Friday, February 18, 2011

क्रिकेट का महाकुंभ शुरू


पहले विश्व कप को थामे वेस्टइंडीज के कप्तान (1975)


वह 5 जनवरी, 1971 का दिन था। जब इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया के बीच पहला एक-दिवसीय मैच खेला गया। वह मैच मेलबर्न क्रिकेट ग्राउंड पर खेला गया था। हालांकि, यह मैच बतौर प्रयोग खेला गया था। तब उसका कोई व्यावसायिक महत्व नहीं था। अब नजारे बदल गए हैं।

आज से ठीक 24 साल पहले जब भारतीय महाद्वीप में चौथा विश्वकप खेला गया था, तब पहली बाद इसमें पैसे की खनक सुनाई दी थी। रोमांच के साथ-साथ पुरस्कार राशि की भी चर्चा थी। उसे लोग रिलायंस विश्वकप के नाम से जानते हैं। आगे वह दौर जारी रहा। पर, 2007 में वेस्ट इंडीज में हुआ विश्वकप व्यावसायिक दृष्टिकोण से असफल माना गया। लोग क्रिकेट के 10वें कुंभ पर नजर टिकाए हुए हैं, जिसमें व्यापार जगत, क्रिकेट प्रेमी व सट्टा बाजारी सभी हैं।

पहला विश्व कप-
प्रुडेंशियल कप के नाम से पहला विश्वकप 1975 में आयोजित किया गया था। सात जून से 21 जून तक चले क्रिकेट महाकुंभ में आठ टीमों ने हिस्सा लिया था और सभी मैच 60-60 ओवर के खेले गए थे। संयोग से पहला मुकाबला भारत और इंग्लैंड के बीच हुआ, जिसमें भारत 202 रन से पराजित हो गया। वह आज भी इसलिए याद किया जाता है, क्योंकि टेस्ट क्रिकेट के महान बल्लेबाज सुनील गावस्कर ने 174 गेंद में 36 रन बनाए। और नॉटआउट रहे। वह अबतक के एक दिवसीय क्रिकेट की सबसे नीरस पारी कही जाती है। हालांकि, विश्वकप के दौरान ऐसे कई रोमांचकारी मैच हुए जिसे लोग खूब याद करते हैं। इसमें एक वह मैच था, जो पाकिस्तान और वेस्ट इंडीज के बीच खेला गया था। तब वेस्ट इंडीज की आखिरी जोड़ी ने 101 की साझेदारी कर मैच अपने नाम किया था। आस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के बीच हुआ पहला सेमीफाइनल भी रोमांचकारी रहा। विश्वकप का फाइनल वेस्ट इंडीज और आस्ट्रेलिया के बीच खेला गया। वह मुकाबला भी रोमांचक था। वेस्ट इंडीज ने 291 रन का लक्ष्य रखा था। इस लक्ष्य का पीछा करते हुए आस्ट्रेलिया के पांच बल्लेबाज रन आउट हो गए और वह 17 रन से हार गया। इस मैच में वेस्ट इंडीज का नेतृत्व कर रहे क्लाइव लायड ने 102 रन की महत्वपूर्ण पारी खेली थी। महान बल्लेबाज विवियन रिचर्ड्स फाइनल में महज पांच रन बनाकर आउट हो गए थे। मगर फील्डिंग में अपना जलवा दिखाते हुए तीन आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज को रन आउट कराया।

दूसरा विश्वकप-
1979 में दूसरी बार इंग्लैंड में ही विश्वकप का आयोजन किया गया। वह भी जून महीने में। और सभी मैच 60-60 ओवर के खेले गए। वेस्ट इंडीज ने विश्व विजेता की तरह अपना सफर शुरू किया। दुनिया की कोई दूसरी टीम उसके सामने नहीं टिक पाई। विश्वकप का फाइनल वेस्ट इंडीज और इंग्लैंड के बीच हुआ। वहां भी विवियन रिचर्ड्स ने तूफानी पारी खेली और 138 रन बनाए। इंग्लैंड के सामने 286 रन का विशाल लक्ष्य खड़ा कर दिया। इंग्लैंड के खिलाड़ी इसका पीछा नहीं कर पाए। वेस्ट इंडीज की अगुवाई क्लाइव लायड ही कर रहे थे।
इस विश्वकप में श्रीलंका ने भारी उलट-फेर करते हुए भारत को 47 रन से हराकर दिया था, जिससे भारत विश्वकप से बाहर हो गया। पर पाकिस्तान ने सभी को चौंकाते हुए शानदार प्रदर्शन किया, मगर दूसरे सेमीफाइनल में उसे वेस्ट इंडीज के हाथों मात खानी पड़ी।

तीसरा विश्वकप-
9 जून से 25 जून 1983 तक एक बार फिर इंग्लैंड में ही विश्वकप आयोजित हुआ। इसके शुरुआती दिनों से ही अप्रत्याशित परिणाम आने लगे। सबसे पहले ग्रूप बी के पहले मैच में ही विश्वकप की नवोदित टीम जिम्बाब्वे ने आस्ट्रेलिया को 13 रन से हराकर धमाका कर दिया। जिम्बाब्वे ने भारत को भी मुश्कल में डाला, 17 रन पर पांच विकट चटका डाले। परन्तु कपिल देव ने 175 रन की अविजीत पारी खेल भारत को संकट से उबारा। इसके बाद भारतीय टीम लय में आई गई। दो बार से विश्वकप जीत रही वेस्ट इंडीज की टीम को 34 रन से हरा दिया। हालांकि, कपिल देव के नेतृत्व वाली वह टीम कमजोर मानी जा ही थी, पर आस्ट्रेलिया को 118 रन के अंतर से हराकर सेमीफाइन में पहुंची। इसके बाद इंग्लैंड को हराकर फाइनल में आई। फाइनल भी उम्मीद से परे रहा। वहां भारत ने पहले बल्लेबाजी करते हुए 183 रन बनाए। इसके जवाब में वेस्ट इंडीज की पूरी टीम 140 पर ही सिमट गई। वैसे तो फाइनल में विवियन रिचर्ड्स आक्रामक रूप अपनाए हुए थे। पर वे 33 के निजी स्कोर पर आउट हो गए। वे मदन लाल की गेंद पर कपिल देव को कैच थमा बैठे। कपिल देव द्वारा लपका गया वह बेहतरीन कैच अब इतिहास है। इस तरह तीसरा विश्वकप भारत की झोली में आया।

चौथा विश्वकप-
वह पहला मौका था, जब विश्वकप इंग्लैंड से बाहर आयोजित किया गया। 1987 में हुए इस विश्वकप का आयोजन भारत औऱ पाकिस्तान ने संयुक्त रूप से किया था। इसे लोग रिलायंस विश्वकप के नाम से भी जानते हैं। 1983 में विश्वकप जीतने के बाद भारत एक मजबूत टीम बनकर उभरा, उसे इस विश्वकप का प्रवल दावेदार माना जा रहा था। हालांकि, पाकिस्तान की दावेदारी भी कम नहीं थी। पर सेमीफाइनल में भारत और पाकिस्तान एक-एक कर इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया से पराजित हो गया। ईडन गार्डन में खेला गया फाइनल मैच रोमांचकारी रहा। आस्ट्रेलिया ने इंग्लैंड को सात रन से हराकर खिताब अपने नाम कर लिया।
चौथा विश्वकप कई तरह से नया था। इसमें ओवरों को 60 से घटाकर 50 कर दिया गया। पहली बार तटस्थ अंपायरों की परंपरा चली। विश्वकप के इतिहास की पहली हैट-ट्रीक भारत के चेतन शर्मा ने न्यूजीलैंड के खिलाफ ली। वहीं न्यूजीलैंड के खिलाफ उसी मैच में सुनील गावस्कर ने 88 गेंदों पर नाबाद 103 रन की पारी खेली। एक दिवसीय क्रिकेट में गावस्कर का यह एक मात्र शतक है। इस विश्वकप में श्रीलंका ने भारी उलटफेर करते हुए वेस्ट इंडीज को हरा दिया, जिससे वेस्ट इंडीज सेमीफाइनल में नहीं पहुंच पाया।

पांचवां विश्वकप
1992 में आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड की संयुक्त मेजबानी में विश्वकप का आयोजन किया गया। इस बार अधिकांश मैच दूधिया रोशनी में खेले गए। सभी टीमें पारंपरिक सफेद पोशाक की जगह रंगीन कपड़ों में मैदान पर उतरी। 22 साल बाद दक्षिण अफ्रीका विश्वकप में हिस्सा ले रहा था। आठ लीग मैचों में टीम ने पांच में जीत दर्ज की। साथ ही सेमीफाइनल में पहुंच गई। हालांकि, आईसीसी के अजीबोगरीब नियम की वजह से दक्षिण अफ्रीका सेमीफाइनल में इंग्लैंड से हार गया।
फाइनल मैच पाकिस्तान और इंग्लैंड के बीच खेला गया। इसमें पहले बल्लेबाजी करते हुए पाकिस्तान ने इंग्लैंड के सामने 249 रन का लक्ष्य रखा। पर, वसीम अकरम की धारदार गेंदबाजी के आगे अंग्रेजी खिलाड़ी नहीं टिक पाए और पाकिस्तान ने विश्वकप अपने नाम कर लिया। पाकिस्तानी टीम का नेतृत्व इमरान खान कर रहे थे। यह वही विश्वकप था, जिसने पिंच हिटर को जन्म दिया। भारत के सचिन तेंदुलकर, वेस्ट इंडीज के ब्रायन लारा और पाकिस्तान के इंजमामउल हक का यह पहला विश्वकप था।


छठा विश्वकप-
1996 का विश्वकप सनत जयसूर्या की अटैकिंग बल्लेबाजी के लिए याद किया जाता है। इसे भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका की संयुक्त मेजबानी में आयोजित किया गया था। 14 फरवरी से 17 मार्च तक यह विश्वकप खेला गया। इसमें कुल 12 टीमें हिस्सा ले रही थी। तब सचिन तेंडुलकर और आस्ट्रेलिया के सलामी बल्लेबाज मार्क वॉ की कलात्मक बल्लेबाजी का दर्शकों ने खूब आनंद लिया। सचिन ने विश्वकप में 87.16 की औसत से 523 रन बनाए थे। हालांकि, भारतीय टीम सेमीफाइनल में श्रीलंका से पराजित हो गई। फाइनल में श्रीलंका ने विश्वकप की दावेदार मानी जा रही आस्ट्रेलियाई टीम को सात विकेट से हराकर कप पर कब्जा जमा लिया। यह इतिहास है जब एक मेजबान देश ने विश्वकप पर कब्जा किया। वह भी लक्ष्य का पीछा करते हुए। इस विश्वकप के एक शुरुआती मैच में ही केन्या ने वेस्ट इंडीज को 73 रन से हराकर तहलका मचा दिया था।

सातवां विश्वकप-
1983 के बाद एक बार फिर इंग्लैंड ने विश्वकप की मेजबानी की। इस बार भारत मुश्किल से सुपर सिक्स में पहुंच पाया था। बहरहाल, विश्वकप का सबसे रोमांचक मैच बर्मिंघम में हुआ सेमीफाइनल था। यह मैच 17 जून 1999 को आस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका के बीच खेला गया था। यहां पहले बल्लेबाजी करते हुए आस्ट्रेलिया ने 213 रन बनाए। इसके जवाब में दक्षिण अफ्रीका भी 213 रन बना पाई। फिर मैच टाई हो गया। पर सुपर सिक्स में दक्षिण अफ्रीका पर जीत दर्ज करने की वजह से आस्ट्रेलियाई टीम फाइनल में पहुंच गई। इस मैच को आईसीसी ने वनडे मैच के इतिहास में सबसे रोमांचकारी मैच बताया है।
खैर, फाइनल में आस्ट्रेलिया और पाकिस्तान के बीच मुकाबला हुआ, जहां आस्ट्रेलिया ने आसान जीत दर्ज की। यह वही विश्वकप था, जब सचिन तेंदुलकर को पिता के निधन की खबर मिलने पर भारत लौटना पड़ा था। वह जिम्बाब्वे के खिलाफ हुए मैच में नहीं खेल पाए। भारत वह मैच बड़े नाटकीय तरीके से हार गया था। इस हार की बड़ी कीमत उसे सुपर सिक्स मुकाबले में चुकानी पड़ी और टीम मुकाबले से बाहर हो गई।

आठवां विश्वकप-
2003 का विश्वकप तेज पिचों पर हुआ। इसे दक्षिण अफ्रीका, जिम्बाब्वे और केन्या ने संयुक्त रूप से आयोजित किया। इसमें कुल 14 टीमों ने हिस्सा लिया। अंतत: भारत और आस्ट्रेलिया के बीच फाइनल खेला गया था। इस मैच में रिकी पॉन्टिंग की पारी भारत को महंगी साबित हुई। आस्ट्रेलिया के 359 रन के जवाब में पूरी भारतीय टीम 39.02 ओवर में ही 234 रन बनाकर आउट हो गई।
इस विश्वकप में दक्षिण अफ्रीका एक बार फिर डकवर्थ लुईस नियम का शिकार हुआ। वह पहले दौर में ही बाहर हो गया। वहीं केन्या सेमीफाइनल में पहुंच गया। इससे कई सवाल उठे।

नौवां विश्वकप-
वेस्ट इंडीज में 2007 में हुआ विश्वकप कई कारणों से गहरा असर नहीं छोड़ पाया। इसमें एक कारण यह भी रहा कि भारत और पाकिस्तान के पहले राउंड में ही बाहर हो जाने से क्रिकेट प्रेमियों का उत्साह ठंडा पड़ गया। वहीं व्यावसायिक दृष्टिकोण से भी यह विश्वकप असफल माना गया। फाइनल मुकाबले तक डकवर्थ लुइस नियम प्रभावी रहा। फाइनल मुकाबल आस्ट्रेलिया और श्रीलंका के बीच खेल गया। आस्ट्रेलिया इस मुकाबले को 53 रन से जीतकर लगातार तीसरी बार विश्वविजेता बना।
विश्वकप के दौरान पाकिस्तान टीम के कोच बॉब वूल्मर की मौत ने नए विवाद को जन्म दिया था। तब शक के आधार पर कई पाकिस्तानी क्रिकेटरों से पूछताछ की गई थी।

अब दसवें क्रिकेट महाकुंभ की तैयारी पूरी हो गई है। क्रिकेट विशेषज्ञ भारत को विश्वकप का प्रवल दावेदार मान रहे हैं। लोगों इस उम्मीद है कि सचिन तेंदुलकर के रहते भारत विश्वकप जीते। अब इसका फैसला तो मैदान पर ही होगा। अब जब इसकी लोकप्रियता दिनों-दिन बढ़ रही है तो यह रुपए-पैसौं का भी खेल हो चला है। दुनियाभर की कंपनियां इसमें विज्ञापन देने को लालायित रहती हैं। सट्टा बाजार भी गर्म रहता है। यानी जेंटलमैन खेल कहलाने वाला क्रिकेट अब बहुत कुछ हो गया है।

Thursday, February 17, 2011

पेंटिंग बनाई तो हुआ तलाक



कहा जाता है कि पिकासो की यह पेंटिंग तलाक़ की वजह बनी थी। हाल ही में एक गुमानम व्यक्ति ने इसे 2.80 लाख डॉलर में खरीदा है।

दरअसल, पिकासो ने एक ऐसी पेंटिंग बनाई थी, जिसमें ऊंघती हुई नायिका को गोद में किताब लिए दिखाया गया है। हाल ही में लंदन में एक नीलामी के दौरान यह पेंटिंग चार करोड़ डॉलर से भी अधिक कीमत में बिकी है।

जब पिकासो पहली बार अपनी इस प्रेमिका से मिले थे तब उसकी उम्र 17 साल थी और वे ख़ुद 45 साल के थे। जब उनकी पत्नी ओल्गा ख़ोखलोवा ने इस पेंटिंग को एक प्रदर्शनी में देखा तो वह समझ गईं कि यह उनकी पेंटिंग नहीं है और पिकासो के जीवन में उनके अलावा और कोई भी है।

Wednesday, February 16, 2011

क्या दिग्गी राजा बनेंगे वजीर



प्रधानमंत्री बदला जाना है। अंदरखाने में इसकी चर्चा है। कहा जा रहा है कि दस जनपथ सुरक्षित विकल्प की तलाश में है। ऐसे में वहां कुछ लोग दिग्विजय सिंह यानी दिग्गी राजा का नाम ले रहे हैं। इससे दोनों खेमा सक्रिय है। एक वह जो उनके समर्थकों का है। दूसरा खेमा वह है, जहां उनके विरोधी हैं। हालांकि, बतौर विकल्प कुछेक नाम और हैं। पर, ऐसा लगता है कि दस जनपथ वैसे नामों पर चर्चा तक करना नहीं चाहता है, जिन नामों को लेकर मन में थोड़ा भी अटकाव है। आखिरकार युवराज के भविष्य का सवाल है।


1947 में एक संभ्रांत परिवार में पैदा हुए दिग्विजय उन कुछेक लोगों में हैं, जिनकी राजीव गांधी से निकटता थी। यकीनन, तमाम गुणों के साथ-साथ हमउम्र भी इसकी एक वजह हो सकती है। खैर, दिग्गी राजा स्वयं एक साक्षात्कार में यह स्वीकार चुके हैं। कहा है, “राजीव गांधी का मुझे बहुत स्नेह मिला। उन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया और 37 साल की उम्र में मध्य प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया। वह भी तब जब कई धुरंधर नेता थे।” अगले सात वर्षों तक वे प्रदेश अध्यक्ष बने रहे। इसके बाद 1993 के चुनाव में पार्टी जीतकर आई तो वे मुख्यमंत्री हुए। अगले 10 सालों तक सूबे का नेतृत्व किया। यह वह दौर था जब पार्टी मुश्किल दौर से गुजर रही थी। पर वे एक खंभा संभाले हुए थे। फिर 2003 में विधानसभा चुनाव हारे तो संगठन की कमान संभाली। अपने कहे का मान रखा, मौका मिला तो भी कोई पद नहीं लिया। आलाकमान का विश्वासी बना रहना ही जरूरी समझा।

राजनीतिक जानकार मानते हैं कि दिग्विजय लंबी रेस में यकीन करते हैं। खैर, इसके बाद से वे लगातार केंद्रीय राजनीति में सक्रिय हैं। उन कामों को अपने जिम्मे लिया है, जहां कांग्रेस पार्टी की नब्ज कमजोर है। वे उत्तर भारत में कांग्रेस को मजबूत करने में जुटे हैं। दरअसल, यही वह कूंजी है, जिससे पार्टी अपने बूते सत्ता में आ सकती है। युवराज यानी राहुल गांधी को सुरक्षित कुर्सी मिल सकती है। इन क्षेत्रों से कुछ अच्छे परिणाम आए हैं। वजह जो भी हो, पर इससे दस जनपद का भरोसा दिग्गी राजा पर बढ़ा है।


पिछले एक सालों से राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह की सक्रियता देख अनुमान लगाया जा सकता है कि पार्टी नेतृत्व का उनपर गहरा विश्वास है। यही वजह है कि नीतिगत मामलों पर भी वे सार्वजनिक मंचों से लगातार कह-बोल रहे हैं। मामला सरकार से जुड़ा हो या फिर पार्टी से। वे बयान देने से नहीं चूकते। माओवादी विद्रोहियों से निपटने के मसले पर उन्होंने गृह मंत्री पी.चिदंबरम को आडे हाथों लिया था। 14 अप्रैल, 2010 को अपने एक लेख में उन्होंने लिखा था, “चिदंबरम बेहद इंटेलिजेंट, कमिटेड और ईमानदार हैं, पर एक बार मन बना लेने पर वह काफी जिद्दी हो जाते हैं। वे आदिवासियों को प्रभावित करने वाले मुद्दों को नजरअंदाज कर रहे हैं। इस समस्या को लॉ एंड ऑर्डर की समस्या की तरह ट्रीट कर रहे हैं। ” केवल गृह मंत्री को ही नहीं, वे केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को भी सार्वजनिक रूप से सलाह दी चुके हैं। सिब्बल द्वारा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) की प्रवेश परीक्षा में प्रस्तावित सुधारों की घोषणा के एक दिन बाद ही दिग्गी राजा कह बैठे कि मंत्रालय को उच्च शिक्षा की बजाय स्कूली शिक्षा प्रणाली को विकसित करने पर ध्यान केंद्रीय करना चाहिए।

अबतक ऐसे उदाहरण कम देखने-सुनने को मिले हैं, जब कोई महासचिव सार्वजनिक बयान देकर सरकार को बार-बार दिशा देने का काम करता हो। यहां दिग्विजय सिंह ने नया रिवाज चलाया है। इतना ही नहीं है। पार्टी स्तर पर भी नीतिगत मसलों पर नई सीमा रेखा निर्धारित करने का काम वे लगातार करते आ रहे हैं। मामला अफजल गुरु की फांसी का हो या फिर बाटला हाउस एनकाउंटर का। वे नई लाईन लेते रहे हैं। एक समय उन्होंने कहा था कि संसद हमलाकांड के दोषी अफजल गुरु को फांसी होनी चाहिए। दिग्गी राजा की इस हिन्दूवादी लाइन ने कांग्रेस के कई नेताओं को सकते में डाला था। दूसरी तरफ वे बाटला एनकाउंटर में मारे गए आतंकियों के परिजनों से आजमगढ़ में मुलाकात कर आए। उन्होंने एनकाउंटर के तरीके पर भी सवाल किए थे। फिर हिन्दू आतंकवाद के मुद्दे पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को निशाने पर लिया। दिग्गी राजा के इन चौकाने वाले और आगे आकर बयान देने से पार्टी में उनकी स्थिति कमजोर नहीं हुई है, बल्कि मजबूत ही हुई है। इससे ऐसा लगता है कि हमेशा तौलकर बोलने वाले दिग्गी राजा के बयानों से कहीं न कहीं कांग्रेस आलाकमान की भी सहमति है। शायद यही वजह है कि उनके बयानों का कांग्रेस प्रवक्ता हमेशा बचाव करते या फिर ढुलमुल रवैया अख्तियार करते नजर आते रहते हैं।

गत एक सालों में कांग्रेस की तरफ से जो बयान आए, उसे या तो राहुल गांधी ने दिया, अन्यथा दिग्गी राजा ने। दूसरे इनके पीछे ही रहे। इससे दस जनपथ से उनकी निकटता को समझा जा सकता है। राजनीतिक विश्लेषक लिख-बोल रहे हैं कि पहली बार 2004 में यूपीए की सरकार आई तो यह धारणा बनी थी कि दोहरे राजनीतिक प्रबंधन का प्रयोग कांग्रेस ने शुरू किया है। पार्टी को सोनिया गांधी संभालेंगी। सरकार को मनमोहन सिंह चलाएंगे। 2009 के चुनाव के बाद इस हवा को गति मिली। पर, एकबारगी स्थिति बदल गई है। अंदरूनी खींचतान और महाघोटालों का भंडाफोड़ होने के बाद मनमोहन सिंह का विकल्प तलाशा जा रहा है। वहीं दस जनपथ की मजबूरी यह है कि पार्टी अभी वैसी मजबूत स्थिति में नहीं है कि सत्ता की बागडोर युवराज को सौंपी जाए। दस जनपथ को समय चाहिए। वह इस समय के लिए बेहतर विकल्प की खोज में है। दिग्गी राजा इसमें सबसे आग हैं। हालांकि,
बतौर विकल्प एक नाम प्रणव मुखर्जी का भी है। पर, सूत्रों के मुताबिक अंदरखाने में संदेह है कि टूजी-स्पेक्ट्रम घोटाले की सीडी उनके दरबार से ही बाहर आई है। ऐसी स्थिति में दस जनपथ फूंक-फूंककर कदम रखना चाहता है।
उसे दिग्विजय सिंह एक बेहतर विकल्प नजर आ रहे हैं। ये उनकी पहली पसंद हैं। इसकी पहली वजह तो यही है कि उन्होंने अपनी निष्ठा साबित की है। दूसरी यह कि वे बेदाग रहे हैं औऱ उनका जमीनी आधार भी है। तीसरी यह कि अब उनकी प्रतिज्ञा की समय-सीमा भी समाप्त होने वाली है। अब देखना यह है कि दस जनपथ किसे वजीर बनाता है।