Monday, March 29, 2010

आम आदमी का नहीं यह शहर


सरकार को खूबसूरत दिल्ली दिखाना है। इस बहाने हक की लड़ाई लड़ने वालों को महानगर से हटाया जा रह है। कई दिन हुए जंतर-मंतर का वजूद खत्म कर दिया गया। सरकार के खिलाफ अब यहां कोई चौबीस घंटे आवाज नहीं उठा सकता। ऐसा लगता है कि यहां से मुखर होता असहमति का स्वर मनमोहन सरकार को अब अच्छा नहीं लगता है। यह लोकतंत्र के लिए घातक है।

पुराने लोग बताते हैं कि यह दृश्य आपातकाल की उन परिस्थितियों से मिलता है, जब संजय गांधी को दिल्ली जहां कहीं गंदी दिखी, उसे उजाड़ दिया गया। खेल की आड़ में जंतर-मंतर साफ करा दिया गया। लोग कह रहे हैं, “आखिर यह कैसा लोकतंत्र है, जहां सरकार अहिंसक प्रतिरोध से भी डरती है। यकीनन यह घोषित आपातकाल नहीं है, पर एक बदतर लोकतंत्र है। ”

गत 20-25 वर्षों से जंतर-मंतर राजधानी में अभिव्यक्ति का बड़ा केंद्र रहा है। यह लंदन के उस हाइड पार्क जैसा मशहूर हो रहा था, जहां आम आदमी सरकार के किसी फैसले के खिलाफ मुखर विरोध करता है। लंदन में अभिव्यक्ति का वह केंद्र अब भी सुरक्षित है। दिल्ली में यह केंद्र गत साठ वर्षों में अपनी जगह बदलता रहा है।

सन् 1951 में दिल्ली से लगे क्षेत्रों के किसानों ने संसद भवन को चारों तरफ से घेर लिया था। संसद के गेट नंबर एक को जाम कर दिया। वे लोग भूमि अधिग्रहण का विरोध कर रहे थे। तब से प्रदर्शन का स्थल पटेल चौक कर दिया गया। अगले 15 सालों तक यही चौक अभिव्यक्ति का बड़ा केंद्र रहा।

पर, 7 नवंबर, 1966 को गोवध विरोधी रैली के दौरान हुई गोलीबारी के बाद वोट क्लब ने यह स्थान ले लिया। लोग बताते हैं कि उस दिन अटल बिहारी वाजपेयी ने जैसे ही अपना भाषण शुरू किया, उसी समय पहले आंसू गैस के गोले छोड़े गए। फिर गोली चली। खैर, इस घटना के बाद सन् 1986 तक वोट क्लब ही जमावड़ा स्थल रहा। जब वहां किसानों ने अभूतपूर्व प्रदर्शन किया तो इस जगह को भी हटा दिया गया। इसके बाद से ही जंतर-मंतर आबाद था। वैसे, रामलीला व लालकिला मैदान का भी अपना इतिहास है।

देश के तजुर्बेदार लोग कहते हैं लोकतंत्र मजबूत हो रहा है। इसकी जड़ें गहरी हो रही हैं। पर, उस लोकतंत्र का भविष्य क्या होगा, जहां असहमति के स्वर को मुखर होने से रोका जा रहा है। अब रात होते ही जंतर-मंतर पर पुलिस को देख कुत्ते भी शोर मचाने लगते हैं। आखिर उन्हें खाना देने वालों को इन लोगों ने भगाया है। अपराध तो बड़ा है।
09350975445

Wednesday, March 17, 2010

नजर पैदा कर



इस तस्वीर को देखकर इक बात याद आ गई। वह यह- शौके दीदार अगर है, तो नजर पैदा कर...

Tuesday, March 16, 2010

एक खत शांति के लिए



इंटरनेट पर तफरीह के दौरान यह खत मिला। बढ़िया लगा। सो यहां चस्पा कर रहा हूं।

Monday, March 8, 2010

महिला दिवस पर रजिया सुल्तान


चांदनी चौक के नजदीक तुर्कमान गेट से एक पतला रास्ता बुलबुली खान की तरफ जाता है। यही वह इलाका है जहां रजिया सुल्तान यानी इतिहास की पहली महिला सुल्तान को दफनाया गया था। आज इस कब्रगाह की हालत देखेंगे तो महिला दिवस का डंका बजाने वालों की हकीकत समझ में आएगी।

देखिए, देश के सबसे बड़े ओहदे पर महिला है। सरकार के भी कान खींच-खींचकर फिलहाल उसे एक महिला ही चला रही है। उसपर से दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का रुतबा देख लें। इनके राज में इल्तुतमिश की बेटी और एक जमाने की क्रांतिकारी महिला की कब्र उपेक्षित है। वह एक गौरवशाली इतिहास लिए लेटी है। अपनी कब्र पर एक छत को तरसती हुई।

हालांकि, रजिया सुल्तान का मकबरा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अंतर्गत आता है। इस विभाग का यहां एक पत्थर भी लगा है। यह सुल्तान के बारे में थोड़ी जानकारी भी देता है। पर, इस स्थान को लेकर वह इससे ज्यादा गंभीर नहीं। दरअसल दिवस तो दिखावा है..., हकीकत अब भी बुलबुली खान इलाके में है। जब जी करें देख आएं।



ये हैं रजिया सुल्तान के द्वारा चलाए गए सिक्के

श्रुति अवस्थी से पूरा हाल जानने के लिए प्रथम प्रवक्ता के धरोहर स्तंभ को पढ़ें

Wednesday, March 3, 2010

जीवन में होली

हर कहीं छुपा है होली का रंग। अब, शौके दीदार अगर है तो नजर पैदा कर


इस नजर से देखें


कला में होली का बिंब


एक जरूरी परिपाटी होली की


साथ का त्योहार

Tuesday, March 2, 2010

भांग- एक रंग कई चेहरे


यहां भी है भांग


देशी पदार्थ को गटक करने की नई रिवायत


इधर भी देखें


जड़ की तरफ लौटें


भांग का सही ठिकाना


इस तरल पदार्थ का मुरीद समाज का हर वर्ग है। होली का त्योहार हो तो फिर क्या कहने हैं। तस्वीर सही बताती है। बज्र देहात के चौपाल से ड्राइंग रूम तक भांग का सफर-

तस्वीर अंतरजाल से ली गई हैं। साभार