Tuesday, August 3, 2010

चल पड़ी पीपली लाइव' की हवा


फिल्म 'पीपली लाइव' तो 13 अगस्त को बड़े पर्दे नजर आएगी। पर इसका असर दिखने लगा है। इसे दुनियाभर में पहचान मिल रही है। अब देखिए, दक्षिण अफ्रीका में आयोजित 31वें डरबन अंतरराष्ट्रीय फिल्म उत्सव में इसे सर्वश्रेष्ठ पहले फीचर फिल्म का खिताब दिया गया। फिल्म का निर्देशन अनुशा रिज्वी ने किया है। उनके निर्देशन में बनी यह पहली फिल्म है।

दरअसल, यह फिल्म देश में हो रही किसानों की आत्महत्या और उसपर होने वाली मीडियावाजी व राजनीति पर तीखा व्यंग्य है। यह पुरस्कार मिलने के बाद हर कोई बहुत उत्साहित है। निर्णायक मंडल ने फिल्म की काफी तारीफ की है। उनका कहना है कि 'पीपली लाइव' एक महत्वाकांक्षी और वास्तविक फिल्म है। यह गंभीर राजनीतिक मुद्दों को विनोदपूर्ण तरीके से उठाती है।

फिल्म की कहानी दो गरीब किसानों के इर्द-गिर्द घूमती है। वे दोनों पीपली नामक गांव में रहते हैं और कर्ज में डूबे हूए हैं।
इससे उनकी जमीन भी हाथ से निकलने वाली होती है, तभी एक नेता उन्हें सरकारी सहायता लेने के वास्ते आत्महत्या का सुझाव देता है। खबर तत्काल फैल जाती है। उक्त किसान मीडिया के लिए भी खास हो जाता है। यकीनन, फिल्म आपको बज्र देहाती दुनिया की सैर कराएगा।

सरकार से बड़ा काम तो पंत ने किया


कैलाशचंद्र पंत को देखकर मालूम होता है कि द्विवेदी युगीन परंपरा अभी जीवित है। जहां लोग अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव से चिंतित भर हैं, वहीं पंत ने राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार का जिम्मा उठाया। उन्होंने कई प्रयोग किए और नई राह का निर्माण भी किया है। वे अब जीवन के 75वें साल में प्रवेश कर गए हैं। पर, उम्र उनपर हावी नहीं। कुछ नया करने की ललक उनमें बच्चों जैसी है। सामाजिक गतिविधियों में उनकी सक्रियता नौजवानों के लिए एक नजीर है। पंत की यही विशिष्टता उन्हें अपने समकालीनों से अलग करती है।

वे पहले व्याख्याता थे। फिर प्राचार्य हुए। बाद में उदयपुर जाकर प्रकाशन का भी काम देखा। लेकिन, उनका मन रमा पत्रकारिता और समाजिक गतिविधियों में आकर। गत चार दशकों से पंत हिन्दी की दुनिया से जुड़े हुए हैं। पहले दैनिक अखबारों से जुड़े, फिर साप्ताहिक और मासिक पत्रिका का जिम्मा संभाला। अब द्वैमासिक पत्रिका ‘अक्षर’ का संपादन कर रहे हैं। इस पत्रकारीय सफर के साथ राष्ट्रभाषा हिन्दी के लिए जो काम उन्होंने किया, वह एक अनूठी लगन व परिश्रम का ही परिणाम है। भोपाल का हिन्दी भवन राष्ट्रभाषा प्रेम को लेकर उनकी निष्ठा व संगठन कौशल का प्रतीक माना जा सकता है।

वैसे तो यह रिवाज चल पड़ा है कि अब इन कामों के लिए लोग सरकार का मुंह ताकते हैं, पर पंत ने अलग रास्ता चुना। उन्होंने लोगों को जोड़ा और चुनौती मानकर कई बड़े काम किए। भोपाल में हिन्दी भवन का विस्तार किया, इसी शहर में किसान भवन का निर्माण कराया इस सूची में कई दूसरे कार्य भी शामिल हैं। वे लगातार राष्ट्रभाषा और संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय रहे, लेकिन कभी सरकारी सहयोग मांगना जरूरी नहीं समझा।

वे कहते हैं, “हम अपनी भाषा और संस्कृति से जुड़कर ही अपने संस्कारों से जुड़े रह सकते हैं। हम अंग्रेजियत और अंग्रेजों को कोसते तो हैं, पर उनका अनुकरण भी करते हैं। यह समय आत्महीनता से मुक्त होने का है।” मालवा के महू में जन्मे कैलाशचंद्र पंत को चाहने वाले आज देश के सुदूर इलाकों में फैले हुए हैं। शायद यही वजह है कि जब वे 75 वर्ष के हुए तो उनके अमृत महोत्सव वर्ष मनाने की चर्चा चल पड़ी। गत 26 अप्रैल को महू में उनके 75वें जन्मदिन पर इसकी शुरुआत हो चुकी है। इस श्रृंखला का दूसरा समारोह गत 24 जुलाई को गांधी शांति प्रतिष्ठान में मनाया गया।

Monday, August 2, 2010

अब भी है उस बैठक का इंतजार


लुप्त होती संभावनाओं के इस दौर में उम्मीद बाकी है। ऐसे कई दरवाजे अभी खुले हैं, जिस रास्ते चलकर गांधी के भारत का निर्माण हो सकता है। जल, जंगल और जमीन पर सामुदायिक हकदारी की बात उठाने वाले जब पिछले दिनों दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में इकट्ठा हुए तो एकबारगी ऐसा महसूस हुआ। यहां वे लोग एक निर्णयात्मक संवाद के लिए आए थे। उनका मकसद नए कंपनी युग से निपटने के लिए एक माकूल औजार की खौज करना था, ताकि प्राकृतिक संपदाओं पर सामुदायिक हकदारी बरकरार रखी जा सके। यह वही स्थान है जहां से सरकारी नीति को चुनौती मिलती रहती है।
गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्ष राधा भट्ट के बुलावे पर देशभर से बैठक में आए लोगों ने माना कि जल, जंगल और जमीन से जुड़ा सवाल गहरा है। क्योंकि, जमीन के नीचे के संसाधनों के हक को लेकर प्रश्न हो रहे हैं। पानी व खनिज पदार्थों से जुड़े सवाल उठ रहे है। लोगों ने कहा कि पहले वन सामुदायिक संपत्ति थी। इसके सारे हक-हकूक सामुदायिक ही थे। अब यह सरकारी हकदारी में पहुंच गए हैं। अमीर तबका जल, जंगल औऱ जमीन के सारे सुख भोग रहा है। हर तरफ निजीकरण का दौर चल पड़ा है। ऐसी स्थिति में जनता बेचैन है। वह नेतृत्व का इंतजार कर रही है। इन्हीं बातों की ओट में गत 17 और 18 जुलाई को विचार मंथन होता रहा।
राधा भट्ट चाहती हैं लड़ाई मिलकर लड़ी जाय। उनकी कही बातों से यह स्पष्ट हुआ। बैठक में देशभर से आए अन्य लोगों ने भी अलग-अलग तरीके से यही राय रखी। गुजरात से आए लोक संघर्ष समिति के चुन्नी भाई वैद्य ने तो यहां तक कहा कि हमारी बैठक में ज्यादा रुचि नहीं है। कोई काम की बात हो तब बात बड़े। उन्होंने कहा, “ लोग तैयार हैं। वे नेतृत्व का इंतजार कर रहे हैं। देखना यह है कि हमारी तैयारी कितनी है। वक्त जाया करना ठीक नहीं है। हमें निर्णय करना चाहिए।
बातचीत के दौरान लोगों ने कहा कि जमीन समाज की है। भूमि सुधार दरअसल भूमि समस्या को जिंदा रखने का तरीका है। अत: खेत का ग्रामीणीकरण व सामाजिकरण होना चाहिए।
यह बैठक की सीमा ही थी कि तमाम समस्याओं के सामने आने व लोगों की ललकार के बावजूद आगे की लड़ाई का कोई कारगर तरीका नहीं खोज जा सका। निश्चय ही ऐसी कोशिशों के सफल न होने से सरकार का मन बढ़ता रहा है। ताज्जुब की बात है एक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन की जरूरत तो देश भर में लोग महसूस कर रहे हैं। जनता उन लोगों की तरफ देख रही है, जिनसे उन्हें उम्मीद है। पर यह तय नहीं हो पा रहा है कि बिखरी शक्तियों को कैसे एक सूत्र में पिरोया जाए। गांधी शांति प्रतिष्ठान में दो दिनों तक यह कोशिश होती रही।

Sunday, August 1, 2010

एक खास दिन



लोगों ने कुछ संदेश भेजे। अपना भी दिल बोला। यह ढूंढा अब यहां लगा रहा हूं।
ब्रजेश