एक लम्बी तफतीस के बाद मैं यह स्पष्ट कह दूँ कि बोलती हिन्दी सिनेमा में लोकगीतों व ठेठ
आंचलिक शब्दों की बयार शुरुआती वर्षों में ही आने लगे थे। वैसे, पारंपरिक गीतों का कदमताल भी
यहीं से जारी है जैसे- "काहे मारे पिचकारी लला हो काहे मारे पिचकारी " दौलत का नशा -फिल्म
का यह गीत होली का पारंपरिक गीत है। सन् 1931 में ही बंबई की इंपीरियल मुवीटोन ने इस
फिल्म का निर्माण किया था।
शादी के बाद लडकी की बिदाई भारतीय समाज की अटूट परंपरा है। यह फेविकोल का मजबूत जोड है।
आगे भी नहीं टूटने जा रहा है। शायद इसी वास्ते सन् 31 में जो इस पर लोगों की नजर टिकी सो अब
तक हटी नहीं है।
"बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए"मास्टर बसंत द्वारा लिखे इस पारंपरिक गीत को फिल्म ट्रैप्ड (1931) में सबसे पहले दुर्गा खोटे पर
फिल्माया गया था। आगे सन् 40 तक इन्हीं बोलों को और दो बार फिल्माया गया। नाचवाली (1934),
और स्ट्रीट सिंगर (1938) में।
' स्ट्रीट सिंगर ' के गीतकार को लेकर मैंने दूसरे खेप में आर.सी.बोराल का नाम लिया था। उसे वापस
लेता हूँ। दरअसल, आर.सी.बोराल ' स्ट्रीट सिंगर ' के संगीतकार और आरजू लखनवी गीतकार थे।
यहां आरजू लखनवी में गीत का दोहराव अचानक ही मिल जाता है। खैर, इस पर चर्चा बाद में।
अब जरा गौर फरमाइये–
"राजा जानी न मारो नजरवा के तीर रे…………।"यह गीत ' भारती बालक ' फिल्म से है। इसका निर्माण मादन थियेटर ने सन् 1931 में किया था।
' ट्रैप्ड ' फिल्म का – " साँची कहो मोसे बतियां, कहां रहे सारी रतियां "या फिर, दौलत का नशा – फिल्म का एक गीत-
" गगरिया भरने दे बांके छैला,
भर दे भरा दे सर पर उठा दे………।"इधर मैं लगातार महसूस कर रहा हूँ कि लोक जीवन से उपजे शब्दों-गीतों का इस्तेमाल सिनेमा द्वारा
आवाज की दुनिया में दाखिल होते ही शुरु हो गया था। हाँ, इन बातों का खयाल जरूर रखा गया कि
इन ठेठ देहाती शब्दों में खुरदरेपन की बजाय एक प्रवाह हो ताकि उसे सहजता से लयबद्ध किया जा
सके। घुंघरवा, गगरिया, नजरवा, बलमवा, सुरतिया या फिर मोरा, तोरा, मोसे, तोसे, सांची (सच) इनके बारे
में क्या खयाल है? बात ऐसी है कि हिन्दी पट्टी के पूर्वी हिस्से में कहीं भी -कभी भी आकारांत जोड देने
की गजब परंपरा है। गीतकारों ने भी इस चलन का खूब इस्तेमाल किया। इसकी वजह पर गुफ्तगू आगे
करेंगे। आप के खयाल भी मेरे लिए अहमियत रखते हैं।
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