं और हरी होने पर सड़क किनारे लग जाते हैं और बत्ती के लाल होने की प्रतिक्षा करते रहते हैं। मोतीबाग, हौज खास, आर के पुरम, पंचशील इंक्लेव जैसे संभ्रांत इलाकों से गुजरते इन्हें देखा जा सकता है।
आईआईटी दिल्ली के पास पत्रिका बेचने वाले ग्यारह वर्षीय मोनू ने बातचीत के दौरान कहा, ये पत्रिकाएं कंपनी वाले देते हैं और साथ में ये कपड़े भी उन्होंने ही दिया हैं।
रोजाना होने वाली आमदनी के सवाल पर उसने तपाक से कहा, पत्रिका नहीं बिकने पर भी रोज 80 रूपये मिलते हैं लेकिन इस टी-शर्ट को पहनना पड़ेगा। यहां टी-शर्ट पहनने की मजबूरी व्यवसाय का दूसरा पहलू बताती है। हालांकि, जब इन बच्चों के शरीर से कंपनी के कपड़े गायब हो जाते हैं, तब भी इनके हाथों से पत्रिकाएं नहीं हटतीं। क्योंकि उनका इरादा इन बच्चों से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से दिहाड़ी करवाने का रहता है।
ताज्जुब की बात है कि इन बच्चों के हाथ में बाल-मजदूरी समाप्त करने की पैरोकारी करने वाली पत्रिकाएं भी दिखाई पड़ जाती हैं। एक निजी कंपनी के मार्केटिंग अधिकारी ने बताया कि यह सही है कि सैंडविच- ब्वाय के रूप में इन बच्चों का इस्तेमाल कई जगहों पर किया जाता है, क्योंकि ये सरलता से और सस्ते श्रम पर मिल जाते हैं।
इन मासूम बच्चों की रोजाना की जिन्दगी उनकी कश्मकश और जद्दोजहद को दर्शाती है। इनकी तरफ देखते तो सभी हैं। पर इनके बारे में सोचते कम ही लोग हैं। धरातल पर इनकी बेहतरी के लिए कुछ करने वालों की संख्या तो और भी कम है।
ब्रजेश झा
1 comment:
I have No word about that. That’s a condition of my country.
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