Sunday, April 15, 2012

‘साहिब मेरा मेहरबान’


एक अनुभव-सिद्ध ज्ञान केंद्र की बात उठी तो सभी एकबारगी सहमत दिखे। तब ऐसा लग रहा था कि वहां मौजूद सभी लोगों की बात रामबहादुर राय ने इस सूत्र वाक्य में रख दी है।
फिर संवाद प्रक्रिया आगे बढ़ी। पवनकुमार गुप्त की बारी आई। उन्होंने इस सूत्र वाक्य को थोड़ा विस्तार दिया। कहा, “ज्ञान केंद्र एक प्रयोग भी है। इन दिनों समाज में संवाद की प्रक्रिया लगभग खत्म हो गई है। हालात ऐसे हैं कि हम अपनी भाषा व मुहावरे में ही बातचीत नहीं कर पा रहे हैं। इन मुश्किलों से पार पाना होगा। इसके लिए ही ज्ञान केंद्र में समाज को समझने की कोशिश होगी।” फिर रणसिंह आर्य सरल अंदाज में बोले, “ज्ञान केंद्र एक ऐसा माहौल बनाए जहां जिंदगी सहज हो सके।”
हम बिजनौर जिले के गोविंदपुर स्थित झालू गांव में हैं। यहीं जीवन विद्या प्रतिष्ठान में 20 मार्च से बात-विमर्श का दौर चल रहा है। यह तीसरा व अंतिम दिन है। उक्त बातें इसी संवाद प्रक्रिया का अंश है। इलाके में यह केंद्र आश्रम के नाम से प्रसिद्ध है। रणसिंह आर्य का यही पता-ठिकाना है। उनके बुलावे पर ही साल भर बाद यहां लोग इकट्ठा हुए हैं। संवाद प्रक्रिया चल रही है। इसे ‘सह-चिंतन’ नाम दिया गया है। देशभर से करीब 45 से 50 लोग यहां आए हैं। इनमें से कुछ आगंतुकों के मन में अटकाव है। वे जवाब जानने को उत्सुक हैं कि गत 12 महीने में हमलोग कितनी दूरी तय कर पाए हैं, क्योंकि वे मान रहे थे कि संवाद से कई बातें साफ नहीं हो रही हैं। दरअसल, 25-27 मार्च, 2011 को सहचिंतन के लिए लोग यहां इकत्र हुए थे। यह उस श्रृंखला की दूसरी बैठक है।
तब रणसिंह आर्य ने कहा, “खेती पर प्रारंभिक प्रयोग शुरू किए गए हैं। आर्थिक मुश्किलें भी नहीं हैं। उसकी हमें कोई चिंता भी नहीं है। बस, वैसे प्रतिबद्ध युवाओं की तलाश है, जो अपनी जिम्मेदारी को समझें।” फिलहाल केंद्र में खेती-किसानी का काम संदीप दंपती देख रहे हैं। इन्होंने करीब 40 खाद्य सामग्रियों को तैयार किया है। इसमें शहद, गुलाब शर्बत, च्यवनप्राश के साथ-साथ आंवले की कई चीजें हैं। दलहन भी है। चावल, दलिया और सरसों। यानी सूची लंबी है। हालांकि संदीप शर्मा पेशे से इंजीनियर हैं, पर सामाजिक जिम्मेदारी को उठाना उनके स्वभाव का हिस्सा है। शिक्षिका पत्नी का उन्हें पूरा सहयोग मिलता है। दोनों के प्रयास से यहां कुछ अभिनव प्रयोग हुए हैं।
स्थानीय निवासी और केंद्र से गहरा जुड़ाव रखने वाले प्रशांत महर्षि ने कहा कि व्यक्ति निर्माण केंद्र के रूप में इस जगह की स्थापना हुई थी। फिर जीवन विद्या, मध्यस्थ ज्ञान को लेकर रणसिंह आर्य आए। फिलहाल आगे की योजनाएं बन रही हैं। इस चर्चा के दौरान बात निकलकर आई कि ‘संजीवनी’ नामक दो साल का पाठ्यक्रम शुरू किया जाएगा, जो पूरी तरह अनुभव आधारित होगा। यह पाठ्यक्रम मोटे तौर पर 20 से 25 वर्ष के युवाओं के लिए होगा।
यहां स्वास्थ्य संबंधी दूसरी योजनाएं भी आकार ले रही हैं। इन कामों से सत्य प्रकाश भारत, डा. प्रकाश जैसे लोग गहरे जुड़े हैं। पिछले साल जो बातें मन में अस्पष्ट थी। अब वह आकार ले चुकी है। कुछ के तो नींव भी पड़ गए हैं। यकीनन, एक साल में इससे ज्यादा की उम्मीद ठीक नहीं है। अब हम आश्रम से दूर निकल आए हैं। पर उसकी दीवार पर मोटे अक्षरों से लिखी पंक्ति ‘साहिब मेरा मेहरबान’ को पढ़ने में कोई मुश्किल नहीं हो रही है। तो क्या यहां बापू की कुटिया बनने जी रही है?

Sunday, March 25, 2012

ये जो सरगम के रंग हैं



“छन्न से बोले, चमक के जब चनार बोले/ ख्वाब देखा है, आंख का खुमार बोले/ ख्वाब छलके, तो आंख से टपक के बोले/ झन्न छलके तो पूरा आबसार बोले...।।”
गीतकार गुलजार ने इस गीत को फिल्म ‘यहां’ के वास्ते लिखा था। फिल्म जुलाई 2005 में परदे पर आई थी। और तब इसे अच्छी लोकप्रियता भी मिली थी। दरअसल, फिल्म ‘यहां’ कश्मीर वादी के एक ऐसे परिवार की कहानी है, जो वहां के हालातों में बुरी तरह उलझा है। ऐसे में गुलजार का यह गीत उस सपने की तरह है, जिसे वादी की नई पीढ़ी खुली आंखों से देखती है या यूं कहें कि देखना चाहती है।

वह पुराने लोगों के उन खयालों को खारिज करती है जो वादी के हालात को अपनी तकदीर समझ बैठे हैं। फिल्म के एक संवाद में नई पीढ़ी कहती है, “कश्मीर का यही दुर्भाग्य है कि यहां लोगों ने सपने देखने बंद कर दिए हैं।” गुलजार फिल्म के उक्त गीत से उसी सपने को जगाने की कोशिश करते हैं, जिसे देखना वादी के लोगों ने बंद कर दिया है। वे इस गीत में आगे कहते हैं- “आंख खोले कि ख्वाब-ख्वाब खेलते रहो/ रोज कोई, एक चांद बेलते रहो/ चांद टूटे तो टुकड़े-टुकड़े बांट लेना/ गोल पहिया है रात-दिन धकेलते रहो...।।”

मतलब यह कि इन हालातों में गीतकार उस उम्मीद और जीवन-चक्र की बात करता है जहां एक समय कहा गया था, “बुरे दिन बीते रे भैया, खुशी के पल आयो रे...।” ऐसा ही है सरोकारी हिन्दी सिनेमाई गीत। इसे सामाजिक और राजनीतिक इतिहास से अलग करना मुश्किल भरा काम है। समय-समय पर हुए सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों से यह गहरे प्रभावित रहा है। इसके ढेरों उदाहरण हैं।
यहां कुछेक का जिक्र है। देश आजाद हुआ तो एकाध साल बाद ही फिल्म आई थी ‘जिगर’। इस फिल्म में एक गीत के बोल थे, “हम चले शहर की ओर, अब तो गांव का रहना छोड़ दिया...”। इसे गीतकार एहसान रिजनी ने लिखा था। दरअसल, तब देहाती दुनिया में रहने वालों के मन में आजाद भारत के शहर को देखने की ललक थी। गीत से यही बात जाहिर होती है। पर, 25 साल बाद हालात बदल गए। तब गीतकार कैफी आजमी ने लिखा- “कितने पेट भरेगा दफ्तर/ ध्यान भी आता है तुझको/ शहर छोड़ के आजा प्यारे/खेत बुलाता है तुझको...।।” इसे कैफी ने फिल्म ‘असलियत’(1974) के वास्ते लिखा था।

अब जब देश-दुनिया का अर्थशास्त्र बदल चुका है। बाजार के नए कायदे-कानून आ गए हैं। शहर चौगुणी गति से फैला है और रोजगार के कई नए दरवाजे खुले हैं, लेकिन स्थिति बदली नहीं है। इतने के बावजूद कैफी का लिखा उक्त गीत वर्तमान हालात पर उतना ही सटीक बैठता है, जितना कि तीन दशक पहले रहा होगा। आज लोग शहर आते तो हैं पर वे गांव लौटना जल्दी चाहते हैं। हालांकि, संभावनाओं की तलाश करते कुछ शहर में ही रम जाते हैं। कैफी उन्हें ही आवाज देते मालूम पड़ते हैं। अब देखिए, अन्ना आंदोलन चला तो फिल्म में रुचि रखने वाला वह कौन व्यक्ति होगा, जिसे 1989 में आई फिल्म ‘मैं आजाद हूं’ का यह गीत याद न आया होगा- “आओ...आ जाओ, जग पर छा... जाओ...।” दरअसल, सिनेमाई गीतों का यह वह रंग है, जिसकी संवेदनशील समाज पर गहरी छाप है।

Monday, February 20, 2012

राजग अब भी है बरकरार: शरद यादव


पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर अक्सर प्रसंग छेड़ने पर कहते थे कि शरद यादव जैसी राजनीतिक सूझ-बूझ के नेता कम हैं। इस संक्षिप्त बातचीत में वह हम पा सकते हैं। उत्तर प्रदेश के पिछले चुनाव में भाजपा ने जदयू के लिए करीब 36 सीटें छोड़ी थी। इस तरह एक गठबंधन के तहत 2007 का चुनाव लड़ा गया था। लेकिन इस बार जदयू के लिए भाजपा ने सीटें नहीं छोड़ी, फिर भी अपने स्वभाव के विपरीत भाजपा की आलोचना करने से बच रहे हैं। क्योंकि इस समय की राजनीति का एक तकाजा राजग गठबंधन को बनाए और मजबूत रखना है। उनके ऊपर दोहरी भूमिका है। वे जदयू के अध्यक्ष होने के साथ-साथ राजग के संयोजक भी हैं। इन दोनों भूमिकाओं का निर्वाह करते हुए वे अपनी बात कह रहे हैं। चुनाव की इस भागम-भाग में शरद यादव से संजीव कुमार ने यह बातचीत की है-

सवाल-उत्तर प्रदेश में जदयू का भाजपा से चुनावी गठबंधन क्यों नहीं हो पाया?
जवाब-जो बीत गया, सो बीत गया। जदयू का भाजपा से गठबंधन नहीं हो पाया तो इसके लिए हम भाजपा को धन्यवाद देना चाहते हैं। इससे पूरे उत्तर प्रदेश में जो भी जदयू के पुराने कार्यकर्ता थे हम उनके साथ चुनाव मैदान में हैं। अब फैसला जनता के हाथों में है।
सवाल- क्या अब भाजपा से गठबंधन चुनाव के बाद होगा या इसकी कोई संभावना नहीं है?
जवाब-अभी राजग (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) है। आगे भी रहेगा। इसलिए किसी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
सवाल-ऐसा कहा जा रहा है कि भाजपा-जदयू गठबंधन टूट के कगार पर है?
जवाब- नहीं-नहीं, इस बात में कोई दम नहीं है। राजनीति में ऐसा होता है। कहीं हम एक साथ लड़ते हैं, कहीं हम एक साथ नहीं लड़ते। हमने पहले पांच सूबों में भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा है। कर्नाटक, झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में हमने साथ मिलकर लड़ा है। अब भाजपा इस बार उत्तर प्रदेश में हमारे साथ नहीं लड़ना चाहती। वह बाबू सिंह कुशवाहा और बादशाह सिंह जैसे लोगों के साथ लड़ना चाहती है।
अब वे जॉर्ज फर्नांडिस, नीतीश कुमार और शरद यादव के साथ नहीं चलना चाहते तो हम क्या कर सकते हैं। पहले अटलजी और आडवाणी जी से बात होती थी तो हमारी बात बनती थी। इस बार सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और राजनाथ सिंह जैसे लोगों से बात हुई, लेकिन हमलोगों की बात नहीं बन सकी। मुझे ऐसा लगता है पार्टी में इनकी भी नहीं चली।

सवाल- आपने पिछले दिनों बस्ती में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए कहा कि यदि उत्तर प्रदेश में भाजपा सत्ता में आई तो कमल की तरह पूरा प्रदेश कीचड़ में समा जाएगा। ऐसा क्यों?
जवाब- यह तो हमने लोगों का मनोरंजन करने के लिए कहा था। वैसे भी इस चुनाव में हम भाजपा के विपक्षी दल हैं इसलिए हमने उसकी आलोचना की है।
सवाल- आप एनडीए के संयोजक भी हैं, ऐसे में भाजपा की आलोचना के क्या मायने है?
जवाब- जहां हमारे नीतिगत मतभेद हैं वहां हम भाजपा की आलोचना करते हैं। पूरे देश में तो हमारा गठबंधन नहीं है।
सवाल-आप हमेशा कहते रहे कि हम दागी उम्मीदवारों को टिकट नहीं देंगे लेकिन आपकी पार्टी ने भी दागी उम्मीदवारों को टिकट दिया है?
जवाब-कौन कहता है हमारे दल में दागी उम्मीदवार हैं। हमारे दल में कोई भी दागी उम्मीदवार नहीं हैं।
सवाल- उत्तर प्रदेश इलेक्शन वॉच की रिपोर्ट के अनुसार आपके दल में 20 प्रतिशत उम्मीदवार दागी हैं।
जवाब- यह सब झूठी रिपोर्ट है। इसका कोई आधार नहीं है। हमारे दल में एक भी उम्मीदवार दागी नहीं है।
सवाल- लेकिन यह रिपोर्ट तो उम्मीदवारों द्वारा चुनाव आयोग को दिए गए हलफनामों के आधार पर तैयार किया गया है?
जवाब-जिन उम्मीदवारों पर राजनीतिक मामले चल रहे हैं उन्हें दागी नहीं कहा जा सकता।
सवाल- उत्तर प्रदेश में जदयू कितनी सीटों पर जीत दर्ज कर सकती है?
जवाब-चुनाव हम जीत के लिए नहीं, बल्कि सिद्धांत फैलाने और बहस को आगे जारी रखने के लिए लड़ते हैं। हमारे लिए यह व्यापार नहीं, मिशन है। हम एक भी सीट जीते या न जीते इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
सवाल- चुनाव के बाद अगर भाजपा सरकार बनाने की स्थिति में होगी तो क्या जदयू उसका समर्थन करेगी?
जवाब- वह तो चुनाव के बाद पार्टी तय करेगी। पार्टी के जितने विधायक जीतकर आएंगे, उसका नेता और पार्टी हाईकमान तय करेगी। अकेले शरद यादव तय नहीं करेंगे। चुनाव परिणाम के बाद पार्टी की राष्ट्रीय समिति की बैठक होगी और उसमें इसका निर्णय होगा।

Thursday, February 9, 2012

खतरे में खजुराहो


कम से कम हजार साल से खजुराहो की पहचान उसके मंदिरों से है। वह पहचान खतरे में है, क्योंकि मध्य प्रदेश शासन जिस कोशिश में लगा है अगर वह सफल हो गया तो सबसे पहले खजुराहो के मंदिर नष्ट होने लगेंगे। मंदिर हैं तो खजुराहो है। मंदिरों के वगैर खजुराहो की कल्पना ही बड़ी भयावह होगी। प्रकृति ने खजुराहो को धरती से थोड़ा ऊपर बनाया है। शायद इसीलिए कि उसपर जो मंदिर खड़े होंगे वे अपनी आध्यात्मिक आभा बिखेरेंगे। उन्हीं मंदिरों के कारण खजुराहो का स्थान विश्व धरोहर में बना हुआ है।

वैसे तो मध्य प्रदेश में तीन स्थान हैं जिन्हें विश्व धरोहर में माना जाता है। दूसरे जो दो हैं उनमें एक सांची के स्तूप हैं। दूसरा भीम बैठका है, लेकिन खजुराहो में दुनिया से जितने लोग आते हैं उतने शायद दूसरे स्थानों पर नहीं जाते। खजुराहों के मंदिरों में दुनिया का आकर्षण उसकी कला के कारण है। पर्यटक अपनी इन रूचियों के कारण वहां पहुंचता है। उन पर्यटकों की सुविधा के लिए वहां हवाई पट्टी है और होटलों की शृंखला है। इस चकाचौंध से दूर खजुराहो का आध्यात्मिक महत्व अक्षुण बना हुआ है। इसलिए भी कि वहां चौसठ योगिनियों का वह मंदिर है जहां हर योगी एक बार पहुंचना ही चाहता है।

इसे पुराण में खोजने जाने की जरूरत नहीं है। इस समय के नामी योगी स्वामी राम की जीवनी के पन्ने-दर-पन्ने खजुराहो के उस मंदिर की अलौकिक गाथा के गवाह है। स्वामी राम के एक उत्तराधिकारी राजमणि तिगुनेत हैं। वे अमेरिका के हिमालय इंस्टीट्यूट को संभालते हैं। उन्होंने स्वामी राम की जीवनी लिखी है। स्वामी राम की कई जीवनियों में से सबसे अधिक प्रामाणिक उनकी लिखी ही मानी जाती है। वह है - ‘एैट दी इलेवन्थ ऑवर’। इस तरह खजुराहो जितना ही आधुनिक है उतना ही उसमें भारत की परंपरा का प्रवाह है। उसे संवारने के लिए हर साल खजुराहो महोत्सव होता है। जो इन दिनों चल रहा है।
जरा सोचिए, मध्य प्रदेश शासन इन बातों से बेपरवाह होकर वहां दो-दो थर्मल पॉवर प्रोजेक्ट ले आने की तैयारी कर रहा है। किसानों से जमीन ली जा रही है। किसान उसका विरोध कर रहे हैं। उन्हें जानने का हक है जिसकी प्रशासन परवाह नहीं कर रहा है और उन्हें मजबूर किया जा रहा है कि वे अपनी जमीन शासन को सौंप दें। अगर थर्मल पॉवर प्रोजेक्ट आ गया तो खजुराहो का नष्ट होना कुछ सालों की बात ही होगी।

ऐसी बात नहीं है कि इस खतरे से मध्य प्रदेश शासन अवगत न हो। खजुराहो के एक सजग नागरिक नमित वर्मा ने गांठ बांध ली है कि लड़ेंगे और अपनी धरोहर बचाएंगे। वे दिल्ली के लुटियन और भोपाल के श्यामला हिल्स से थोड़ा ऊंचे उठकर अपनी चिट्ठियों से आगाह कर रहे हैं। उसका असर भी हुआ है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने उनकी चिंता को उचित ठहराया है। सबसे पहले पिछले साल मई में उन्होंने एक लंबा पत्र लिखा। जो हर उस खास व्यक्ति को भेजा गया जिसका थोड़ा-सा भी हाथ अनुचित काम को रोकने में लग सकता है। कहने की जरूरत नहीं है कि इस लंबी सूची में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री सहित मध्य प्रदेश शासन के सभी महत्वपूर्ण व्यक्ति थे।

भारत सरकार के वन और पर्यावरण मंत्रालय के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने उनके पत्र पर माना कि खजुराहो से थोड़ी दूर पर ही एनटीपीसी का जो सुपर थर्मल पॉवर प्रोजेक्ट प्रस्तावित है वह स्थापित मानकों पर आधारित नहीं है। उसके लिए पर्यावरण संबंधी जिस तरह का अध्ययन किया जाना चाहिए वह नहीं हुआ है। अगर थर्मल पॉवर प्रोजेक्ट लगता है तो एक तरफ खजुराहो की विश्व धरोहर के नष्ट होने का जहां खतरा पैदा हो जाएगा वहीं पन्ना के टाइगर संरक्षण वाले वनों पर भी संकट मंडराएगा। उसी पत्र में यह सूचना भी है कि मंत्रालय ने इस प्रोजेक्ट को मंजूरी नहीं दी है, लेकिन यह माना है कि प्रोजेक्ट को लाने से पहले इस तरह के ऐहतियाती उपाय जरूरी हैं जिससे खजुराहो और पन्ना के जंगलों में संरक्षित टाइगर को कोई नुकसान न हो।

यह भी अजीब-सी बात है कि जिस पॉवर प्रोजेक्ट को वहां लाने के प्रयास हो रहे हैं उसके लिए कोयला बहुत दूर से लाया जाएगा। यह एक ऐसा तथ्य है जो संदेह पैदा करता है कि दिखाया जो जा रहा है उससे अधिक बड़ी बात छिपाई जा रही है। इस बारे में नमित वर्मा ने अपनी दूसरी चिट्ठियों में कुछ सवाल उठाएं हैं। जिनका संबंध खनन के लिए लाइसेंस जारी करने से है। आरोप है कि थर्मल पॉवर प्रोजेक्ट कांग्रेस के एक नेता की सीमेंट फैक्टरी के लिए लाया जा रह है। यह जांच का विषय है कि उसमें मध्य प्रदेश भाजपा के किन नेताओं की हिस्सेदारी है। क्या मध्य प्रदेश सरकार वहां खनन माफिया की गिरफ्त में आ गई है और उससे ध्यान हटाने के लिए पॉवर प्रोजेक्ट की आड़ ले रही है। इस बात के संकेत नहीं है कि राज्य सरकार अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहती है। राज्य सरकार के इरादे पर ही पूरे क्षेत्र में सवाल खड़ा हो गया है। आखिर वह इरादा क्या है। सरकार की चुप्पी संदेह को बढ़ा रही है। संभव है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की विकास यात्रा के दौरान उस क्षेत्र में उन्हें लोगों को जवाब देना पड़े।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय हैं)

Monday, February 6, 2012

यूपी में उमा फैक्टर


उत्तर प्रदेश का जो मिजाज पिछले 20 सालों में बना है, उसमें अब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस कहीं ठहर नहीं रही है। हालांकि, हवा जरूर बना रही है, पर तल के नीचे हाल बुरा है। इन राष्ट्रीय पार्टियों की मुश्किलें लगातार बढ़ रही हैं। यह साफ दिख रहा है कि अबतक समाजवादी पार्टी (सपा) सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का विकल्प नहीं बन पाई है। हालांकि, प्रदेश की जनता बसपा की वापसी नहीं चाहती, लेकिन वह सपा को भी गद्दी सौंपना नहीं चाहती। वह सपा की करतुतों को भूली नहीं है। सपा की खुली लूट और जातीय आतंक का भय अब भी उसके जेहन में है। वहीं मायावती के नेतृत्व में शासन संगठित भ्रष्टाचार का जरिया बना। इससे लोग अचंभित हैं। यहां कोई तीसरा विकल्प निकलता तो यकीनन, जनता उसकी तरफ जाती। चुनाव त्रिकोणी होता। पर ऐसा नहीं है। संगठन के मामले में तो कांग्रेस इस समय भाजपा से भी पीछे है। बिहार विधानसभा चुनाव में हार के बाद कांग्रेस लगातार पिछड़ रही है, जबकि उसके पहले कांग्रेस की हवा बन रही थी।

उत्तर प्रदेश में तीसरे विकल्प के रूप में भाजपा एक समय सामने आती दिख रही थी। सूबे की राजनीति को समझने वाले बताते हैं कि यदि प्रदेश के भाजपाई नेताओं ने उमा भारती का नेतृत्व स्वीकारा होता तो पार्टी का काया-पलट हो सकता था, क्योंकि उमा भारती के आने मात्र की सूचना से पूरे प्रदेश के कार्यकर्ताओं और समर्थकों में जो गहरी निराशा थी, वह खत्म हो गई। पार्टी में नई जान आ गई थी। प्रदेश में उमा भारती की जो सभाएं हुईं, उससे स्पष्ट हुआ कि जो जमातें पार्टी से छिटक चुकी थीं, वह भी वापस आने लगी है। अगर भाजापा की प्रदेश ईकाई के नेताओं में अंतर्कलह न होता और उनमें स्वयं को सबसे ऊपर देखने का नजरिया न रहता तो पार्टी इस विधानसभा चुनाव में अब से बेहतर स्थिति में होती। क्योंकि अन्ना आंदोलन से प्रदेश में जो माहौल बना है, उसमें आम आदमी की नजरों में कांग्रेस विकल्प बनकर नहीं आ पा रही थी। इस माहौल का फायदा भाजपा उमा भारती के नेतृत्व में उठा सकती थी।

यह भी देखने में आया कि उत्तर प्रदेश में प्रतिद्वंद्वी पार्टियों ने भी उमा भारती के आने पर ही भाजपा को नोटिस में लेना शुरू किया। राहुल गांधी स्वयं उनके पीछे पड़े। इससे साफ है कि उमा की वापसी से उन्हें अपनी जमीन खिसकती मालूम हुई। सूबे की राजनीति में उमा भारती के आने का जो असर महसूस किया गया, वह अनायास नहीं है, बल्कि वजह गहरी है। भाजपा के जो नेता आज प्रदेश में स्थापित हैं, उनसे काफी पहले से उमा भारती का इस प्रदेश से खास परिचय है। वह एक जानी-पहचानी नेता रह चुकी हैं। 1986 में जब अयोध्या आंदोलन की नींव पड़ी तो उमा भारती उसी समय से प्रदेश में पहचानी जाने लगी थीं।

हालांकि, विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी का यह निर्णय कि उमा भारती चुनाव की कमान संभालेंगी और संजय जोशी संगठन का काम देखेंगे, बड़ा ही साहसपूर्ण था । इसका प्रदेश में गहरा असर हुआ। पर प्रदेश के नेताओं ने उन्हें प्रभावशून्य करने की पूरी कोशिश की। इस खींच-तान में पार्टी को जो फायदा हो सकता था, वह होता नहीं दिख रहा है। कुछ लोगों की राय यह भी है कि उमा भारती के आने से कल्याण सिंह की कमी पूरी हो सकती थी। संभवत: वह उनसे ज्यादा प्रभावशाली भी सकती थीं, क्योंकि वह महिलाओं में भी खासी लोकप्रिय हैं। पर अभी स्थिति दूसरी है। विशेषज्ञों की राय में अनुकूल परिस्थितियों में भाजपा ने अवसर गंवाया है। यह विडंबना ही है कि पार्टी अबतक मुख्यमंत्री का उम्मीदवार तय नहीं कर पाई है। ऐसे में साफ है कि उमा भारती के आने का जो फायदा पार्टी उठा सकती थी उसमें वह पिछड़ गई।

Sunday, February 5, 2012

सोनिया गांधी के खिलाफ करुंगा जांच की मांग: डॉ.स्वामी


सवाल- 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सरकार की तरफ से केंद्रीय संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि फैसला संप्रग सरकार के खिलाफ नहीं है। इसपर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?

जवाब-
अब मैं कपिल सिब्बल की हर झूठी बातों का जवाब देने लग जाउं तो दूसरे कामों के लिए तो वक्त ही नहीं रहेगा। आप देख लीजिए, उन्होंने कहा था कि लाइसेंस के आवंटन में सरकार को कोई राजस्व घाटा नहीं हुआ, पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इससे देश को काफी बड़ा नुकसान हुआ है। कोर्ट ने सभी 122 लाइसेंसों को रद्द तक कर दिया है।
अब कपिल सिब्बल को तो कम से कम मांफी मांगनी चाहिए थी। मैं तो समझता हूं कि नैतिक आधार पर इस्तीफा देना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट से इतना जोरदार थप्पड़ अबतक किसी को नहीं पड़ा है। मीडिया को उनसे नुकसान के बारे में सीधा सवाल करना चाहिए था, पर किसी ने डट कर नहीं पूछा। उनसे कहना चाहिए था कि जवाब दो अन्यथा इस्तीफा दो।

सवाल- 2-जी मामले के मुख्य अभियुक्त ए.राजा कहते हैं कि जो कुछ भी उन्होंने किया वह प्रधानमंत्री की जानकारी में था। इसके बावजूद आपके निशाने पर डा.मनमोहन सिंह नहीं हैं।
जवाब- हां, वे नहीं हैं, क्योंकि सीधे तौर पर क्या इससे जुड़ा कोई अधिकार उनके पास था। यह समझना भी जरूरी है। यह सच है कि उनके पास एक सार्वजनिक नैतिक अधिकार है, पर हमसब पहले दिन से ही जानते हैं कि डॉ.मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के रूप में सोनिया गांधी ने क्यों चुना है।

सवाल- आपने एक बार मांग की थी कि 2-जी स्पेक्ट्रम की फिर से नीलामी हो और उसमें कपिल सिब्बल की कोई भूमिका न रहे। अब आपकी नीलामी की मांग पर तो सुप्रीम कोर्ट ने भी मुहर लगा दी है। टेलीकॉम नियामक प्राधिकरण (ट्राई) को इस प्रक्रिया पर सुझाव देने को कहा है। क्या आप इससे संतुष्ट हैं?
जवाब- हां, यह बिल्कुल सही फैसला है। यहां ट्राई की ही जिम्मेदारी बनती है। दरअसल हमारे यहां ऐसी जितनी भी संस्थाएं हैं, जैसे- ट्राई, सीएजी आदि सभी को इन लोगों ने अपना पिछलग्गू बना दिया है। किसी में जवाब-तलब करने की हिम्मत ही नहीं बची है। हालांकि, धीरे-धीरे स्थिति बदल रही है। अब जब सुप्रीम कोर्ट ने ही कहा है तो ट्राई को बल मिलेगा।

सवाल- इसमें कपिल सिब्बल की कितनी भूमिका होगी?
जवाब- उनकी कोई भूमिका नहीं होगी। देशभर की निगाहें उधर होंगी। सिब्बल स्वयं पीछे हट जाएंगे। साथ ही उनके बेटे की भी इसमें कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए, जो आजकल टेलीकॉम कंपनी के वकील हैं।

सवाल- क्या आपकी याचिकाओं पर आए इस फैसले से आपका मूल उद्देश्य पूरा हो गया है?
जवाब- लाइसेंस को रद्द करने के बाबत जो याचिका डाली थी, उसका उद्देश्य तो अब पूरा हो गया है। अब एक दूसरी बात है। मैंने कहा था कि पी.चिदंबरम के खिलाफ सीबीआई जांच हो, इसका भी फैसला देर-सबेर कोर्ट में ही होगा।

सवाल-कानूनी प्रक्रिया से भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने की आपने एक पद्धति विकसित की है। क्या आप एक उदाहरण प्रस्तुत कर यह बताना चाहते हैं कि अभी आंदोलन की जरूरत नहीं है?
जवाब- जी बिल्कुल। जब हमें आजादी नहीं मिली थी। यहां अंग्रेज थे और तानाशाही थी, उस समय आंदोलन की बात समझ में आती है। आज वैसी परिस्थिति नहीं है। मैं मानता हूं कि आज के कानून में बेशक थोड़ा विलंभ हो जाए, पर हम उसके माध्यम से लड़ाई लड़ सकते हैं।

सवाल- भ्रष्टाचार ने निपटने के लिए तो आपने भी एक संगठन बनाया है
जवाब-
हां। ‘एक्शन एगेंस्ट करप्सन’ बनाया है। इसमें 15 वरिष्ठ लोग हैं। वे सभी अलग-अलग क्षेत्र से हैं। राजनीतिक क्षेत्र से केएन.गोविंदाचार्य, बुद्धिजीवियों में गुरुमूर्ति, पत्रकार गोपी कृष्णन, संयुक्त राष्ट्र से कल्याण रमण आदि लोगों को शामिल किया है
। इस संगठन का पहला लक्ष्य यही होगा कि विदेशी बैंकों में जो भारत का कालाधन जमा है उसे वर्तमान कानूनी प्रक्रिया में वापस कैसे ला सकते हैं, इसके रास्ते तलाशना। रामदेव भी इसी राय के हैं, इसलिए हमलोगों ने मिलने का फैसला किया है।

सवाल-आपने 2011 में प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा था जिसमें कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए थे। साथ ही उनके खिलाफ जांच की मांग की थी। आपकी भविष्य की योजनाओं में फिलहाल यह मुद्दा कहां है ?
जवाब- अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया है कि भ्रष्टाचार की शिकायत मिलने पर जांच का फैसला करने में चार महीने से अधिक का समय नहीं लगाया जा सकता। साथ ही यह भी कहा गया है कि जांच के लिए अनुमति लेने की कोई जरूरत नहीं है।
मैं दो-तीन दिनों में सीबीआई को ऐसे दस्तावेज भेजने वाला हूं, जिसके आधार पर मांग करुंगा कि वह सोनिया गांधी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करे।


सवाल- आप जनता पार्टी के अध्यक्ष हैं। आपकी आगे की योजना क्या है?
जवाब- पुराना जनसंघी हूं। जनता पार्टी में जनसंघ का विलय हो, मैं इसके पक्ष में कभी नहीं था। खैर, ये सब चलता रहा। बाद में जब शंकराचार्य की गिरफ्तारी हुई तो मैं आगे आया और उन्हें छुड़वाने में भूमिका निभाई। इसके बाद जो घटनाक्रम रहा, धीरे-धीरे उसकी वजह से विश्व हिन्दू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से मेरी निकटता बढ़ी। इसी दौरान रामसेतू का भी मामला उठा तो संबंध बनते गए। आज वे सभी चाहते हैं कि हिन्दुओं को यदि इकट्ठा करना है तो भाजपा के साथ मिलकर मुझे काम करना चाहिए। बातचीत भी हुई है कि मैं एनडीए का सदस्य बनूं। अब देखते हैं, आगे क्या होता है।

(डॉ.स्वामी से मेरी यह बातचीत 3 फरवरी,2012 को हुई है। पूरी बातचीत प्रथम प्रवक्ता के आगामी अंक में पढ़ सकते हैं)

Wednesday, January 25, 2012

मैदान के सिपाही, आंगन में उलझन



बिल्कुल आखिरी समय में भाजपा नेतृत्व ने घोषणा की। कहा है कि उमा भारती उत्तर प्रदेश के ‘चरखारी’ विधानसभा सीट से चुनाव लड़ेंगी। हालांकि, यह आधी घोषणा है। पूरी घोषणा के लिए अब भी सही समय का इंतजार हो रहा है। उमा भारती के संबंध में लिया जाने वाला हर फैसला पार्टी अध्यक्ष नितिन गडगरी के लिए चुनौती-पूर्ण रहा है। वह उमा भारती की पार्टी में वापसी की घोषणा का हो या कोई और। नितिन गडकरी को हर जगह अग्नि-परीक्षा देनी पड़ी है। इसलिए वे फूंक-फूंककर कदम बढ़ाना चाहते हैं, सो फिलहाल आधी घोषणा ही की है। इसकी वजह कोई बाहरी नहीं है, बल्कि उमा भारती की लोकप्रियता और पार्टी के अंदरखाने की राजनीति है।

दूसरी तरफ दिग्विजय सिंह हैं। वे भी मध्य प्रदेश से हैं। पिछले दो सालों से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को स्थापित करने में जुटे हैं। कहा जाता है कि वे राजीव गांधी के करीबी लोगों में थे। एक साक्षात्कार में वे स्वयं कह चुके हैं कि राजीव गांधी का मुझे बहुत स्नेह मिला। तो क्या दिग्गी राजा इन दिनों उस स्नेह का कर्ज चुकाने में लगे हैं! खैर, जो भी हो, यह तो साफ-साफ नजर आता है कि वे अपनी ही केंद्र सरकार को कटघरे में लाकर मुसलमानों की तरफदारी का सिलसिला चलाए हुए हैं। वह भी पिछले दो सालों से। दिग्गी राजा यह सब हवा में नहीं कर रहे हैं। कांग्रेस की राजनीति को जो लोग जानते-समझने हैं, उनका कहना है कि दिग्विजय सिंह विधानसभा चुनाव के मद्देनजर फार्मूले की राजनीति कर रहे हैं, ताकि पार्टी को जीत मिले और सूबे में वह अपना पांव जमा सके। फिलहाल ऐसी राजनीति उनकी मजबूरी है, क्योंकि इस बात को वे अच्छी तरह जानते-समझते हैं कि उत्तर प्रदेश में पार्टी संगठन के स्तर पर दूसरी पार्टियों के मुकाबले काफी कमजोर है। वहीं पार्टी का खोया जनाधार भी तत्काल वापस लाना एक बड़ी चुनौती है, इसलिए सूबे में वे फार्मूले की राजनीति में डूबे हैं। मंजिल तक पहुंचने का यही उनके लिए एक मात्र सरल रास्ता है, जिससे चुनाव में पार पाने के साथ-साथ वे युवराज को सूबे में स्थापित कर सकते हैं। पर, चुनाव देख मौसमी पक्षी उड़ने लगे हैं। सूबे में मुसलमानों की दो पार्टियां बन गई हैं। पहली- पीस पार्टी है, जबकि दूसरी का नाम ‘कौमी पार्टी’ है। ये मौसमी पक्षियां उनके लिए समस्या ही हैं, क्योंकि इनकी गतिविधियां कहीं दिग्गी राजा व राहुल की मेहनत पर पानी न फेर दे। वैसे, कांग्रेस की गतिविधि को देखकर राजनीतिक विशेषज्ञ कहते हैं कि अब राजनीति संगठन बनाकर नहीं हो रही है, बल्कि पार्टियां फार्मूले पर आधारित राजनीति कर रही हैं, इसलिए पार्टी कार्यकर्ता नाम की चीज भी खत्म हो रही है।

बहरहाल, 1993 तक दिग्विजय सिंह मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे। इसी साल कांग्रेस को वहां के विधानसभा चुनाव में जीत मिली तो वे सूबे के मुख्यमंत्री बनाए गए। तब अजित जोगी, मोतीलाल वोरा, विद्याचरण शुक्ल, कमलनाथ जैसे नेता उनके प्रतिद्वंद्वी थे। लेकिन उस वक्त अर्जुन सिंह ने दिग्गी राजा का ही नाम आगे बढ़ाया था। 1998 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने पार्टी नेतृत्व को इस शर्त पर पुन: चुनाव जीतकर आने का आश्वासन दिया था कि उन्हें टिकट बंटवारे की पूरी छूट दी जाए। उन्हें यह छूट मिली और पार्टी एक बार फिर सत्ता में आई। कहा जाता है कि तब टिकट बंटवारे के काम में प्रदेश की नौकरशाही ने उनकी खूब मदद की थी। पर, 2000-2003 में उन्हें दो तरफ से चुनौतियां मिलने लगी थीं। एक यह कि उमा भारती मध्य प्रदेश में सक्रिय हो गई थीं। राम मंदिर के साथ-साथ मंडल आंदोलन का जो जन-उभार था, वह पूरी तरह उमा भारती के पक्ष में था। दूसरी बात कांग्रेस पार्टी के अंदर भी विरोध के स्वर उठने लगे थे। अंतत: 2003 के चुनाव में दिग्विजय की राजनीतिक पराजय हुई। इस चुनावी हार के बाद वे प्रदेश से विस्थापित भी हो गए। सूबे में उनकी सक्रियता कम से कमतर होती चली गई। अब करीब 10 साल बाद वे उत्तर प्रदेश में पार्टी के सर्वेसर्वा हैं। उम्मीदवारों के चयन में उनकी खूब चली है। सो बुंदेलखंड में खुले तौर पर कहा जा रहा है कि वे अपने रिश्तेदारों को टिकट दिला रहे हैं। इससे सूबे के नेता खफा हैं। दिग्गी राजा का तैयार किया गया समीकरण गड़बड़ हो रहा है। अब इस समस्या से पार पाना उनके लिए चुनौती है।

वहीं उमा भारती की स्थिति भिन्न है। पार्टी की कमान इनके हाथों में नहीं है। वह छह साल बाद पार्टी में आई हैं। हालांकि, इससे पार्टी को एक जननेता मिला है। पार्टी को संगठित करने में भी मदद मिली है। कार्यकर्ताओं में उत्साह लौटा है। वहीं संगठन जो बेजान था, उसे इसी बहाने संजय जोशी ने मजबूत करने की कोशिश की है। पर, सबकुछ उमा भारती के अनुकूल नहीं है। सूबे के दौरे में जब उन्हें जन समर्थन मिलना शुरू हुआ तो प्रदेश के नेताओं ने इसे अपने लिए ठीक संकेत नहीं माना। भरसक कोशिश की गई कि उमा भारती सूबे में कोई असर न डाल सकें। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इन मुश्किलों से उमा भारती कैसे पार पाती हैं।

गौरतलब है कि 1991 में जब भाजपा अपने बल पर सत्ता में आई थी तो उसे 228 सीटें मिली थीं। हालांकि, तब विधानसभा में 425 सीटें थीं। हालांकि, उस चुनाव को प्रभावित करने वाले कई कारक थे। पार्टी को अयोध्या आंदोलन का फायदा मिला था, जबकि पार्टी के नेता और विरोधी दलों को इस बात का अंदाजा नहीं था। उस समय पार्टी का जो वर्ग चरित्र था, उसमें कल्याण सिंह का नेतृत्व पार्टी के लिए अनुकूल था। सवर्ण पार्टी के समर्थक थे, जबकि पिछड़े वर्ग से पार्टी का नेता था। एक बार फिर यह कमी पूरी हो सकती है। बशर्ते पार्टी का सवर्ण नेतृत्व उमा भारती को अपना स्वाभाविक नेता माने, पर इससे उलटा हो रहा है। प्रदेश के ज्यादातर नेता उन्हें निष्प्रभावी बनाने में लगे हैं। भाजपा को जानने वाले बताते हैं कि सूबे में पार्टी को तभी सफलता मिल सकती है जब सहयोगी संगठन और पार्टी पूरी ताकत से इसमें लगेगी। अब देखना यह है कि एक-दूसरे के आमने-सामने कई चुनावों में आ चुके दिग्गी राजा और उमा भारती यहां अपनी ही मुश्किलों से कैसे पार पाते हैं। मैदान के सिपाही तो फिलहाल आंगन की उलझनों से ही मुक्त नहीं हो पा रहे हैं, जबकि रणभेरी बज चुकी है।